नर हो, न निराश करो मन को
इस पाठ को पढ़ने के बाद आप ये जान/बता पाएँगे
- मानव जीवन का महत्त्व।
- सुयोग को पहचानने की कला।
- सफलता तक न पहुँच पाने के कारण।
- कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की जानकारी।
- शब्द आवृत्ति के कारण
- कीर्तियाँ स्थापित करना
- अन्य जानकारियाँ।
कवि परिचय – मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964)
जीवन वृत्त
1886 में झाँसी के करीब चिरगाँव में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त अपने जीवनकाल में ही राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए। इनकी शिक्षा—दीक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत, बांग्ला, मराठी और अंग्रेज़ी पर इनका समान अधिकार था।
गुप्त जी रामभक्त कवि हैं। राम का कीर्तिगान इनकी चिरसंचित अभिलाषा रही। इन्होंने भारतीय जीवन को समग्रता में समझने और प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया। गुप्त जी की कविता की भाषा विशुद्ध खड़ी बोली है। भाषा पर संस्कृत का प्रभाव है। काव्य की कथावस्तु भारतीय इतिहास के ऐसे अंशों से ली गई है जो भारत के अतीत का स्वर्ण चित्र पाठक के सामने उपस्थित करते हैं।
साहित्यिक संवेदना
मैथिलीशरण युगचेतना के साथ चले। पराधीन भारत में उन्होंने लिखना शुरू किया। देश प्रेम उनकी रचनाओं का मुख्य स्वर है। भारत का अतीत गौरव, वर्तमान की दुर्दशा, समाज सुधार, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरुकता, वीरता का चित्रण उनके काव्य की विशेषताएँ हैं। उनकी अधिकांश रचनाएँ ऐतिहासिक और पौराणिक हैं। वे भारतीय संस्कृति के उपासक थे तथा वेष्णव धर्म के संरक्षक। उनकी रचनाओं में छायावादी सौंदर्य चेतना और काव्य-शैली भी मिलती है। द्विवेदी युग और छायावाद युग के वे सेतु जैसे हैं।
मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया। सरल, अर्थगर्भित और परिमार्जित भाषा का प्रयोग उनकी विशेषता है। रचनाओं में साधारण स्थल हैं तो काव्यात्मकता से भरी मधुर पक्तियाँ भी हैं।
कृतित्व
गुप्त जी की प्रमुख कृतियाँ हैं – रंग में भंग (1932), जयद्रथ वध (1910), भारत भारती (1911), मोर्य विजय (1915), पंचवटी (1925), अनघ (1925), स्वदेश – संगीत ( 1925), हिंदू (1927), त्रिपथगा (1925), साकेत (1932), यशोधरा (1933), प्रदक्षिणा (1951) पृथ्वी पुत्र (1951), जय भारत (1952), अर्जन विसर्जन, विश्ववेदना, हिडिंबा, अंजलि, विष्णुप्रिया। इनमें अधिकांश खंडकाव्य हैं। ‘साकेत’ महाकाव्य है। गुप्त जी के पिता सेठ रामचरण दास भी कवि थे और इनके छोटे भाई सियारामशरण गुप्त भी प्रसिद्ध कवि हुए।
कविता परिचय
कवि देशवासियों से आग्रह करता है कि कुछ ऐसे काम करो कि जिससे संसार में तुम्हारा यश हो, नाम हो। मानव का जीवन अनमोल है, दुर्लभ है। इसे बेकार नष्ट न करो, समझो। मन को उपयुक्त करो। निराश मत हो जाओ।
सुयोग हाथ आया है तो चला भी जाएगा। इसलिए वक्त रहते काम में लग जाओ। सत्कर्म कभी बेकार नहीं जाता। यह संसार सपना नहीं है, मिथ्या नहीं है। अपना रास्ता खुद बनाओ। ईश्वर अवलंबन हैं। वह सर्वदा विराजमान है। वे दया करेंगे ही। इसलिए अपने मन को निराश न करो।
मनुष्य अपने स्वाभिमान और इज्जत का खयाल सर्वदा रखे। हमें अपने को अत्यंत लघु नहीं समझना चाहिए। आत्मविश्वास रखना चाहिए। सब जाए पर अपना गौरव संभाले रखो। मरने पर भी नाम सुना जाए। अपनी साधना को कभी न छोड़ो। निराश मत हो जाओ।
ईश्वर ने तुमको कर्म करने का साधन – हाथ (कर) दिए हैं। सब तरह की सुविधाएँ दी हैं। तुम्हारी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी। अगर तुम उद्यम न करोगे, तो सफलता कैसे मिलेगी? इसलिए उनको पाने की चेष्टा करो। तुम न करोगे तो दोष किसका है? कोई वस्तु उद्यम करने पर अलभ्य नहीं रहेगी। इसलिए निराश न हो।
मैथिलीशरण गुप्त नवजागरण युग के प्रतिनिधि कवि हैं। उस समय देश की जनता में चेतना जगाने का प्रयास चल रहा था। निराश सुप्त, आलसी जन-जन को कर्मठ बनाना था; उनमें देशप्रेम जगाना था; स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करना था। शायद इसलिए इन्होंने यह कविता लिखी थी।
संस्कृत में एक श्लोक है- “उद्यमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथेः, नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।” भारतवासियों को अपना भाग्य बनाना होगा। इसके लिए उन्हें कठिन श्रम करना पड़ेगा- यह संदेश इस कविता के माध्यम से दिया गया है। “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत।”
नर हो, न निराश करो मन को
कविता की व्याख्या
पद – 1
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को
शब्दार्थ
जग – दुनिया
अर्थ – मतलब
अहो – है
व्यर्थ – फिज़ूल
उपयुक्त – सही
तन – शरीर
निराश – Disappointment
व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि हमसे अपील करते हुए कह रहे हैं कि हमें अपने आपको सुकर्मों में संलग्न रखना चाहिए, तभी जाकर जग में हमारा नाम होगा। हमें जो यह मानव जीवन प्राप्त हुआ है ये सही मायनों में तभी सार्थक हो सकेगा जब हम बिना समय बर्बाद किए इसके उत्थान हेतु अपना सर्वस्व नियोजित कर दें। हम अनेक बार खुद को ऐसी परिस्थितियों में भी पाते है जब निराशा चारों ओर से हमें घेरने को तैयार खड़ी रहती है फिर भी हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि हम नर है, प्राणी श्रेष्ठ हैं। निराश होना और हाथ बाँधकर बैठ जाना ये मानवोचित गुण नहीं है।
पद – 2
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को
शब्दार्थ
सुयोग – कसम, सौगंध
व्यर्थ – रुकना
सदुपाय – (सत् + उपाय) उचित उपाय
निरा – केवल
पथ – मार्ग
प्रशस्त – समृद्ध
अखिलेश्वर – ईश्वर
अवलंबन – सहारा
व्याख्या – कविता की इन पंक्तियों में कवि हमें यह उपदेश दे रहे हैं कि तुम अपने को संभालो ताकि अच्छा समय यूँही न निकल जाए। अच्छा कार्य कभी निष्फल नहीं होता। जग को एक सपना न समझो, अपना रास्ता स्वयं निकालो। भगवान सहायता करने के लिए हैं। तुम्हारे लिए सब तत्त्व उपलब्ध हैं ।
पद – 3
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को
शब्दार्थ
गौरव – Glory
नित – हमेशा
मरणोत्तर – मरने के बाद
गुंजित – गूँजता हुआ
तज़ो – त्याग करना
निज – अपना
साधन – माध्यम
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों का आशय यह है कि तुम उठकर अमृत पान करो और अमरत्व प्राप्त करो। हमेशा अपने स्वाभिमान का ध्यान रखो, सब कुछ चला जाए पर सम्मान न जाए। कुछ भी हो जाए पर अपनी साधना मत छोड़ो। मानव जीवन पाकर किसी भी दशा में मन मन को निराश मत होने दो।
पद – 4
प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को
शब्दार्थ
वांछित – जिसकी इच्छा की गई हो
विधान – उपलब्ध
दोष – कसूर
अलभ्य – जिसे प्राप्त न किया जा सके
धन – संपत्ति
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों का आशय यह है कि ईश्वर ने हमें सारी चीज़ें उपलब्ध करवा दी हैं। हमारे शरीर से लेकर मन मस्तिष्क तक इतने उत्तम कोटि के साधन है कि इनके बूते पर हम कुछ भी हासिल करने में सक्षम हैं। ये हमारी कमज़ोरी है कि इतने श्रेष्ठ साधनों के बाद भी हम अधम नर की तरह जीवन यापन करते हैं और रह-रहकर ईश्वर से अपने बदनसीब होने के रोना रोते हैं। याद रहे इस दुनिया में कोई भी ऐसा लक्ष्य नहीं है जिसे दृढ़-संकल्पित व्यक्ति ने हासिल न किया हो।
1. नीचे दिए गए बहुविकल्पीय प्रश्नों के सही विकल्प का चयन कीजिए-
1. जग में रहकर कुछ ________ करो।
क. काम
ख. नाम
ग. धाम
घ. जाम
उत्तर – ख. नाम
2. निराश न होकर मन को क्या करना होगा?
क. उपयुक्त
ख. संयुक्त
ग. वियुक्त
घ. नियुक्त
उत्तर – क. उपयुक्त
3. जगत को क्या नहीं समझना चाहिए?
क. व्यर्थ सपना
ख. कर्म करना
ग. निरा सपना
घ. घर अपना
उत्तर – ग. निरा सपना
4. प्रभु ने तुम्हें क्या दान दिया है?
क. प्रखर
ख. द्वार
ग. धन
घ. कर
उत्तर – घ. कर
2.निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में दीजिए-
1. यह जन्म किस अर्थ हुआ है?
उत्तर – मानव योनि में हमारा जन्म बड़े एवं महान काम करने के लिए हुआ है।
2. सुयोग चला न जाए इसलिए क्या करना होगा?
उत्तर – सुयोग चला न जाए इसलिए हमें सँभलना होगा और सुयोग का सही समय पर लाभ उठाना होगा।
3. अपने पथ को कौन प्रशस्त करेगा?
उत्तर – अपने पथ को वही प्रशस्त करेगा जो जग को सपना न समझकर यथार्थ जानकार एनआईटी सुकर्मों में लीन रहे।
4. अवलंबन हमारा कौन है?
उत्तर – अखिलेश्वर यानी ईश्वर हमारा अवलंबन (सहारा) हैं।
3. नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर तीन-चार वाक्यों में दीजिए-
1. जीवन में निराश न होते हुए क्या करना चाहिए?
उत्तर – मनुष्य के जीवन में आशा और निराशा धूप-छाँव की तरह होती है। जीवन की इस परिवर्तनशीलता को देख कर व्यक्ति दुखों व संघर्षों से घबरा कर निराश हो जाता है। लगातार असफलताएँ व्यक्ति की मानसिकता को कमजोर कर देती हैं और उसे अपने चारो ओर अंधकार दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में भी मनुष्य को जुझारू होते हुए जीत न मिलने तक प्रयत्नशील रहना चाहिए।
2. सब जाए लेकिन क्या सुरक्षित रहना चाहिए और क्यों?
उत्तर – सब जाए लेकिन स्वाभिमान सुरक्षित रहना चाहिए और क्योंकि यह स्वाभिमान ही होता है जो हमारी सफलता को किसी भी तरह के दोष से मुक्त रखता है। हमें हमेशा अपने स्वाभिमान का का ध्यान रखना चाहिए। सब कुछ चला जाए पर सम्मान न जाए।
3. किसी धन को अलभ्य क्यों नहीं समझना चाहिए?
उत्तर – किसी धन (यहाँ धन का असल अर्थ ‘लक्ष्य’ है) को अलभ्य नहीं समझना चाहिए क्योंकि दुनिया की प्रगति का कारण हम मनुष्य ही हैं। इस दुनिया का कोई भी ऐसा लक्ष्य निर्धारित ही नहीं हुआ है जिसे मनुष्य ने अपने बाहुबल और मनोबल से प्राप्त न कर लिया हो। किसी विद्वान् ने कहा है – “मन के हारे हार है ,मन के जीते जीत।” जब तक मनुष्य को अपने मानसिक बल पर विश्वास होता है उसे कोई नहीं हरा सकता है लेकिन जब मन मर जाता है तो व्यक्ति अंदर से ही हार जाता है।
4. नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर विस्तार से दीजिए-
1. जगत में नाम करने के लिए क्या-क्या करना होगा?
उत्तर – अगर सफलता मंजिल है, तो असफलता वह रास्ता है जो हमें इस मंजिल तक पहुँचाता है। यही वजह है कि महापुरुषों ने इन दोनों में ही आशा की किरण देखी है। छोटी-छोटी असफलताएँ ही आगे चलकर बड़ी सफलता का आधार बनती हैं। आज के कुछ नादान और कमजोर लोग भले ही छोटी-मोटी नाकामयाबी से भी निराश होकर जीवन से हार मान लेते हों, लेकिन जुझारू लोग अपनी कश्ती इस तूफ़ान में भी पार लगाने में कामयाब हो जाते हैं।
यदि असफलता का एक मात्र परिणाम आत्महत्या ही होता, तो दुनिया में सभी सफल व्यक्ति खत्म हो चुके होते, क्योंकि आज के सभी सफल व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी असफल जरूर हुए हैं। यहाँ तक कि भगवान ने भी मनुष्य रूप में जन्म लेकर तरह-तरह के कष्ट उठाए और कई असफलताएँ भी झेलीं।
दुनिया में ऐसे न जाने कितने ही लोग हैं जो किसी एक क्षेत्र में अच्छा काम नहीं कर सके और लगातार असफल होते रहे, लेकिन निरंतर प्रयास व मेहनत के बाद जब उन्हें कामयाबी मिली, तो वे पूरे संसार के लिए एक मिसाल साबित हुए। जीवन में हारना भी ज़रूरी है।
इसलिए हमें अपने मन को ना ही निराश करना है और ना ही अकर्मण्य बनने देना है। हमें तो कर्म में लीन रहना है और सुयोग का लाभ उठाना है।
2. नर को क्यों निराश नहीं होना चाहिए?
उत्तर – हार से ही जीतने का रास्ता मिलता है क्योंकि एक या एकाधिक बार आप हार का कड़वा स्वाद चख चुके होते हैं। असफलता के बाद सफलता का मौका हमेशा आपके पास होता है, लेकिन निराश होकर आत्महंता बनने वाले लोग अपने सभी मौके खो देते हैं। आत्महत्या सफलता के सारे रास्ते बंद कर देती है। इसलिए स्वयं को एक और मौका देने का रास्ता हमेशा आपके पास होना चाहिए। किसी भी संकट में धैर्य ही काम आता है। परिस्थितियों से घबराकर पीठ दिखाने वालों से तो भगवान भी किनारा कर लेते हैं। सफलता उनका ही साथ देती है, जो हर पल आशा की डोर थामे रहते हैं। सामने चाहे कितना ही घना अँधेरा क्यों न हो, पर अगर आप रोशनी की आस में चलते रहेंगे, तो उस तक पहुँच ही जाएँगे।
हमें जो यह मानव जीवन प्राप्त हुआ है ये सही मायनों में तभी सार्थक हो सकेगा जब हम बिना समय बर्बाद किए इसके उत्थान हेतु अपना सर्वस्व नियोजित कर दें। हम अनेक बार खुद को ऐसी परिस्थितियों में भी पाते है जब निराशा चारों ओर से हमें घेरने को तैयार खड़ी रहती है फिर भी हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि हम नर है, प्राणी श्रेष्ठ हैं। निराश होना और हाथ बाँधकर बैठ जाना ये मानवोचित गुण नहीं है।
3. प्रभु ने तुमको क्या-क्या दिया है और तुम्हें क्या-क्या करना आवश्यक है?
उत्तर – ईश्वर ने हमें सारी चीज़ें उपलब्ध करवा दी हैं। हमारे शरीर से लेकर मन मस्तिष्क तक इतने उत्तम कोटि के साधन है कि इनके बूते पर हम कुछ भी हासिल करने में सक्षम हैं। ये हमारी कमज़ोरी है कि इतने श्रेष्ठ साधनों के बाद भी हम अधम नर की तरह जीवन यापन करते हैं और रह-रहकर ईश्वर से अपने बदनसीब होने के रोना रोते हैं। याद रहे इस दुनिया में कोई भी ऐसा लक्ष्य नहीं है जिसे दृढ़-संकल्पित व्यक्ति ने हासिल न किया हो। अगर आप जीवन में संघर्ष करेंगे तो आपको सफलता ज़रुर मिलेगी। जो लोग भगवान पर सब कुछ छोड़ देते हैं और खुद संघर्ष नहीं करते उनका साथ भगवान भी नहीं देता है। निरंतर संघर्ष करना ही जीवन है। >
एक नर होकर निराश होना उसके लिए शोभा की बात नहीं होती है। जो लोग हिम्मत हार कर या निराश होकर बैठ जाते हैं उनकी हालत बिलकुल वैसी होती है जैसी हालत मणि के बिना साँप की होती है। हिम्मत और उत्साह ही मनुष्य की जिन्दगी में सार्थकता प्रदान करते हैं इसके बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ होता है। जब मनुष्य सार्थकता को खो देता है तो वह नर कहलाने के लायक नहीं रह जाता है। इसी वजह से कहा गया है कि नर होकर मन को निराश मत करो।
कविता के कुछ स्मरणीय बिंदु
- ‘नर हो न निराश करो मन को’ कविता के कवि का नाम मैथिलीशरण गुप्त है।
- इस कविता में सफलता के सुपरिणामों और आत्म-प्रेरणा की बातें कही गई हैं।
- शब्दों की आवृत्ति से लयात्मकता के साथ-साथ कविता सुंदर बन पड़ी है।
- कविता जीवन आधारित मूल्यों एवं अनुभूतियों पर आधारित है।
- कविता में दृढ़-संकल्पित होने की बात कही गई है।
- कवि मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि के नाम से विख्यात हैं।