Sahityik Nibandh

हिंदी कविता में राष्ट्रीयता की भावना  

hindi kavita men rashtreeyata kii bhavana par ek laghu nibandh

राष्ट्रीयता का संकीर्ण अर्थ है देश-भक्ति और व्यापक अर्थों में राष्ट्रीयता का अर्थ होता है राष्ट्र के विचार, राष्ट्र की संस्कृति और राष्ट्र की भाषा। विचार, संस्कृति और भाषा का समुदाय कहलाता है राष्ट्रीयता। एक राष्ट्रीय कवि वह है जिसने राष्ट्र की भाषा में राष्ट्रीय संस्कृति को लेकर राष्ट्र के विचारों का प्रतिपादन किया हो। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, सूर और मैथिलीशरण गुप्त इस विचार से राष्ट्रीय कवि हैं जिस प्रकार शेक्सपीयर इंगलैंड का और एवंगेट जर्मनी के राष्ट्रीय कवि हैं उसी प्रकार तुलसी, सूर और ‘गुप्त’ जी हिंदी के कवि हैं। तुलसी से ‘मानस’ में भारत राष्ट्र की आत्मा के दर्शन होते हैं और सूर के ‘सूर-सागर’ में राष्ट्र का आश्वासन मिलता है, एक अवलंब मिलता है, बल मिलता है, जीवन और जीने की शक्ति मिलती है और इस प्रकार ‘गुप्त’ जी की ‘भारत-भारती’ और ‘साकेत’ में राष्ट्र के धार्मिक और राजनैतिक उत्थानों का व्यापक संदेश मिलता है। परंतु यह व्यापक अर्थ समालोचक लोग प्रयोग नहीं करते। जब हम कवियों पर दृष्टि डालते राष्ट्रीय हैं तो हमारी दृष्टि केवल देश-प्रेम, जाति-प्रेम और संस्कृति प्रेम रखने वाले ही कवियों पर चली जाती है। हमारे दृष्टिकोण में संकीर्णता आ जाती है। यही राष्ट्रीयता की साधारण परिभाषा है।

यदि हम राष्ट्रीयता को उसके संकीर्ण अर्थों में लें, तो भी हमें इस विषय पर विचार करते समय दो विचारधाराओं को लेकर चलना होता है। इसमें पहिली विचारधारा का संबंध उस काल से है जो अंग्रेजी शासन के पश्चात् दिखलाई देती है। संसार के इतिहास पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि – धर्म और राजनीति में एक प्रबल संघर्ष रहा है। अंग्रेजी राज्य से पूर्व मुसलमान शासन काल में धर्म का बोलबाला था। इसलिए हिंदू धर्म के ऊपर आक्रमणकारी बनकर आने वाले मुसलमानों के विरुद्ध जिस भावना को कवियों ने अपनी वाणी में मुखरित किया है उस समय वही राष्ट्रीयता मानी जाती थी। ‘चंद’ और ‘भूषण’ इस प्रकार की राष्ट्रवादी कविता के प्रतीक हैं। इन कवियों ने उस समय की जनता के हृदयों को राजनैतिक दृष्टिकोण से बल दिया, उत्साह दिया. धर्म के सहायक तथा रक्षक वीर योद्धाओं का गुणगान किया।

समय ने करवट ली। मुसलमान राज्य भारत पर छा गया। भारतीय सभ्यता ने दूसरों को अपने में खपाना सीखा है, हज्म कर जाना सीखा है और उसने मुसलमानियत को भी अपना ही रूप दे दिया। अपनी जैसी जातियाँ उन्हें दे दी और अपने जैसे रीति-रिवाज भी। कवीर जैसे महाकवियों में समन्वय की भावना भरी और ‘सूर’ तथा ‘तुलसी’ जैसे राष्ट्रीय कवियों ने जनता के उद्-भ्रान्त हृदयों को अपनी गोद में लेकर सहारा दिया। भक्ति का वह स्रोत भारतीय जीवन का वैराग्य एकदम समाप्त कर देना चाहता था।

मुसलमान-काल के पश्चात् राजनैतिक युग आया। पहले युग में, जिसमें राजनीति प्रधान हो गई, देश के नेताओं ने आपसी फूट और हिंदू-मुसलमानों का भेद-भाव भुलाने का आदेश दिया। राष्ट्र में एक नवीन विचारधारा ने जन्म लिया और वह राजनीति के पीछे-पीछे चल पड़ी।

भारतेंदु-काल में सर्वप्रथम इस राष्ट्रीयता के दर्शन होते हैं। राष्ट्रीय समन्वय में संस्कृति के उत्थान की नेताओं और लेखकों ने कल्पना की और राष्ट्र तथा धर्म को पृथक् पृथक् कर दिया। भारत का समाज दो दलों में विभक्त हो गया। एक पूर्ण राजनैतिक राष्ट्रवादी और दूसरा हिंदू धर्मी। जो दल प्रगतिशील था उसने धर्म के बखेड़े को भारत की पराधीनता के सम्मुख बैठाकर एक ओर रख दिया और जो प्रतिक्रियावादी या प्राचीनतावादी था उसने वही पुरानी प्रणाली को अपनाये रखा।

साहित्य में तो स्वयं प्रगति होती है। इसलिए साहित्य के क्षेत्र में दूसरे दल का अधिक महत्त्व नहीं बन सका। राजनीति में स्वार्थ को लेकर नेता चलते हैं इसलिए प्रतिक्रियावादी भी अपनी जड़ों को खोखला देखकर भी उन्हें जमाये रखने का ही धोखा जनता को देने का प्रयत्न किया करते थे। वास्तव में सत्य यह है कि जो व्यतीत हो चुका वह लौटेगा नहीं। साहित्य के क्षेत्रों में क्योंकि स्वार्थ नहीं है इसलिए विचारक को क्या पड़ी है कि वह मुक्त होकर विचार न करे और नवीनता को प्रश्रय न दे।

अंग्रेजी राज्य 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय पराजय के पश्चात् दृढ़ हो गया। इस काल के राष्ट्रीय कवियों ने देश का करुण चित्र अंकित किया है। ‘प्रेमधन’ जी ने लिखा कि भारत में अंग्रेजी राज्य आ जाने से-

दुख अति भारी इक यह जो बढ़त दोनता।

भारत में संपत्ति की दिन-दिन होत होनता।|

‘भारत दुर्दशा’ में भारत की परिस्थति का भारतेंदु जी ने अच्छा चित्र अंकित किया है। सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना होने पर ‘प्रेमधन’ जी सहर्ष कहते हैं-

हुआ प्रबुद्ध वृद्ध भारत निज आरत दशा निशा का।

समय अंत अतिशय प्रमुदित हो तनिक न उसने ताका।|

इस प्रकार राष्ट्रीयता की भावना पृथक्-पृथक् धाराओं में बहती हुई ‘गुप्त’ जी की “भारत-भारती तक आ पहुँचती है। ‘भारत-भारती’ में राष्ट्र को स्वतंत्र करने का स्पष्ट संकेत मिलता है। 1918 के असहयोग आंदोलन से राष्ट्रीयता ने और पंख पसारे और माखनलाल चतुर्वेदी, ‘सनेही’ सुभद्राकुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ इत्यादि कवियों ने फुटकर रचनाओं द्वारा राष्ट्रीयता की भावना से पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर भारत की जनता को जागृत किया। सुभद्राकुमारी की फड़कती हुई कविता हमें ‘भूषण’ की याद दिलाती है। ‘झाँसी की रानी’ में जो ओज है वह भूषण के अतिरिक्त अन्य किसी की कविता में नहीं मिलता।

बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी। यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी॥ हो मतवाली विजय, मिटादे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। आज राष्ट्रीयता का बोल बाला है। सियारामशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, सुधीन्द्र, ‘चकोरी तथा अन्य अनेकों छोटे-मोटे कवि इस धारा के अंत-गंत आ जाते हैं। इस काल की राष्ट्रीय कविता केवल पराधीनता से भारत को उभारने के लिए चमत्कार मात्र है। एक विद्रोह है विदेशी शासन के प्रति। कला के लिए उसमें स्थान बहुत है। इस कविता का इसलिए राजनैतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से जितना महत्त्व है उतना कविता होने से नहीं। काव्य के क्षेत्र में आज स्वतंत्र हो जाने पर आशा है कि कुछ राष्ट्रीय कवि जन्म लें या वर्तमान कवियों का ध्यान उस ओर जाए  और वह राष्ट्र के वास्तविक अर्थ को समझकर संस्कृति, समाज, राजनीति, भाषा, कला और काव्य-परंपरा का ध्यान रखकर साहित्य का सृजन करें। प्रतिभाशाली कवियों से हम आशा करते हैं कि वह हिंदी साहित्य के इस अभाव की पूर्ति करेंगे।

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