जैनेंद्र कुमार
(सन् 1905-1988)
बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के दैदीप्यमान सितारे जैनेंद्र कुमार का जन्म 2 जनवरी, सन् 1905 में कौड़ियागंज, जिला अलीगढ़ में हुआ। इनका बचपन का नाम आनंदी लाल था। जैनेंद्र जी की आरंभिक शिक्षा सन् 1911-18 तक ऋषभ ब्रहाचार्याश्रम, हस्तिनापुर में हुई। सन् 1919-20 में इन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अध्ययन किया।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वे पूरे मनोयोग से जुड़े रहे। डॉ. के. एम. मुंशी तथा प्रेमचंद्र के साथ मिलकर इन्होंने महात्मा गांधी की अध्यक्षता में “भारतीय साहित्य परिषद् की स्थापना की। प्रेमचंद की मृत्यु के उपरांत हंस का संपादन भी जैनेंद्र जी ने ही किया। जैनेंद्र जी को अनेक पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं जिनमें मुख्य हैं- पदमभूषण (भारत सरकार, 1971), साहित्य अकादमी की फैलोशिप (1974)। 24 दिसम्बर, 1988 को इनका निधन हो गया।
रचनाएँ – इनकी प्रकाशित कृतियों में ‘परख’, ‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’, ‘कल्याणी’, ‘विवर्त’, ‘सुखदा’ तथा ‘व्यतीत उपन्यास’, ‘फाँसी’, ‘वातायन’, ‘नीलम देश की राजकन्या’, ‘एक रात’, ‘दो चिड़ियाँ’, ‘पाजेब’, ‘जयसंधि’ आदि कहानी संग्रह हैं। प्रस्तुत ‘प्रश्न’, ‘जड़ की बात’, ‘पूर्वोदय’, ‘मंथन’, ‘सोच-विचार’ आदि निबंध संग्रह उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त इनके अनूदित ग्रंथ व संपादित ग्रंथ भी हैं।
पाठ-परिचय
‘पाजेब’ जैनेंद्र जी की बाल मनोविज्ञान की कहानी है। लेखक ने अत्यंत संवेदनशीलता से छोटी-छोटी घटनाएँ इसमें प्रस्तुत की हैं। पाजेब के खो जाने की घटना को लेकर बाल स्वभाव को बहुत ही स्वाभाविक और यथार्थपूर्ण ढंग से उजागर किया है। ये घटना अपनी सच्चाई से इतनी मार्मिक है कि बच्चों की अदालत में बड़ों को गुनहगार साबित कर देती है और बड़े अपने व्यवहार के पुनर्निरीक्षण पर बाध्य हो जाते हैं।
पाजेब
बाज़ार में एक नयी तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वह बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उसकी कड़ियाँ आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पाँव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं।
पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है।
हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी, हम पाजेब पहनेंगे। बोलिए, भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाजेब पहनेगी।
मैंने कहा कि कैसी पाजेब?
बोली कि हाँ, वही जैसी रुकमन पहनती है, जैसी शीला पहनती है।
मैंने कहा कि अच्छा-अच्छा!
बोली कि मैं तो आज ही मँगा लूँगी।
मैंने कहा कि अच्छा, भाई, आज सही।
उस वक्त तो खैर मुन्नी किसी काम में बहल गईं। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ, तब वह मुन्नी सहज मानने वाली न थी।
बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा, तो तेरी पाजेब अबके इतवार को जरूर लेती आऊँगी।
इतवार को बुआ आयी और पाजेब ले आयी। मुन्नी उन्हें पहनकर खुशी के मारे यहाँ- से वहाँ छुमकती फिरी। रुकमन के पास गयी और कहा देख रुकमन, मेरी पाजेब शीला को भी अपनी पाजेब दिखाई। सबने पाजेब पहनी देखकर उसे प्यार किया और तारीफ की। सचमुच, वह चाँदी की सफेद दो-तीन लड़ियाँ-सी टखनों को चारों ओर लिपटकर चुपचाप बिछी हुई, ऐसी सुघड़ लगती थी कि बहुत ही, और बच्ची की खुशी का ठिकाना न था। और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी- धजी देखकर बड़े खुश हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी मुन्नी को पाजेब – सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गये। मुन्नी की पाजेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह खूब हँसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे।
बुआ ने कहा कि अच्छा बेटा अबके जन्म दिन को तुझे भी बाईसिकिल दिलवाएँगे। आशुतोष बाबू ने कहा कि हम तो अभी लेंगे।
बुआ ने कहा, “छी-छी तू कोई लड़की है? ज़िद तो लड़कियाँ किया करती हैं, और लड़कियाँ रोती हैं। कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं!”
आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल जरूर लेंगे जन्म-दिन वाले रोज़। बुआ ने कहा कि हाँ, यह बात पक्की रही, जन्म-दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी। इस तरह वह इतवार का दिन हँसी-खुशी से पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गयी। पाजेब का शौक घड़ीभर का था। वह फिर उतारकर रख दी गई जिससे कहीं खो न जाये। पाजेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे।
श्रीमती ने हमसे कहा कि क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी एक बनवा लूँ। मैंने कहा कि क्यों न बनवाओ! तुम कौन चार बरस की नहीं हो।
खैर, यह हुआ। पर मैं रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा, “तुमने पाजेब तो नहीं देखी”?
मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब?
बोली, कि देखो, यहाँ मेज़-वेज़ पर तो नहीं है। एक तो है, पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहाँ गयी?
मैंने कहा कि जायेगी कहाँ? यहीं कहीं देख लो। मिल जायेगी।
उन्होंने मेरे मेज़ के कागज़ उठाने धरने शुरू किये और अलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया।
मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो? यहाँ वह कहाँ से आई?
जवाब में वह मुझी से पूछने लगीं कि तो फिर कहाँ है?
मैंने कहा कि तुमने ही तो रक्खी होगी। कहाँ रक्खी थी?
बतलाने लगी कि मैंने दोपहर के बाद कोई दो बजे उतारकर दोनों को अच्छी तरह
सम्भाल कर उस नीचे वाले बॉक्स में रख दी थीं। अब देखा तो एक है, दूसरी गायब है।
मैंने कहा कि तो चलकर वह इस कमरे में कैसे आ जायेगी? भूल हो गयी होगी। एक रखी होगी, एक वहीं कहीं फर्श पर छूट गयी होगी। देखो, मिल जायेगी। कहीं जा नहीं सकती।
इस पर श्रीमती कहा-सुनी करने लगीं कि तुम तो ऐसे ही हो। खुद लापरवाह हो, दोष उल्टे मुझे देते हो। कह तो रही हूँ कि मैंने दोनों संभाल कर रखी थीं।
मैंने कहा कि संभाल कर रखी थीं, तो फिर यहाँ-वहाँ क्यों देख रही हो? जहाँ रखी थीं वहीं से ले लो न। वहाँ नहीं है तो फिर किसी ने निकाली ही होगी।
श्रीमती बोलीं कि मेरा भी यही ख्याल हो रहा है। हो न हो, बंसी नौकर ने निकाली है। मैंने रखी, तब वह वहाँ मौजूद भी था।
मैंने कहा कि तो उससे पूछा?
बोलीं कि वह तो साफ इंकार करता है।
मैंने कहा, “तो फिर?”
श्रीमती जोर से बोलीं कि तो फिर मैं क्या बताऊँ? तुम्हें तो किसी बात की फिकर है नहीं। डाँटकर कहते क्यों नहीं हो, उसी बंसी को बुला कर? जरूर पाजेब उसी ने ली है?
मैंने कहा कि अच्छा, तो उसे क्या कहना होगा? यह कहूँ कि ला भाई पाजेब दे दे! श्रीमती झल्लाकर बोलीं कि हो चुका बस कुछ तुमसे। तुम्हीं ने तो उस नौकर को शहजोर बना रखा है। डाँट न फटकार, नौकर ऐसे सिर न चढ़ेगा तो क्या होगा।
बोलीं कि कह तो रही हूँ कि किसी ने उसे बॉक्स में से निकाला ही है। और सोलह में पन्द्रह आने यह बंसी है। सुन रहे हो न, वही है।
मैंने कहा कि मैंने बंसी से पूछा था। उसने नहीं ली मालूम होता है।
इस पर श्रीमती ने कहा कि तुम नौकरों को नहीं जानते। वे बड़े छंटे होते हैं। ज़रूर बंसी ही चोर है। नहीं तो क्या फरिश्ते लेने आते।
मैंने कहा कि तुमने आशुतोष से भी पूछा?
बोलीं, पूछा था। वह तो खुद ट्रंक और बॉक्स के नीचे घुस घुसकर खोज लगाने में मेरी मदद करता रहा है। वह नहीं ले सकता।
मैंने कहा उसे पतंग का बड़ा शौक है।
बोलीं कि तुम तो उसे बताते – बरजते कुछ हो नहीं। उमर होती जा रही है। वह यों ही रह जायेगा। तुम्हीं हो उसे पतंग की शह देने वाले।
मैंने कहा कि जो कहीं पाजेब ही पड़ी मिल गयी हो तो?
बोलीं कि नहीं, नहीं, नहीं मिलती तो वह बता न देता?
खैर बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और एक डोर का पिन्ना नया लाया है।
श्रीमती ने कहा कि यह तुम्हीं हो जिसने पतंग की उसे इजाज़त दी। बस,
बस, सारे दिन पतंग – पतंग। यह नहीं कि कभी उसे बिठाकर सबक की भी कोई बात पूछो। मैं सोचती हूँ कि एक दिन तोड़ ताड़ दूँ उसकी सब डोर और पतंग। हाँ, तो सारे वक्त वही धुन!
मैंने कहा कि खैर; छोड़ो। कल सवेरे पूछताछ करेंगे।
सवेरे बुलाकर मैंने गम्भीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा, एक पाजेब नहीं मिल रही है, तुमने तो नहीं देखी?
वह गुम हो आया। जैसे नाराज हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुँह नहीं खोला।
मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच कह देना चाहिए।
उसका मुँह और भी फूल आया और वह गुमसुम बैठा रहा।
मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धांत आए। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृत्ति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करना चाहिए, इत्यादि।
मैंने कहा कि बेटा आशुतोष, तुम घबराओ नहीं। सच कहने से घबराना नहीं चाहिए। ली हो तो खुलकर कह दो बेटा! हम कोई सच कहने की सजा थोड़े ही दे सकते हैं। बल्कि सच बोलने पर तो इनाम मिला करता है।
आशुतोष सब सुनता हुआ बैठा रह गया। उसका मुँह सूजा था। वह सामने मेरी आँखों में नहीं देख रहा था। रह-रहकर उसके माथे पर बल पड़ते थे।
“क्यों बेटे, तुमने ली तो नहीं?”
उसने सिर हिला कर क्रोध से अस्थिर और तेज़ आवाज़ में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने का हो आया, पर रोया नहीं। आँखों में आँसू रोक लिये।
उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ, उग्रता दोष का लक्षण है।
मैंने कहा देखा बेटा, डरो नहीं; अच्छा जाओ। ढूँढो; शायद कहीं पड़ी हुई वह पाजेब मिल जाये। मिल जायेगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे।
वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहाँ वहाँ पाजेब की तलाश में लग गया।
श्रीमती आकर बोलीं, “आशु से तुमने पूछ लिया? क्या ख्याल है?” मैंने कहा कि संदेह तो मुझे होता है। नौकर का काम तो यह है नहीं! श्रीमती ने कहा कि नहीं जी, आशु भला क्यों लेगा?
कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गंभीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्ज़ाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयानक हो सकती है। लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।
मैंने बुलाकर कहा, “अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न?”
वह कुछ देर तक कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक- एक छाया ताड़ना चाहता था।
मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि कोई बात नहीं। हाँ-हाँ, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ बेटा? कैसा हमारा सच्चा बेटा है।
मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया।
मैंने बहुत खुश होकर कहा कि दी है न छुन्नू को?
उसने सिर हिला दिया।
अत्यंत सांत्वना के स्वर में स्नेहपूर्वक मैंने कहा कि मुँह से बोलो। छुन्नू को दी है? उसने कहा, “हाँ आ।”
मैंने अत्यंत हर्ष के साथ दोनों बाँहों में लेकर उसे उठा लिया। कहा कि ऐसे ही बोल दिया करते हैं अच्छे लड़के। आशू हमारा राजा बेटा है। गर्व के भाव से उसे गोद में लिये- लिये मैं उसकी माँ की तरफ गया। उल्लासपूर्वक बोला कि देखो हमारे बेटे ने सच क़बूल किया है। पाजेब उसने छुन्नू को दी है।
सुनकर उसकी माँ खुश हो आई। उन्होंने उसे चूमा। बहुत शाबाशी दी और उसकी बलैयां लेने लगी!
आशुतोष भी मुस्करा आया अगरचे एक उदासी भी उसके चेहरे से दूर नहीं हुई थी। उसके बाद अलग ले जाकर मैंने उससे प्रेम से पूछा कि पाजेब छुन्नू के पास है न? जाओ, माँग ला सकते हो उससे?
आशुतोष मेरी ओर देखता हुआ बैठा रह गया। मैंने कहा कि जाओ बेटे! ले आओ। उसने जवाब में मुँह नहीं खोला।
मैंने आग्रह किया तो वह बोला कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा? मैंने कहा कि तो जिसको उसने दी होगी उसका नाम बता देगा। सुनकर वह चुप हो गया। मेरे बार-बार कहने पर वह यही कहता रहा कि पाजेब छुन्नू के पास न हुई तो वह देगा कहाँ से?
अंत में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होंगी। अच्छा, तुमने कहाँ से उठाई थी? “पड़ी मिली थी।”
“और फिर नीचे जाकर वह तुमने छुन्नू को दिखाई?”
“हाँ!”
“फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे?”
“हाँ! “
“कहाँ बेचने को कहा?”
‘कहा मिठाई लाएँगे। “
“नहीं पतंग लाएँगे।”
अच्छा, पतंग को कहा?”
“हाँ!”
“सो पाजेब छुन्नू के पास रह गई?”
“हाँ।”
“तो उसी के पास होनी चाहिए न? या पतंग वाले के पास होगी। जाओ बेटा, उससे ले आओ। कहना हमारे बाबू जी तुम्हें इनाम देंगे।”
वह जाना नहीं चाहता था। उसने फिर कहा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो कहाँ से देगा?
मुझे उसकी ज़िद बुरी मालूम हुई। मैंने कहा कि तो कहीं तुमने उसे गाड़ दिया है? क्या किया है? बोलते क्यों नहीं?
वह मेरी ओर देखता रहा और कुछ नहीं बोला।
मैंने कहा, “कुछ कहते क्यों नहीं?”
वह गुम सुम रह गया। और नहीं बोला।
मैंने डपटकर कहा कि जाओ, जहाँ हो वहीं से पाजेब लेकर आओ।
जब वह अपनी जगह से नहीं उठा और नहीं गया तो मैंने उसे कान पकड़कर उठाया। कहा कि सुनते हो? जाओ, पाजेब लेकर आओ। नहीं तो घर में तुम्हारा काम नहीं है।
उस तरह उठाया जाकर वह उठ गया और कमरे से बाहर निकल गया। निकलकर बरामदे के एक कोने में रूठा मुँह बनाकर खड़ा रह गया।
मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। यह लड़का सच बोलकर अब किस बात से घबरा रहा है, यह मैं कुछ समझ न सका। मैंने बाहर आकर जरा धीरे से कहा कि जाओ भाई, जाकर छुन्नू से कहते क्यों नहीं हो?
पहले तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और जवाब दिया तो बार-बार कहने लगा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा?
मैंने कहा कि जितने में उसने बेची होगी वह दाम दे देंगे। समझे न जाओ, तुम कहो तो।
छुन्नू की माँ तो कह रही हैं कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी।
जिस पर आशुतोष की माँ ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है। क्यों रे आशुतोष तेने दी थी न?
आशुतोष ने धीरे से कहा कि हाँ दी थी।
दूसरी ओर से छुन्नू बढ़कर आया और हाथ फटकारकर बोला कि मुझे नहीं दी। क्यों रे मुझे कब दी थी?
आशुतोष ने जिद्द बाँधकर कहा कि दी तो थी। कह दो नहीं दी थी?
नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की माँ ने छन्नू को खूब पीटा और खुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गये, यह कुलच्छिनी औलाद जाने कब मिटेगी?
बात दूर तक फैल चली। पड़ोस की स्त्रियों में पवन पड़ने लगी और श्रीमती ने घर लौटकर कहा कि छुन्नू और उसकी माँ दोनों एक से हैं।
मैंने कहा कि तुमने तेजा तेजी क्यों कर डाली? ऐसे कोई बात भला कभी सुलझती है!
बोली कि हाँ, मैं तेज़ बोलती हूँ। अब जाओ ना, तुम्हीं उसके पास से पाजेब निकालकर लाते क्यों नहीं? तब जानूँ जब पाजेब निकलवा दो।
मैंने कहा कि पाजेब से बढ़कर शांति है। और अशांति से तो पाजेब मिल नहीं जायेगी। श्रीमती बुदबुदाती हुई नाराज होकर मेरे सामने से चली गई।
थोड़ी देर बाद छुन्नू की माँ हमारे घर आई। श्रीमती उन्हें लाई थीं। अब उनके बीच गर्मी नहीं थी, उन्होंने मेरे सामने आकर कहा कि छुन्नू तो पाजेब के लिए इंकार करता है। वह पाजेब कितने की थी मैं उसके दाम भर सकती हूँ।
मैंने कहा, “यह आप क्या कहती हैं। बच्चे, बच्चे हैं। आपने छुन्नू से सहूलियत से पूछा भी?”
उन्होंने उसी समय छुन्नू को बुलाकर मेरे सामने कर दिया। कहा कि क्यों रे, बता क्यों नहीं देता जो तैने पाजेब देखी हो?
छुन्नू ने जोर से सिर हिलाकर इन्कार किया और बताया कि पाजेब आशुतोष के हाथ में मैंने देखी थी और वह पतंग वाले को दे आया है। मैंने खूब देखी थी वह चाँदी की थी।
“तुम्हें ठीक मालूम है?”
“हाँ, वह मुझसे कह रहा था कि तू भी चल। पतंग लाएँगे।”
“ पाजेब कितनी बड़ी थी? बताओ तो। “
छुन्नू ने उसका आकार बताया। जो ठीक ही था।
मैंने उसकी माँ की तरफ देखकर कहा कि देखिए न पहले यही कहता था कि मैंने पाजेब देखी तक नहीं। अब कहता है कि देखी है।
माँ ने मेरे सामने छन्नू को खींचकर तभी धम्म-धम्म पीटना शुरू कर दिया। कहा कि क्यों रे, झूठ बोलता है? तेरी चमड़ी न उधेड़ी तो मैं नहीं।
मैंने बीच-बचाव करके छुन्नू को बचाया। वह शहीद की भाँति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं था और एक कोने में खड़े आशुतोष को जाने किस भाव से वह देख रहा था।
खैर, मैंने सबको छुट्टी दी। कहा कि जाओ बेटा छुन्नू, खेलो। उसकी माँ को कहा कि आप उसे मारिएगा नहीं और पाजेब कोई ऐसी बड़ी चीज नहीं है।
छुन्नू चला गया। तब उसकी माँ ने पूछा कि आप उसे कसूरवार समझते हो। मैंने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है। इस पर छुन्नू की माँ ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा, “चलो बहन जी, मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाये देती हूँ। एक-एक चीज देख लो। होगी पाजेब तो जायेगी कहाँ?”
मैंने कहा, “छोड़िए भी। बेबात की बात बढ़ाने से क्या फायदा!” सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाये ले रही थी। कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया, यो मेरा नाम नहीं।
खैर, जिस-जिस भाँति बखेड़ा टाला। मैं इस झंझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका। जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो आशुतोष को धमकाना मत। प्यार से सारी बातें पूछना। धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न?
शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाजेब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पाँच आने जो दिये वह छुन्नू के पास हैं। इस तरह रत्ती – रत्ती बात उसने कह दी है।
कहने लगीं कि बड़े मैंने प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकला है। दो-तीन घंटे में मगज मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।
मैं सुनकर खुश हुआ। मैंने कहा कि चलो अच्छा है, अब पाँच आने भेजकर पाजेब मँगा लेंगे। लेकिन यह पतंग वाला भी कितना बदमाश है, बच्चों के हाथ से ऐसी चीजें लेता है। उसे पुलिस में दे देना चाहिए। उचक्का कहीं का!
फिर मैंने पूछा कि आशुतोष कहाँ है?
उन्होंने बताया की बाहर ही कहीं खेल-खाल रहा होगा।
मैंने कहा की बंसी, जाकर उसे बुला तो लाओ।
बंसी गया और उसने आकर कहा कि वह अभी आते हैं।
क्या कर रहा है?”
‘छुन्नू के साथ गिल्ली-डण्डा खेल रहे हैं।”
थोड़ी देर में आशुतोष आया। तब मैंने उसे गोद में लेकर प्यार किया। आते-आते उसका चेहरा उदास हो गया था और गोद में लेने पर भी वह विशेष प्रसन्न मालूम नहीं हुआ। उसकी माँ ने खुश होकर कहा कि हमारे आशुतोष ने सब बातें अपने आप पूरी-पूरी बता दी हैं। हमारा आशुतोष बड़ा सच्चा लड़का है।
आशुतोष मेरी गोद में टिका रहा। लेकिन अपनी बड़ाई सुनकर भी उसको कुछ हर्ष नहीं हुआ प्रतीत होता था।
मैंने कहा कि आओ चलो अब क्या बात है। क्यों हज़रत तुमको पाँच ही आने ही तो मिले हैं न? हम से पाँच आने पैसे माँग लेते तो क्या हम न देते? सुनो, अब से ऐसा मत करना, बेटे!
कमरे में ले जाकर मैंने उससे फिर पूछताछ की, “क्यों बेटा, पतंग वाले ने पाँच आने तुम्हें दिये न?”
“हाँ।”
और वह छुन्नू के पास है न?”
“हाँ।”
अभी तो उसके पास होंगे न?”
“नहीं।”
खर्च कर दिए?”
“नहीं।”
“नहीं, खर्च किये?”
“हाँ।”
“खर्च किये, कि नहीं खर्च किए?”
उस ओर से प्रश्न करने पर वह मेरी ओर देखता रहा, उत्तर नहीं दिया।
“बताओ, खर्च कर दिये कि अभी हैं?”
जवाब में उसने एक बार ‘हाँ’ कहा तो दूसरी बार ‘नहीं’ कहा।
मैंने कहा कि तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें नहीं मालूम है?
“हाँ।’
“बेटा, मालूम है न?”
“हाँ!”
“पतंग वाले से पैसे छुन्नू ने लिये हैं न?”
“हाँ।”
“तुमने क्यों नहीं लिये?”
वह चुप।
“पाँचों इकन्नी थीं, या दुअन्नी और पैसे भी थे?”
वह चुप!
“ बतलाते क्यों नहीं हो?”
चुप!
“इकन्नियाँ कितनी थीं, बोलो?”
“ दो।”
“बाकी पैसे थे?”
“हाँ।”
“दुअन्नी नहीं थी?”
“हाँ।”
“दुअन्नी थी?”
“हाँ।”
मुझे क्रोध आने लगा। डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी? सच तो बताओ कितनी इकन्नियाँ थीं और कितना क्या था?
वह गुम सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला।
‘बोलते क्यों नहीं?”
वह नहीं बोला।
“सुनते हो! बोलो ..नहीं तो
आशुतोष डर गया और कुछ नहीं बोला?
‘सुनते नहीं, मैं क्या कह रहा हूँ?”
इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने पकड़कर उसके कान खींच लिये। वह बिना आँसू लाये गुम सुम खड़ा रहा!
अब भी नहीं बोलोगे?”
वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका। मैंने जोर से बुलाया, “बंसी, यहाँ आओ, इसको ले जाकर कोठरी में बन्द कर दो।”
बंसी नौकर उसे उठाकर ले गया और कोठरी में मूँद दिया।
दस मिनट बाद मैंने फिर उसे पास बुलवाया। उसका मुँह सूजा हुआ था। बिन कुछ बोले उसके ओंठ हिल रहे थे। कोठरी में बन्द होकर भी वह रोया नहीं।
मैंने कहा, “क्यों रे, अब तो अकल आई?”
वह सुनता हुआ गुम सुम खड़ा रहा।
अच्छा पतंग वाला कौन-सा है? दाईं तरफ का वह चौराहे वाला?
उसने कुछ ओठों में ही बड़बड़ा दिया। जिसे मैं कुछ न समझ सका।
“वह चौराहे वाला? बोलो …”
“हाँ।”
“देखो, अपने चाचा के साथ चले जाओ। बता देना कि कौन-सा है। फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न?”
यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, “देखो, पाँच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। आशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाजेब माँगेगा। अव्वल तो वह पाजेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डाँटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूँगा। बच्चों से माल ठगता है? समझे? नरमी की ज़रूरत नहीं है।”
“और आशुतोष अब जाओ अपने चाचा के साथ जाओ।” वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस से मस होता दिखाई नहीं दिया।
“नहीं जाओगे?”
उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊँगा।
मैंने तब उसे समझाकर कहा कि “भैया घर को चीज़ है, दाम लगे हैं। भला पाँच आने में रुपया का माल किसी के हाथ खो दोगे। जाओ, चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हाँ, पैसे दे देना और अपनी चीज़ वापस माँग लेना। दे दे, नहीं दे, नहीं दे। तुम्हारा इससे सरोकार नहीं सच है न, बेटे! अब जाओ।”
पर वह जाने को तैयार ही नहीं दीखा। मुझे लड़के की गुस्ताखी पर बड़ा बुरा मालूम हुआ। बोला, “इसमें बात क्या है। इसमें मुश्किल कहाँ है? समझाकर बात कर रहे हैं सो समझता ही नहीं, सुनता ही नहीं।”
मैंने कहा कि, “क्यों रे, नहीं जाएगा?”
उसने फिर सिर हिला दिया कि नहीं जाऊँगा।
मैंने प्रकाश, अपने छोटे भाई को बुलाया। कहा, “प्रकाश इसे पकड़कर ले जाओ।’ प्रकाश ने उसे पकड़ा और आशुतोष अपने हाथ-पैरों से उसका प्रतिकार करने लगा। वह साथ जाना नहीं चाहता था।
मैंने अपने ऊपर बहुत जब करके फिर आशुतोष को पुचकारा, कहा कि जाओ भाई! डरो नहीं। अपनी चीज घर में आयेगी। इतनी सी बात समझते नहीं। प्रकाश इसे गोदी में ले जाओ और जो चीज़ माँगे उसे बाज़ार से दिलवा देना। जाओ भाई, आशुतोष!
पर उसका मुँह फूला हुआ था। जैसे-तैसे बहुत समझाने पर वह प्रकाश के साथ चला। ऐसे चला मानो पैर उठाना उसे भारी हो रहा हो। आठ बरस का यह लड़का होने आया फिर भी देखो न किसी भी बात की उसमें समझ नहीं है। मुझे जो गुस्सा आया तो क्या बतलाऊँ। लेकिन यह याद करके कि गुस्से से बच्चे संभलने की जगह बिगड़ते हैं। मैं अपने को दबाता चला गया। खैर, वह गया तो मैंने चैन की सांस ली।
लेकिन देखता क्या हूँ कि कुछ देर में प्रकाश लौट आया है। मैंने पूछा, “क्यों?”
बोला कि आशुतोष भाग आया है।
मैंने कहा कि, “अब वह कहाँ है?”
“वह रूठा खड़ा है घर में नहीं आता।”
‘जाओ पकड़कर तो लाओ।”
वह पकड़ा हुआ आया। मैंने कहा, “क्यों रे, तू शरारत से बाज़ नहीं आयेगा? बोल, जायेगा कि नहीं?”
वह नहीं बोला, तो मैंने कसकर उसे दो चांटे दिये। थप्पड़ लगते ही वह एकदम चीखा, पर फौरन चुप हो गया। वह वैसे ही मेरे सामने खड़ा रहा।
मैंने उसे देखकर मारे गुस्से से कहा कि ले जाओ इसे मेरे सामने से जाकर कोठरी में बन्द कर दो। दुष्ट!
इस बार वह आध – एक घंटे बन्द रहा। मुझे ख्याल आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जैसे कि दूसरा रास्ता न दीखता था। मार-पीटकर मन को ठिकाना देने की आदत पड़ गई थी, और कुछ अभ्यास न था।
खैर, मैंने इस बीच प्रकाश को कहा कि तुम दोनों पतंग वाले के पास जाओ। मालूम करना कि किसने पाजेब ली है। होशियारी से मालूम करना। मालूम होने पर सख्ती करना। मुरौव्वत की जरूरत नहीं, समझे?
प्रकाश गया पर लौटने पर बताया कि किसी के पास पाजेब नहीं है।
सुनकर मैं झल्ला आया, कहा कि तुमसे कुछ काम नहीं हो सकता। जरा-सी बात नहीं हुई, तुमसे क्या उम्मीद रखी जाये?
वह अपनी सफाई देने लगा। मैंने कहा, बस तुम जाओ।”
प्रकाश मेरा बहुत लिहाज मानता था। वह मुँह डालकर चला गया। कोठरी खुलवाने पर आशुतोष को फर्श पर सोता पाया। उसके चेहरे पर अब भी आँसू नहीं थे। सच पूछो तो मुझे उस समय बालक पर करुणा हुई। लेकिन आदमी में एक ही साथ जाने क्या-क्या विरोधी भाव उठते हैं।
मैंने उसे जगाया। वह हड़बड़ाकर उठा। मैंने कहा, “कहो, क्या हालत है?”
थोड़ी देर तक वह समझा ही नहीं। फिर शायद पिछला सिलसिला याद आया। झट उसके चेहरे पर वही जिद, अकड़ और प्रतिरोध के भाव दिखाई देने लगे।
मैंने कहा कि या तो राजी राजी चले जाओ, नहीं तो इस कोठरी में फिर बन्द किए देते हैं।
आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा नहीं मालूम हुआ।
खैर, उसे पकड़कर लाया और समझाने लगा। मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, “बेटा, इसे पतंग वाले को देना और पाजेब माँग लेना। कोई घबराने की बात नहीं। तुम तो समझदार लड़के हो।”
उसने कहा कि जो पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा?
‘इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पाँच आने में पाजेब दी है! न हो छन्नू को भी साथ ले लेना। समझे?”
वह चुप हो गया। आखिर समझाने पर जाने को तैयार हुआ। मैंने प्रेम-पूर्वक उसे प्रकाश के साथ जाने को कहा। उसका मुँह भारी देखकर डाँटने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी।
बुआ ने आशुतोष के सिर पर हाथ रखकर पूछा कि कहाँ जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूँ।
आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बुआ से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो। आशुतोष रुकने को उद्यत था। वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा।
बुआ ने पूछा, “क्या बात है?”
मैंने कहा, “कोई बात नहीं, जाने दो न उसे।”
पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डाँटकर कहा, “प्रकाश, इसे ले क्यों नहीं जाते हो।”
बुआ ने कहा कि “बात क्या है? क्या बात है?”
मैंने पुकारा, “तू बंसी भी साथ जा बीच से लौटने न पावे।” सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बुआ ने कहा, “क्यों उसे सता रहे हो?”
मैंने कहा कि कुछ नहीं, जरा यों ही-
फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा। राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती मुहल्ले में भी राजनीति होती है। यह भार स्त्रियों पर टिकता है। कहाँ क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि चर्चा स्त्रियों को लेकर रंग फैलाती है। इसी प्रकाश की कुछ बातें हुई, फिर छोटा- सा बक्सा सरकाकर बोली, इनमें वह कागज़ है तो तुमने माँगे थे। और यहाँ-
यह कहकर उन्होंने अपनी बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाजेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हो। मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या?
बोली कि उस रोज़ भूल से यह एक पाजेब मेरे साथ ही चली गयी थी।
शब्दार्थ
आलोचना – गुण-दोष विवेचन
पाजेब – नुपूर, पायल
बलैया लेना – बलिहारी जाना
टखना – पिंडली एवं एड़ी के बीच की दोनों ओर उभरी हड्डी
हर्ष – प्रसन्नता
सुघड़ – सुडौल, सुंदर
प्रतीत – ज्ञात
मनसूबा – इरादा
सुपुर्द – सौंपना
शहजोर – बलवान
गुस्ताख़ी – अशिष्टता, उदंडता
प्रतिकार – कार्य आदि को रोकने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न
प्रतिरोध – विरोध
फ़रिश्ता – देवदूत
रोष – क्रोध
आतंक – डर
भयावह – भयानक
मुरौव्वत – उदारता
लाचारी – विवशता
उद्यत – तैयार
अभ्यास
(क) विषय-बोध
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए-
(i) मुन्नी के लिए पाजेब कौन लाया?
(ii) मुन्नी को पाजेब मिलने के बाद आशुतोष भी किस चीज़ के लिए जिद करने लगा?
(iii) लेखक की पत्नी को पाजेब चुराने का संदेह सबसे पहले किस पर हुआ?
(iv) आशुतोष को किस चीज़ का शौक था?
(v) वह शहीद की भाँति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं था …….।
उपर्युक्त संदर्भ में बताइए कि कौन पिटता रहा?
(vi) गुम हुई पाजेब कहाँ से मिली?
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन-चार पंक्तियों में दीजिए-
(i) लेखक को आशुतोष पर पाजेब चुराने का संदेह क्यों हुआ?
(ii) पाजेब चुराने का संदेह किस-किस पर किया गया?
(iii) आशुतोष ने चोरी नहीं की थी फिर भी उसने चोरी का अपराध स्वीकार किया। इसका क्या कारण हो सकता है?
(iv) पाजेब कहाँ और कैसे मिली?
3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह-सात पंक्तियों में दीजिए-
(i) आशुतोष का चरित्र चित्रण कीजिए।
(ii) आशुतोष के माता-पिता ने बिना किसी मनोवैज्ञानिक सूझबूझ के आशुतोष के प्रति जो व्यवहार किया उसे अपने शब्दों में लिखिए।
(iii) आशुतोष के किन कथनों और कार्यों से संकेत मिलता है कि उसने पाजेब नहीं चुराई थी?
(iv) “प्रेम से अपराध वृत्ति को जीता जा सकता है, आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है।
इस वाक्य का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ख) भाषा-बोध
1. निम्नलिखित वाक्यों में उपयुक्त स्थान पर उचित विराम चिह्न का प्रयोग कीजिए-
(i) बुआ ने कहा छी-छी तू कोई लड़की है
(ii) मैंने कहा छोड़िए भी बेबात की बात बढ़ाने से क्या फायदा
(iii) मैंने कहा क्यों रे तू शरारत से बाज़ नहीं आयेगा
2. निम्नलिखित मुहावरों के अर्थ समझकर इनका अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
मुहावरा अर्थ वाक्य
खुशी का ठिकाना न रहना – बहुत प्रसन्न होना.
टस से मस न होना – अपनी जिद्द पर अड़े रहना
चैन की साँस लेना – राहत महसूस करना
मुँह फुलाना – रूठ जाना, नाराज़ होना
3. निम्नलिखित वाक्यों का हिन्दी में अनुवाद कीजिए-
(i) ਸ਼ਾਮ ਹੋਣ ਤੇ ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਭੂਆ ਚਲੀ ਗਈ।
(ii) ਸੱਚ ਕਹਿਣ ਵਿੱਚ ਘਬਰਾਉਣਾ ਨਹੀਂ ਚਾਹੀਦਾ।
(ii) ਉਸ ਦਿਨ ਭੁੱਲ ਨਾਲ ਇਹ ਇੱਕ ਪਜੇਬ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਚਲੀ ਗਈ ਸੀ।
(iv)
(ग) रचनात्मक अभिव्यक्ति
1. पाजेब कहानी के लेखक के स्थान पर यदि आप होते तो आशुतोष के साथ कैसा व्यवहार करते?
2. यदि कभी बिना किसी पुष्टि के आप पर चोरी का इल्ज़ाम लगा दिया जाए तो आपकी स्थिति कैसी होगी?
(घ) पाठ्येतर सक्रियता
1. बालमन से संबंधित खेल (जैनेंद्र कुमार), ईदगाह (प्रेमचंद) आदि कहानियों को पढ़िए।
2. ‘पाजेब’ कहानी को अध्यापक की सहायता से एकांकी के रूप में मंचित कीजिए।
3. कहानी को पढ़ने के पश्चात आपको अपने माता-पिता से जुड़े कुछ प्रसंग याद आए होंगे- उन्हें डायरी में लिखिए
4. मार, डाँट और भय से बच्चों को सुधारा जा सकता है-इस विषय पर कक्षा में वाद- विवाद कीजिए।
(ङ) ज्ञान-विस्तार
1. आना पुरानी मुद्रा में ‘आना’ (इकन्नी) दुअन्नी, चवन्नी आदि मुद्राएँ चलती थी।
पुरानी मुद्रा के अनुसार ‘आना’ से अभिप्राय था एक रुपये का सोलहवाँ हिस्सा।
2. गिल्ली डंडा : गिल्ली डंडा पूरे भारत में काफी प्रसिद्ध खेल है। इसे सामान्यतः एक बेलनाकार लकड़ी से खेला जाता है जिसकी लंबाई बेसबॉल या क्रिकेट के बल्ले के बराबर होती है। इसी की तरह की छोटी बेलनाकार लकड़ी को गिल्ली कहते हैं जो किनारों से थोड़ी नुकीली या घिसी हुई होती है।
खेल का उद्देश्य डंडे से गिल्ली को मारना है। गिल्ली को ज़मीन पर रखकर डंडे से किनारों पर मारते हैं जिससे गिल्ली हवा में उछलती हैं। विरोधी खिलाड़ी को गिल्ली को पकड़ना होता है। यदि वह इसमें सफल हो जाता है तो पहला खिलाड़ी आऊट हो जाता है। यदि वह गिल्ली को न पकड़ पाए तो उसे उस गिल्ली को पहले खिलाड़ी के डंडे पर मारना होता है। इस तरह खेल इसी क्रम में जारी रहता है।