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विद्यार्थी और शिष्टाचार / आदर्श विद्यार्थी

aadarsh vidyarthi par ek shandaar nibandh

संकेत बिंदु – (1) विद्या – प्राप्ति लक्ष्य (2) जिज्ञासा बिना ज्ञान नहीं (3) संयमित आचरण, परिश्रमी और स्वाध्यायी (4) सादा जीवन और उच्च विचार और सामाजिकता (5) सदाचार और स्वावलंवन के गुण।

जीवन का प्रथम भाग (प्राय: पच्चीस वर्ष की वय तक) विद्योपार्जन का काल है। विद्याध्ययन करने का स्वर्ण काल है। भविष्य का श्रेष्ठ नागरिक बनने की क्षमता और सामर्थ्य उत्पन्न करने की वेला है। अतः विद्यार्थी को विद्या की क्षुधा शांत करने तथा जीवन-निर्वाह योग्य बनाने के लिए आदर्श विद्यार्थी बनना होगा। आदर्श विद्यार्थी उत्तम विचारों का संचय करेगा, क्षुद्र स्वार्थी और दुराग्रहों से मुक्त रहेगा। मन-वचन-कर्म में एकता स्थापित कर जीवन के सत्य रूप को स्वीकार करेगा।

विद्यार्थी का लक्ष्य है विद्या प्राप्ति। विद्या प्राप्ति के माध्यम हैं गुरुजन या शिक्षक। आज की भाषा में अध्यापक या प्राध्यापक शिक्षक से विद्या प्राप्ति के तीन उपाय हैं -नम्रता, जिज्ञासा और सेवा। गाँधी जी प्राय: कहा करते थे- जिनमें नम्रता नहीं आती, वे विद्या का पूरा सदुपयोग नहीं कर सकते।’ तुलसीदास ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा हैं, ‘यथा नवहिं बुध विद्या पाये।’ अध्यापक के प्रति नम्रता दिखाइए और समझ न आने वाले प्रश्न को बार-बार पूछ लीजिए, उसे क्रोध नहीं आएगा। वैसे भी नम्रता समस्त सद्गुणों की जननी है। बड़ों के प्रति नम्रता दिखाना विद्यार्थी का कर्तव्य है, बराबर वालों के प्रति नम्रता विनयसूचक है तथा छोटों के प्रति नम्रता कुलीनता का द्योतक हैं।

जिज्ञासा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता। यह तीव्र बुद्धि का स्थायी और निश्चित गुण है। पाठ्य-पुस्तकों तथा पाठ्यक्रम के प्रति जिज्ञासा भाव विद्यार्थी की बुद्धि विकसित करेगा और विषय को हृदयंगम करने में सहायक होगा। जिज्ञासा एकाग्रता की सखी है। अध्ययन के समय एकाग्रचित्तता पाठ को समझने और हृदयंगम करने के लिए अनिवार्य गुण है। पुस्तक हाथ में हो और चित्त हो दूरदर्शन के ‘चित्रहार’ में, तो पाठ कैसे स्मरण होगा?

‘सेवा से मेवा मिलती है’, यह उक्ति जग प्रसिद्ध है। गुरुजनों की सेवा करके विद्या- प्राप्ति संभव है। सेवा का रूप आज ट्यूशन भी हो सकता है। यदा-कदा अध्यापक द्वारा बताया गया निजी काम भी हो सकता है या किसी अन्य साधन से अध्यापक को लाभ पहुँचाना भी हो सकता है। सेवा से विमुख विद्यार्थी अध्यापक का कृपा पात्र नहीं बन सकता। इसीलिए तो संस्कृत की एक उक्ति में कहा गया है – ‘गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा।‘ अर्थात विद्या गुरु की सेवा से या गुरु को पर्याप्त धन देकर अर्जित की जा सकती है।

विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए अन्य आदर्श भी अपनाने होंगे। सर्वप्रथम उसे संयमित

आचरण अपनाना होगा। असंयमित आचरण उसके जीवन को कभी सफल नहीं बनने देगा। मुख्यतः खाने, खेलने और पढ़ने में छात्र को पूर्णत संयम बरतना चाहिए। अधिक भोजन से साँड, अधिक खेलने से अशिक्षित और अधिक पढ़ने से किताबी कीड़े बनते हैं। उचित मात्रा में खाने, नियमित रूप से खेलने और पढ़ाई के लिए निश्चित समय देने में ही विद्यार्थी- जीवन की सफलता है।

विद्यार्थी को परिश्रमी और स्वाध्यायी होना चाहिए। चाणक्य का कथन है- सुखार्थी को विद्या कहाँ, विद्यार्थी को सुख कहाँ? सुख को चाहे तो विद्या छोड़ दे, विद्या को चाहे तो सुख को त्याग दे।

आदर्श विद्यार्थी को ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। उसे फैशनेबल वस्त्रों, केशविन्यास और शरीर की सजावट से बचना चाहिए। कारण, ये बातें विद्यार्थी के मन में कलुषित विचार उत्पन्न करते हैं, जिससे विद्यार्थी का न केवल विद्यार्थी जीवन ही खराब होता है, अपितु आगे आने वाला स्वर्णिम जीवन भी मिट्टी में मिल जाता है। उच्च-विचार रखने से मन में पवित्रता आती है। शरीर स्वस्थ रहता है – स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। यदि मस्तिष्क स्वस्थ है, तो संसार का कोई भी काम आपके लिए कठिन नहीं।

आदर्श विद्यार्थी को विद्यालय के प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेना चाहिए। इससे उसके जीवन में सामाजिकता आएगी। स्कूल की साप्ताहिक सभाओं से उसे किसी विषय पर तर्कसंगत, शृंखलाबद्ध और श्रेष्ठ विचार प्रकट करना आ जाएगा। ‘रेडक्रास’ की शिक्षा से उसके मन में पीड़ित मानव की सेवा करने का भाव पैदा होगा।’ स्काउटिंग’ सामूहिक कार्य करने और देश के प्रति कर्तव्य निभाने का भाव उत्पन्न करेगी।

सदाचार और स्वावलंबन आदर्श विद्यार्थी के अनिवार्य गुण हैं। यदि उसमें सदाचार नहीं तो वह अपना विद्यार्थी जीवन तो क्या, शेष जीवन भी सुंदर और सफल नहीं बना सकता। दूसरे, उसमें स्वावलंबन का भाव कूट-कूटकर भरा होना चाहिए। अपना काम स्वयं करने की आदत यदि विद्यार्थी जीवन में नहीं पड़ी, तो भविष्य में पड़नी कठिन है। परावलंबी मनुष्य को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, यह दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में हम देखते हैं। अतः एक आदर्श विद्यार्थी को स्वावलंबी बनना चाहिए।

संस्कृत – साहित्य में आदर्श विद्यार्थी के पाँच लक्षण बताए गए हैं-

काक चेष्टा वको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च।

अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच-लक्षणम्॥

विद्या प्राप्ति के लिए कौए जैसी सतर्कता चाहिए, एकाग्रचित्तता बगुले के समान होनी चाहिए, जरा-सी आहट पाकर टूट जाने वाली कुत्ते जैसी निद्रा होनी चाहिए, कम भोजन करना चाहिए तथा घर से दूर रहना चाहिए।

प्राचीन काल में ये लक्षण विद्यार्थी के लिए आदर्श प्रस्तुत करते रहे हों, किंतु आज के समाज और संसार में अल्पाहारी और गृहत्यागी विशेषण अनुपयुक्त हैं।

वस्तुतः आदर्श विद्यार्थी को विनम्र, जिज्ञासु, सेवा-भाव से युक्त; संयमी, परिश्रमी, अध्यवसायी तथा मिलनसार होना चाहिए। जीवन की सादगी और विचारों की महत्ता में उसका विश्वास होना चाहिए।

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