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‘होली’ पर एक शानदार निबंध  

Holi par ek shandar nibandh hindi me

संकेत बिंदु – (1) आनंद, उल्लास का पर्व (2) मदनोत्सव के रूप में वर्णन (3) समाज में प्रचलित कथाएँ (4) होलिका दहन और होली मिलन (5) आधुनिक युग में प्रदर्शन मात्र।

भारतीय पर्व परंपरा में होली आनंदोल्लास का सर्वश्रेष्ठ रसोत्सव है। मुक्त, स्वच्छंद परिहास का त्योहार है। नाचने-गाने, हँसी-ठिठौली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी हैं। सुप्त मन की कंदराओं में पड़े ईर्ष्या-द्वेष जैसे निकृष्ट विचारों को निकाल फेंकने का सुंदर अवसर है।

होली वसंत ऋतु का यौवनकाल है। ग्रीष्म के आगमन की सूचक है। वनश्री के साथ-साथ खेतों की श्री एवं हमारे तन-मन की श्री भी फाल्गुन के ढलते-ढलते संपूर्ण आभा में खिल उठती है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने फाल्गुन के सूर्य की ऊष्मा को ‘प्रियालिंगन मधु-माधुर्य स्पर्श’ बताते हुए कहा है-’सहस्र- सहस्र मधु मादक स्पशों से आलिंगित कर रही इन किरणों ने फाल्गुन के इस वासंती प्रात को सुगंधित स्वर्ण में आह्लादित कर दिया है।’

‘दशकुमार चरित’ में होली का उल्लेख ‘मदनोत्सव’ के नाम से किया गया है। वैसे भी, वसंत काम का सहचर है। इसलिए कामदेव के विशेष पूजन का विधान है। कहीं फाल्गुन शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक, कहीं चैत्र शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक मदनोत्सव का विधान है। आमोद-प्रमोद और उल्लास के अवसर पर मन की अमराई में मंजरित इस सुख-सौरभ का अपना स्थान है।

“किंतु ‘यह मदनोत्सव’ कालिदास, श्री हर्ष और बाणभट्ट की पोथियों की वायु बनकर रह गया है। अब बस ‘मादन’ रह गया है, न मदन है, न उत्सव ! वर्तमान युग में काम को ‘सेक्स’ का पर्याय बनाकर इतना बड़ा अवमूल्यन सृष्टि-तत्त्व का हुआ है कि काम के देवत्व की बात करते डर लगता है। सच्चाई यह है कि कामं व्यापनशील विष्णु और शोभा – सौंदर्य की अधिष्ठात्री लक्ष्मी के पुत्र हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दो चेतनाएँ होती हैं – एक आत्मविस्तार की और दूसरी अपनी ओर खींचने की। दोनों का सामंजस्य होता है तो काम जन्म लेता है। एक निराकार उत्सुकता जन्म लेती है। वह उत्सुकता यदि बिना किसी तप के आकार लेती है तो अभिशप्त होती है और अपने को छार करके आकार ग्रहण करे तो भिन्न होती है।” – डॉ. विद्यानिवास मिश्र

होली के साथ अनेक दंत कथाओं का संबंध जुड़ा हुआ है। पहली कथा है प्रह्लाद और होलिका की। प्रह्लाद के पिता हरिण्यकशिपु नास्तिक थे और वे नहीं चाहते थे कि उनके राज्य में कोई ईश्वर की पूजा करे, किंतु स्वयं उनका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। नेक कष्ट सहने के बाद भी जब उसने ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ी, तब उसके पिता ने अपनी बहन होलिका को प्रह्लाद के साथ आग में बैठने को कहा। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। अग्नि ज्वाला में होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठी। परिणाम उल्टा निकला। होलिका जल गई और प्रह्लाद सुरक्षित बाहर आ गया।

दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार ठुण्डा नामक राक्षसी बच्चों को पीड़ा पहुँचाती तथा उनकी मृत्यु का कारण बनती थी। एक बार वह राक्षसी पकड़ी गई। लोगों ने क्रोध में उसे जीवित जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली के दिन आग जलाई जाती है।

भारत कृषि प्रधान देश है। होली के अवसर पर पकी हुई फसल काटी जाती है। खेत की लक्ष्मी जब घर के आँगन में आती है तो किसान अपने सुनहले सपने को साकार पाता। वह आत्म-विभोर हो नाचता है, गाता है। अग्नि देवता को नवान्न की आहुति देता है। फाल्गुन – पूर्णिमा होलिका दहन का दिन है। लोग घरों से लकड़ियाँ इकट्ठी करते हैं। अपने-अपने मुहल्ले में अलग-अलग होली जलाते हैं। होली जलाने से पूर्व स्त्रियाँ लकड़ी के ढेर को उपलों का हार पहनाती हैं, उसकी पूजा करती हैं और रात्रि को उसे अग्नि की भेंट कर देते हैं। लोग होली के चारों ओर खूब नाचते और गाते हैं तथा होली की आग में नई फसल के अनाज की बाल को भून कर खाते हैं।

होली से अगला दिन धुलेंडी का है। फाल्गुन की पूर्णिमा के चंद्रमा की ज्योत्स्ना, वसंत की मुस्कराहट, परागी फगुनाहट, फगुहराओं की मौज-मस्ती, हँसी-ठिठोली, मौसम की दुंदुभी बजाती धुलेंडी आती है। रंग भरी होली जीवन की रंगीनी प्रकट करती है। मुँह पर अबीर-गुलाल, चंदन या रंग लगाते हुए गले मिलने में जो मजा आता है, मुँह को काला- पीला रंगने में जो उल्लास होता है, रंग भरी बाल्टी एक दूसरे पर फेंकने में जो उमंग होती है, निशाना साधकर पानी भरा गुब्बारा मारने में जो शरारत की जाती है, वे सब जीवन की सजीवता प्रकट करते हैं।

चहुँ ओर अबीर-गुलाल, रंग भरी पिचकारी और गुब्बारों का समा बंधा है। छोटे- बड़े, नर-नारी, सभी होली के रंग में रंगे हैं। डफ-ढोल, मृदंग के साथ नाचती गाती, हास्य- रस की फुव्वारें छोड़ती, परस्पर गले मिलती, वीर बैन उच्चारती, आवाजें कसती, छेड़छाड़ करती टोलियाँ दोपहर तक होली के प्रेमानंद में पगी हैं। गोपालसिंह नेपाली ने इसका चित्रण बड़े सुंदर रूप में किया है-

बरस बरस पर आती होली, रंगों का त्योहार अनूठा।

चुनरी इधर उधर पिचकारी, गाल-भाल का कुमकुम फूटा।

लाल-लाल बन जाते काले, गोरी सूरत पीली नीली।

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति रसम ऋतु रंग रंगीली॥

आज होली उत्सव में शील और सौहार्द्र-संस्कारों की विस्मृति से मानव आचरण में चिंतनीय विकृतियों का समावेश हो गया है। गंदे और अमिट रासायनिक लेपों, गाली- गलौज, अश्लील गान और आवाज-कसी एवं छेड़छाड़ ने होली की धवल – फाल्गुनी, पूर्णिमा पर ग्रहण की गर्हित छाया छोड़ दी है, जिसने पर्व की पवित्रता और सत् संदेश की अनुभूति को तिरोहित कर दिया है।

आज होली परंपरा – निर्वाह की विवशता का प्रदर्शन मात्र रह गया है। कहीं होली की उमंग तो दीखती नहीं, शालीनता की नकाब चढ़ी रहती है। उल्लास दुबका रहता है। नशे से उल्लास की जाग्रति का प्रयास किया जाता है।

आज का मानव अर्थ-चक्र में दबा हुआ उससे त्रस्त है। भागते समय को वह समय की कमी के कारण पकड़ नहीं पाता। इसलिए आनंद, हर्ष, उल्लास, विनोद, उसके लिए दूज का चंद्रमा बन गए हैं। इस दम घोटू वातावरण में होली पर्व चुनौती है। इस चुनौती को स्वीकार करें। मंगलमय रूप में हास्य, व्यंग्य-विनोद का अभिषेक करें।

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