संकेत बिंदु – (1) वसंत का अर्थ (2) प्रकृति की विचित्र देन (3) स्वास्थ्यप्रद ऋतु (4) वसंत के मेले और उत्सव (5) जीवन के विभिन्न रंगों का त्योहार।
वसंत की व्याख्या है, ‘वसन्त्यस्मिन् सुखानि।’ अर्थात् जिस ऋतु में प्राणियों को ही नहीं, अपितु वृक्ष, लता आदि को भी आह्लादित करने वाला मधुरम प्रकृति से प्राप्त होता है, उसको ‘वसंत’ कहते हैं। वसंत समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को पुष्पाभरण से अलंकृत करके मानव-चित्त की कोमल वृत्तियों को जागरित करता है। इसलिए ‘सर्वप्रिये चारुतरं वसंते’ कहकर कालिदास ने वसंत का अभिनंदन किया है।
भू-मध्यरेखा का सूर्य के ठीक-ठीक सामने आ जाने के आस-पास का कालखंड है वसंत। इसलिए वसंत में न केवल भारत, अपितु समूचा विश्व पुलकित हो उठता है। अवनी से अम्बर तक समस्त वातावरण उल्लासपूर्ण हो जाता है।
प्रकृति की विचित्र देन है कि वसंत में बिना वृष्टि के ही वृक्ष, लता आदि पुष्पित होते हैं। फरथई, काँकर, कवड़, कचनार, महुआ, आम और अत्रे के फूल अवनि-अंचल को ढक लेते हैं। पलाश तो ऐसा फूलता है, मानों पृथ्वी माता के चरणों में कोटि-कोटि सुमनांजलि अर्पित करना चाहता हो। सरसों वासंती रंग के फूलों से लदकर मानों वासंती परिधान धारण कर लेती है। घने रूप में उगने वाला कमल-पुष्प जब वसंत ऋतु में अपने पूर्ण यौवन के साथ खिलता है, तब जलाशय के जल को छिपाकर वसंत के ‘कुसुमाकर’ नाम को सार्थक करता है। आमों पर बौर आने लगते हैं। गुलाब, हरसिंगार, गंधराज, कनेर, स्थलकमल, कुन्द, नेवारी, मालती, कामिनी, कर्माफूल के गुल्म महकते हैं तो रजनीगंधा, रातरानी, अनार, नीबू, करौंदों के खेत ऐसे लहरा उठते हैं, मानों किसी ने हरी और पीली मखमल बिछा दी हो। वसंत के सौंदर्य को देखकर कविवर बिहारी का हृदय नाच उठा-
“छवि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध।
ठौर-ठौर झूमत झपत, झर झर मधु अन्थ॥”
वसंत का नाम ही उत्कंठा है। ‘मादक महकती वासंती बयार’ में, ‘मोहक रस पगे फूलों की बहार’ में, भौरों की गुंजार और कोयल की कूक में मानव हृदय जब उल्लसित होता है, तो उसे कंकणों का रणन, नूपुर की रुनझुन, किंकणियों का मादक क्वणन सुनाई देता है। प्राणियों के मनों में मदन विकार का प्रादुर्भाव होता है। जरठ स्त्री भी अद्भुत शृङ्गार-सज्जा में आनंद – पुलकित जान पड़ती है। इसे देखकर पद्माकर का मदमस्त हृदय गा उठता है-
“और रस और रीति और राग औरे रंग।
और तन और मन औरे वन है गए॥”
वसंत मधु का दाता है। पता नहीं कितने फूलों से मधु इक्ट्ठा करता है वसंत; आम से, महुआ से, अशोक से, कचनार से, कुरबक से, बेला से, चमेली मे, नीम से, तमाल से, नीबू से, मुसम्मी से, कमल से, मालती से, माधवी से।
वसंत स्वास्थ्यप्रद ऋतु है। इसके शीतल मंद-सुगंध समीर में प्रातः- भ्रमण शरीर को नीरोग कर देता है। थोड़ा सा व्यायाम और योग के आसन मानव को ‘चिरायु’ का वरदान देते हैं। इसीलिए आयुर्वेद शास्त्र में वसंत को ‘स्वास्थ्यप्रद ऋतु’ विशेषण से अलंकृत किया गया है।
कालिदास ने वसंत के उत्सव को ‘ऋतूत्सव’ माना है। माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी से आरंभ होकर फाल्गुन पूर्णिमा (होली) तक पूरे चालीस दिन, ये वसंत उत्सव चलते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे मादक- उत्सवों का काल कहते हैं। उनका कहना है कि ‘कभी अशोक – दोहद के रूप में, कभी मदन देवता की पूजा के रूप में, कभी कामदेवायन यात्रा के रूप में, कभी आम्र-तरु और माधवी लता के विवाह के रूप में, कभी होली के हुड़दंग के रूप में, कभी होलाका (होला), अभ्यूप खादनिका (भुने हुए कच्चे गेहूँ की पिकनिक), कभी नवान खादनिका (नए आम के टिकोरों की पिकनिक) आदि के रूप में समूचा वसंत काल नाच, गान और काव्यालाप से मुखर हो उठता है।’
वसंत ऋतु का प्रथम उत्सव वमंत पंचमी विद्या और कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का पूजन-दिन भी है। इसलिए विद्याभ्यास के श्रीगणेश का मंगल दिवस है।
वसंत पंचमी के दिन ही धर्मवीर बालक हकीकतराय का यवन धर्म स्वीकार न करने के कारण बलिदान हुआ था। इसलिए इस दिन ‘हिंदू तन मन, हिंदू जीवन। रग-रग हिंदू, मेरा परिचय’ के दर्शन को जीवन में चरितार्थ करने वाले शहीद हकीकतराय की याद में मेले लगते हैं।
वसंत के मेलों का विशेष आकर्षण होता है – नृत्य-संगीत, खेलकूद प्रतियोगिताएँ तथा पतंगबाजी। ‘हुचका’, ‘ठुमका’, ‘खेंच’ और ‘ढील’ के चतुर्नियमों से जब पेंच बढ़ाए जाते हैं, तो दर्शक सुध-बुध खो बैठता है। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में ‘करता है याद दिल को उड़ाना पतंग का।’
वसंत पंचमी के दिन पीले वस्त्र पहनकर हृदय का उल्लास ही प्रकट किया जाता है। वसंती हलुआ, पीले चावल तथा केसरिया खीर का आनंद लिया जाता है।
वसंत मादक उमंगों और कामदेव के पुष्पतीरों का ही पर्व नहीं, वीरता का त्योहार भी है। फाँसी पर चढ़ने वाले आजादी के मतवालों ने ‘मेरा रंग दे वसंती चोला’ की कामना की, तो सुभद्राकुमारी चौहान देश भक्तों से पूछ ही बैठीं-
वीरों का कैसा हो वसंत? / फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग / वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग,
है वीर वेश में किंतु कंत, / वीरों का कैसा हो वसंत?
भगवान् कृष्ण का ‘ऋतूनां कुसुमाकरः ‘कालिदाम का ‘सर्वप्रिये चारुतरं वसंते’ और वात्स्यायन का ‘सुवसंतक’ बनकर वसंत मधुऋतु और ऋतुराज कहलाया। यह नव- जीवन, नवोत्साह, नव उन्माद, मादकता प्रदान कर चराचर का यौवन की अनुभूति कराता हुआ स्वदेश और स्वधर्म के प्रति वासंती परिधान पहनने का आह्वान भी करता है।