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मेरी अविस्मरणीय यात्रा – एक सुंदर निबंध

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संकेत बिंदु – (1) मेरे जीवन की निधि (2) लुटेरों का रेल में प्रवेश (3) लुटेरों को काबू में करना (4) पुलिस और जनता द्वारा लुटेरों को पकड़ना (5) उपसंहार।

अकस्मात् अयाचित्त संवेदनाओं की घड़ियाँ जब सुधियों की निधि बन जाती हैं तो वे अविस्मरणीय बन जाती हैं। समय का साबुन भी उन स्मृतियों को शीघ्र धोने में सफल नहीं हो पाता। मेरी एक रेल यात्रा मेरे जीवन की निधि है। रह-रहकर वह मेरे स्मृति पटल- पर अंकित हो जाती है।

रात्रि का प्रथम प्रहर। गाड़ी अंबाला शहर के स्टेशन से चंडीगढ़ के लिए चली। चंडीगढ़ पहुँचने में एक घंटा शेष था। यात्री सुविधानुसार बच्चों को लिटा रहे थे ताकि थोड़ी नींद ले लें। कुछ लोग खाने की चीजें, जो अंबाला शहर से खरीदी थीं, खा रहे थे। कुछ गपशप कर रहे थे। शांत वातावरण में गाड़ी की कर्कश आवाज भी अप्रिय नहीं लग रही थी।

डेराबसी का स्टेशन आया। हमारे कंपार्टमेंट से एक पति-पत्नी उतरे। चढ़ा कोई नहीं। उनके खाली स्थान पर समीपस्थ बैठे व्यक्तियों ने कब्जा कर लिया। गाड़ी पुनः चल पड़ी। गाड़ी अभी तेजी के ‘मूड’ में थी कि एक आदमी चिल्लाया, जिसके पास जो पैसे हैं, गहने हैं, वे हमारे हवाले कर दो।’ बस क्या था? पूरे कंपार्टमेंट में सन्नाटा छा गया।

आवाज एक आदमी की थी, पर उसके साथी तीन और थे। वे तीनों पहले से ही अलग- अलग कोने में बैठे थे। जैसे ही उनके नायक ने चेतावनी दी, वे खड़े हो गए और लगे नर- नारियों को मारने पीटने और उनकी नकदी, जेवर छीनने। हाहाकार मच गया। रोने चिल्लाने, गिड़गिड़ाने, आहें भरने की आवाजें कंपार्टमेंट में गूँजने लगीं।

एक अधेड़ उम्र की औरत-मर्द उनके पैर पकड़, कह रहे थे, ‘हमारी लड़की की शादी है। यह सामान उसके दहेज का है। इसे छोड़ दो।’ क्रूरता शैतान का पहला गुण है। दया, ममता, मोह उसे स्पर्श भी नहीं कर पाते। उग्रता के साथ निष्ठुरता या निर्दयता के मेल से क्रूरता का आविर्भाव होता है। उसने आदमी को दो चपेट मारी और नारी के वक्ष पर जो घूँसा मारा, वह वहीं अचेत हो गई।

मेरे सामने की सीट पर दो युवतियाँ बैठी थीं। वे भी भययुक्त नयनों से यह दृश्य निहार रही थीं, वे अकेली थीं। दिल्ली से मेरे साथ चढ़ी थीं। उसकी परस्पर बातचीत से मुझे ऐसा लगा था कि वे ‘युनिवर्सिटी स्टूडेंट’ हैं।

चारों लुटेरों का एक साथी, जब उन युवतियों के पास पहुँचा तो कुछ क्षण तो उनके सौंदर्य को निहारता रहा, फिर उनमें से एक के कपोलों पर हाथ फेरने के लिए जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया, युवती ने साहस बटोर कर उसके मुँह पर चाँटा जड़ दिया। चलचित्र की भाँति चलते इस साहसिक अभियान ने मेरी डरी-सहमी आत्मा में निडरता की चिंगारी प्रज्ज्वलित कर दी। उसकी पीठ मेरी ओर थी। मैंने पलक झपकते उसकी कोहली भर ली। उसने मुझसे छूट पाने की चेष्टा की, मुझे घूसे मारने की असफल चेष्टा की।

भय की भाँति साहस भी संक्रामक होता है। युवती के चाँटे और मेरे कोहली भरने ने फूस में अग्नि की चिंगारी फूँक दी। लोग उस लुटेरे पर टूट पड़े। उसे दबोच लिया। युद्ध स्थल का दृश्य पलट चुका था। बहादुर लुटेरों ने जब अपने साथी की ऐसी हालत देखी तो पलायन करना ही उचित समझा। सच भी है, चोर के पैर नहीं होते, स्थिर साहस नहीं होता। उनमें से एक ने खतरे की जंजीर खींच दी। गाड़ी डगमगाते हुए रुकी।

गाड़ी आहिस्ता होते ही उसके दो साथी तो डिब्बे से उतरने में सफल होकर रात्रि के अंधकार में अदृश्य हो गए, पर खतरे की जंजीर खींचने वाला लुटेरा फँस गया। जंजीर खींचने के लिए वह सीट पर पैर रख कर चढ़ा था। ज्यों ही वह उतरा, दो तीन यात्रियों ने उसे पकड़ लिया और पीटना शुरू कर दिया। पलक झपकते ही उसने चाकू निकाल लिया और पीटने वालों पर वार करने लगा। दो-तीन यात्री चाकू से घायल हो गए। जन-साहस पुनः क्षीण हो गया। उत्साह और साहस चाकू के सामने पानी भरने लगे। यात्री पीछे हट गए, अपनी जान बचाने के लिए।

लुटेरे का उद्देश्य लोगों को घायल करना नहीं था, वह तो भागने के लिए अपना मार्ग प्रशस्त कर रहा था। यात्री पीछे हटे, और वह ‘गेट’ की ओर दौड़ा। भय-युक्त पलायन में असावधानी हो जाती है। ‘गेट’ से उतरने में उसका पैर किसी सूटकेस से ठोकर खा गया और वह लड़खड़ा कर गेट के नीचे गिर पड़ा। उसका चाकू ही उसके शरीर को चीर गया। फिर भी उसका लहूलुहान शरीर भागने का साहस जुटा रहा था।

गाड़ी के जंगल में रुकने और हमारे कंपार्टमेंट के शोर को सुनकर पड़ोसी डिब्बे के लोग उतर आए। उन्होंने पहला काम उस घायल लुटेरे को पकड़ने का किया।

भीड़ इकट्टी हुई। गाड़ी के साथ चल रही रेल पुलिस के चार सिपाही आए। गार्ड आया। गार्ड ने परिस्थिति को समझा और संभाला। उसने दोनों लुटेरों को हमारे ही कंपार्टमेंट में बिठाया। पुलिस के चार सिपाही बैठे। गार्ड ने हरी झंडी दिखाकर, पहली सीटी बजाकर गाड़ी चलने का संकेत दिया।

सीटी की आवाज सुनकर यात्री भीड़ अपने-अपने कंपार्टमेंट की ओर दौड़ी। गार्ड ने देखा कि लोग गाड़ी में बैठ गए हैं तो उसने दूसरी मीटी बजाकर गाड़ी चलने का आदेश दे दिया। हमारा कंपार्टमेंट अब एक तमाशखाना बन चुका था। पहले से अधिक भीड़. पहले से अधिक काना-फूसी चल रही थी। मजे की बात यह है कि लोग अपने-अपने साहस की डींग मार रहे थे।

चंडीगढ़ का स्टेशन आया। यात्री उतरे। लुटरों को उतारा गया। उनको देखने के लिए भीड़ जमा हो रही थी। दोनों युवतियाँ शायद पुलिस गवाही के चक्कर से बचने के लिए भीड़ में ही कहीं खो गई थीं। मैं तो पुलिस के हथकंडों का भुक्त भोगी था, इसलिए भीड़ में पुलिस को वंचिका देकर प्लेटफार्म ही छोड़ चुका था।

ट्रेन की यह लूट-खसोट, यात्रियों का आहत अपमान, भययुक्त चेहरे, कॉलिज छात्रा का साहसपूर्ण चाँटा, आज भी मेरे मन-मस्तिष्क के सामने आकर मुझे उस रेल यात्रा को स्मरण रखने को विवश करता है। वह रेल यात्रा मेरे जीवन की अविस्मरणीय रेल यात्रा बन गई।

गूंथ कर यादों के गीत।

मैं रचता हूँ विराट् संगीत॥

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