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‘जन्माष्टमी’ पर्व के पीछे का इतिहास क्या है?

janmashtami parw ke peeche ka itihas hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) जन्माष्टमी का नामकरण (2) कृष्ण का बहुमुखी व्यक्तित्व (3) पूर्वावतार के रूप में कृष्ण (4) मंदिरों की सजावट (5) मथुरा और वृंदावन में विशेष आयोजन।

भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी ‘जन्माष्टमी’ के नाम से जानी-पहचानी जाती है। इस दिन चतुः षष्टि (चौसठ) कलासंपन्न तथा भगवद्गीता के गायक योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उनका जीवन, कर्म, आचरण और उपदेश हिंदू समाज के आदर्श बने और वे हिंदुओं के पूज्य देवता बने। इसीलिए उनका जन्म दिन जन्माष्टमी नाम से विख्यात हुआ।

यद्यपि ईश्वर सर्वव्यापी हैं, सर्वदा और सर्वत्र वर्तमान हैं तथापि जनहितार्थ स्वेच्छा से साकार रूप में पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी परंपरा में भगवान् विष्णु का आठवाँ अवतरण कृष्ण रूप में पहचाना जाता है, जो देवकी-वसुदेव के आत्मज थे। इस अवतरण में प्रभु का उद्देश्य था ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ‘ तथा ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’  अर्थात् दुराचारियों का विनाश साधुओं का परित्राण और धर्म की स्थापना।

आत्म-विजेता, भक्त वत्सल श्रीकृष्ण बहुमुखी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे महान् योद्धा थे, किंतु उनकी वीरता सर्व परित्राण में थी। वे महान् राजनीतिज्ञ थे, उनका ध्येय था ‘सुनीति और श्रेय पर आधारित राजधर्म की प्रतिष्ठा।’ वे महान् ज्ञानी थे। उन्होंने ज्ञान का उपयोग ‘सनातन जन-जीवन’ को सुगम और श्रेयोन्मुख स्वधर्म सिखाने में किया। वे योगेश्वर थे। उनके योगबल और सिद्धि की सार्थकता ‘लोकधर्म के परिमार्जन एवं संवर्धन में ही थी।’ यह ध्यान रहे कि वे योगीश्वर नहीं; अपितु योगेश्वर थे। योग के ईश्वर अर्थात् योग के श्रेष्ठतम ज्ञाता, व्याख्याता, परिपालक तथा प्रेरक थे।

कृष्ण महान् दार्शनिक और तत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने कुलक्षय की आशंका से महाभारत के युद्ध में अर्जुन के व्यामोह को भंग कर ‘हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परतंप’ का उपदेश दिया। वे महान् राजनीतिज्ञ थे, महाभारत में पाण्डव पक्ष की विजय का श्रेय उनकी कूटनीतिज्ञता को ही है। वे धर्म के पंडित थे, इसलिए ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का धर्म नवनीत उन्होंने जन-जन के लिए सुलभ किया। वे धर्म प्रवर्तक थे, उन्होंने ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय कर भागवत धर्म का प्रवर्तन किया।

श्रीकृष्ण ईश्वर के पूर्णावतार थे। भागवत पुराण में पूर्वावतार का सांगोपांग रूपक वर्णित है। वे भागवत धर्म के प्रवर्तक थे। आगे चलकर वे स्वयं उपास्य मान लिए गए। दर्शन में इतिहास का उदात्तीकरण हुआ। परिमाणतः कृष्ण के ईश्वरत्व और ब्रह्मपद की प्रतिष्ठा हुई। वे जगद्गुरु रूप में प्रतिष्ठित हुए। ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ‘ द्वारा उनका अभिषेक हुआ।

कृष्ण के पूर्णावतार के संबंध में सूर्यकांत बाली की धारणा है—’ कृष्ण के जीवन की दो बातें हम अक्सर भुला देते हैं, जो उन्हें वास्तव में अवतारी सिद्ध करती हैं। एक विशेषता है, उनके जीवन में कर्म की निरंतरता। कृष्ण कभी निष्क्रिय नहीं रहे। वे हमेशा कुछ न कुछ करते रहे। उनकी निरंतर कर्मशीलता के नमूने उनके जन्म और स्तनंधय (दूध पीते) शैशव से ही मिलने शुरू हो जाते हैं। इसे प्रतीक मान लें (कभी-कभी कुछ प्रतीकों को स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होता) कि पैदा होते ही जब कृष्ण खुद कुछ करने में असमर्थ थे तो उन्होंने अपनी खातिर पिता वसुदेव को मथुरा से गोकुल तक की यात्रा करवा डाली। दूध पीना शुरू हुए तो पूतना के स्तनों को और उसके माध्यम से उसके प्राणों को चूस डाला। घिसटना शुरू हुए तो छकड़ा पलट दिया और ऊखल को फँसाकर वृक्ष उखाड़ डाले। खेलना शुरू हुए तो बक, अघ और कालिय का दमन कर डाला। किशोर हुए तो गोप-गोपियों से मैत्री कर ली। कंस को मार डाला। युवा होने पर देश में जहाँ भी महत्वपूर्ण घटा, वहाँ कृष्ण मौजूद नजर आए, कहीं भी चुप नहीं बैठे। वाणी और कर्म से सक्रिय और दो-टूक भूमिका निभाई और जैसा ठीक समझा, घटनाचक्र को अपने हिसाब से मोड़ने की पुरजोर कोशिश की। कभी असफल हुए तो भी अगली सक्रियता से पीछे नहीं हटे। महाभारत संग्राम हुआ तो उस योद्धा के रथ की बागडोर सँभाली, जो उस वक्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर था। विचारों का प्रतिपादन ठीक युद्ध क्षेत्र में किया। यानी कृष्ण हमेशा सक्रिय रहे, प्रभावशाली रहे, छाए रहे।  

इस दिन प्रायः हिंदू व्रत (उपवास) रखते हैं। दिन में तो प्रायः प्रत्येक घर में नाना प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। सायंकाल को नए-नए वस्त्र पहनकर मंदिरों में भगवान् के दर्शन करने निकल पड़ते हैं। रात्रि के बारह बजे मंदिरों में होने वाली आरती में भाग लेते हैं और प्रसाद प्राप्त कर लौटते हैं। चंद्रमा के दर्शन कर सब लोग बड़ी प्रसन्नता से व्रत का पारायण करते हैं।

इस दिन मंदिरों की शोभा अनिर्वचनीय होती हैं। चार-पाँच दिन पहले से उन्हें सजाया जाने लगता है। कहीं भगवान् कृष्ण की अलंकृत भव्य प्रतिमा दर्शनीय है, तो कहीं उन्हें हिण्डोले पर झुलाया जा रहा है। कहीं-कहीं तो उनके संपूर्ण जीवन की झाँकी प्रस्तुत की जाती है। बिजली की चकाचौंध मंदिर की शोभा को द्विगुणित कर रही है। उनमें होने वाले कृष्ण- चरित्र-गान द्वारा अमृत वर्षा हो रही है और कहीं-कहीं मंदिरों में होने वाली रासलीला में जनता भगवान् कृष्ण के दर्शन कर अपने को धन्य समझती है।

यद्यपि यह उत्सव भारत के प्रत्येक ग्राम और नगर में बड़े समारोहपूर्वक मनाया जाता है, किंतु मथुरा और वृंदावन में इसका विशेष महत्त्व है। भगवान् कृष्ण की जन्म- भूमि और क्रीड़ा-स्थली होने के कारण यहाँ के मंदिरों की सजावट, उनमें होने वाली रासलीला, कीर्तन एवं कृष्ण चरित्र-गान बड़े ही सुंदर होते हैं। भारत के कोने-कोने से हजारों लोग इस दिन मथुरा और वृंदावन के मंदिरों में भगवान् के दर्शनों के लिए आते हैं।

जन्माष्टमी प्रति वर्ष आती है। आकर कृष्ण की पुनीत स्मृति करवा जाती है। गीता के उपदेशों की याद ताजा कर जाती है। श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र की झाँकियों की कलात्मकता और भव्यता से मन के सुप्त धार्मिक भावों को झकझोर जाती है। एक दिन के व्रत से आत्म शुद्धि का अनुष्ठान करवा जाती है।

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