संकेत बिंदु – (1) विद्यार्थियों की भागीदारी (2) मताधिकार की आयु 21 से 18 वर्ष (3) मतदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी (4) शिक्षण संस्थाएँ राजनीति का अखाड़ा (5) मताधिकार का प्रयोग राष्ट्रहित में।
संसद, विधान-मंडलों और स्वायत्त संस्थानों (नगरपालिका) आदि में प्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया में विद्यार्थियों की भागीदारी का अर्थ है, नवयुवकों पर दायित्व का बोझ डालना, देश के पढ़े-लिखे नवयुवक वर्ग द्वारा अपना प्रतिनिधि चुनने की पात्रता सिद्ध करना; कुछ उत्साही और स्वयं स्फूर्त तरुणों द्वारा राष्ट्र-निर्माण में सहयोग देना।
पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकतंत्र में चुनाव को राजनीतिक शिक्षा देने का विश्वविद्यालय मानते थे। इसलिए विद्यार्थी जीवन में चुनाव के विश्वविद्यालय से शिक्षा लेना राष्ट्र जीवन की उन्नति और प्रगति का प्रतीक है।
युवा पीढ़ी अर्थात् विद्यार्थी वर्ग शिक्षित एवं समझदार है, अतः उसे राजनीतिक इकाई के रूप में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार मिलना चाहिए। इसकी माँग सर्वप्रथम उठाने वाले थे तत्कालीन संसद में विपक्ष के नेता और आज के गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी। बाद में कांग्रेस ने भी 18 वर्ष के युवावर्ग को मतदान का अधिकार सौंपने में अपना हित समझकर इसे कानूनी रूप देने का निश्चय किया।
परिणामत: 20 दिसंबर, 1988 को संसद ने 63वें संविधान संशोधन के अंतर्गत संविधान की धारा 326 में संशोधन कर मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी। इससे विद्यार्थी और राजनीति के संबंधों के प्रश्न-चिह्न को समाप्त कर दिया गया है। अब विद्यार्थी भी राजनीति का एक अंग बन गया है।
महात्मा गाँधी से लेकर लोकनायक जयप्रकाश तक, प्रत्येक नेता ने युवाओं अर्थात् विद्यार्थियों की क्षमता एवं ऊर्जा को रचनात्मक तथा क्रियाशील ढंग से देशहित में लगाने पर जोर दिया है। पंडित नेहरू कहा करते थे, ‘समाज में क्रांति एवं दृढ़ी भवन के मध्य एकांतर होना चाहिए और इस काम को युवाओं के बिना नहीं किया जा सकता। वही आवश्यक ऊर्जा का स्थानांतरण कर सकते हैं।’ आगे चलकर वे कहते हैं- ‘वृद्ध अपने बचे हुए वर्षों के लिए जीता है जबकि युवा शाश्वत काल लिए जीता है।’
21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की मतदाता आयु करने का लाभ यह हुआ कि उस समय भारत के लगभग पाँच करोड़ विद्यार्थी मतदाता बन गए। उन्हें अपने प्रतिनिधि चुनने, प्रतिनिधित्व करने तथा भावी नीतियों और कार्यक्रमों के संबंध में जनादेश (मैंडर) देने का अधिकार मिल गया। अब वे भी असम के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री प्रफुल्ल कुमार महंत की तरह ‘होस्टल’ से सीधे मुख्यमंत्री बन सकेंगे। असम के विद्यार्थियों की तरह विधायक और मंत्री बन सकेंगे। प्रांत और राष्ट्र की रचना और संचालन में योग दे सकेंगे।
आज भी भारत की चालीस प्रतिशत जनता अशिक्षित है। अशिक्षित मतदाता से सोच-समझकर मतदान की आशा भी कैसे की जा सकती है? यही कारण कि झुग्गी- झोंपड़ी तथा ग्राम-समाज का वोट, जो प्रायः विवेकहीन होता है, चुनावी ऊँट का साक्षी बनता है और पढ़े-लिखे, शिक्षित जनों का विवेकपूर्ण वोट चुनाव की दौड़ में पिछड़ जाता। विद्यार्थी का चुनाव में भाग लेना जनतंत्र के लिए शुभ है। जनतंत्र में यह अनपढ़ और अशिक्षित मतदाताओं के मतदान से होने वाले असंतुलन को बचाता है।
आज चुनावों के कारण शिक्षण संस्थाएँ राजनीति का अखाड़ा बनती जा रही हैं। विश्वविद्यालयों में छात्र संघों के चुनाव प्रांतीय निर्वाचनों का लघु रूप ही तो हैं। लाखों रुपए खर्च करके विश्वविद्यालय की अध्यक्षता तथा सचिव पद जीते जाते हैं। जब राजनीतिक मताधिकारों के घी से राजनीतिक स्वार्थों की ज्वाला भड़केगी तो उसका परिणाम सुखद होने की आशा कैसे होगी?
दूसरी ओर, आयु के इस मोड़ पर विद्यार्थी इतना समझदार भी नहीं होता कि अपना निर्णय विवेक से, सही ढंग से ले सके। इस अवस्था में तो वह पारिवारिक दायित्व की परिभाषा भी नहीं समझता। कमाने की योग्यता से वंचित होता है तो चुनाव के महत्त्व को क्या समझेगा? फलत: वह कुटिल और चालाक राजनीतिज्ञों, छुटभैए नेताओं तथा ‘कक्का’ जी जैसे स्वार्थियों के षड्यंत्र का शिकार हो जाएगा।
विद्यार्थी में जोश अधिक, होश कम होता है। इसलिए उसमें अदम्य साहस के स्रोत का प्रवाह पूरे जोरों पर होता है। होश की कमी से वह चुनाव की धारा को मोड़ देगा तो प्रांत या राष्ट्र में परिवर्तन तो आएगा, पर परिवर्तन के लिए परिवर्तन कदापि उचित नहीं होता।
उक्त कतिपय दोषों के होते हुए भी डिजरायली के शब्दों के आधार पर कि ‘The youth of a Nation are the trustees of the prosperity and almost everything that is great has been don by youth’ अर्थात् राष्ट्र के युवक भावी पीढ़ियों के न्यासी होते हैं और प्रायः प्रत्येक महान् कार्य युवकों द्वारा ही किया जाता है। विद्यार्थियों को चुनाव का मताधिकार सौंपना या उम्मीदवार बनना राष्ट्रहित में ही होगा। दूसरे, विद्यार्थी जीवन के इस अनुभव और अभ्यास का प्रयोग वह प्रौढ़ होने पर राष्ट्रहित में कर सकेगा। तीसरे, देश में नेतृत्व की दूसरी पंक्ति उभर कर सामने आएगी जो प्रथम पंक्ति के हटने पर देश में नेतृत्व का अभाव नहीं होने देगी। जैसे आज तक भारत की सोच रहती आई है – नेहरू के बाद कौन? इंदिरा के बाद कौन? राजीव के बाद कौन?
सुप्रसिद्ध साहित्यकार और दार्शनिक जैनेद्र इस पुण्य कार्य के लिए एक सुझाव देते हैं। ‘युवकों का उत्साह केवल ताप बनकर न रह जाए। यदि उसमें तप भी मिल जाए तो वह बहुत निर्माणकारी हो सकता है।’