संकेत बिंदु – (1) शरत् का आगमन (2) प्रसाद और कालिदास द्वारा वर्णन (3) रामचरितमानस में शरत् वर्णन (4) आयुर्वेद और भारतीय पर्वों की दृष्टि से महत्त्व (5) वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्व |
भारत में शरत् वसंत के ही समान सुहावनी ऋतु है। शरत के संबंध में गोस्वामी जी का कथन है- ‘वर्षा विगत शरद ऋतु आई।’ ‘फूले कास सकल महि छाई।’ जनु वर्षा कृत प्रगट बुढ़ाई।’ शरत् ऋतु आने पर आकाश निर्मल और निरभ्र हुआ। रात्रि में सुधाकर अपनी किरणों से अमृत की वर्षा करने लगा। मंद मंद शीतल पवन चलने लगी। वर्षा की बौछारों से, कीट-पतंगों की भरमार से तथा वर्षा व्याधियों से प्राणियों को छुटकारा मिला। उनका हृदय शरत्-स्वागत के लिए तत्पर हो उठा।
भारतीय ऋतु-परंपरा की दृष्टि से आश्विन और कार्तिक शरत ऋतु के मास हैं। शरत् ऋतु के आगमन तक वर्षा की मेघ-मालाएँ लुप्त हो गईं। दुर्गन्ध और कीचड़ का अंत हो गया। वातावरण की घुमस और घुटन समाप्त हो गई। ‘पंक न रेनु, सोह अस धरनी। ‘स्वच्छ और निर्मल आकाश मंडल चमकने लगा। चाँदनी का रूप निखर गया। नदो-तट पर काँस विकसित हो गए। सर्वत्र स्वच्छता और शांति का साम्राज्य छा गया।
शरत् ऋतु के आगमन के सूचक लक्षणों का वर्णन करते हुए प्रमाद जी लिखते हैं— ‘नदी के तट पर कांस का विकास, निर्मल जल पूरित नदियों का मंद प्रवाह, कुछ शीत वायु, छिटकी हुई चंद्रिका, हरित वृक्ष, उच्च प्रासाद, नदी, पर्वत, कटे हुए खेत तथा मातृ धरणी पर रजत मार्जित आभास।’
शरत् ऋतु में शस्य श्यामला धरिणी कृषि गंध से परिपूर्ण होती है। निरुक्त की परिभाषा से इस ऋतु में प्रकृति उन्मुक्त भाव से अन्नपूर्णा बनकर जल को स्वच्छ और निर्मला करती है। कोष्ठी प्रदीप के अनुसार-
“नरः शरत्संज्ञकलब्ध जन्मो भवेत्सुकर्मा मनुजस्तग्स्वा।
शुचिः सुशीलो गुणवान् समानी धनान्वितो राजकुल प्रपन्नः॥”
अर्थात् शरत् में जन्मा व्यक्ति सुकर्मा, तेजस्वी, पवित्र विचारों वाला सुशील, गुणवान धनी होता है।
कालिदास ने शरत् का वर्णन करते हुए कहा है-
काशांशुका विकचपदम मनोज्ञवक्त्रा सोन्माद हंमरवनृपुग् नादरम्या।
आपक्वशालि रुचि रानतगात्र यष्टिः, प्राप्ता शरन्नवधृरिव रूपग्म्या॥
अर्थात् फले हुए कांस के वस्त्र धारण किए हुए, मतवाले हंसों की रम्य बोली क बिछुए पहने, पक हुए धान के मनोहर व नीचे झुके हुए शरीर धारण किए हुए तथा खिले हुए कमल रूपी सुंदर मुन्द्र वानी, यह शरत ऋतु नवविवाहिता सुंदरी वधू के समान आ गई है।
जुलस्दाम जी रामचरितमानस में शरत् की प्राकृतिक छटा का उपमायुक्त वर्णन हृदयहारी है-
उदित अगस्त पंथ जल सोपा। जिमि लोभहि मोषइ सतोया॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद माहा॥
ग्म-ग्स सुख मरित पर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सग्त ऋतु खंजन आए। पाई समय जिमि सुकृत सुहाए॥
अथात् अगस्त्य नक्षत्र ने उदित होकर मार्ग के जल की सोख लिया जैसे संतोष लोभ को मोख लेता है। नदियों और नालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है, जैसे मद और माह मे रहिन संतों का हृदय। नदी ओर नालाबों का जल धीरे-धीरे सृख रहा है, जैसे ज्ञानी पुरुष ममता का त्याग कर देते हैं। मेघ गहत निर्मल आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे भगवान् का भक्त भब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होता है।
जनजीवन में जावन का संचार हुआ। हृदय प्रकृति-नटो के साथ प्रसन्न हो उठा। नर- नारी, युवा-युवती, बाल-वृद्ध सबके चेहरों पर रौनक आई। काम मे मन लगा। उत्माह का संचार हुआ। प्रेरणा उदित हुई।
आयुर्वेद की दृष्टि में शरत में पित्त का संचय और हेमंत में प्रकोप होता है। अतः पित्त के उपद्रव से बचने के लिए शरत्काल में पित्तकारक पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए। दूसरे, शरत्काल में ही गरिष्ठ और पौष्टिक भोजन का आनंद है। जो खाया, सो पच गया, रक्त बन गया। स्वास्थ्यवर्धन की दृष्टि से यह सर्वोत्तम काल है।
भारतीय (हिंदू) पर्वों की दृष्टि से शरत्काल विशेष महत्त्वपूर्ण है। शारदीय नवरात्र अर्थात् आश्विनशुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर कार्तिक की पूर्णिमा तक ये पर्व आते हैं। संपूर्ण धरा शुभ्र चाँदनी में स्नात हो जाती है। नवरात्र आए। विधि-विधान से दुर्गा पूजा की गई। नवरात्र संयमित जीवन का संदेश दे गए। तत्पश्चात् दशहरा आया- शस्त्रपूजन का दिन, मर्यादापालन का सूचक पर्व, आसुरी वृत्ति पर देवत्व की विजय का प्रतीक। शारदी- पूर्णिमा पर चंद्रमा की किरणें सुधारस बरसाती हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का महापर्व दीपावली कार्तिक की अमावस्या को होता है। यह लक्ष्मीपूजन का भी त्योहार है। भगवती लक्ष्मी चेतावनी दे गई, जिसकी स्वामिनी बनती हूँ उसको उलूक बनाती हूँ, जिसकी सखी बनती हूँ, वह कुबेर बन जाता है, जिसकी दासी बनती हूँ, वह स्वयं श्री लक्ष्मी निवास अर्थात् भगवान् बन जाता है।’
वैज्ञानिक दृष्टि से शरत् का बहुत महत्त्व है। वर्षा के बाद घर की सफाई लिपाई-पुताई की परंपरा है। वर्ष भर के कूड़े-करकट को निकाला जाता है। घर की दीवारों को रंग- रोगन से अलंकृत किया जाता है। दुकानों और व्यापारिक संस्थानों की सफाई का विधान है। गंदगी रोग का घर है। साफ-सुथरा घर स्वास्थ्यवर्धन का आधारभूत सिद्धांत है।
शरत् ऋतु-क्रम का स्वर्णिम काल है। इसमें वस्त्रपरिधान का आनंद हैं, विभिन्न पदार्थों के खाने-पीने और पचाने की शक्ति है, कार्य करने का उल्लास है, चेहरों पर उमंग है और है जीवन जीने के लिए प्रेरणा और स्फूर्ति।