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मेरा पड़ोसी – एक गंभीर निबंध

mere padosi par ek shandaar nibandh

संकेत बिंदु – (1) पड़ोस में रहने वाला (2) पड़ोसी से परिचय (3) अध्यापक पड़ोसी की असलियत (4) पड़ोसी की पत्नी का स्वभाव (5) उपसंहार।

विपत परे सुख पाइए, जा ढिंग करिए मौन।

नैन सहाई बधिर के, अंध सहाई स्रौन॥

– वृंद

पड़ोस में रहने वाला पड़ोसी कहलाता है। उसे ही प्रतिवासी, प्रतिवेशी, हमसाया या नेबर भी कहते हैं। पड़ोसी इस हिंदी कहावत को भी चरितार्थ करता है- ‘दूरस्थ भाई से समीपस्थ पड़ोसी अधिक श्रेष्ठ हैं।’ लोकोक्ति की इस सत्यता को भी प्रकट करता है – ‘पड़ोसी के मेंह बरसेगा तो बौछार हमारे यहाँ भी आएँगी।’ इसीलिए हीरेस का कथन, “When your neighbour’s house is on fire, your own property is at stake.” अर्थात् जब तुम्हारे पड़ोसी के घर में आग लगी तो तुम्हारी अपनी संपत्ति भी खतरे में है।

सौभाग्य से मेरे पड़ोसी वैश्य परिवार के और हरियाणा निवासी हैं। कुंडली में दो- दो योग देखकर मन प्रसन्न हुआ। वे (पति-पत्नी) श्याम वर्ण हैं और हम दोनों गौर वर्ण। यहाँ आकर कुंडली उलट गई।

पड़ोसी हैं, इसलिए परिचय होना चाहिए। कुछ दिन तक आलस्य और झिझक में परिचय न कर पाया, पर प्रकृति ने यह काम स्वयमेव कर दिया। एक दिन अपराह्न में श्रीमती जी की धोयी हुई धोती पतंग की भाँति लहराती हुई, उनके आँगन में पहुँच गई। परिचय का बहाना हाथ लगने पर हमारी श्रीमती कुदकती-फुदकती जब उनके आँगन में घुसीं तो उस पड़ोसन ने हृदय – बेधी बाणों से ऐसा स्वागत किया कि श्रीमती जी का समस्त उत्साह मंद पड़ गया। इतना ही नहीं धोती उठाकर देते हुए चतुराई से उसे भूमि से भी रगड़ दिया।”

‘प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः। प्रथम परिचय ही इतना श्रेष्ठ (?) हो तो ‘आगे कौन हवाल।’ अस्तु पड़ोसी है, रहना तो उसके पड़ोस में पड़ेगा ही। यह सोचकर श्रीमती जी ने थोड़ी सावधानी बरतनी शुरू कर दी।

एक दिन गली के मकान मालिकों की बैठक थी। बीस-पच्चीस व्यक्ति एकत्र थे। उसमें हमारे पड़ोसी सज्जन भी थे। वे मेरे साथ बैठे थे। मैंने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया तो प्रत्युत्तर में उन्होंने केवल मुँडिया हिला दी। मुझे लगा कि इसके सिर पर अहंभाव हावी है। बैठक में वर्षा आगमन से पूर्व गली की नालियों की सफाई के लिए 500-500 रुपये इकट्ठे करने का प्रस्ताव आया। सबके साथ यह पड़ोसी भी तैयार। मुझे लगा यह सामाजिक दायित्व को समझता है।

बैठक समाप्त हुई। उसके एक अन्य पड़ोसी से इसका परिचय जानना चाहा तो उसने आश्चर्य से कहा. ‘अरे! तुम नहीं जानते ! ये तो हमारे विद्यालय में अध्यापक हैं।’ मुझे लगा, चलो एक ‘राष्ट्रनिर्माता’ तथा ‘संस्कार प्रदाता’ से वास्ता पड़ा है।

एक दिन कारणवश उनके घर जाना पड़ा। उन्होंने प्रेमपूर्वक बिठाया। श्रीमती जी को ‘चाय’ का आदेश दिया। चाय पीते हुए बातचीत हुई। न जाने कौन से धान गंगा में बोए थे, जिनके प्रबल प्रताप से पहली ही मुलाकात चाय की सेवा से हुई, पर मन को ठेस लगी। हृदय आहत हुआ यह देखकर कि वे ‘मास्टर जी’ सब्जी काट रहे थे और ‘ट्यूशन’ पढ़ने वाला छात्र बैठा प्रश्न हल कर रहा था। हाय रे ! राष्ट्रनिर्माता ! संस्कार प्रदाता ! वाह रे ! समय के सदुपयोग (?) कर्ता !

बाद में हमारी श्रीमती जी ने बताया कि मास्टर जी कम से कम 6-7 ट्यूशन करते हैं और रात्रि को 8 से 9 बजे तक ग्रुप लेते हैं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि पड़ोसी की अमीरी सदा सुखद होती है और बच्चों को पास कराने का परोपकार भी मिलता है। फिर परोपकार से पुण्य प्राप्ति है ही।

उनकी पत्नी को गली के बच्चे दुर्गा माता कहते थे। इस ‘पुनीत संज्ञा’ पर हमें ईर्ष्या हुई। हमने शोध करने की ठानी ताकि पी-एच. डी. उपाधि से अलंकृत होकर ‘डॉक्टर’ कहलाएँ। नेक काम घर से शुरू करना चाहिए, इसलिए एक दिन संपूर्ण परिवार को बैठाया और अपने शोध का विषय बताया तो झट ‘हिज मास्टर्स वायस’ का रिकॉर्ड चालू हो गया। ‘बच्चे गली में खेलते है, उनकी गेंद, गुल्ली या चिड़ी चौका- छक्का मारती हुई इनके प्रांगण में घुस जाए तो ये कभी नहीं देतीं। डाकिए की भूल से किसी का पत्र इनके यहाँ पहुँच जाए तो वह अग्नि को समर्पित हो जाता है। फिर अपनी जरा-सी निंदा सुनकर तो इनका दुर्गा रूप ही प्रकट हो जाता है। अपने किरायेदार को एक इंच ज्यादा जमीन इस्तेमाल नहीं करने देतीं। यहाँ तक कि चौक में उसका स्कूटर नहीं खड़ा करने देतीं।’ मुझे लगा मैंने क्यों इस भिड़ के छत्ते को हाथ लगा दिया।

एक दिन प्रात: उठे तो देखा पड़ोसी बदल गए हैं। संसार का आठवाँ आश्चर्य ! गली- मुहल्ले में यह खबर आग की तरह फैल गई। सब आश्चर्य चकित। धीरे-धीरे रहस्य खुला। मास्टर जी अपने नए मकान में चले गए। सुनकर प्रसन्नता हुई। कारण, जिस प्रकार बनवास के 14 वर्ष पश्चात् श्रीराम के जीवन में आनंद का सागर उमड़ा था, उसी प्रकार चौदह वर्षीय अनथक ट्यूशन परिश्रम से वे दूसरे भवन के स्वामी बने थे। कथा सरित्सागर अनुसार, ‘अप्राप्यं नाम नेहास्ति धीरस्य व्यवसायिनः।’ परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत् में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं। हमारी श्रीमती दुखी थीं। समझाया बुझाया पर उन पर तो कबीर हावी थे – ‘ निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।’ दूसरी ओर, वे इसलिए दुखी थीं कि अब महाभारत का सजीव सीरियल देखने से वंचित रह जाएँगे।

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