साहित्यकार समाज का एक प्राणी है जो कुछ वह लिखता है अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित होकर लिखता है। समाज के व्यवहार, धर्म, कर्म, वातावरण, नीति और रीति-रिवाज किसी न किसी रूप में उसके काव्य में आए बिना नहीं रहते। आदि कवि वाल्मीकि ने भी आदि-काव्य रामायण में अपने समय की राज्य कुटुंब की व्यवस्था को लेकर उसे आदर्श रूप दिया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में भी यही किया है। साहित्य के इतिहासों पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि समाज का साहित्य से कितना घनिष्ठतम संबंध है। शेक्सपीयर के नाटकों में रानी विक्टोरिया के समय के समाज का प्रतिबिंब हैं बनार्ड शॉ के साहित्य में आज के युग का। प्रेमचंद के उपन्यासों में 1930 और उससे पहले भारत के सामाजिक आंदोलनों के बिंब हैं, और इसी प्रकार मैथिलीशरण के काव्य में भी। काव्य- कार क्योंकि समाज का एक अंग है इसलिए वह समाज से बाहर जाकर कोई चमत्कारपूर्ण रचना नहीं कर सकता और यदि करता भी है तो वह समाज में अपनायी नहीं जा सकती, क्योंकि उसमें अपनेपन का अभाव रहता है।
साहित्य में समाज का दो प्रकार का प्रतिबिंब मिलता है, एक विपक्षी और दूसरा पक्षी। जो समाज का विपक्षी साहित्य होता है वह समाज की कटुआलोचना करके उसकी कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न करता है वह समाज की पुरातन रूढ़ियों के प्रति विद्रोह करता है और यही विद्रोह की भावना लेकर एक विस्फोट की भाँति आता है। उसमें मंडन न होकर खंडन की प्रवृति होती है। वह निर्माण न करके विनाशकारी प्रवृति से अधिक प्रेरित रहता है। वर्तमान प्रगतिवादी साहित्य इस प्रकार के साहित्य का प्रतीक है। यह साहित्य एक नया समाज चाहता है, नये रीति-रिवाज चाहता है। धर्म के बेखेड़ों से मानव को मुक्त कर देना चाहता है, जाति-पाँति के बंधनों को तोड़ देना चाहता है, ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा यह सब कुछ यह कुछ नहीं देखना चाहता। यह समाज की किसी मान्यता को नहीं मानता। इसकी मान्यताएँ नवीन हैं, इसका सामाजिक ढाँचा नवीन है, इसकी कल्पनाएँ नवीन हैं और इसकी विचारधारा नवीन है। इस साहित्य में हमें समाज का धुंधला सा प्रतिविम्ब दिखलाई देता है परंतु आने वाले समाज की यह साहित्य आधारशिला होता है। इस प्रकार के साहित्य को हम समाजगत न कहकर व्यक्तिगत कहेंगे।
दूसरा साहित्य वह है जो समाज की मान्यताओं को मानते हुए सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ लेकर चलता है। वह समाज को जैसा देखता है वैसा का वैसा ही चित्रित भी करता है। वह सामाजिक व्यवस्था की कटु आलोचना नहीं करता और न क्रांति दृष्य ही होता है। कहीं-कहीं पर यह समाज की त्रुटियों की उपेक्षा भी करता है। समाज की नीति, धर्म, मर्यादा इत्यादि का यह खंडन नहीं करता। यह समाज की स्वीकृति का साहित्य है, जिसमें समाज का स्पष्ट प्रतिविम्ब रहता है। यह साहित्य अपने समय की परिस्थितियों से संतुष्ट रहता है, समय की वाह-वाह इसके साथ रहती है और समाज के प्रति असन्तोष की भावना इसमें नहीं रहती। इस साहित्य में गति कम होती है और भविष्य के प्रति विचार भी कम होता है। यह अपने ही काल मे संतुष्ट रहता है। यह साहित्य पूर्ण रूप से समाजगत होता है और इसमें व्यक्ति की प्रधानता न होकर समाज की प्रधानता रहती है।
हमने साहित्य को व्यक्तिगत और समाजगत दो भागों में विभक्त किया। पर दोनों प्रेरणा समाज से ही प्राप्त करते हैं। उद्गम एक होकर भी मूल दोनों के पृथक्-पृथक् हो जाते हैं समाजगत साहित्य में प्रतिक्रिया मिलती है। वह समाज को ज्यों-का-त्यों स्वीकार ही नहीं करता वरन् उसकी रूढ़ियों को छिन्न-भिन्न होता हुआ भी नहीं देख सकता। सामाजिक रूढ़ियों के प्रति उस के अंदर एक मोह रहता है एक प्रेम रहता और आकर्षण भी इसके ठीक विप रीत व्यक्तिगत साहित्य समाज में उथल-पुथल कर देना चाहता है; वह चाहता है परिवर्तन एक क्रांतिकारी परिवर्तन। यह वर्तमान पर दृष्टि न डालकर भविष्य पर ही देखता है। वह ज्यों-का-त्यों रहने का आदी नहीं, वह तो प्रगति चाहता है धर्म में, समाज में रीति रिवाजों में और यहाँ तक कि राजनीति में भी। जहाँ पहले प्रकार का साहित्य समाज में स्थिरता चाहता है वहाँ दूसरे प्रकार का साहित्य उसमें ताजगी लाने का प्रयत्न करता है और समय के पुरानेपन के कारण उसमें जो सड़न पैदा हो गई है उसे काटकर फेंक देना चाहता है।
भक्ति काल, रीति-काल और वर्तमान काल के सुधारवादी साहित्य समाज की मान्यताओं को मानकर चले हैं। कुछ सुधारात्मक प्रवृतियों के अतिरिक्त कोई क्रांति की भावनाएँ उनमें नहीं मिलतीं। अपने-अपने काल का प्रतिबिंब उन साहित्यों में स्पष्ट रूप से वर्तमान है। उनमें पूर्ण रूप से स्वीकृति की भावना है, विद्रोह की नहीं। यही कारण था कि इस साहित्य के सृजनकर्ता अपने समय में पूजे गए, सम्मानित हुए और उनकी रचनाओं को समाज ने अपना कह-कर अपनाया। संत साहित्य ने समाज की कुरीतियों के विरुद्ध विद्रोह किया, एक क्रांति पैदा करने का प्रयत्न किया, इसलिए समाज ने उनकी उपेक्षा की और उन्हें बहू सम्मान न मिल सका जो भक्त कवियों को प्राप्त हुआ। आज के युग के प्रगतिशील लेखक समाज के कटु आलोचक हैं। वह समाज के रीति-रिवाजों पर गहरी चोट करते हैं और उसकी मान्यताओं को नहीं मानते। सुधारवादियों में भी क्रांति की लहर दौड़ रही है। समाज की रूढियों को ज्यों-का-त्यों मानकर चलने वाले साहित्य को संघर्ष के अंदर से होकर नहीं निकलना होता और दूसरे वर्ग को प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए समाज से टक्कर लेनी होती है। पहले प्रकार के साहित्य के मार्ग में सब सुविधाएँ हैं और दूसरे प्रकार के साहित्य के मार्ग में सब असुविधाएँ ही असुविधाएँ हैं।
समाज का प्रतिबिंब साहित्य में दो प्रकार से होता है। एक प्रत्यक्ष रूप से और दूसरा अप्रत्यक्ष रूप से जिस साहित्य में प्रत्यक्ष रूप से समाज का प्रतिबिंब होता है वहाँ पर समाज को आधार रूप से लेकर लेखक चलता है और जहाँ अप्रत्यक्ष रूप से समाज का प्रतिबिंब आता है वहाँ साहित्य में समाज आधारस्वरूप न आकर गौण रूप से आता है, परंतु कोई भी साहित्य ऐसा नहीं लिखा जा सकता कि जिसे लेखक समाज से नितांत अछूता ही रख सके। हम ऊपर भी कह चुके हैं कि लेखक समाज का एक अंग मात्र है और वह कोई भी रचना ऐसी नहीं लिख सकता कि जिसमें उसके अपने व्यक्तित्व की कहीं-न-कहीं पर झलक न आ जाए और यदि कहीं पर भी उसके साहित्य में अपनी झलक आ जाती है तो वह झलक उसकी अपनी न होकर समाज की ही होती है। हिंदी साहित्य के इतिहास में कोई भी कवि अथवा लेखक ऐसा नहीं है कि जिसके साहित्य में उसके समय की छाप न मिलती हो। यही दशा संसार के सभी साहित्यों की है। इससे सिद्ध हुआ कि साहित्य समाज से दूर रहकर अपना स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर सकता। कला कला के लिए चिल्लाने वाले कलाकार भी समाज से अपने को पृथक करके नहीं चल सकते। उनके साहित्य में भी किसी-न-किसी रूप में समाज की झलक आ ही जाती है।