सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
(जन्म : 7 मार्च 1911 – मृत्यु 4 अप्रैल 1987)
अज्ञेय जी का जन्म सन् 1911 ई. को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया गाँव में हुआ। पिता डॉ. हीरानंद शास्त्री पुरातत्त्वविद् थे। अपने पिता के साथ उनका अधिक समय कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। उन्होंने संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी हिंदी आदि कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। अज्ञेय का पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय था। उनका व्यक्तित्व क्रांतिकारी था। एम.ए. की पढ़ाई के दौरान वे क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हुए थे। 1930 में गिरफ्तार होकर चार साल तक जेल में रहे और दो साल नजरबंदी में। उसके बाद किसान आंदोलन में हिस्सा लिया।
अज्ञेय जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार हैं। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, यात्रा वृतांत आदि विधाओं में लेखनी चलाई। ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’ और ‘वाक्’ (अंग्रेजी) आदि पत्रिकाओं का संपादन किया। ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में भी नौकरी की। 1943 से 1945 तक सेना में रहे। उन्होंने समाचार पत्र ‘दिनमान’, ‘नया प्रतीक’ ‘नवभारत टाइम्स’ का कुशलतापूर्वक संपादन किया। ‘प्रयोगवाद’ के प्रवर्तक अज्ञेय ने भी 1943 में ‘तारसप्तक’ का संपादन किया। सन् 1964 ई में आँगन के पार द्वार’ काव्य संकलन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। फिर ‘कितनी नावों में कितनी बार’ कविता-संग्रह पर उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
प्रमुख रचनाएँ
काव्य संग्रह:- इत्यलम्, बावरा अहेरी, हरी घास पर क्षण भर, आँगन के पार द्वार, असाध्य वीणा आदि
उपन्यास : शेखर: एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी
कहानी-संग्रह : विपथगा, शरणार्थी, छोड़ा हुआ रास्ता, लौटती पगडंडियाँ
यात्रावृतांत : अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली
आलोचना : त्रिशंकु, आत्मनेपद
खितीन बाबू
वो चेहरे। कौन से चेहरे? कौन सा चेहरा? जो जीवन भर चेहरों की स्मृतियाँ संग्रह करता आया है, उसके लिए यह बहुत कठिन है कि किसी एक चेहरे को अलग निकालकर कह दे कि यह चेहरा मुझे नहीं भूलता; क्योंकि जिसने भी जो चेहरा वास्तव में देखा है, सचमुच देखा है, वह उसे भूल ही नहीं सकता- फिर वह चेहरा मुनष्य का न होकर चाहे पशु-पक्षी का ही क्यों न हो… यूरोपीय को हर हिंदुस्तानी का चेहरा एक जान पड़ता है; हिंदुस्तानी को हर फिरंगी का चेहरा एक मानव को सब पशु एक-से दिखते हैं। वह भी एक तरह का देखना ही है। लेकिन जिसने सचमुच कोई भी चेहरा देखा है, वह जानता है कि हर व्यक्ति अद्वितीय है, हर चेहरा स्मरणीय सवाल यही है कि हम उसके विशिष्ट पहलू को देखने की आँखें रखते हों।
मैं भी जब किसी एक चेहरे पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ, तो और अनेक चेहरे सामने आकर उलाहना देते हैं- ‘क्या हम नहीं? क्या हमें तुम भूल गए हो?’ इनमें पुरुष हैं, स्त्रियाँ हैं, बच्चे हैं; इतर प्राणियों में घोड़े हैं; कुत्ते हैं, तोते हैं; एक गिलहरी है, जो मैंने पाली थी और मेरी जेब में रहती थी; एक मुनाल (एक पहाड़ी पक्षी) जो मेरी गोली से घायल होकर चीखता हुआ मीलों दौड़ा था; एक कुत्ता है, मेरी बीमारी में मेरे सिरहाने बैठकर आँसू गिराता था; एक टूटी चोंच और पंख वाला कौआ है, जो मुलतान जेल में मेरा दोस्त बना था और ‘परकटे’ से पुकारने पर आधा उड़ता और उचकता हुआ आकर हाजिर हो जाता है – कहाँ तक गिनाया जाए, पेड़-पौधों के हम चेहरे नहीं मानते, नहीं तो शायद वे भी सामने आ खड़े होते। कालिदास ने शकुंतला के जाने पर रोती हुई बनस्पतियों है। वर्णन किया है?
“अपसृतपाण्डुपन्ना मुंचति अश्रु इल लताः।”
मेरी सहानुभूति उतनी दूर तक शायद नहीं है, लेकिन चेहरों का मेरे पास यथेष्ट संग्रह है-सभी अद्वित्तीय, सभी स्मरणीय। अगर एक सुनता हूँ, तो किसी असाधारणत्व के लिए नहीं चुनता हूँ एक अत्यंत साधारण व्यक्ति का अत्यंत साधारण चेहरा; क्योंकि यही तो में कहना चाहता हूँ- असाधारण ही स्मरणीय नहीं है, हर गुदड़ी में लाल है, जरा उसे लौटकर झाँकने का कष्ट तो करो।
वो चेहरे। वह एक चेहरा खितीन बाबू का चेहरा न सुंदर था, न असाधारण; न वह ‘बड़े आदमी’ ही थे- साधारण पढ़े लिखे, साधारण क्लर्क। मैंने पहले-पहल उन्हें देखा, तो कोई देखने की बात उनमें नहीं थी। इतना ही कि औरों से कुछ कम उनके पास देखने के लायक था। चेचक के दागों से भरे चेहरे पर एक आँख गायब थी और एक बाँह भी नहीं थी – कोट की आस्तीन पिन लगाकर बदन के साथ जोड़ दी गई थी। काने को अपशकुन तो मानते ही हैं, अति चतुर भी मानते हैं; पर खितीन बाबू की हँसी में एक विलक्षण खुलापन और ऋजुता थी, इसलिए बाद में औरों से उनके बारे में पूछा, तो मालूम हुआ, आँख बचपन में चेचक के कारण जाती रही थी, बाँह पेड़ से गिरने पर टूट गई थी और कटवा देनी पड़ी। उनके हँसमुख और मिलनसार स्वभाव की सभी प्रशंसा करते थे।
मेरी उनसे भेंट अचानक एक मित्र के घर हो गई थी। मैं दौरे पर जाने वाला था, इसलिए दोस्तों से मिल रहा था। दो-तीन महीने घूम-घाम कर फिर आया; लेकिन खितीन बाबू के दर्शन कोई छह महीने बाद उन्हीं मित्र के यहाँ हुए – अबकी बार उनकी एक टाँग भी नहीं थी। रेलगाड़ी की दुर्घटना में टाँग कट जाने से वे अस्पताल में पड़े रहे थे, वहाँ से बैसाखियों का उपयोग सीखकर बाहर निकले थे।
उनके लिए घटना पुरानी हो गई थी, मेरे लिए तो नई सूचना थी। मैं सहानुभूति भी प्रकट करना चाहता था; पर झिझक भी रहा था, क्योंकि किसी की असमर्थता की ओर इशारा भी उसे असमंजस में डाल देता है, कि उन्होंने स्वयं हाथ बढ़ाकर पुकारा, “आइए, आइए, आपको अपने नए आविष्कार की बात बतानी है।” उनसे हाथ मिलाते हुए समझ में आया कि एक अवयव के चले जाने से दूसरे की शक्ति कैसे दुगुनी हो जाती है। वैसे जोर की पकड़ जीवन में एक-आध बार ही किसी हाथ से पाई होगी। मैं बैठ ही रहा था कि वे बोले, “देखा आपने, कितना व्यर्थ बोझा आदमी ढोता चलता है? मैंने टांसिल कटवाए थे, कोई कमी नहीं मालूम हुई, एपेंडिक्स कटवाई, कुछ नहीं गया, केवल उसका दर्द गया। भगवान औधड़दानी हैं न, सब कुछ फालतू देते हैं-दो हाथ, दो कान, दो आँखें! अब तो एक है, आप हो बताइए, आपको कभी स्वाद लेने के साधन की कमी मालूम हुई है?”
मैं अवाक् उन्हें देखता रहा। पर उनकी हँसी सच्ची हँसी थी, और उनकी आँखों में जीवन का जो आनंद चमक रहा था, उसमें कहीं अधूरेपन की पंगुता की झाई नहीं थी। उन्होंने शरीर के अवयवों के बारे में अपनी एक अद्भुत थ्योरी भी मुझे बताई थी, यह ठीक याद नहीं कि वह इसी दूसरी भेंट में या और किसी बार, लेकिन थ्योरी मुझे याद है, उनका पूरा जीवन उसका प्रमाण रहा। वैसे शायद बताई होगी उन्होंने थोड़ी-थोड़ी करके दो-तीन किश्तों में।
तीसरी बार मैंने देखा, तो वे दूसरी बाँह भी खो चुके थे। मालूम हुआ कि रिक्शे से उतरते समय गिर गए थे, कोहनी टूट गई थी और फिर घाव दूषित हो गया, जिससे कोहनी से कुछ ऊपर बाँह काट दी गई। इस बार भी भेंट तो उन्हीं मित्र के यहाँ हुई, मगर उनकी बैठक में नहीं, उनके रसोईघर में। मित्र – पत्नी भोजन बना रही थीं, और खितीन बाबू एक मूढ़े पर बैठे हुए बताते जा रहे थे कि कौन व्यंजन कैसे बनेगा? वे खाने के शौकीन तो थे हो, खिलाने का शौक उन्हें और भी अधिक था, और पाकविद्या के आचार्य थे। मेरे मित्र ने उनकी दावत की थी। दावत का उपलक्ष्य बताया नहीं गया था, लेकिन इस बार कई दिन तक उनकी स्थिति संकटापन्न रही थी। खितीन दा भी इस बात को समझ गए थे, तभी उन्होंने कहा- “दावत रही और तुम्हारे यहाँ ही रही, पर दूँगा मैं, और सब कुछ मैं ही बनाऊँगा।” और खुलासा यह किया था कि वे रसोईघर में बैठकर सब कुछ अपनी देख-रेख में बनवाएँगे, बनाएँगी गृहपत्नी, मगर विधान खितीन बाबू का होगा। मित्र ने यह बात सहर्ष मान ली थी। खितीन बाबू का उत्साह इतना था कि वही सबके लिए सहारा बन जाता था।
मैं भी एक मूढ़ा लेकर उनके पास बैठ गया। निमंत्रण मुझे भी बाहर ही मिल चुका था। मैंने गृह-पत्नी से पूछा- “क्या बना रही हैं?” और उन्होंने उत्तर दिया, “मैं क्या बना रही हूँ, बना तो खितीन दा रहे हैं।” इस पर खितीन दा बोले, “हाँ, मेरा छुआ हुआ आप खा तो लेंगे न?” और ठहाका मारकर हँस दिए। उनका छुआ हुआ, जिनके दोनों हाथ नदारद ! फिर बोले- “आपने भोजन- विलासी और शय्या – विलासी की कहानी सुनी है?”
मैंने नहीं सुनी थी। वे सुनाने लगे। एक राजा के पास दो व्यक्ति नौकरी की तलाश में आए। पूछने पर एक ने कहा, “मैं भोजन – विलासी हूँ।” यानी? यानी राजा जो भोजन करेंगे, उसे पहले चखकर वह बताएगा कि भोजन राजा के योग्य है या नहीं। जाँच के लिए उसी दिन का भोजन लाया गया, थाली पास आते न आते भोजन – विलासी ने नाक बंद करते हुए चिल्लाकर कहा- “उँ-हूँ-हूँ, ले जाओ, इसमें से मुर्दे की बू आती है।” बहुत खोज करने पर मालूम हुआ, जिस खेत के धान से राजा के लिए चावल आए थे, उसके किनारे के पेड़ में एक मरा हुआ पक्षी टँगा था ! भोजन – विलासी को नौकरी मिल गई। शय्या विलासी ने बताया कि वह राजा के बिछौने की परीक्षा करेगा। उसे शयन कक्ष में ले जाया गया। मखमली गद्दे पर वह जरा बैठा ही था कि कमर पकड़कर चीखता हुआ उठ खड़ा हुआ, “अरे रे, मेरी तो पीठ में बल पड़ गया, क्या बिछाया है किसी ने!” सबने देखा, कहीं कोई सलवट तक न थी, सब गद्दे वद्दे उठाकर झाड़े गए, कहीं कुछ नहीं था जो विलासी को कमर में चुभ सकता पर हाँ, आखिरी गद्दे के नीचे एक बाल पड़ा हुआ था। इस प्रकार शय्या – विलासी को भी नौकरी मिल गई।
कहानी सुनाकर खितीन बाबू बोले- “वह भी क्या जमाने थे!”
मित्र – पत्नी ने कहा, “आप उन दिनों होते, तो क्या बात होती न?”
खितीन दा ने कहा, “ओर नहीं तो क्या मैं होता, तो राजा को दो नौकर थोड़े ही रखने पड़ते?”
मित्र- पत्नी ने मेरी ओर उन्मुख होकर कहा, “खितीन बाबू गाते भी बहुत सुंदर हैं।”
खितीन दा फिर हँसे। बोले- “हाँ, हाँ, संगीत – विलासी की नौकरी भी में ही कर लेता न?”
चार बजे भोजन तैयार हुआ, हम आठ-दस आदमियों ने खाया। मेरे लिए स्मरणीय स्वादों में भोजन का स्वाद प्रधान नहीं है, फिर भी उस भोजन की याद अभी बनी है।
तब लगातार दो-चार दिन उनसे भेंट होती रही; पर उसके बाद मैंने खितीन बाबू को एक बार और देखा, एक लंबी अवधि के बाद। और
अबकी बार उनकी दूसरी टाँग भी मूल से गायब थी।
दोनों हाथ नहीं, दोनों टाँगें नही, एक आँख नहीं। टांसिल, एपेंडिक्स वगैरह तो, जैसा वे स्वयं कहते, रूँगे में चढ़ा दी जा सकती हैं। केवल एक स्थाणुः बैठक में गद्देदार मूढ़े पर बैठा था। घर तक वे एक विशेष पहिएदार कुर्सी में लाए गए थे, लेकिन वह कुर्सी कमरे में ले जाने में उन्हें आपत्ति थी; क्योंकि वह अपाहिजों की कुर्सी है। कुर्सी से उठाकर उन्हें भीतर ला बिठाया गया था, और यहाँ वे सहज भाव से बैठे थे मानो किसी स्वप्नाविष्ट चतुर मूर्तिकार ने पत्थर मस्तक और कंधे तो पूरे गढ़ दिए हों, बाकी स्तंभ अछूता छोड़ दिया हो। मैं जाकर चुपके से एक तरफ बैठ गया- वे कुछ बात कर रहे थे। उन्हें देखते हुए मुझे बचपन में आत्मा के संबंध में की गई अपनी बहसें याद आ गई। आत्मा है, तो सारे शरीर में व्याप्त है, या किसी एक अंग में रहती है? अगर सारे शरीर में, तो अंग कट जाने पर क्या आत्मा भी उतनी ही कट जाती है? अगर एक अंग में, तो अंग कट जाने पर क्या होता है? अपनी थ्योरी याद आ गई, जिसमें इस पहेली को हल कर दिया गया था; कि जब कोई अंग कटता तो उसमें से आत्मा सिमटकर बाकी शरीर में आ जाती है, पंगु नहीं होती। यह थ्योरी कहाँ तक मान्य है, इस बहस में तो वैज्ञानिक पड़ें, पर उनको देखते हुए उनके बारे में जरूर इसकी सच्चाई मानो ज्वलंत होकर सामने आ जाती थी, उनकी आत्मा न केवल पंगु नहीं थी, वरन् शरीर के अवयव जितने कम होते रहते थे उसमें आत्मा को कांति मानो उतनी बढ़ती जाती थी मानो व्यर्थांगों से सिमट – सिमट कर आत्मा बचे हुए शरीर में और घनी पूंजित होती जाती सारे शरीर में भी नहीं, एक अकेली आँख में प्रेतात्माओं से भरे हुए विशाल शून्य में निष्कंप दिपते हुए एक आकाश – दीप के समान…
तभी खितीन बाबू ने मुझे देखा। छूटते ही बोले – “बोले छिलाम, बेचे थाक्ते ऐशि किछु लागे न!” (मैंने कहा था, बचे रहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं चाहिए!) ओर हँस दिए।
इसके बाद मैंने फिर खितीन बाबू को नहीं देखा। कहानी की पूर्णता के लिए एक बार और देखना चाहिए था; पर मैं कहानी नहीं सुना रहा, सच्ची बात सुना रहा हूँ। तो मैंने उन्हें फिर नहीं देखा। लेकिन सुनने वाले की कमी में कहानी नहीं रुकती, देखने वाला न होने से जीवन-नाटक बंद नहीं हो जाता। मैंने भी सुनकर ही जाना; खितीन बाबू की कहानी अपने चरम उत्कर्ष तक पहुँचकर ही पूरी हुई। टहलने ले जाते समय उनकी पहिएदार कुर्सी एक मोटर ठेले से टकरा गई थी, वे नीचे आ गए और गाड़ी का पहिया उनके कंधे के ऊपर से चला गया-बाँह का जो ठूँठ बचा हुआ था, उसे भी चूर करता हुआ। वे अस्पताल में ले जाए गए, बाँह अलग की गई और कंधे की पट्टी हुई, ऑपरेशन के बाद उन्हें होश रहा और उन्होंने पूछा कि कंधे है या नहीं? फिर कहा, “जाना गेलो, ऐटा छाड़ाओ चले!” (मालूम हो गया कि इसके बिना भी चल सकता है!) लेकिन अबकी बार वह चलना अधिक देर तक नहीं हुआ; अस्पताल से वे नहीं निकले। शरीर में विष फैल गया और भोर में अनजाने में उनकी मृत्यु हो गई।
खितीन बाबू : एक साधारण क्लर्क : साधारण दुर्घटना : मृत्यु हो गई लेकिन क्या सचमुच? अब भी उन्हें देख सकता हूँ। कभी लगता है कि जिसे देखता हूँ वह केवल अंगहीन ही नहीं है, मानो अशरीरी ही है; केवल एक दीप्ति – अंगों से क्या? अवयवों से क्या? “जाना गेलो एटा छाड़ाओ चले।” इस सबके बिना काम चल सकता है। केवल दीप्ति : केवल संकल्प – शक्ति। रोटी, कपड़ा, आसरा, हम चिल्लाते हैं, ये सब जरूरी हैं, निस्सन्देह जीवन के एक स्तर पर ये सब निहायत जरूरी हैं लेकिन मानव-जीवन की मौलिक प्रतिज्ञा ये नहीं हैं; वह है केवल मानव का अदम्य, अटूट संकल्प….
इस पाठ के बारे में
अज्ञेय ‘खितीन बाबू’ कहानी के लेखक हैं। लेखक का मानना है कि मनुष्य अपने जीवन में अनेक जीव-जन्तु, पेड़ पौधों, के संपर्क में आता है। साधारण रूप से वह सबको एक-सा मान लेता है। उदाहरण के लिए हर विदेशी को भारतीय एक जैसे लगते हैं और भारतीय को विदेशी। यही हाल पशु-पक्षियों के साथ भी होता है। पर हर व्यक्ति अपने आप में अलग विलक्षण अद्भूत और स्मरणीय होता है। लेखक को जो अद्वितीय और अविस्मरणीय चेहरे याद हैं उनमें से एक है खितीन बाबू। एक साधारण से व्यक्ति है और उनका चेहरा भी साधारण ही है। पर जीवन को उनके द्वारा दिया गया संदेश असाधारण है। इसलिए लेखक ने उन्हें ‘गुदड़ी का लाल’ कहा है। वे पंक से निकले कमल हैं। खितीन बाबू साधारण से पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। पेशे से उनकी एक आँख नहीं थी, एक हाथ भी नहीं था। चेहर पर चेचक के दाग थे। वह सदा हँसमुख रहते थे। अपने इस शारीरिक विकार को भी उन्होंने सहज ढंग से ग्रहण कर लिया था। खितीन बाबू की हँसी में एक अद्भुत खुलापन था। रेलगाड़ी की दुर्घटना में उनकी एक टाँग भी चली गई। फिर तो वे बैसाखी लेकर चलने लगे। उनके शरीर के एक अवयव के चले जाने पर लगता था जैसे उनके शरीर की शक्ति और अधिक बढ़ गई है। जीवन को सही ढंग से समझने की उनमें अद्भुत शक्ति थी। शरीर के उस अंग के जाने का उन्हें दुख भी नहीं था। खितीन बाबू ने इस बात को सुंदर ढंग से इस कहानी के लेखक अज्ञेय को समझाया था। उन्होंने समझाया टांसिल का कटना, अपेंडिक्स का कटना केवल दर्द का दूर होना था। अपने इस पैर के कट जाने से उन्हें किसी तरह का कष्ट नहीं हो रहा था। जब अपनी इस बात को वह समझाकर कहते थे तब उनकी आँखो में सच्ची हँसी रहा करती थी। उनमें किसी भी तरह का बनावटीपन नहीं था। फिर समय आया जब उनकी दूसरी बाँह चली गई।
खितीन बाबू भोजन प्रिय भी थे। वे पाक कला में निपुण थे। अज्ञेय जी के मित्र खितीन बाबू के भी मित्र थे। लेखक के मित्र के घर में एक बार खितीन बाबू बैठे थे। वह भी; उनकी रसोई में वे मूढ़े पर बैठे थे। दावत के लिए खाना बन रहा था। मित्र की गृहलक्ष्मी को वे पकवान बनाना सिखा रहे थे। अज्ञेयजी ने जब मित्र की पत्नी से पूछा तो उन्होंने कहा कि रसोई घर में मित्र पत्नी केवल नाम के लिए है। खाना तो खितीन बाबू के हिसाब से बन रहा है।
खितीनदा ने भी माहौल को थोड़ा हलका करने के लिए कहा-मेरे हाथ का बना खाना क्या आप लोग सब खा लेंगे। हाथ की बात वे कर रहे थे। सच तो यह था कि उनके दोनों हाथ ही नहीं थे। खितीनदा के इन शब्दों में दुख नहीं था व्यंग्य नहीं था। अफसोस भी नहीं था। सीधे सरल ढंग से उन्होंने अपनी बात कह दी थी। अपनी बात कहने के बाद वे ठहाका मार कर हँसने लगे। उनकी इस हँसी में बनापटीपन भी नहीं था। अपनी इस हँसी के बाद फिर एक राजा की कहानी भी सुनाई। कथा भोजन विलासी और शय्या विलासी राजा की थी। खितीन बाबू की बातों को सुनकर गृहपत्नी ने भी चुटकी ली। उन्होंने कहा कि यदि उस समय खितीन बाबू होते तो उन्हें राजा के यहाँ दो दो नौकरी मिल जाती। खितीन बाबू ने अपनी बात में थोड़ा और आगे बढ़े और कहा कि, तब फिर दो-दो नौकरों की जरूरत नहीं होती। एक ही से काम चल जाता। खितीन बाबू गीत भी अच्छा गा लेते थे।
खितीन बाबू की दोनों हाथ नहीं, दोनों टाँग भी नहीं। अब इन सबके बावजूद भी अदम्य मनोबल था उनमें उन्हें देखकर ऐसा लगाता था कि किसी मूर्तिकार ने उनके सिर और कंधे को तो अच्छी तरह से बनाया है पर उस शरीर में हाथ और पैर बनाना भूल गया है। एक अद्भुत बात खितीन बाबू में थी। जैसे-जैसे उनके अंग उनसे विदा ले रहे थे, वैसे-वैसे उनकी आत्मा की कांति अधिक बढ़ती जा रही थी। वे तब भी कहते थे कि जीवन में जिंदा रहने के लिए बहुत कुछ नहीं चाहिए।
एक बार की बात है। खितीन बाबू की पहिएदार कुर्सी मोटर ठेले से टकराई और वे अस्पताल में भर्ती हुए। होश आते ही कहने लगे कि अब शायद कंधा नहीं रहा पर इसके बिना भी जिया जा सकता है। अबकी बार वे नहीं लौटे। हमेशा के लिए उनकी साँसें थम गईं।
एक साधारण व्यक्ति थे खितीन बाबू। उनकी मृत्यु भी साधारण ढंग से हुई। अंगहीन हो कर भी वे सबको प्रेरणा देते रहे। प्रेरणा यह है कि यदि हममें मनोबल हो, संकल्प शक्ति हो तो संसार की कोई शक्ति हमें रोक नहीं सकती। छोटी-छोटी चीजें दुख बाधाएँ तो उत्पन्न कर सकती हैं पर रास्ता नहीं रोक सकती हैं। हम जिन चीजों के लिए संघर्ष करते हैं जैसे रोटी, कपड़ा और मकान- वे सब हमें चाहिए। निःसन्देह चाहिए। जीवन में केवल इतना ही यथेष्ट नहीं है। मानव जीवन की मौलिक प्रतिज्ञा है अदम्य और अटूट संकल्प।
शब्दार्थ
अद्वितीय – Unique
उलाहना – भला-बुरा कहना, ओढ़न देना
मुनाल – सुंदर पंखों वाला एक पहाड़ी पक्षी
सिरहाने – सिर के पास
बनस्पतियों = पेड़-पौधे
स्मरणीय – याद करने लायक
आस्तीन – Sleeve
विलक्षण – अद्भुत
ऋजुता – सरलता
बैसाखियाँ – जिसके पैर नहीं होते उनके चलने के लिए एक विशेष लकड़ी
सहानुभूति – Sympathy
औधड़दानी – बहुत दान करने वाला
अवाक् – बिना बोली के
अवयवों – अंग, Parts
किश्तों – Instalments
पाकविद्या – खाना बनाने की कुशलता
उपलक्ष्य – संकेत
संकटापन्न – संकट से घिरा होना
विधान – नियम
मखमली – Velvety
सलवट – Wrinkles
उन्मुख – की तरफ़
स्वाद – Taste
अवधि – Duration
पहेली – Puzzle
आत्मा – Soul
निष्कंप – बिना कंपन के
पहिया – चक्का
प्रतिज्ञा – शपथ
अदम्य – जिसे दबाया न जा सके
संकल्प – Resolution
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर पचाश पचाश शब्दों में दीजिए।
1. खितीन बाबू देखने में कैसे थे?
उत्तर – खितीन बाबू एक साधारण क्लर्क थे जिनका चेहरा सुंदर नहीं था। चेचक के दागों से भरे चेहरे थे और इसी चेचक के कारण बचपन में ही उनकी आँख सदा-सदा के लिए खराब हो गई थी। पेड़ से गिरने के कारण उनकी बाँह टूट गई थी जिसके कारण उनका एक हाथ भी नहीं था। पर खितीन बाबू की हँसी में एक विलक्षण खुलापन और ऋजुता थी जो उन्हें आम से खास बना दिया करती थी।
2. खितीन बाबू के हाथ-पैर कैसे कट गए?
उत्तर – बचपन में खितिन बाबू पेड़ से गिर गए थे जिसकी वजह से उनकी बाँह टूट गई थी और बाद में उनके हाथ काटने पड़े। लेखक ने जब उन्हें दूसरी बार देखा तो पाया कि अबकी बार उनकी एक टाँग भी नहीं थी। रेलगाड़ी की दुर्घटना में टाँग कट जाने उनका पैर जाता रहा। तीसरी बार लेखक ने पाया कि रिक्शे से उतरते समय वे गिर गए थे, और उनकी कोहनी टूट गई थी और फिर घाव दूषित हो गया, जिससे कोहनी से कुछ ऊपर बाँह काट दी गई। और अंत में लेखक ने
एक लंबी अवधि के बाद खितीन बाबू को एक बार और देखा, इस बार
उनकी दूसरी टाँग भी मूल से गायब थी। इस तरह से उनके दोनों हाथ और दोनों पैर नहीं थे।
3. तीसरी बार खितीन बाबू लेखक से किस तरह मिले?
उत्तर – तीसरी बार लेखक की मुलाक़ात खितीन बाबू से उनके उन्हीं मित्र के यहाँ हुई जहाँ दो बार पहले हुई थी। मगर इस बार मुलाक़ात का स्थान मित्र के घर के बैठक में नहीं, उनके रसोईघर में था। इस मुलाक़ात में लेखक ने यह गौर किया कि उनकी दूसरी बाँह भी नहीं रही। खितीन बाबू लेखक के मित्र की पत्नी को पकविद्या में कुशल बना रहे थे। अर्थात अपनी देख-रेख में खाना बनवा रहे थे और मित्र – पत्नी उनके निर्देशों पर भोजन पका रही थी।
4. भोजन विलासी को राजा के यहाँ नौकरी कैसे मिली?
उत्तर – एक बार एक भोजन विलासी राजा के पास नौकरी की तलाश में आया। पूछने पर कहा, “मैं भोजन – विलासी हूँ।” यानी राजा जो भोजन करेंगे, उसे पहले मैं चखकर बताऊँगा कि भोजन राजा के योग्य है या नहीं। जाँच के लिए उसी दिन का भोजन मँगवाया गया, भोजन की थाली पास आते-आते भोजन विलासी ने नाक बंद करते हुए चिल्लाकर कहा- “उँ-हूँ-हूँ, ले जाओ, इसमें से मुर्दे कि बू आती है।” बहुत खोज करने पर मालूम हुआ, जिस खेत के धान से राजा के लिए चावल आए थे, उसके किनारे के पेड़ पर एक मरा हुआ पक्षी टँगा था। भोजन – विलासी को अपने ज्ञान की इस निपुणता के कारण नौकरी मिल गई।
5. शय्या विलासी के राजा के यहाँ कैसे नौकरी मिली
उत्तर – एक बार एक शय्या विलासी राजा के पास नौकरी की तलाश में आया। पूछने पर कहा, “मैं शय्या विलासी हूँ।” शय्या विलासी ने बताया कि वह राजा के बिछौने की परीक्षा करेगा और यह बताएगा कि शय्या सोने लायक है या नहीं। परीक्षार्थ उसे शयन कक्ष में ले जाया गया। मखमली गद्दे पर वह जरा बैठा ही था कि कमर पकड़कर चीखता हुआ उठ खड़ा हुआ, “अरे अरे, मेरी तो पीठ में बल पड़ गया, क्या बिछाया है किसी ने!” सबने देखा, कहीं कोई सलवट तक न थी, सब गद्दे वद्दे उठाकर झाड़े गए, कहीं कुछ नहीं था जो विलासी को कमर में चुभ सके। पर हाँ, आखिरी गद्दे के नीचे एक बाल पड़ा हुआ था। इस प्रकार शय्या – विलासी की विद्या की सूक्षमता के लिए उसे नौकरी मिल गई।
6. खितीन बाबू की मौत कैसी हुई?
उत्तर – खितीन बाबू को टहलाने ले जाते समय उनकी पहिएदार कुर्सी एक मोटर ठेले से टकरा गई और वे नीचे आ गए। गाड़ी का पहिया उनके कंधे के ऊपर से चला गया और बाँह का जो ठूँठ बचा हुआ था, वह भी चूर हो गया। उन्हें अस्पताल में जाया गया, बाँह अलग की गई और कंधे की पट्टी हुई, लेकिन शरीर में विष फैल गया और भोर में ही उनकी मृत्यु हो गई।
7. खितीन बाबू का व्यक्तित्व कैसा था?
उत्तर – खितीन बाबू का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक था। नकारात्मकता उनके इर्द-गिर्द भी नहीं भटकती थी। साकारात्मक ऊर्जा के वे अक्षय स्रोत थे। आज के दौर में जहाँ लोगों के पास सबकुछ होने पर भी और अधिक पाने की इच्छा उन्हें रुलाती रहती हैं। ऐसे में खितीन बाबू उनके लिए प्रेरणा के रूप में उपस्थित होते हैं। अपनी शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद ज़िंदादिली के साक्षात् प्रतिमूर्ति थे।
8. साधारण होने पर भी खितीन बाबू असाधारण क्यों थे?
उत्तर – खितीन बाबू साधारण पढ़े-लिखे, साधारण क्लर्क थे। उनका रूप रंग भी साधारण ही था परंतु फिर भी लेखक ने उन्हें असाधारण कहा है क्योंकि उनके व्यक्तित्व की विशिष्ट बात उनका हर स्थिति में खुश और ज़िंदादिल रहना था। शारीरिक कमियों के बढ़ते रहने पर भी उत्साह और मानसिक ऊर्जा में किसी भी प्रकार की कमी लेखक ने उनमें एक क्षण के लिए भी महसूस नहीं की। इन्हीं सब कारणों से लेखक कहते हैं कि खितीन बाबू असाधारण थे।
9. खितीन बाबू के किस गुण ने उन्हें अमर बना दिया?
उत्तर – लेखक के अनुसार एक व्यक्ति अपने जीवन में तरह-तरह के लोगों से मिलता है। किसी को वह एक दिन में, एक सप्ताह में, एक महीने में या एक वर्ष में भुला देता है तो किसी को आजीवन नहीं भुला पाता। और जिसे भूलाया नहीं जा सकता उसमें निश्चित रूप से कोइ न न कोई ऐसी खास बात होती है जो वो हमारे दिलो-दिमाग में छाया रहता है। खितीन बाबू ने भी लेखक के मस्तिष्क में एक ज़िंदादिल, आशावादी, उत्साही व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान छोड़ी थी। शरीर के अवयवों की कमी भी उन्हें हतोत्साहित न कर सकी थी। उनके मुसकान की ऋजुता और विलक्षण खुलापन लेखक के लिए अविस्मरणीय है। इन्हीं सब गुणों ने उन्हें अमर बना दिया।
10. इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
उत्तर – रोटी, कपड़ा और मकान ये जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इन्हें पाने के लिए मनुष्य प्रयत्नशील रहता ही है। लेकिन एक खास बात जो मनुष्य को हर स्थिति में खुश रख सकती हैं वह यह कि उसके सोचने का साकारात्मक तरीका और ज़िंदादिली। मनुष्य अगर समस्याओं का रोना रोने लगेगा तो वह आगे नहीं बढ़ पाएगा परंतु अगर वह समस्याओं से लड़ेगा और उसके सृजनात्मक पक्ष पर विचार करेगा तो उसे समस्याओं में भी अवसर और भावी उपलब्धियों के दर्शन होंगे। इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है।