Lets see Essays

मेरा जीवन लक्ष्य – एक सुंदर निबंध  

mere jeevan ka laxya par ek shandaar nibandh

संकेत बिंदु – (1) लक्ष्य निर्धारित करना (2) व्यक्ति की रुचि और प्रतिभा (3) ध्येय प्राप्ति भाग्य और पुरुषार्थ का प्रतीक (4) साहित्यकार बनने की आकांक्षा (5) जीवन में अर्थ का महत्त्व।

लक्ष्य निर्धारित करना लक्षण है जीवन और जागरण का पृथ्वी के तमिस्राच्छन्न पथ से गुजर कर दिव्य ज्योति से साक्षात्कार करने का। अपने गुणों के विकास से आत्मा को उज्ज्वल करने का। दुखी, पीड़ित, संत्रस्त मानव को शांति और सौख्य प्रदान करने का। कुछ आलसी लोग लक्ष्य निर्धारण को व्यर्थ समझते हैं। उनका विचार है कि शेखचिल्ली की भाँति ख्याली पुलाव पकाने से क्या लाभ? जीवन में जो कुछ होना है, वह तो होगा ही। वास्तव में यह विचार कायरता का परिचायक है, निकम्मेपन की निशानी है। निर्धारित लक्ष्य मनुष्य की निश्चित मार्ग की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है और व्यक्ति के मन में उत्साह का संचार करता है।

जीवन-लक्ष्य का निर्धारण करने में व्यक्ति की रुचि एवं प्रतिभा कार्य करती हैं। विज्ञान के क्षेत्र में यशोपार्जन की महत्त्वाकांक्षा तभी की जा सकती है जब व्यक्ति की प्रतिभा तीव्र हो और वैज्ञानिक विषयों में अध्ययन का सामर्थ्य हो। यदि जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने में इस सत्य का ध्यान नहीं रखा जाएगा, तो सफलता नहीं मिल सकेगी।

अथर्ववेद में कहा है, ‘उन्नत होना और आगे बढ़ना प्रत्येक जीवन का लक्ष्य है।’ घर के वातावरण से भी जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने में प्रेरणा मिलती है। मुझ पर यही बात लागू होती है। हमारा परिवार शिक्षित जनों का कुटुंब है। मेरे पिताजी संस्मरणकार हैं, निबंधकार हैं। मेरी बड़ी बहन की भी दो-तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, मेरा मन अंग्रेजी या हिंदी में एम. ए. करने की ओर प्रवृत्त है। हमारे यहाँ अनेकों साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं। इसके अतिरिक्त बाल पत्रिकाएँ, हास्य-पत्रिकाएँ सभी प्रकार की श्रेष्ठ पत्रिकाएँ, हमारे परिवार के सदस्य देखते हैं, पढ़ते हैं। इंडिया टुडे, पाँचजन्य, कादंबिनी, नंदन की तो अनेक वर्षों की फाइलें हमारे घर में हैं। इस प्रकार के वातावरण में मेरो जीवन-लक्ष्य क्या हो सकता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

ध्येय प्राप्ति प्रारब्ध और पुरुषार्थ का समन्वित प्रतिफलन है। दोनों में एक ने भी प्रवंचना की, तो ध्येय प्राप्ति ही असंभव नहीं होगी, प्रत्युत जीवन-धारा ही बदल जाएगी। मोहनदास कर्मचंद गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्रप्रसाद बनने चले थे बैरिस्टर, न्यायविद् प्रारब्ध ने झटका मारा, बन गए भारत भाग्य विधाता। वायुयान चालाक जीवन में मस्त राजीव के प्रारब्ध ने उसे प्रधानमंत्री पद प्रदान कर दिया।

मैं सोचने लगा कि क्यों न मैं लेखक बनूँ, मुंशी प्रेमचंद-सा कथाकार बनूँ ! कामायनी के रचयिता प्रसाद की आत्मा मुझमें समाविष्ट हो जाए। निराला का निरालापन, महादेवी की वेदना, ‘दिनकर’ की राष्ट्रीयता मुझ में उद्भासित हो। मैथिलीशरण गुप्त की भावना ‘इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया’ को अधिकाधिक मुखरित कर सकूँ। दरिद्र नारायण की विवशता, शोषित की आवाज, राजनीतिज्ञों-कूटनीतिज्ञों के छल-छंद को लेखनी से उजागार कर सकूँ। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का संदेश घर-घर पहुँचा सकूँ।

साहित्य अजर-अमर है। उसमें काल की गति को प्रभावित करने की अद्भुत शक्ति है। काल के थपेड़े उसे नष्ट नहीं कर सकते। युग-युगांतर तक साहित्यकार अपनी कृतियों के माध्यम से जीवित रहेगा। रामायण तथा महाभारत के रचनाकार वाल्मीकि और वेदव्यास आज भी भारत -भू के शृंगार हैं, हिंदू संस्कृति के आधार स्तंभ हैं। अजरत्व – अमरत्व की भावना मुझे साहित्यकार बनने के लिए उकसा रही है। अथर्ववेद का संदेश, ‘परैतु मृत्युरमृतं न एतु’ (मृत्यु हमसे दूर हो और अमृतपद हमें प्राप्त हो) मन को झकझोर रहा है।

साहित्यकार बनने के लिए चाहिए अध्ययन और चिंतन। अध्ययन ज्ञान के द्वार खोलेगा, चिंतन ज्ञान के खुले द्वार में विवेक जागृत करेगा। इसलिए अध्ययन में समय लगाऊँगा और चिंतन की जुगाली करूँगा।

जीवन में अर्थ का अपना विशिष्ट महत्त्व है। ‘भूखे भजन न होय गोपाला।’ अतः साहित्य-साधना के साथ नियमित अर्थोपार्जन हेतु मैं प्राध्यापक बनना चाहूँगा। साहित्य- सृजन और अध्यापन परस्पर संबद्ध वृत्तियाँ हैं। प्राध्यापक बनने पर अध्ययन-चिंतन के लिए पर्याप्त समय भी और परिवार पोषण के लिए पर्याप्त वेतन भी है। अध्ययन के लिए महाविद्यालयीय और विश्वविद्यालयीय पुस्तकालय निःशुल्क मेरी मानसिक क्षुधा तृप्ति के लिए प्रस्तुत रहेंगे। विचार-विमर्श के लिए साथी प्राध्यापक, प्राध्यापिकाएँ सोत्साह उपस्थित होंगे। मेरे लेखन की वाह वाही करने, मेरे यश को दिग्-दिगंत में फैलाने वाले आज्ञाकारी शिष्यगण उपलब्ध होंगे। ‘लाइब्रेरी परचेज’ में सहायता करने पर मेरी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक करबद्ध प्रस्तुत होंगे।

यों तो मानव कभी संतुष्ट नहीं हुआ। एक लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे लक्ष्य को जन्म देती है। दूसरे लक्ष्य की पूर्ति तीसरे के लिए मार्ग प्रशस्त करती है, किंतु फिलहाल मैंने अपने जीवन का लक्ष्य रखा है, साहित्यकार बनने का। उसके लिए मैं अभी से प्रयत्नशील हूँ, संलग्न हूँ। परीक्षाएँ, उपाधियाँ और प्रमाण-पत्र इस लक्ष्यपूर्ति के सोपान मात्र हैं।

प्रभो ! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ। माँ शारदा की सेवा कर उसके भंडार को दिव्य कृति-रत्नों से भर सकूँ।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page