पद्मावत हिंदी साहित्य की प्रेमाश्रयी शाखा का प्रधान ग्रंथ है। इस शाखा के सभी सिद्धांतों का समावेश हमें पद्मावत में मिलता है। इस ग्रंथ के लेखक मलिक मुहम्मद जायसी हैं, जिन्होंने विशुद्ध अवधी भाषा में इस ग्रंथ की रचना की है। इनकी भाषा मानस जैसी परिष्कृत अवधी नहीं है, इसमें ग्रामीणता की झलक आ जाती है। हिंदी साहित्य में मिलने वाले प्रबंध-काव्यों में रामचरितमानस के पश्चात् पद्मावत का ही स्थान है और प्रेम-काव्यों में इसका स्थान सर्वप्रथम है। हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वानों का मत है कुछ दृष्टिकोणों से देखने पर यह हिंदी-साहित्य का सर्वप्रथम ग्रंथ ठहरता है।
प्रेम-तत्त्व का प्रतिपादन इस ग्रंथ में सूफी-सिद्धांतों के आधार पर किया गया है और आत्मा का संबंध स्त्री प्रेम के रूप में ही ईश्वरीय शक्ति के साथ कवि ने प्रदर्शित किया है। कवि का मत है कि सच्चा प्रेम यही ईश्वरीय प्रेम में परिवर्तित हो जाता है, यदि मनुष्य माया से अपने को मुक्त कर ले। पद्मावत का नायक रत्नसेन अपनी रानी नागमती-रूपी माया से अपने को मुक्त करके अनेकों कष्टों को सहन करता हुआ पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए जाता है और उसके प्रेम में योगी हो जाता है। पद्मावती उसकी परीक्षा करके अपना प्रेम उसके ऊपर अर्पित कर देती है। यह सब सूफ़ी सिद्धांतों के आधार पर होता है। कवि ने भौतिक प्रेम में सफलतापूर्वक पारिलौकिक प्रेम प्रदर्शित किया है।
ग्रंथ की कथा ऐतिहासिक है, परंतु कवि ने कल्पना के क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता से काम लिया है और काव्यात्मक सौंदर्य लाने में वह बहुत सफल हुआ है। विरह का वर्णन जायसी की विशेषता है। रत्नसेन के चले जाने पर नागमती का विरह वर्णन हिंदी साहित्य में अपने ढंग की अनोखी रचना है। इसकी तुलना केवल सूर के किए गए गोपियों के विरह-वर्णन से ही की जा सकती है, परंतु प्रबन्धात्मकता में बँधकर भी जिस मुक्त प्रवाह के साथ जायसी ने वर्णन किया है वह सराहनीय है। सूर और जायसी के किए वर्णन में साहित्यिक सौंदर्य का अंतर नहीं, अंतर केवल यह है कि सूर का वर्णन पूर्ण रूप से भारतीय ढंग पर हुआ है और जायसी का उर्दू ढंग पर। विरह-वर्णन में अत्युक्तियाँ अवश्य हैं परंतु जायसी की शैली और वातावरण के दृष्टिकोण से वह दोष प्रतीत नहीं होता।
पद्मावत आद्योपांत भाव और भावनाओं के निर्मल साँचे में ढला हुआ है। शब्द, अलंकार और भाषा का चमत्कार कवि ने काव्य में पैदा करने का प्रयत्न नहीं किया। ऐसा न करने का एक प्रधान कारण यह भी था कि जायसी कवि पहले थे और विद्वान् बाद में कवि ने स्वयं विद्वान् होने का दावा नहीं किया। उन्होंने लिखा है “हौं पंडितन केर पछ लगा”…….।
कवि ने स्वाभाविक अनुभूति और हृदय की मार्मिकता का निचोड़ पद्मावत में आदि से अंत तक भरने का प्रयत्न किया है। जिस विषय को भी लिया है उसका पूर्ण रूप से रसास्वादन वह अपने पाठकों को कराने में हर प्रकार से सफल हुआ है।
ज्योतिष, योग, शतरंज इत्यादि के सुंदर वर्णन इस काव्य में मिलते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि कवि को उन विषयों का पूर्ण ज्ञान था। कवि के वर्णन बहुत सजीव और सुंदर हैं। ज्ञान और प्रेम का जो सम्मिश्रण इस काव्य-ग्रंथ में किया गया है वह हिंदी के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं मिलता।
कबीर के काव्य में जिस प्रकार ज्ञान को प्रधान स्थान दिया गया है उसी प्रकार जायसी ने अपने काव्य में प्रेम को प्रधानता दी है। ज्ञान, योग और प्रेम के सम्मिश्रण से यह विषय भी चिंतन का बन गया है और इसलिए इसे भी विद्वान् रहस्यवाद के अंतर्गत ही गिनते हैं। कवि का दर्शन इस रहस्य में छिपा हुआ है। वह दर्शन कबीर पंथी ज्ञान, वैष्णव-भक्ति और सूफी-प्रेम का मिला-जुला स्वरूप है। भावनाएँ बहुत स्पष्ट हैं। रूपकों को समझने में अधिक कठि-नाई नहीं होती। यह सब होते हुए प्रेम-तत्त्व को समझने में कठिनाई होती ही है। सूफ़ी सिद्धांतों का पूर्ण ज्ञान हुए बिना प्रेम-तत्त्व को समझना कठिन है।
पद्मावत सुंदर साहित्यिक ग्रंथ होते हुए भी जनता में अधिक प्रचारित नहीं हो सका। इसका प्रधान कारण यही था कि उस काल में जनसाधारण साहित्य को साहित्य के लिए न पढ़कर धार्मिक दृष्टिकोण से अधिक पढ़ते थे। जायसी का धार्मिक दृष्टिकोण उसकी अपनी कल्पना थी, जो भारतीय जनता का धर्म सिद्धांत नहीं बन सकी। यही प्रधान कारण था कि इस ग्रंथ का भी अधिक प्रचार नहीं हो सका। परंतु उस काल में इसका प्रचार न होते हुए भी आज का साहित्यिक समुदाय इस महान् ग्रंथ के मूल्यांकन में भूल नहीं कर सकता। हिंदी-साहित्य में इस ग्रंथ का बहुत बड़ा मूल्य है और इसने एक युग की एक विशेष धारा का प्रतिनिधित्व किया है।