हिंदी-साहित्य में नाटक मौलिक रचनाओं द्वारा न आकर अनुवादों द्वारा प्रस्फुटित हुए हैं। मुस्लिम काल में लेखकों का ध्यान इस साहित्य की ओर इसलिए नहीं गया कि देश का वातावरण अव्यवस्थिति होने के कारण इसके प्रतिकूल था। मुसलमानों ने धार्मिक दृष्टि से भी इस प्रकार के साहित्य को नहीं पनपने दिया। केवल कुछ रियासतों में अवश्य नाटकों का प्रचार था और वहाँ पर रंगमंच भी थे। गद्य का विकास न होने के कारण भी नाटक लिखने की ओर लेखकों की अधिक रुचि नहीं हुई।
यों भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से पहले भी दो-चार नाटक हिंदी में उपलब्ध हैं परंतु वह रंगमंच पर सफलतापूर्वक नहीं लाए जा सकते थे। इसलिए भारतेंदु को ही हिंदी का प्रथम नाटककार मानते हैं। आपके छोटे-बड़े 18 नाटक मिलते हैं। यह मौलिक तथा अनुवाद दोनों प्रकार के हैं। ‘मुद्राराक्षस’ और ‘भारत दुर्दशा’ आपके प्रधान नाटक हैं। भारतेंदु बाबू ने अपने नाटक प्राचीन नाट्यशास्त्र के आधार पर लिखे हैं। उन पर संस्कृत के अतिरिक्त बँगला की प्रणाली का भी प्रभाव स्पष्ट है। रंगमंच के विचार से भी यह सफल नाटक सिद्ध हुए हैं।
‘केटोकृतांत’ के लेखक श्री तोताराम, रणधीर प्रेम’ के लेखक श्री लाला श्रीनिवासदास, केशोराम, गदाधर भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी, राधाकृष्णदास जी, अंबिकादत्त व्यास, सत्यनारायण कविरत्न, राजा लक्ष्मणसिंह, राधेश्याम कथावाचक इत्यादि इस काल के प्रमुख नाटककार हैं।
अन्य क्षेत्रों की भाँति नाटक की भी प्राचीन प्रणालियाँ परिवर्तित होने लगीं। दूसरा युग आया और नाटकों के पात्र देवताओं के स्थान पर साधारण सांसारिक मनुष्य बनने लगे। नाट्यशास्त्र के व्यर्थ के नियमों से भी नाटकारों ने अपने को मुक्त किया। रंगमंच के महत्त्व को समझकर नाटक ऐसे लिखे जाने लगे जिन्हें मंच पर प्रदर्शित किया जा सके। पद्य की अपेक्षा नाटकों में गद्य का अधिक प्रयोग हुआ। लेखकों ने सामाजिक कथाओं के आधार पर रचनाएँ लिखीं और राष्ट्रीयता का उनमें समावेश किया। इस काल में समस्यात्मक नाटक भी लिखे गए।
इस दूसरे युग के प्रतिनिधि नाटककार हैं श्री जयशंकर ‘प्रसाद’ जी। आपने प्राचीन रूढ़िवाद के विरुद्ध लेखनी उठाई और पूर्ण सफलता के साथ प्राचीन संस्कृति का प्रतिपादन करते हुए नाट्यशास्त्र के रूढ़िवाद को अपने नाटक में स्थान नहीं दिया। आपके नाटकों के अधिकतर कथानक भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित हैं। काल्पनिक नाटकों में भी प्राचीन भारत की सभ्यता झांकती दिखलाई देती है। अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त इत्यादि इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। जयशंकर ‘प्रसाद’ जी के साथ भी नाटक-साहित्य में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा कि उनके नाटक मंच के विचार से सफल नहीं बन पाए। उनका महत्त्व केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही प्रसारित होकर रह गया। जयशंकर ‘प्रसाद’ जी ने पात्रों का चरित्र चित्रण बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग पर किया है और उनके नाटकों में अंतर्द्वन्द्वों का समावेश प्रचुरता के साथ मिलता है।
इस काल में नाटक-साहित्य की एक प्रकार से काया ही पलट गई और एक नई विचारधारा के साथ मुक्त कवियों ने नाटक रचना में स्वतंत्रतापूर्वक भाग लिया। नाट्यशास्त्र के बंधन ढीले पड़ने पर नाटक-साहित्य में स्वाभाविकता को स्थान मिला और रंगमंच को विचार में रखते हुए रचनाएँ की गईं। इस कार्य में नाटक कंपनियों ने भी सहयोग दिया किन्तु उसका सहयोग मंच तक ही सीमित रह गया, साहित्यिक क्षेत्र में नहीं जा पाया। इसका प्रधान कारण यही रहा है कि नाटक कंपनी तथा सिनेमा वालों ने अच्छे साहित्य को नहीं अपनाया और अच्छे साहित्यिकों ने उस गंदगी में जाने से संकोच किया। जो गए भी, वह उस वातावरण को अपने अनुकूल नहीं बना सके।
बदरीनारायण भट्ट, माखनलाल चतुर्वेदी, ‘मिलिन्द’ गोविंद बल्लभ पंत, हरिकृष्ण प्रेमी, जी० पी० श्रीवास्तव, रामकुमार वर्मा, सुमित्रानंदन पंत सेठ गोविंददास तथा उदयशंकर भट्ट इत्यादि इस काल के प्रमुख नाटककार थे। इस दौर में नाटक-साहित्य काफी उन्नति कर रहा था और भविष्य में उन्नति की संभावना है। बँगला और अंग्रेजी के अनुवादों ने भी हिंदी साहित्य को सुंदर पुस्तकें प्रदान की हैं। और उनका यहाँ की मौलिक रचनाओं पर काफी प्रभाव पड़ा है। सजीव सामाजिक चित्रण, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, अभिनय योग्य कथानक, सरल भाषा, सरलता के साथ गीतों का माधुर्य, बस यही इस युग नाटकों की विशेषताएँ हैं जिनके कारण इस साहित्य को आज के पाठकों ने प्रोत्साहन दिया। हिंदी नाटक-साहित्य का भविष्य बहुत आशापूर्ण है। नई-से-नई रचना साहित्य में आ रही है। लेखक अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ नाटक-साहित्य का सृजन कर रहे हैं और गद्य के विकास ने उन्हें इस कार्य में पर्याप्त सहयोग दिया है। सिनेमाओं में भी अच्छे लेखक पहुँचने लगे हैं। हरि-कृष्ण प्रेमी, सुदर्शन, नरेंद्र शर्मा, प्रदीप इत्यादि के नाम इस दिशा में उल्लेखनीय हैं।