साहित्य दर्पणकार ने रसात्मक वाक्य को काव्य माना है। रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्दों के समूह को रसगंगाधर के रचियता ने काव्य कहा है। काव्य के अंतर्गत गद्य और पद्य दोनों ही आ जाते हैं। यहाँ हम केवल कविता विषय पर ही विचार करेंगे। जिस पद्यमयी रचना को पढ़कर चित्त आह्लादित हो उठे, अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो, मन सांसारिक दुख को भूलकर आनंद-विभोर हो उठे उसे कविता कहते हैं। इस विषय पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचार देखिए –
“कविता वह साधना है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। राग से यहाँ अभिप्राय प्रवृति और निवृति के मूल में रहने वाली अंत:करण की वृत्ति से है। जिस प्रकार निश्चय के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिए भी कुछ विषयों का बाह्य या प्रत्यक्ष मानस अपेक्षित होता है। यही हमारे रोगों या मनोवेगों के जिन्हें साहित्य में भाव कहते हैं-विषय है।
रागों या वेगस्वरूप मनोवृत्तियों का सृष्टि के साथ उचित सामंजस्य स्थापित करके कविता मानव जीवन के व्यापकत्व की अनुभूति उत्पन्न करने का प्रयास करती है। यदि इन प्रवृत्तियों को समेटकर मनुष्य अंत:करण के मूल रागात्मक अंश को सृष्टि से किनारे कर ले तो फिर उसके जड़ हो जाने में क्या संदेह है? यदि वह लहलहाते हुए खेतों और जंगलों, हरी घास के बीच घूम-घूम कर बहते हुए नालों, काली चट्टानों पर चाँदी की तरह ढलते हुए झरनों, को देख क्षण भर लीन न हुआ, तो उसके जीवन में क्या रह गया? नाना रूपों साथ मनुष्य की रागात्मिका प्रवृत्ति का सामंजस्य ही कविता का लक्ष्य है। वह जिस प्रकार प्रेम, क्रोध, करुणा, घृणा आदि मनोवेगों या भावों पर सान चढ़ा-कर उन्हें तीक्ष्ण करती है उसी प्रकार जगत् के नाना रूपों और व्यापारों के साथ उनका उचित संबंध स्थापित करने का भी प्रयोग करती है।
कविता हमारे मनोभावों को उच्छ्वसित करके हमारे जीवन में एक नया जीवन डाल देती है। हम सृष्टि के सौंदर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है, हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है। कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं। केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या करने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती है तो हमें आह्लाद क्रोध, करूणा आदि से विचलित कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते हैं। केवल बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेजित नहीं करती। काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है। अतः कार्य प्रवृत्ति के लिए कविता मन में वेग उत्पन्न करती है।
कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुख, आनंद और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव करने में अभ्यस्त होते हैं जिससे हृदय की स्तब्धता हटती है और मनुष्यता आती है।
मनोरंजन करना कविता का वह प्रधान गुण है जिससे वह मनुष्य के चित्त को अपना प्रभाव जमाने के लिए वश में किए रहती है, उसे इधर-उधर जाने नहीं देती। यही कारण है कि नीति और संबंधी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करते, जैसा कि काव्य या उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है। केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’, ‘सदा सच बोलो’, ‘चोरी करना महा पाप है’ हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जाएगा; झूठा सच्चा हो जाएगा, और चोर चोरी करना छोड़ देगा। क्योंकि पहले तो मनुष्य का चित्त ऐसी सूखी शिक्षाएँ ग्रहण करने के लिए उद्यत ही नहीं होता, दूसरे मानव जीवन पर उनका कोई प्रभाव अंकित न देखकर वह उनकी कुछ परवाह नहीं करता। परंतु कविता अपनी मनोरंजक शक्ति के द्वारा पढ़ने या सुनते वाले का चित्त उछटने नहीं देती, उसके हृदय के मर्मस्थानों को स्पर्श करती है और सृष्टि में उक्त कामों के स्थान और संबंध की सूचना देकर मानव जीवन पर उनके प्रभाव और परिणाम विस्तृत रूप से अंकित करके दिखलाती है।
परंतु केवल मन को अनुरंजित करना और सुख पहुँचाना ही कविता का धर्म नहीं है। कविता केवल विलास की सामग्री नहीं क्या हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि का आदि काव्य, कालिदास का मेघदूत, तुलसीदास का रामचरित-मानस या सूरदास का सूरसागर विलास की सामग्री हैं? यदि इन ग्रंथों से मनोरंजन होता है तो चरित्र संशोधन भी अवश्य होता है। हमें खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी भाषा के अनेक कवियों ने शृंगार रस की उन्माद-कारिणी उक्तियों से साहित्य को इतना भर दिया है कि कविता भी विलास की एक सामग्री समझी जाने लगी है।
चरित्र-चित्रण द्वारा जितनी सुगमता से शिक्षा दी जा सकती है, उतनी सुगमता से किसी और उपाय द्वारा नहीं। आदि-काव्य रामायण में जब हम भगवान रामचंद्र के प्रतिज्ञा-पालन, सत्यव्रताचरण और पितृ-भक्ति आदि की छटा देखते हैं, भरत के सर्वोच्च स्वार्थ त्याग और सर्वांगीपूर्ण साहित्यक चरित्र का अलौकिक तेज देखते हैं, तब हमारा हृदय श्रद्धा, भक्ति और आश्चर्य से स्तंभित हो जाता है। इसके विरुद्ध जब हम रावण की दुष्टता और उद्दंडता का चित्र देखते हैं, तब समझते हैं कि दुष्टता क्या चीज है और उसका प्रभाव और परिणाम सृष्टि में क्या है? अब देखिए, कविता द्वारा कितना उपकार होता है। उसका काम, भक्ति, श्रद्धा, दया, करुणा, क्रोध और प्रेम आदि मनोरंगों को तीव्र और परिमार्जित करना तथा सृष्टि की वस्तुओं और व्यापारों से उनका उचित और उपयुक्त संबंध स्थिर करना है।
कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और ऐसे-ऐसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है, जिसके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है।
कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा घना बंडल बाँधता आ रहा है, जिसके भीतर फँसकर वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का संबंध कभी-कभी नहीं रख सकता। इस बात से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए कविता मनुष्य जाति के संग लग गई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि शेष प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।
कविता सृष्टि सौंदर्य का अनुभव कराती है और मनुष्य को सुंदर वस्तुओं में अनुरक्त और कुत्सित वस्तुओं से विरक्त कराती है कविता जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी के मुख आदि का सौंदर्यचित्त में अंकित कराती है, उसी प्रकार आदर्श, वीरता, त्याग, दया इत्यादि का सौंदर्य भी दिखाती है। जिन वृत्तियों का प्रायः बुरा रूप ही हम संसार में देखा करते हैं उनका सुंदर रूप भी वह अलग करके दिखाती है। दश वदन निधन-कारी राम के क्रोध के सौंदर्य पर कौन मोहित न होगा? जो कविता रमणी के रूप-सौंदर्य से हमें आह्लादित करती है, वही उसके अंत:करण को सुंदरता और कोमलता आदि की मनोहारिणी छाया दिखाकर मुग्ध भी करती है। बाह्य सौंदर्य के अवलोकन से हमारी आत्मा को जिस प्रकार संतोष होता है, उसी प्रकार मानसिक सौंदर्य से भी जिस प्रकार वन, नदी, पर्वत, झरने आदि से हम आह्लादित होते हैं, उसी प्रकार मानसिक अंतःकरण में प्रेम स्वार्थ त्याग, दया-दाक्षिण्य, करूणा, भक्ति आदि उदात्त वृत्तियों को प्रतिष्ठित देख हम आनन्दित होते हैं। कविता सौंदर्य और सात्विक वृत्ति या कर्त्तव्य पराणयता नहीं देखना चाहती। इसी से उत्कर्ष साधन के लिए कवियों ने प्रायः रूप-सौंदर्य और अंत:करण के सौंदर्य का मेल कराया है।
जो लोग स्वार्थ-वश व्यर्थ की प्रशंसा और खुशामद करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं, वे सरस्वती का गला घोंटते हैं। ऐसी तुच्छ वृत्ति वालों को कविता न करनी चाहिए। कविता उच्चारण, उदार और निःस्वार्थ हृदय की उपज है। सत्कवि मनुष्य मात्र के हृदय में सौंदर्य का प्रवाह बहाने वाला है। उसकी दृष्टि में राजा और रंक सब समान हैं। वह उन्हें मनुष्य के सिवा और कुछ नहीं समझता।
कविता की भाषा-कविता का संबंध संगीत से है, इसलिए कविता की भाषा में माधुर्य और प्रसाद गुणों का होना आवश्यक है। कविता में कर्ण कटु शब्दों का प्रयोग अखरता है और सरस शब्द उच्चारण में अच्छे प्रतीत होते हैं। स्वराघात का ध्यान रखते हुए भाषा का कविता में प्रयोग किया जाना चाहिए। ऐसा न होने पर कविता गायक और पाठक दोनों की ही प्रिय नहीं बन सकती। भाषा कविता का शरीर है। आत्मा के सौंदर्य के साथ-साथ शरीर सौंदर्य की भी आवश्यकता होती है। पाठक अथवा श्रोता का प्रथम आकर्षण कविता के बाह्य रूप के ही कारण होता है और फिर वह कविता की अंतरात्मा तक पहुँचता है। साधारणतया सभी पाठक कविता की अंतरात्मा तक पहुँच भी नहीं पाते हैं और यदि उनके सामने बाह्यरूप से कुरूप कविता आए तो वह उसके पठन-पाठन से भी वंचित रह जाते हैं। कविता को यदि हम एक नारी का रूप मान लें तब भी उसका प्रथम आकर्षण उसका रूप उसका सौंदर्य ही रहेगा। नारी का स्वभाव, उसका शील, उसका कर्त्तव्य यह बाद की वस्तु हैं जिन्हें पहचानने और जानने में समय लगता है, कठिनाई होती है और कभी-कभी असफलता भी हो जाती है। यही दशा कविता की भी है। इसलिए कविता के अर्थ और भावों के साथ साथ उसकी भाषा में सौंदर्य आना भी आवश्यक है।
कविता के गुण-गुणों का संबंध विशेष रूप से रसों में रहता है। कविता में रसों का होना जितना आवश्यक है उतना ही गुणों का भी प्रसाद, ओज, माधुर्य इत्यादि गुण कविता में रसों के साथ भावों के अनुसार ही कवि रख सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि कविता में जैसा रस चल रहा है उसमें उसी प्रकार की भाषा और गुण कवि को प्रयोग करना चाहिए। गुण और रसों में विभिन्नता हो जाने से काव्य का सौंदर्य नष्ट हो जाने की संभावना रहती है। इसलिए लेखक को रस और गुण का सामंजस्य करके अपनी रचना को उच्च बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
रस- रस कविता की आत्मा है। रीतिकालीन कवियों ने कविता में अलंकारों को प्रधानता दी है परंतु आज के युग में उनका सिद्धांत मान्य नहीं है। आज के युग के आचार्य रस को काव्य की आत्मा मानते हैं और अलंकारों को काव्य के सौंदर्य की सामग्री मात्र। अब यह विवाद समाप्त हो चुका है। आज अलंकार वर्ण्य विषय न रहकर केवल सौंदर्य बढ़ाने का साधन मात्र रह गए हैं। रस-विहीन काव्य नीरस होने से काव्य ही नहीं रहता, न उसमें कोई सौंदर्य होता है और न हृदय-प्राहिता। इसलिए कविता में रस का होना नितांत आवश्यक है। कविता में कुछ-न-कुछ पुराने शब्द भी आ जाते हैं। उनका थोड़ा-बहुत बना रहना अच्छा भी है। वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच संबंध-सूत्र का काम देते हैं। अंग्रेजी कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं है जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने से कविता में होता आया है। ‘Main’, ‘Sawain’ (मेन, स्वेन) आदि शब्द ऐसे ही हैं। अंग्रेजी कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना आवश्यक है पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने चाहिए, वे भी ऐसे जो भद्दे और गंवारू न हों। कविता में कही गई बातें चित्र रूप में हमारे सामने आती हैं, संकेत रूप में नहीं आतीं।
श्रुति सुख-दाता, भाव-सौंदर्य और नाद-सौंदर्य के संयोग से कविता की सृष्टि होती है। श्रुति कटु मानकर कुछ अक्षरों का परित्याग, वृत्ति-विधान और अंत्यानुप्रास का बंधन, इसी नाद सौंदर्य के निवाहने के लिए है। बिना इसके कविता करना अथवा इसी को सर्वस्व मानकर कविता करने की कोशिश करना निष्फल है। नाद-सौंदर्य के साथ-साथ भाव सौंदर्य भी होना चाहिए। कुछ लोग अंत्यानुप्रास की बिलकुल आवश्यकता नहीं समझते। छंद और तुक दोनों ही नाद-सौंदर्य के उद्देश्य से रखे गए हैं। फिर क्यों एक निकाला जाए और दूसरा नहीं? नाद सौंदर्य कविता के स्थायित्व का वद्ध के है, उसके बल से कविता ग्रन्थाश्रयविहीन होने पर भी किसी-न-किसी अंश में लोगों के कंठ में बनी रहती है। यह कविता की आत्मा नहीं तो शरीर अवश्य है।
अलंकार- कविता में भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता है। उसकी सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। वस्तु या व्यापार का चित्रण चटकीला करने और रस-परिपाक के लिए कभी वस्तु के रूप और गुण को वैसा ही और वस्तुओं के साहचर्य द्वारा और मनोरंजक बनाने के लिए उसके समान रूप और धर्मं वाली और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है। इस तरह की भिन्न-भिन्न वर्णन प्रणालियों का नाम अलंकार है। इनका उपयोग काव्य में प्रसंगा-नुसार विशेष रूप से होता है। इनसे वस्तु वर्णन में बहुत सहायता मिलती है। कहीं-कहीं तो इनके बिना कविता का काम ही नहीं चल सकता। किंतु इससे यह न समझना चाहिए कि अलंकार ही कविता है। जहाँ किसी प्रकार की रस व्यंजना होगी, वहीं किसी वर्णन प्रणाली को अलंकारिता प्राप्त हो सकती है। जिस प्रकार कुरूपा स्त्री अलंकार धारण करने से सुंदर नहीं हो सकती उसी प्रकार अस्वाभाविक, भद्दे और क्षुद्र भावों को अलंकार-स्थापना सुंदर और मनोहर नहीं बना सकती।