संकेत बिंदु – (1) शिक्षा और व्यवसाय जीविका के दो पहिए (2) बाबू बनना मात्र उद्देश्य (3) व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य (4) शिक्षा को व्यवसाय परक और व्यावहारिक बनाना (5) व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की स्वीकृति।
शिक्षा और व्यवसाय जीविका रूपी रथ के दो पहिए हैं। शिक्षा के बिना जीविकोपार्जन संभव नहीं, व्यवसाय बिना शिक्षा व्यर्थ है। अतः शिक्षा और व्यवसाय एक-दूसरे के पूरक हैं- मानवीय प्रगति के संबल हैं; राष्ट्रीय विकास के उपकरण हैं; आर्थिक उन्नति के परिचायक हैं।
प्राचीन युग में शिक्षा ग्रहण करने का उद्देश्य ज्ञानार्जन करना था। इसलिए सिद्धांत- वाक्य बना – ‘ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रम् (ज्ञान मनुष्य का तृतीय नेत्र है।) उस समय शिक्षा केवल धनोपार्जन का माध्यम नहीं थी। हाँ ‘विद्या अर्थकरी’ होनी चाहिए, यह विचार निश्चित ही था। जीवलोक के छह सुखों में ‘अर्थकरी विद्या’ को भी एक सुख माना गया था।
समय ने करवट बदली। भारतीय जनता को अंग्रेजी के साथ ही आधुनिक विषय- विज्ञान, अर्थशास्त्र, वाणिज्य शास्त्र आदि सिखाने का अभियान चला। लार्ड मैकाले- योजना की क्रियान्विति हुई। भारत में अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं का जाल तो फैला, किंतु वह जीवनयापन की दृष्टि से अयोग्य रहीं। मैट्रिकुलेट और ग्रेजुएट नौकरी की तलाश में आकाश-पाताल एक करने लगे। पढ़-लिखकर बाबू बनना मात्र शिक्षा का ध्येय बन गया। किसान का पुत्र बाबू बनकर कृषक जीवन से नाता तोड़ने लगा। कर्मकांडी पंडित का पुत्र बाबू बनकर अपने ही पिता को ‘पाखंडी’ की उपाधि से विभूषित करने लगा। हाथ का काम करने में आत्महीनता का अनुभव होने लगा। परिणामतः वंश-परंपरागत कार्य ठुकरा दिए गए। गाँव के भोले-भाले मैट्रिकुलेट युवक को बाबूगिरी में स्वर्ग दिखाई देने लगा; उसकी प्राप्ति के लिए वह तड़पने लगा। इस प्रकार का शिक्षित युवक स्वयं तो प्रगति-पथ पर अग्रसर होना नहीं चाहता, न देश के उत्पादन में अपना योगदान देना चाहता है। उसमें न परिस्थितियों में संघर्ष करने की क्षमता है और न अपने पैरों पर खड़े रहने की योग्यता ही। अत्युत्तम प्राकृतिक साधनों के होते हुए भी कमजोर आर्थिक व्यवस्था का मूल कारण भी शिक्षित युवक वर्ग की उदासीनता ही है।
पिछले कुछ वर्षों से समाज की मान्यताओं, मूल्यों, विविध आवश्यकताओं, समस्याओं और विचारधाराओं में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। उन परिवर्तनों के साथ समाज का सामंजस्य होना नितांत आवश्यक है। यह काम हैं शिक्षा का। इन परिवर्तनों के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप, प्रणाली और व्यवस्था में परिवर्तन अनिवार्य है। यह परिवर्तन हैं शिक्षा व्यवस्था को अधिक उपयोगी, व्यावहारिक तथा जीविकोपार्जन का माध्यम बनाना।
सन् 1919 में सेडलर आयोग ने 1948-49 में राधाकृष्णन आयोग ने 1952 में मुदालियर कमीशन ने 1964-66 में कोठरी आयोग ने 1990 में राममूर्ति तथा 1992 में जनार्दन रेड्डी समिति ने शिक्षा का व्यवसायीकरण करने का सुझाव दिया।
‘व्यावसायिक शिक्षा’ अथवा ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ का अर्थ क्या है? सामान्य शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक जीवन के लिए उपयोगी शिल्पों एवं व्यवसाय का ज्ञान प्राप्त करना ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ हैं। इस शिक्षा का लक्ष्य कुशल शिल्पी तैयार करना नहीं, वरन् विद्यार्थी में उद्योग-धंधों के प्रति प्रेम और उनकी ओर झुकाव उत्पन्न करके शारीरिक श्रम के महत्त्व की अनुभूति कराना है। यह शिक्षा जनतांत्रिक भावना विकसित करने के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास करेगी। व्यक्ति की निहित शक्तियों का विकास करके उसे समाज का उपयोगी सदस्य बनाने में सफल होगी।
व्यावसायिक शिक्षा व्यक्ति को समाज की वास्तविकता से परिचित कराएगी। समाज के विकास में व्यक्ति की भूमिका का ज्ञान कराएगी। व्यावसायिक शिक्षा रोजगार पैदा नहीं करेगी, वह तो व्यक्ति को रोजगार प्राप्त करने अथवा स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका अर्जित कराने में सहायक होगी। व्यावसायिक शिक्षा से व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक होगा। फलस्वरूप वह स्वाध्याय एवं स्वानुभव द्वारा उच्चतम उपलब्धियाँ प्राप्त करने में समर्थ होगा।
यदि हम राष्ट्र की विकासशीलता से अभीष्ट परिणाम चाहते हैं, तो सामान्य शिक्षा के साथ श्रम के महत्त्व को प्रमुख स्थान देना होगा। शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम के समकक्ष रखना होगा। सुयोग्य, सुशिक्षित नागरिक तैयार करने होंगे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपनी शिक्षा को व्यवसायपरक एवं जीवनोपयोगी, व्यावहारिक तथा वास्तविकता के अनुरूप बनाना होगा। ‘अब वुद्धि-विलास की शिक्षा का वह युग बीत गया, जबकि शिक्षा मनोरंजन का साधन मानी जाती थी। अव शिक्षा ज्ञानार्जन के साथ- साथ मानव को मानवीय गुणों से युक्त बनाने वाली होनी चाहिए, जिससे वह सभी प्राणियों का समता की दृष्टि से विकास करने का प्रयास करे।’
व्यावसायिक शिक्षा की दृष्टि से आज देश में आई.आई.टी., तकनीकी शिक्षा, औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र, कृषि विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक संस्थानों का जाल – सा बिछ रहा है। कंप्यूटर प्रशिक्षण की व्यवस्था तो अनेक स्कूलों के पाठ्यक्रम का अंग बन गई है।
व्यावसायिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु देशभर में 16486 स्कूलों में व्यावसायिक पाठयक्रमों की स्वीकृति दी जा चुकी है जिससे करीब 29.35 लाख विद्यार्थियों को लाभ होगा। यह संख्या +2 स्तर में प्रवेश करने वालों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हैं।
छह मुख्य क्षेत्रों कृषि, व्यवसाय और वाणिज्य, इंजीनियरी और टेकनोलॉजी, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा से संबंधित व्यवसाय; गृह विज्ञान, मानविकी तथा अन्य क्षेत्रों में लगभग 150 व्यावसायिक पाठ्यक्रम प्रारंभ किए गए हैं। राष्ट्रीय फैशन टेक्नोलॉजी संस्थान के सहयोग से फैशन तथा परिधान निर्माण के पाठ्यक्रम चल रहे हैं।
देश में बढ़ती बेरोजगारी, युवाओं में जन्मती दुष्प्रवृत्तियाँ तथा उनका असामाजिक कृत्यों की ओर झुकाव देश को अराजकता की ओर धकेल रहा है। इसलिए अनिवार्य है कि हमारी शिक्षा का व्यवसाय के साथ सामंजस्य हो, संतुलन हो।