मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में ‘आख्यायिका केवल घटना है।’ आंशिक रूप में यह सत्य भी है और जिस दृष्टिकोण से मुंशी प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखी हैं वहाँ यह पूर्ण रूप से सत्य थी। परंतु आज बहुत सी कहानियों में हमें घटना मिलती ही नहीं, केवल पात्र या परिस्थिति का विश्लेषणात्मक चित्रांकन ही मिलता है। वह भी कहानियाँ हैं और बहुत कला-पूर्ण कहानियाँ। प्रेमचंद जी ने स्वयं भी लिखा है, ‘वर्तमान आख्यायिका (या उपन्यास) का आधार ही मनोविज्ञान है। घटनाएँ या पात्र तो उसी मनोवैज्ञानिक सत्य को स्थिर करने के निमित्त लाए जाते हैं। उनका स्थान बिलकुल गौण है। उदाहरणतः मेरी ‘सुजान भगत’, ‘मुक्ति मार्ग’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ इत्यादि कहानियों में एक-एक मनोवैज्ञानिक रहस्य को खोलने की चेष्टा की गई है।” इस प्रकार प्रेमचंद जी के विचारानुकूल यदि हम कहानी की परिभाषा दें तो यों कह सकते हैं कि कहानी एक घटना है जिसका स्थान मानव के मन में भी हो सकता है और जीवन की बाह्य परिस्थिति में भी।
आज की कहानी नानी धेवते की कहानी न होकर कला-पूर्ण मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन है। किंतु जब कहानी मनोवैज्ञानिकता से न फिसलकर मनोरंजन के क्षेत्र में आ जाती है तो उसकी परिभाषा हमें फिर बदलनी पड़ती है। यह सर्वदा नहीं होता कि सभी कहानियाँ किसी लक्ष्य, धर्म अथवा नीति और समस्या को ही लेकर लिखी जाएँ। कितनी ही रचनाएँ लेखक की कल्पना पर आधारित रहकर उसकी कला के चमत्कारस्वरूप ही प्रस्फुटित होती हैं। उनमें सौंदर्य होता है, चमत्कार होता है, हृदय ग्राहिता होती है परंतु समस्या या मनोवैज्ञानिकता नहीं होती और इस प्रकार की कुछ कहानियाँ संसार-साहित्य में उच्च कोटि की कहानियाँ हैं। उदाहरण-स्वरूप हम गिफ्ट आफ मैगी’ को ले सकते हैं। कहानी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और साथ ही उसकी टैकनीक भी एक प्रकार की नहीं होती। वह अनेकों प्रकार की होती हैं। जिस प्रकार प्रबंध-काव्य और नाटक से उपन्यास का क्षेत्र अधिक व्यापक है उसी प्रकार निबंध, मुक्तक कविता और गद्य-गीत इत्यादि से कहानी का क्षेत्र बहुत अधिक व्यापक है।
कहानी में मानव-अमानव सभी प्रकार के पात्र लिए जा सकते हैं। हिंदी के प्राचीन साहित्य में वर्तमान कहानी का प्रारंभिक रूप भी देखने को नहीं मिलता, क्योंकि कहानी और उपन्यास संस्कृत साहित्य की देन नहीं हैं। फिर भी संस्कृत साहित्य में कुछ कहानी के आकार की रचनाएँ अवश्य मिलती है जिसमें गंभीर विषयों को सरल बनाकर समझाने का विद्वानों ने प्रयत्न किया है। जावालि और नचिकेता के उपाख्यान इसी प्रकार की रचनाएँ हैं। ऋग्वेद की अपाला की कथा और ब्राह्मणों की बामदेव और रोहित की कथाओं में भी कहानी का ही रूप मिलता है। संस्कृत साहित्य के पश्चात् हमें बौद्ध भिक्षुओं की जातक कथाएँ मिलती हैं। यह कथाएँ मध्य एशिया, यूरोप, अरब, मिश्र इत्यादि प्रदेशों तक बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पहुँचीं। 300 ई० पू० डेमी ट्रीमिस ने यूनान में इनका संग्रह किया और बाद में यही संग्रह ‘ईशप की कहानियाँ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यूरोप के सत्रहवीं शताब्दी के साहित्य पर इन कहानियों का प्रभाव मिलता है। जातक कथाएँ पाली और प्राकृत भाषा में लिखी गई थीं। अपभ्रंश और पैशाचिक भाषाओं में भी इन बौद्ध कथाओं के आधार पर कथाओं की रचना हुई। गुणाड्य की ‘बृहत् कथा 600 ई० पू० में लिखी गई। यह ग्रंथ अब नहीं मिलता परंतु संस्कृत ‘बृहत् कथा मंजरी’ ‘कथा-सरित्सार’ में इसकी कथाएँ मिलती हैं। यह कथाएँ आरंभ में उपदेशात्मक प्रवृत्ति को लेकर लिखी गई परंतु धीरे-धीरे यह मनोरंजकता की ओर बढ़ती गईं। ‘दशकुमारचरित्’ की रचना तक इन कथाओं में धार्मिक प्रवृत्ति धीरे-धीरे कम होकर सांसारिकता आ गई।
आज की कहानी का इस प्राचीन कहानी साहित्य से कोई संबंध नहीं और न ही यह साहित्य उस प्राचीन साहित्य की देन ही है। आज के युग का कथा-साहित्य पूर्ण रूप से पश्चिम की उपज है। 19वीं शताब्दी के पूर्व कहानी अपने वर्तमान रूप में नहीं थी। परंतु उपन्यास और नाटक इत्यादि में कथा के तत्त्व वर्तमान थे। कहानी ने नाटक से कथोपकथन और नाटकीयता ली और उपन्यास से चरित्र चित्रण। काव्य से कहानी ने प्रकृति-चित्रण और रसात्मकता ली। इस प्रकार वर्तमान कहानी ने नाटक, काव्य और उपन्यास तीनों तत्त्वों का अपने सामंजस्य करके पाठकों का मनोरंजन किया। तीन तत्त्वों की प्रधानता होने के कारण ही आज कहानी-साहित्य ने जो सर्वप्रियता प्राप्त की है वह साहित्य का कोई भी अंग प्राप्त नहीं कर सका।
कहानी में एक भाव, एक घटना एक स्थान और एक चरित्र चित्रण होने की आवश्यकता होती है, परंतु यह प्रतिबंध निभाने कभी-कभी लेखक के लिए कठिन हो जाते हैं, कथानक से इन सब का संबंध है। कहानी एक उद्देश्य या दृष्टिकोण को लेकर चलती है तो उसमें आद्योपांत भाव की एकता भी रहेगी। कहानी का बीज वस्तु एक और स्पष्ट होना चाहिए। लेखक को लिखते-लिखते बीज वस्तु से बहुककर इधर-उधर नहीं निकल जाना चाहिए। कथा का कथानक बीज वस्तु पर ही केंद्रित रहकर चलना चाहिए। कथा के तीन अंग होते हैं-आरंभ, कथानक और अंत। परंतु इन सब का विभाजन करके ही लेखक लेखनी उठाए यह आवश्यक नहीं। कथा सर्वदा सुसंगठित रहनी चाहिए। कथा में जहाँ तक हो सके एक ही घटना रखी जाए और यदि एक से अधिक रखनी अनिवार्य हो जाएँ तो उनका पारस्परिक सूत्र सुदृढ़ होना चाहिए। कथा में पात्र जितने कम हों उतना अच्छा है। व्यर्थ के पात्र तो होने ही नहीं चाहिए। कथावस्तु स्वाभाविक, सरल और मनोरंजक होनी चाहिए, जिससे पाठक उसे पढ़ने में उकता न जाए। कथा सांकेतिक हो तो और भी अच्छा है। कथा का प्रवाह टूटना नहीं चाहिए और न ही उसमें बाधा पड़नी चाहिए। कहानी अप्रतिपादित वस्तु की ओर कलात्मक रूप से संकेत करने वाली होनी चाहिए। उसे इतिवृत्तात्मक कथा-मूलक निबंध की भाँति नहीं लिखा जा सकता। कला होने के नाते इसमें साँकेतिक प्रवृत्ति का आना बहुत आवश्यक है।
वर्तमान कहानियों में चरित्र का निर्माण मनोविज्ञान के आधार पर होता है। केवल समस्यामूलक कहानियों में ही हमें चरित्र चित्रण मिलता है कथा-प्रधान कहानियों में नहीं। पात्र प्रधान कहानियों में पात्रों का विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है। चरित्र चित्रण उपन्यास का विषय अवश्य है परंतु चरित्र का ‘निर्माण’ कथा में ही होता है और उसका विकास और विश्लेषण उपन्यास में हो पाते हैं। पात्र प्रधान कहानी में चरित्र-चित्रण प्रधान है और मनोवैज्ञानिक कहानियों में समस्या का उद्घाटन। परंतु समस्या के उद्घाटन में चरित्र-चित्रण कुछ-कुछ अंशों में अवश्य आ जाता है। यहाँ तक हम कथानक, पान और चरित्र-चित्रण पर विचार कर चके। अब हमें शैली पर विचार करना है।
शैली का संबंध कला के विषय और लिखने की प्रणाली से विशेष होता। शैली विषय और लेखक की प्रणाली तथा भाषा तीनों के सामंजस्य से बनती है। वस्तु प्रधान, कथोपकथन-प्रधान, दृश्य-चित्रण प्रधान तथा संबोधन प्रधान शैलियों द्वारा कहानियाँ लिखी जाती हैं। कुछ कहानियाँ केवल कथोपकथन के आधार पर चलती है। जयशंकर प्रसाद जी की कहानियाँ इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं। कुछ कहानियों में कथोपकथन तथा वस्तु वर्णन दोनों का सामंजस्य करके कहानीकार चलता है और इस सम्मेलन को बहुत कलापूर्ण ढंग से निभाता है। कुछ लेखक अपनी शैली में संबोधन पर विशेष जोर देते हैं तो उनकी शैली संबोधन प्रधान कहलाती है। कुछ शैलियाँ विचारों के आधार पर बनती हैं। कुछ लेखक की भाषा के आधार पर बनती हैं और कुछ व्यक्ति-प्रधान शैलियाँ होती हैं। इस प्रकार हमने कहानियों की विभिन्न शैलियों पर प्रकाश डाला है। इसे पढ़ने पर विद्यार्थियों को इस विषय का ज्ञान हो जाएगा और वह स्वयं भी विभाजन करके नवीन शैलियों के नामकरण कर सकते हैं।
इस प्रकार कहानी वह साहित्य कला है जो आज के हर पाठक को सर्वप्रिय है और विशेष रूप से भावुक प्रेमियों को। साहित्य का यह अंग अन्य सभी अंगों की अपेक्षा अधिक वृद्धि कर रहा है और करेगा भी क्योंकि जीवन की समस्याओं का सब से मनोरंजक रूप केवल यही साहित्य कला प्रस्फुटित कर सकती है।