संकेत बिंदु – (1) नदी-नालों का उमड़ना (2) वर्षा के अभाव में नदी-नाले (3) नदी-नालों से नुकसान (4) बाढ़ के कारण (5) बिमारियों में वृद्धि।
नदी नालों का पूरी तरह से भर जाने पर जल का बाहर निकलकर चारों और फैल जाना ‘उमड़ना‘ है स्वतः के भरे होने पर वेगपूर्वक जल का बाहर निकलना ‘उफनना’ है। वर्षा ऋतु में नदी-नाले जब जल से भर जाते हैं तो उनका उमड़ना उफनना ऐसे ही स्वाभाविक है जैसे नवधनाढ्य वर्ग का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी धनवत्ता का प्रदर्शन करना।
वर्षा ऋतु में उमड़ते-उफनते नदी-नाले मर्यादा हीनता के प्रतीक हैं, प्राणिमात्र के विनाशक हैं, मानव के लिए विपत्ति लाने वाले, खेतों-खलिहानों को बरबाद करने वाले, यातायात को अवरुद्ध करने वाले तथा जीवन और जगत् को संकट में धकेलने वाले हैं। वर्षा के अभाव में नदी-नाले जल विहीन होने से कंगाल से हो गए थे। उनका जल सिकुड़ता- सिमटता जा रहा था, मानो नववधू ससुराल आकर संकोचवश अपने वस्त्रों में ही सिमट रही हो। अपनी प्यास बुझाने के लिए आने वाले पशु-पक्षियों और स्नान तथा जल क्रीड़ा निमित्त आए मानवों का नदी अब स्वागत नहीं कर पाती थी। वे इसी प्रकार दुखी थीं, जैसे कोई दाता निर्धन होने पर याचक को कुछ न दे पाने पर दुखी होता है।
वर्षा हुई। नदियों में जल भरने लगा। छोटे नाले, जो जल के अभाव के कारण शांत पड़े थे, वर्षा के आगमन पर हलचल मचाने लगे। वर्षा का यौवन प्रकट होता गया। वर्षा बढ़ती गई तो नदी-नालों का जल उफनने लगा। तट को स्पर्श करने लगा। नदी-नाले जल से उसी प्रकार भर गए, जैसे सज्जन के पास सद्गुण आते हैं ‘सिमिटि सिमिटि जल भरहिं तलाबा। जिमि सद्गुन सज्जन पहिंआवा।’ अथवा वर्तमान बेकारी के युग में किसी विज्ञापन के उत्तर में बेकारों की अर्जियों से कार्यालय भर जाते हैं।
वर्षा पर यौवन की चमक आई; मुख-मडल में उल्लास छाया। नदी-नालों का जल उमड़ने लगा, उफनने लगा; इतराने-इठलाने लगा। तट की मर्यादा को तोड़ चला। मर्यादा- भंग विपत्ति और विनाश का सूचक होता है। ‘साकेत संत’, महाकाव्य के रचयिता श्री बलदेवप्रसाद ने चेतावनी दी –
“मर्यादा में ही सब अच्छे, पानी हो वह या कि हवा हो।
इधर मृत्यु है, उधर मृत्यु है, मध्य मार्ग का यदि न पता हो॥”
उमड़ते-उफनते नदी-नाले तट के ऊपर से बहते हुए अपने समीपस्थ भू-भाग को मग्न कर देते हैं। फिर साँप की भाँति बल खाते हुए आगे ही आगे बढ़ते जाते हैं। बहाव ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, पानी फैलता हुआ खेत-खलिहानों, गली-कूचों में पहुँचने लगता है। निकासी के अभाव में जल इकट्ठा होने लगता है। खेती और खेत बरबाद हो जाते हैं।
कच्चे मकान टूटकर गिर पड़ते हैं। झुग्गी-झोंपड़ी वालों का तो और भी बुरा हाल होता है। सड़कें जल मग्न हो जाती हैं। मार्ग लुप्त हो जाते हैं। आवागमन में बाधा पड़ती है। घरों से बाहर निकलना कठिन हो जाता है। बिजली फेल हो जाती है। अंधकार कोढ़ में खाज का काम करता है। पीने के पानी की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। स्वच्छ जल का अभाव हो जाता है।
नदी और नाले वर्षा ऋतु के जल से शायद इतना न इठलाएँ, इन्हें तो इधर-उधर के जल से जो ‘ओवर फूडिंग’ होती है उसके कारण परेशानी अनुभव होती हैं। घरों, बाजारों का जल नालों में गिरता है। नालों का जल अंततः नदी में पहुँचता है। अतिवृष्टि होने के कारण अनेक बार संचयन-स्थान (डैम) में विस्फोटक स्थिति होने पर जल छोड़ दिया जाता है। वह जल नदी-नालों को उफनाता है, जल-प्लावन का दृश्य उपस्थित करता है। भाखड़ा बांध से छोड़ा गया सीमा से अधिक जल यमुना नदी में बाढ़ का कारण बनता है।
वर्षा में मक्खी, मच्छर, विषैले जीव-जंतु स्वभावतः पैदा हो जाते हैं, किंतु नदी- नालों के उफनने से इनकी संख्या में कई गुणा वृद्धि हो जाती है। परिणामतः मानव का जीना दूभर हो जाता है। मच्छरों के काटने से शरीर सूज जाता है, बिना बुलाए मलेरिया, टाइफाइड बुखार का आगमन हो जाता है। दिन का काम और रात की नींद हराम हो जाती है। मक्खियों की भिनभिनाहट खाने-पीने की चीजों में रोग के कीटाणु फैला देती है। मक्खी-मच्छर प्राणिमात्र को न चैन से बैठने देते हैं, न सोने देते हैं और न काम करने देते हैं।
उमड़ते-उफनते नदी-नाले प्रकृति-प्रकोप के चिह्न हैं, जगती को दंडित करने का साधन हैं तथा नियमित जीवन को अनियमित करने के माध्यम हैं।