महादेवी वर्मा की कविता में करुणा का अपार सागर लहरें मारता है। दुख और रोदन से ही प्रस्फुटित होकर उनकी कविता चलती है। कविवर ‘पंत’ की यह पंक्तियाँ-
“वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा ज्ञान उमड़कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।”
महादेवी के विषय में पूर्ण रूप से चरितार्थ हो जाती है। महादेवी की इस शैली को कुछ आलोचक दुखवाद कहकर पुकारते हैं। यह दुख बाद आज के युग में न केवल महादेवी वर्मा के ही गीतों का प्राण बनकर आया है वरन् जय-शंकर ‘प्रसाद’ का ‘आँसू’, ‘पंत’ की ‘ग्रंथि’ तथा भगवतीचरण और बच्चन तक के काव्यों में मिलता है।
इस दुख-वाद के मूल में हमें आध्यात्मिक असंतोष और राजनैतिक कारणों को पाते हैं। छायावाद का आरंभ इस दुख-वाद और पलायनवाद के सम्मिश्रण से हुआ। भारतीय जीवन आध्यात्मिक तत्त्वों को भुलाकर पराधीनता में असहाय-सा हो गया था। उसी में कुछ जागृति भरने के लिए या यों कहें कि अपनी दयनीय परिस्थिति पर रोने के लिए इस वाद का जन्म हुआ। बुद्धिवाद का ज्यों-ज्यों प्रसार होता गया त्यों-त्यों यह दुख-वाद के अंदर से निकलकर स्थूल रूप धारण करता चला गया।
महादेवी वर्मा के दुख-बाद में आध्यात्मिक तत्त्व प्रधान है। श्री रायकृष्ण-दास जी ‘नीरजा’ की भूमिका में लिखते हैं, “उनकी (महादेवी की) काव्य-साधना आध्यात्मिक है। उसमें आत्मा का परमात्मा के प्रति आकुल प्रणय निवेदन है। कवयित्री की आत्मा मानो इस विश्व में बिछुड़ी हुई प्रेयसी की भाँति अपने प्रियतम का स्मरण करती है। उसकी दृष्टि से विश्व की संपूर्ण प्राकृतिक शोभा-सुषमा एक अनंत अलौकिक चिर-सुंदर की छाया मात्र है।” महादेवी वर्मा के साहित्य में दार्शनिक चिंतन, स्त्री-सुलभ भावों की कोमलता, साहित्यिक परंपराओं से प्राप्त सहानुभूति छायावाद का चमत्कृत चित्रण, तत्सम शब्दों की मधुर शंकार और प्रकृति का रंगीन चित्रण बहुत सुंदर ढंग से संचित करके रख गए हैं। महादेवी वर्मा को हम किसी भी अन्य कवि के पीछे चलता हुआ नहीं पाते, उनकी अपनी धारा है, अपनी शैली है, अपने विचार हैं और अपनी कल्पनाएँ हैं।
महादेवी ने आत्मा को ‘प्रोषित पतिका’ के रूप में रखा है और उनका यह चित्रण ‘नीरजा’ प्रकाशित होने से पहिली रचनाओं में ही स्पष्ट हो जाता है। उनके हृदय में एक टीस उठती है और उससे विकल होकर उनकी कविता आध्यात्मिक विचारावलि को लेकर मुखरित होने लगती है। उनकी कविता में इस प्रकार एक तरह की रहस्यात्मकता रहती है और उसी को हम इनका दर्शन कहते हैं। रहस्यवादी का ज्ञान व्यष्टि मे समष्टि की ओर जाता है और समष्टि से व्यष्टि की ओर वह कोरा पृथ्वी के ही निकट रहकर तर्क पर आधारित नहीं रहता। रहस्यवादी कवि कभी-कभी तो संसार को न देखकर अपने को और परब्रह्म को ही देखना है। उसके नयनों की पुतलियों में एक ही भाव समा जाता है। उसे जिस वस्तु का साक्षात्कार या सहज ज्ञान होता है उसे वह अनेकों प्रकार के प्रेम-प्रतीकों द्वारा व्यक्त करता है। रहस्यवादी कवि चरम तत्त्व का आत्म-तत्त्व से संबंध स्थापित करना ही अपना एक उद्देश्य समझता है। प्रेम प्रतीकों द्वारा आत्मा-परमात्मा, व्यक्त-अव्यक्त, ससीम असीम, पूर्ण अपूर्ण, साकार-निराकार के पारस्परिक संबंध का गान करना ही रसवादी कवि का लक्षण होता है। महा-देवी लिखती हैं-
“विरह का जलजात जीवन, विरह कजलजात
वेदना में जन्म, करुणा में मिला अवसान।”
प्रकृति को परमात्मा से मिलने वाला जीवन विरह का स्रोत है। आत्मा इस विरह के दुख स्रोत में पैदा होने वाला जलजात है। मानव की उत्पत्ति इस दुख से ही हुई है। यह आत्मा निर्विकार और निष्काम है। आत्मा को सब चीजों का ज्ञान है और ज्ञान होने पर ही उसमें वैराग्य की भावना उत्पन्न होती है। अव्यक्त की एक झलक पा जाने पर ही आत्मा सांसारिक बंधनों से अपने को मुक्त कर अलौकिक आनंद की ओर अग्रसर हो जाती है।
(1) महादेवी वर्मा ने आत्मा की स्थिति ‘प्रेम की पीर मानी है।
(2) ज्यों-ज्यों आत्मा को इस प्रेम पीर का अनुभव होता जाता है त्यों-त्यों वह परब्रह्म के निकट पहुँचता जाता है।
(3) बिना परब्रह्म के अनुग्रह के मुक्ति प्राप्त नहीं होती।
(4) आत्मा की परमात्मा के प्रति विह्वलता आत्मा की पूर्वानुभूति है। यह सभी बातें कबीर के रहस्यवाद से मिलती-जुलती है। जहाँ तक ज्ञान, दर्शन और चिंतन का संबंध है महादेवी की कविता में योग का समा-वेश हमें नहीं मिलता। यहाँ पहुँचकर उनकी धारा कबीर से हटकर जायसी की तरफ बहने लगती है, परंतु जायसी की ‘प्रेम-पीर और महादेवी की प्रेम-पीर में अंतर है। कविता के बहिरंग में तो आकाश-पाताल का अंतर है परंतु सूक्ष्म अंतर उसके आत्म-तत्त्व में भी है।
जलते दीपक को आत्मा का प्रतीक मानकर कवयित्री लिखती हैं-
1. मोम-सा तन धूल चुका है, अब दीप-सा मन जल चुका है।
2. तू जल-जल कितना होता क्षय
मधुर मिलन में मिट जाता तू
अंधकार और प्रकाश सब ज्ञान-अज्ञान के कारण है। विरह की साधना से दोनों का भेद मिट जाता है। जब चेतना थक जाएगी, तन मोम की तरह गल जाएगा और मन दीपक की लौ की भाँति शुद्ध हो जाएगा तब जीवात्मा प्रकाश के दर्शन करेगी और उस समय अंधकार प्रकाश में और प्रकाश अंधकार में लय हो जाएगा।
महादेवी में मीरा की झलक मिलती है। साधना को दोनों ने ही अपनी कविताओं में विशेष स्थान दिया है। परंतु न तो मीरा में महादेवी वर्मा की कल्पना है और ना ही महादेवी में मीरा को स्वाभाविकता और प्रेम-दिवानगी। मीरा में निर्गुण की झलक अवश्य मिलती है परंतु प्रधानता सगुण को ही दी है। परंतु महादेवी के काव्य में हमें सगुण के लिए कोई स्थान ही नहीं मिलता। यहाँ तो पूर्ण रूप से निर्गुण-चिंतन है।
महादेवी में विद्वत्ता है, मीरा में नहीं; महादेवी में काव्य परंपरागत सौंदर्य और उसकी पूर्ति है, मीरा में है उसकी स्वाभाविकता, पांडित्य नहीं; महादेवी में है सुंदर शब्द चयन, मीरा में इसका अभाव है; महादेवी में निर्गुण दार्शनिक चिंतन है मीरा की सगुण भक्ति में कहीं-कहीं निर्गुण दर्शन की झलक है; प्रेम-पीर दोनों में समान है— इस प्रकार हम मीरा और महादेवी की कवि-ताओं पर एक तुलनात्मक दृष्टि भी डाल सकते हैं।
कविवर ‘निराला’ अद्वैतवादी होने के नाते आत्मा को निर्लेप मानते हैं परंतु महादेवी तो अपने को बंधनों में बाँधने से भी नहीं सकुचाती-
क्यों मुझे प्रिय हो न बंधन?
बीन बंदी तार को झंकार है आकाशचारी।
इसी प्रकार वह अपनी कविता को ‘आकाशचारी’ मानती हैं। महादेवी को अपनी ससीमता पर भी गर्व है, दुख नहीं। महादेवी वर्मा ने सुंदर गीतों में, कलात्मक छंदों में नवीन प्रतीकों को लेकर जो धारा प्रवाहित की है हर प्रकार से अपने में अपनापन रखती है। उसका हर विचार भारतीय है और प्राचीनता की उस पर गहरी छाप है। बुद्धिवाद हमें महादेवी की कविता से बहुत कम क्या, नहीं के ही बराबर मिलता है। शुद्ध दार्शनिक चिंतन-प्रधान इनकी कविताएँ हैं जिन्हें मधुर कंठ द्वारा गाया जा सकता है। वर्तमान युग के गायक उन्हें अपनाने का प्रयत्न कर रहे हैं परंतु उन्हें वह सफलता अभी प्राप्त नहीं हो सकती है जो सूर और मीरा के पदों को प्राप्त है।