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मकर संक्रांति पर्व की वैज्ञानिक महत्ता

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संकेत बिंदु – (1) मकर संक्रांति का अर्थ (2) सूर्य के संक्रमण में महत्त्वपूर्ण संयोग (3) अलग-अलग राज्यों में पर्व का महत्त्व (4) तिल, गुड़ और मेवे का सेवन (5) उत्तरायण और दक्षिमायन का महत्त्व।

पृथ्वी सूर्य की चहुँ ओर परिक्रमा करती है। सूर्य के क्रमण करने का जो मार्ग है उसमें कुल सत्ताईस नक्षत्र हैं तथा उनकी बारह राशियाँ हैं। ये राशियाँ हैं – मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन। किसी मास की जिस तिथि को सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उसे संक्रांति कहा जाता है। ‘सम् + क्रांति’ संक्रांति। संक्रांति का अर्थ ही है सूर्य का एक राशि से अन्य राशि में जाना। सूर्य बारह मास में बारह राशियों में चक्कर लगाता है। जिस दिन सूर्य मेष आदि राशियों का भ्रमण करता हुआ मकर राशि में प्रवेश करता है, उस दिन को ‘मकर संक्रांति’ कहते हैं।

सूर्य के संक्रमण में दो महत्त्वपूर्ण संयोग हैं – (1) उत्तरायण (2) दक्षिणायन। सूर्य छह मास उत्तरायण में रहता है और छह मास दक्षिणायन में। उत्तरायण काल में सूर्य उत्तर की ओर तथा दक्षिणायन – काल में सूर्य दक्षिण की ओर मुड़ता हुआ-सा दिखाई देता है। इसीलिए उत्तरायण-काल की दशा में दिन बड़ा और रात छोटी होती है। इसकी विपरीत दक्षिणायन की दशा में रात बड़ी और दिन छोटा होता है। ‘मकर संक्रांति’ सूर्य के उत्तरायण की ओर उन्मुख और ‘कर्क संक्रांति’ सूर्य के दक्षिणायन की ओर उन्मुख होने को कहते हैं।

मकर संक्रांति सूर्य पूजा का पर्व है। सूर्य कृषि का देवता है। सूर्य अपने तेज से अन्न को पकाता है, समृद्ध करता है। इसीलिए उसका एक नाम ‘पृपा’ (पुष्ट करने वाला) भी है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य पूजा करके किसान भगवान भास्कर के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है।

तमिलनाडु का पोंगल मकर संक्रांति का पर्याय है। पंजाब में लोहड़ी का पर्व मकर- संक्रांति की पूर्व संध्या को मनाया जाता है। मकर संक्रांति को ‘माघी’ भी कहते हैं। तमिलनाडु के लोग इसे द्रविड सभ्यता की उपज मानते हैं। यही कारण है कि द्रविड लोग इसे धूम-धाम से मनाते हैं। मद्रास में पोंगल ही ऐसा पर्व है जिसे सभी वर्ग के लोग मनाते हैं। मकर संक्रांति का यह पर्व असम में ‘माघ बिहू’ के नाम से मनाया जाता है।

पंजाब की लोहड़ी हँसी-खुशी और उल्लास का विशिष्ट पर्व है। मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर लकड़ियाँ एकत्रित कर जलाई जाती हैं। तिलों, मक्की की खीलों से अग्नि-पूजन किया जाता है। अग्नि के चहुँ ओर नाचना-गाना पर्व के उल्लास का प्रतीक है। प्रत्येक पंजाबी परिवार में नव-वधू या नव-शिशु की पहली लोहड़ी को विशेष समारोह से मनाया जाता है।

उत्तर- भारत में इस पर्व पर गंगा, यमुना अथवा पवित्र नदियों या सरोवरों में स्नान तथा तिल, गुड़, खिचड़ी आदि दान देने का महत्त्व है। लड़की वाले अपनी कन्या के ससुराल मकर संक्रांति पर मिठाई, रेवड़ी, गजक तथा गर्म वस्त्रादि भेजते हैं। उत्तर भारत में नव- वधू की पहली संक्रांति का विशेष महत्त्व है। नव-वधू के मायके से वस्त्र, मीठा तथा बर्तन आदि काफी समान भेजने की प्रथा है। सधवा स्त्रियाँ इस दिन विशेष रूप में चौदह वस्तुएँ मनसती हैं और परिवार में अथवा गरीबों में बाँटती हैं। वस्तुओं में कंबल, स्वेटर, साड़ी से लेकर फल और मेवा तक मिनसे जाते हैं।  

आंध्र प्रदेश में तो यह पर्व पौष मास की पूर्णिमा से दो दिन पूर्व शुरू हो जाता है। अंतिम दिन गृहणियाँ आमंत्रित सजातीय सुहागनों के माथे व मंगलसूत्र पर कुंकुम, चेहरे पर चंदन, पैरों में हल्दी लगाती हैं। अबीर और गुलाल छिड़कती हैं। गुड़ मिश्रित तिल तथा बेर आँचल में दिए जाते हैं। अयंगार वैष्णव खिचड़ी में घी व गुड़ मिलाकर, उसके गोले बनाकर क्षत्रियों के घरों में देते हैं।

शीत ऋतु के लिए तिल, गुड़, मेवा आदि बलवर्द्धक पदार्थ हैं। इनके सेवन से शरीर में बल और वीर्य बढ़ता है।

जो व्यक्ति इस शीत ऋतु में तिल, रुई, पान, गर्म जल (से स्नान) और गर्म भोजन का सेवन नहीं करता, वह मंद भागी है। संक्राति पर्व पर यह तिल, गुड़, मेवा दान की प्रथा शायद इसलिए रही है कि कोई मंद भागी न रहे। दूसरी ओर, चौदह वस्तुओं के मिनसने की पृष्ठभूमि भी यही रही है कि जिनके पास गर्म वस्त्र या तन ढकने को कपड़े अल्प हों, उन्हें भी दान में ये वस्तुएँ प्राप्त हो जाएँ।

मकर संक्राति के दिन प्रत्येक पवित्र नदी या सरोवर पर स्नानार्थियों का मेला-सा लगता है, किंतु तीर्थराज प्रयाग और गंगा सागर (कलकत्ता) में इस अवसर पर विशाल मेला लगता है, जहाँ देश के अन्य प्रांतों से भी सहस्रों तीर्थयात्री पहुँचते हैं।

उत्तर- अयन अर्थात् मकर रेखा से उत्तर और कर्क रेखा की ओर होने वाली सूर्य की गति। ऋतु-गणना के अनुसार शिशिर, वसंत और ग्रीष्म, इन तीन ऋतुओं में सूर्य उत्तर दिशा में गमन करता है। उत्तरायण की अवधि छह मास की है। उत्तरायण काल में सूर्य अपने तेज से संसार के स्नेह भाग (जलीयांश) को हर लेता है तथा वायु तीव्र और शुष्क होकर संसार के स्नेह भाग का शोषण करती हैं।

दक्षिण – अयन अर्थात् सूर्य की वह गति जो कर्क रेखा से दक्षिण और मकर रेखा की ओर होती है। ऋतु गणना के अनुसार वर्षा, शरद् तथा हेमंत, इन तीन ऋतुओं में सूर्य दक्षिण की ओर गमन करता है। दक्षिणायन की अवधि भी छह मास है। इन छह महीनों में मेघ, वर्षा एवं वायु के कारण सूर्य का तेज कम हो जाता है। चंद्रमा बलवान् रहता है। आकाश से (वर्षा के कारण) जल गिरने से संसार पर नाप शांत हो जाता है।

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