संकेत बिंदु – (1) घरेलू नौकर का परिचय (2) विमाता के अत्याचार और दुकान में काम (3) घरेलू नौकरी और दुनियादारी की समझ (4) मालिक के घर में चोरी (5) मकान मालकिन का शक्ति दृष्टिकोण।
मैले वस्त्र पहने, नीची निगाह किए डाँट फटकार सहता, अर्ध-बुभुक्षित यह कौन प्राणी है? कौन है यह जो ब्राह्ममुहूर्त में उठने से लेकर मध्य रात्रि तक कर्मनिष्ठ रहता है? कौन है यह जीवधारी, जिसकी भूख की किसी को चिंता नहीं, प्यास की परवाह नहीं?
‘मैं हूँ’, चौंकिए नहीं, मैं हूँ आपका घरेलू नौकर आपके घर पर एक दशक से सेवारत हूँ। आपने तो कभी जानने की कोशिश ही नहीं कि कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ? मेरे ऊपर क्या बीत रही है? तीन दशक पूर्व हिंदी की कवयित्री महादेवी जी ने ‘रामा’ से पूछा था।
शॉपेनहार के शब्दों में ‘प्रत्येक आत्मकथा पीड़ा का इतिहास है, क्योंकि प्रत्येक जीवन महान और छोटे दुर्भाग्य का क्रमिक विकसित रूप है।’ महादेवी जी ने ‘यामा’ में कहा है-’अपने विषय में कुछ कहना प्राय: बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि अपने दोष देखना अपने आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को।’
गृह स्वामी के पुत्रों का कर्णबेध संस्कार था। घर भर में खुशी का आलम। घर की सजावट, दिलों की रंगीनी, संबंधियों की हँसी-ठट्ठा, मित्रों की चुहल, बहुत बड़ा मेला और उसमें था मैं अकेला। जितना जमघट, उतनी बोझ की बढ़ोतरी। दम मारने की फुरसत नहीं। शरीर टूटकर बेहाल। रात को अनचाहे नींद आ गई।
प्रगाड़ निद्रा के स्वप्न में 15 वर्ष पूर्व का दृश्य सामने आ गया। मेरी जन्मदात्री की मृत्यु होने पर पिता ने दूसरा विवाह किया। विमाता आई। एक तो गरीबी, ऊपर से विमाता। मुझ पर अत्याचार शुरू हुआ। एक दिन यह मेरे मामा से न सहा गया। वह मुझे दिल्ली ले आया। वह बेचारा भी गरीब था। मामी झल्लाई- ‘अपने पेट को तो पूरा पड़ता नहीं, ऊपर से एक और।’ पाँच वर्ष का बालक मामी की उस डाँट से डर गया। भय से सिहर उठा।
मामा ने मुझे एक चाय वाले की दुकान पर नौकर रखवा दिया। दो वक्त की रोटी, दो वक्त की चाय। प्रात: 5 बजे से रात दस बजे तक काम। गाँव का नासमझ, खेलने- कूदने वाला बच्चा और 17 घंटे की ड्यूटी। दिन में तारे नजर आने लगे। मरता क्या न करता। साथियों ने बेईमानी सिखा दी, मैं सब कुछ सीखता रहा। साथी कहते – “जब साला मालिक नहीं सोचता, दिल्ली – श्रम कानून हमें नहीं बचाता, तो हम ही वफादार, ईमानदार क्यों रहें?” दो साल गुजर गए। मैं सात साल का हो गया।
नौकरी बदली। अब घर का ‘मुंडू’ बन गया। मालिक दयालु, किंतु मालकिन जालिम। सुबह अँगीठी सुलगाने से लेकर रात को सबको निद्रा देवी की गोद में सुलाने तक की जिम्मेवारी। यहाँ चाय दो-तीन बार मिलती तो थी, पर जब मालिक की कृपा हो जाए अथवा बच जाए। बची-खुची चीज मालकिन ऐसे प्यार से पिलाती-खिलाती, मानों मैं उनकी कोख से जन्मा हूँ। यहाँ एक सुख था। मालिक के दो बच्चे थे – एक मेरा हम उमर, दूसरा मुझसे छोटा। घड़ी दो घड़ी उनके साथ खेलने को मिल जाता था।
जीवन के संघर्षों ने अनुभव दिया, दुनियादारी समझने लगा था। भला-बुरा पहचानने लगा था। अल्पायु में मन का विकास हो रहा था। बच्चों को पढ़ते देखकर मेरे मन में भी पढ़ने की लालसा जगी। मालिक के दोनों बच्चे मेरे भाई बन गए। मालकिन के स्वभाव में भी अंतर आ गया था। दोपहर एक घंटा पढ़ने-लिखने को मिलने लगा। मेरे गुरु थे मेरे मालिक – पुत्र। मुझे हिंदी पढ़नी और लिखनी आ गई। अब मैं घर का नौकर नहीं, उनका तीसरा पुत्र बन गया।
माँ मुझे इस दुनिया में अकेला छोड़कर चली गई थी। विमाता की याद मुझे कभी आती नहीं थी। साल में पिताजी के दो-चार पत्र घर की याद ताजा कर देते थे। उन पत्रों में सदा पैसों की फरमाइश रहती थी। मेरे चार सौतेले भाई-बहिन हैं, यह पिताजी की चिट्ठियाँ बताती हैं। वे मुझे नहीं जानते, मैंने उन्हें कभी देखा नहीं। विमाता की बीमारी, घर का दारिद्र्य, पिताजी की बेबसी, अब मुझ पर नगण्य असर डालते हैं।
मैं सुखी हूँ। सुख की नींद में करवट बदलता हूँ। मालकिन झकझोर रही है- ‘उठ पगले, दिन निकल आया। मेहमानों को चाय पिलानी है।’ मैं उठा। अलसाई आँखों में कर्तव्य का बोध हुआ।
परिवार चाय पी रहा था। अचानक मालकिन ने बताया कि कल ‘भात’ में जो 1100 रुपए आए थे, वे थाली में नहीं हैं। शोर मच गया। खोजबीन शुरू हुई। कइयों पर शक हुआ, पर प्रश्न था कौन किसकी तलाशी ले? घर का वातावरण बदल गया। जो रिश्तेदार दो-चार दिन ठहरने वाले थे, शाम तक चले गए। चलते वक्त सब एक ही सलाह दे गए- ‘घर के नौकर से सावधान रहना। आज तो 1100 रुपए गए हैं, कल को जेवरों से हाथ न धो बैठो।’
मालिक – मालकिन और दोनों पुत्रों का विश्वास हिल गया। शंका ने मेरे प्रति उनका दृष्टिकोण बदल दिया। मुझे लगा, अब यहाँ नहीं रहना चाहिए। तुरंत छोड़ता हूँ तो चोर कहलाऊँगा। अतः तीन मास पश्चात गाँव चले जाने का निश्चय करके उससे एक मास पूर्व मालिक को सूचना दे दी। मेरा चिंतन प्रखर हुआ। टेलीविजन पर ‘तीसरी कसम’ पिक्चर देखी थी। मैंने भी कसम खाई, अब ‘घरेलू नौकरी नहीं करूँगा।’
मालिक-मालकिन तथा बंधुओं का परिवार छोड़ने से पूर्व अपने शरीर, वस्त्र, अटैची, पोटली की स्वयमेव चैकिंग करवाई। एक-एक जेब उल्टी करके दिखाई। मालकिन मेरे इस व्यवहार से रुआँसी हो गई। उनकी आँखों में आँसू छल-छला आए।
तब उन्होंने मुझे घरेलू नौकरी से हटाकर मेरी पदोन्नति कर दी। अब मैं उनके व्यवसाय का कर्मचारी हूँ। आठ घंटे काम करता हूँ। मालिक का अत्यंत विश्वसनीय कर्मचारी, पर घरेलू नौकर नहीं।