संकेत बिंदु – (1) व्यक्ति या व वस्तु का मूल्यांकन (2) योग्यता नापने का माध्यम (3) जीवन यात्रा को सुचारू रूप से चलाना (4) परीक्षा भय को समाप्त करना (5) परीक्षा और भय का संबंध।
संस्कृत में परीक्षा शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार है- परि (उपसर्ग) + ईक्ष् (धातु) + आ (टाप्)। व्युत्पत्ति है – ‘ परितः सर्वतः, ईक्षणं – दर्शनम् एव परीक्षा।’ अर्थात् सभी प्रकार से किसी व्यक्ति या वस्तु के अवलोकन अथवा मूल्यांकन को परीक्षा कहते हैं।
मनुष्य शरीर की पाँचों उँगलियाँ समान नहीं हैं, इसी प्रकार गुण, योग्यता और सामर्थ्य की दृष्टि से मानव-मानव में अंतर है। उसके ज्ञान. वित्रेक और कर्मठता में अंतर है। विश्व के विभिन्न अंगों के संचालन के लिए तदनुरूप योग्यता और सामर्थ्य संपन्न महापुरुष चाहिए। विश्व-जन को शिक्षित करने के लिए शिक्षा शास्त्री चाहिए। विज्ञान से विश्व को आलोकित करने के लिए वैज्ञानिक चाहिए। विश्व व्यवस्था स्थापनार्थ राजनीतिज्ञ कूटनीतिज्ञ चाहिए। व्यक्ति विशेष में कार्य-विशेष के लिए गुण हैं या नहीं, पद की प्रामाणिकता और व्यवस्था का सामर्थ्य है या नहीं, इसकी जानकारी के लिए परीक्षा ही एकमात्र साधन है। दो-एक उदाहरणों द्वारा यह बात स्पष्ट हो जाएगी।
एक कक्षा में पैंतीस विद्यार्थी पढ़ते हैं। उनको शिक्षा देने वाले शिक्षक समान है। सभी को एक ही समय और निश्चित अवधि में शिक्षा मिलती है। किसी को अधिक नहीं, दूसरे की उपेक्षा नहीं। इन पैंतीस विद्यार्थियों में किसने कितनी शिक्षा ग्रहण की है, इसका पता कैसे लगाएँगे? उनकी परीक्षा लेकर।
दूसरी ओर योग्यता क्रम निर्धारण करने के लिए भी ‘परीक्षा’ का माध्यम अपनाना पड़ेगा। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि स्थानों के निर्णय का निर्धारण बिना परीक्षा के असंभव है। सौ रिक्त पदों की पूर्ति के लिए सहस्त्रों आवेदन-पत्र आए हैं। उनमें से सौ आवेदन कर्ताओं का चयन कैसे करेंगे? माथे पर तो किसी की योग्यता, विशेषता अंकित है नहीं। बस, एक ही उपाय है- परीक्षा। पद के अनुकूल उनकी योग्यता, विशेषता, शालीनता, शिष्टता की जाँच करके क्रम निर्धारित करेंगे।
कालिदास कहते हैं ‘हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा।’ अर्थात् सोने की शुद्धि या अशुद्धि अग्नि में ही देखी जाती है।
संभवजातक का कहना है-
“जवेन वाजिं जानन्ति बलिवद्दं च वाहिए।
दोहेन धेनुं जानन्ति भासमानं च पंडितम्।”
वेग से अच्छे घोड़े का पता चलता है। भार ढोने के सामर्थ्य से अच्छे बैल का, दूहने से अच्छी गाय का और भाषण से पंडित का। तुलसीदास जी के विचार में ‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारि।’
जनसाधारण के जीवन का उद्देश्य है जीवनयात्रा को सुचारु रूप से चलाना। शिक्षा इस उद्देश्य प्राप्ति का निश्चित प्रामाणिक सोपान है। इसलिए वह सीढ़ी-दर-सीढ़ी शिक्षा की ‘श्रेणियों’ की परीक्षा उत्तीर्ण करता हुआ अपनी योग्यता अर्जित करता है। उस योग्यता के बल पर ‘नौकरी’ के द्वार खटखटाता है उसके लिखित या मौखिक अथवा दोनों प्रकार की परीक्षा का सामना करते हुए जीवन जीने का जुगाड़ भिड़ाता है। अतः आज के युग में इन दोनों तत्त्वों को मुख्यत: ‘परीक्षा’ की परिभाषा में लेना चाहिए।
भय क्या है? वह मानसिक स्थिति जो किसी अनिष्ट या संकट सूचक संभावना से उत्पन्न होती है और जिसमें प्राणी चिंतित और विकल होने लगता है, भय है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है, ‘किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभकारक मनोविकार होता है, उसी को भय कहते हैं।
परीक्षा- भय का भूत जब परीक्षार्थी पर सवार होता है तो दिन में नारे नजर आते हैं। रातों की नींद हराम हो जाती है। दूरदर्शन के मनोरंजन कार्यक्रमों में दुष्टदर्शन की मनहूस शक्लें नज़र आती हैं। रात करवटें बदलते बीतती है, दिन घोटे लगाने में जाता है। सहायक-ग्रंथों को हनुमान चालीसा की तरह रटता है। ‘सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ‘ करता है।
परीक्षार्थी अपना ध्यान केन्द्रित कर अध्ययन द्वारा परीक्षा के भय को तो पराजित करने की ठानता है, किंतु परीक्षा का दूसरा भय उसके मन-मस्तिष्क को कचोटता रहता है। यदि कंठस्थ किए प्रश्न नहीं आए तो? परीक्षक ने प्रश्न- शैली में परिवर्तन कर दिया तो? यदि निर्दय प्रश्न-पत्र निर्माता ने क्लिष्ट प्रश्नों के अनेक राक्षसों को उपस्थित कर दिया तो? यदि पाठ्यक्रम से बाहर के प्रश्न पूछ लिए तो? यदि ‘ ओबजेक्टिव’ (वस्तुनिष्ठ) के नाम पर प्रश्नों की संख्या हनुमान की पूँछ की तरह लंबी हुई तो?
परीक्षा- भय से मुक्ति परीक्षार्थी की सफलता की कुंजी है। प्रगति पथ का प्रकाश स्तंभ है। उज्ज्वल भविष्य का उदीप्त सूर्य है। भयमुक्ति के उपाय हैं – (1) एकाग्रचित्त द्वारा नियमित अध्ययन (2) साहसपूर्ण आत्मविश्वास। इन दोनों उपायों से परीक्षा-भय सुषुप्त होगा, यदा-कदा जागृत होकर भयभीत नहीं करेगा। कठिन प्रश्न, दुरूह प्रश्न-शैली और अपठित की समस्या स्वस्थ मन में स्वतः हल हो जाएगी। कलम की नोक पर उनके उत्तर अनायास अवतरित होते जाएँगे।
परीक्षा और भय का अन्योन्याश्रय संबंध है। चोली-दामन का साथ है। बिना भय के परीक्षा का अस्तित्व नहीं और बिना परीक्षा भय का निदान नहीं। महात्मा गाँधी जी का कहना है, ‘भयभीत व्यक्ति स्वयं ही डरता है, उसको कोई डराता नहीं।’ इसलिए भय का सामना निर्भीक होकर साहस से करके सफलता की दिव्य ज्योति के दर्शन करो।