Sahityik Nibandh

सूर और उनका साहित्य

surdas ki sahitya sadhana par el kaghu adhyyan

“सूर सूर तुलसी ससी उड़ुगन केशवदास” यह पंक्ति हिंदी पढ़ी-लिखी जनता में बहुत प्रचलित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूर पर गोस्वामी तुलसीदास को प्रधानता दी है, परंतु इसमें कुछ संदेह नहीं कि यह दोनों ही कवि हिंदी साहित्य के प्राण हैं। सूरदास जी श्री वल्लभाचार्य के शिष्य, पुष्टि-मार्गी वैष्णव भक्त थे। आपने अपने समस्त साहित्य में कृष्ण लीलाओं का ही गान किया है। सूरसागर, साहित्य लहरी और सूरसारावली सूरदास जी के यही तीन ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। साहित्य लहरी सूरदास जी के कूट पदों का संग्रह है, जो सूर-सागर में यत्र-तत्र बिखरे हुए मिलते हैं। सूरदास का हिंदी-साहित्य में सूर्य अथवा चंद्रमा होना सूर-सागर पर ही आधारित है।

सूर-सागर की कथा श्रीमद्भागवत के अनुसार स्कंधों में विभाजित है पहले नौ और अंतिम दो स्कंध भागवत से बिलकुल मिलते हैं। भागवत की सभी कथाओं का गान सूर-सागर में नहीं मिलता। कुछ कथाओं में कवि ने परिवर्तन भी कर दिया है। सूर-सागर के दशम् स्कंध में श्रमद्भागवत की छाप अवश्य है, पर उसमें मौलिकता भी बहुत पाई जाती है। इस स्कंध में छंदोबद्ध कथा के बीच-बीच में पद पाए जाते हैं। संभवतः पहले कथा लिखी गई है और फिर स्थानानुकूल फुटकर पदों को कवि ने इस बृहद् ग्रंथ में रख दिया है। यही कारण है कि इन पदों में अनेकों कथाओं की पुनरुक्ति मिलती है। सूर-सागर के इस स्कंध में खंडित, फाग और मान इत्यादि के जो पद मिलते हैं उनका वर्णन श्रीमद्भागवत में नहीं मिलता। वह पद कवि ने स्वतंत्र रूप से लिखकर बाद में सूर-सागर में रखे हैं।

सुर-सागर के दशम स्कंध को सूर साहित्य का दर्पण मानना चाहिए। सूर की बाल लीलाओं में कालिय-दमन और इंद्र-गर्व हरण के चित्रणों में भी कवि की उत्तमतम प्रतिभा के दर्शन होते हैं। इन चित्रणों में कवि ने भागवत् की कथाओं का तथा कुछ नवीन कथाओं का बहुत मौलिक ढंग से चित्रण किया है। इन चित्रणों में मानवीय भावनाओं का अलौकिक चित्रणों के साथ समावेश हुआ है।

सूर ने कृष्ण के बाल लीला के जो लौकिक चित्र अंकित किए हैं, वह हिंदी साहित्य ही नहीं वरन् बाल-विज्ञान के पंडितों का मत है कि अन्य साहित्यों में भी उनकी समानता नहीं मिलती। कृष्ण की बाल लीला और नंद-यशोदा का वात्सल्य सूर की अमर निधियाँ हैं। उन्हें कवि ने अमूल्य रत्नों की भाँति सूर-सागर में सजाकर रखा हुआ है। “गोस्वामी जी ने भी गीतावली में बाल-लीला को सूर की देखा-देखी बहुत अधिक विस्तार से दिया सही पर उसमें बालसुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रूप-दर्शन की प्रचुरता रही।”

-रामचंद्र शुक्ल

बाल चित्रण के कुछ नमूने देखिए-

1. सोभित कर नवनीत लिए।

घुटरुन चलत, रेनु तन मण्डित, मुख दधि लेप किए।

2. सिखवत चलत यशोदा मैया।

अरबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धरे पैया।

‘स्पर्धा’ का देखिए कितना सुंदर भाव है?

3. मैया कर्बाह बढ़े गो चोटी?

किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ हैं छोटी॥

तू तो कहती ‘बल’ को बेनी ज्यों हूं’ है लांबी मोटी।

सूर-साहित्य में जहाँ वात्सल्य का इतना सुंदर चित्रण है वहाँ शृंगार के भी दोनों पक्षों को खूब निभाया है। जब तक श्रीकृष्ण गोकुल में रहे उस समय तक उनका चित्रण शृंगार के संयोग-पक्ष के अंतर्गत आता है। बाल लीला, माखन-लीला, रास लीला इत्यादि पर अनेकों संयोग-पक्ष के पद कवि ने लिखे हैं। किशोर कृष्ण की प्रेम लीलाएँ भागवत् से सूर ने ली हैं, परंतु चीर-हरण इत्यादि लीलाओं में मौलिकता का अभाव नहीं है। राधा की कथा सूर की अपनी उपज है। राधा-कृष्ण के मिलन और विछोह की कथा में कवि ने शृंगार का सुंदरतम चित्रण किया है। भाव और विभाव दोनों पक्षों पर बहुत अनूठे और विस्तृत चित्रण सूर-सागर में मिलते हैं। राधा-कृष्ण के रूप-वर्णन के अनेकों ऐसे पद सूर-सागर में आए हैं जिनमें उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा आदि की प्रचुरता है। नेत्रों के प्रति उपालंभ का एक चित्र देखिए-

मेरे नैना विरह की बेल बई।

सींचत नैन-नीर के सजनी ! मूल पतार गई॥

बिगसति लता सुभाय-आपने छाया सघन भई।

अब कैसे निसवारों सजनी, सब तन पसरि छई॥

X       X       X

देख री ! हरि के चंचल नैन।

खंजन, मीन, मृगज, चपलाई, नह पठतर एक सैन॥

जिवदल इन्दीवर, शतदल कमल कुशेशय जाति।

निसि मुद्रित प्रातहि वै विगसत, ये विगसे दितराति।

कालिंदी कूल पर रास का इतना मनोहर चित्रण कवि ने किया है कि उसे देखने के लिए देवता पृथ्वी पर उतर आए हैं। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर तो गोपियों के विरह-सागर का वार पर ही नहीं रहता। वियोग में वियोगिनी की जितनी प्रकार की दशा हो सकती है सभी का चित्रण कवि ने किया है। गोपियाँ कृष्ण को याद करती हुई वृंदावन के हरे-भरे वनों को कोसती हैं-

“मधुबन तुम कत रहत हरे?

बिरह-वियोग श्याम सुंदर के ठाड़ै क्यों न जरे?”

वियोग-वर्णन में चंद्रोपालंभ का सुंदर चित्रण मिलता है। इन चित्रणों में सूर ने नवीन प्रसंगों की जो उद्भावना की है वह सूर की विशेषता है। कृष्ण-भक्ति धारा में बाह्यार्थ विधान की प्रधानता रहने के कारण केलि, विलास, रास, छेड़-छाड़, मिलन बिछोह, मान इत्यादि बाहरी बातों का ही चित्रण सूर-सागर में विशेष रूप से मिलता है। वियोग वर्णन में संचारियों का समावेश परंपरागत है, उनमें नवीन उपमाओं का अभाव है। अभ्यान्तर पक्ष का उद्घाटन सूर के भ्रमर गीत में मिलता है। प्रेम विह्वल गोपियों के हृदयों की न जाने कितनी भावनाओं का अनूठा चित्रण कवि ने भ्रमर गीत में किया है? भावनाओं का तो यहाँ समुद्र ही उड़ेल दिया है। यह सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी भाग है। वाग्वैदग्धता भी इसमें पराकाष्ठा को पहुँच गई है। ऊद्धव गोपियों को ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश करते हैं तो वह कहती हैं-

“निर्गुण कौन स को बासी?

मधुकर हँसि समुझाय, सौह दे, बूझति साँचि न हाँसी।”

इस प्रकार सूर ने भ्रमर गीत में निर्गुण उपासना का उपहास किया है और सगुणोपासना का प्रतिपादन। यह सगुण और निर्गुण के संवाद कवि के मौलिक हैं, श्रीमद्भगवत् में नहीं मिलते। सूर की कविता का जो मौलिक अंश है वह कवि की अलौकिक प्रतिभा का द्योतक है और शेष छंदोबद्ध कथा में वह सौंदर्य नहीं आ पाया जो मुक्तक पदों में है। सूर की कविता में बहिर्पक्ष प्रधान रहते हुए भी अंतरंग भावनाओं की कमी नहीं है और उनमें शृंगार के साथ भक्ति की ही महानता मिलती है। विद्यापति इत्यादि की भाँति रीति की नहीं। यह सूर की प्रधानता है। नायिका भेद, परकीया, अभिसार, इत्यादि विषयों पर सूर ने लेखनी नहीं उठाई। खंडिता का विचार करते समय भी कवि ने आध्यात्मिक पक्ष को ही प्रधानता दी है। कवि ने काव्य-शास्त्र का प्रयोग भक्ति की पुष्टि के लिए किया है, उसे विषय मानकर नहीं। सूर के शृंगार में आध्यात्मिक पक्ष प्रधान होने के कारण सूर की गोपियों के चरित्र उतने विकसित नहीं हो पाए जितने ऐसे प्रतिभाशाली कवि द्वारा होने चाहिए थे। राधा के प्रति उनमें ईर्ष्या होने के स्थान पर उल्टी वह राधा की सुंदर छवि पर मोहित हो जाती हैं।

सूर-सागर में अलग से रखे हुए पद प्रतीत होने पर भी प्रबंधात्मकता मिलती है। गीतात्मकता और प्रबंधात्मकता का सुंदर सम्मिश्रण हमें सूर-सागर में मिलता है। सुर-सागर में क्रमबद्धता की कमी नहीं है। क्रम पर कवि ने ध्यान दिया है। फुटकर पद बिलकुल पृथक् हैं।

अंत में हम यही कहेंगे कि सूर जैसा वात्सल्य और शृंगार का कवि, जिसने पूर्ण भक्ति भावनाओं से ओत-प्रोत होकर अपना साहित्य सृजन किया हो, कोई अन्य कवि नहीं हुआ। सूर के साहित्य पर हिंदी को अभिमान है और वात्सल्य-चित्रण में सूर-सागर के स्वाभाविक पद उच्चतम साहित्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page