संकेत बिंदु – (1) सभ्यता संस्कृति से शून्य (2) भारतीय संस्कृति के मूल आधार (3) आध्यात्मिकता और त्याग (4) पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से प्रभावित (5) अनास्थावादी और भौतिकवादी युवा।
भारत का युवक भारतीय सभ्यता, हिंदू धर्म तथा भारतीय सांस्कृतिक चरित्र ज्ञान से शून्य है। कारण, उसमें सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि है ही नहीं। कहीं दृष्टि है तो मूल्य ज्ञान नहीं। दृष्टि और मूल्यों का सामंजस्य संवेदन से जन्मता है। राष्ट्रीय भावना और सामाजिक संबंधों से, वस्तु सत्य से जब-जब हमारा युवक पथभ्रष्ट हुआ, तब-तब उसकी सभ्यता और संस्कृति का धरातल खिसकता गया। जैसे-जैसे भारत के शासकों तथा प्रशासकों ने अपने सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना की वैसे-वैसे भारत की युवा शक्ति मानसिक स्तर पर भारतीय संस्कृति के मानदंडों से आधारहीन होती चली गई।
भारतीय संस्कृति का पहला मूल सूत्र है-’धर्मानुकूल आचरण।’ इसे सदाचार भी कहते हैं। आज का युवक धर्माचरण से परहेज करता है। वह नित्यप्रति के कार्यव्यापार में सदाचरण का अर्थ विद्रोह और विध्वंस मानता है। वह धर्म कार्य करता है, आत्मा को मारकर, लोक- दिखावे के लिए। उसे ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, अतिथि देवोभव, आचार्य देवो भव’ की कल्पना ही नहीं है। कल्पना है तो मातृ-द्रोह की। अतिथि नहीं, तिथि बताकर आने वाले मित्र या सखा के स्वागत-सत्कार की।
‘आत्मा की ओर ले जाने वाले यावन्मात्र सद्विचार’, भारतीय संस्कृति का दूसरा मूलाधार है। विद्रोह और विध्वंस अहं और स्वार्थ के पुंज युवा से आत्मोन्नति की बात करना पागलपन है। कारण, वह तो ‘खाओ, पीओ और ऐश करो’ के जीवन को ही जीवन मानता है।
वर्णाश्रम व्यवस्था और जन्मांतर (पुनर्जन्म) पर विश्वास भारतीय संस्कृति का तीसरा आधार है। काका कालेलकर ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है, वर्ण का आधार सांस्कृतिक है। वर्ण का प्रभाव बढ़ने से जाति का प्रभाव कम होता है। ‘वर्ण की एकता शिथिल होने से जातियाँ फिर से जागृत होती हैं। जाति जागृति अंततः संस्कृति पर चोट है।’
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत तथा उपनिषद् और दर्शन शास्त्रों पर स्थिर विश्वास भारतीय संस्कृति का चौथा मूलाधार है। ज्यों-ज्यों भारतीय युवक पर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का रंग चढ़ रहा है, त्यों-त्यों धार्मिक वाङ्मय से उसकी श्रद्धा हटती जा रही हैI
कर्म और दायित्व भारतीय संस्कृति का पाँचवा मूलाधार है। कर्म बिना जीवन की स्थिति असंभव है, धर्म अधूरा है। जिस कर्म में ज्ञान का भाव नहीं, वह कर्म स्वार्थ से सना होने से व्यक्ति और समाज को और भी उलझन में डाल देता है। भारतीय युवक की उलझनें कर्म के प्रति अविश्वास प्रकट करती हैं। रही दायित्व की बात, वह दायित्व – विहीन है।
आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति की प्राण है। निर्गुण और सगुण उपासना पद्धतियाँ उसके दो पथ हैं। सर्वव्यापक भगवत्सत्ता पर विश्वास उसका आधार है। मन इसका केंद्र है और हृदय इसका आवास। सांस्कृतिक मन उदार, सहिष्णु तथा नूतन भावों का जागरूकता से स्वागत करता है। अनुशासन या अंकुश की अपेक्षा उच्च आदर्श, त्याग की भावना, निजी कर्म-प्रेरणा से अधिक द्रवित होता है। भारतीय युवा मन आध्यात्मिकता की चादर ओढ़े है, यह उसकी विवशता है, इसीलिए उसमें श्रद्धा, विश्वास, समर्पण दूर तक दिखाई नहीं देता।
त्याग भारतीय संस्कृति की दीप्त मणि है। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ उसका आदर्श है। ‘यत् किंचन्मनो व्यासंग कारकम्, तत्त्याज्यम्’ (जो कुछ भी मन को फँसाने वाली चीजें हैं, उन उनका त्याग) की प्रेरणा है। और ‘सर्वत्यागच्च निर्वाणम्’ अर्थात् सर्वस्व का त्याग मोक्ष है। भारतीय युवक इन आदर्शों, प्रेरणा और कामनाओं का विरोधी है। वह अत्यधिक भोगमय जीवन का साक्षी है।
पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति की चकाचौंध के कारण हमारे समाज का यह हिस्सा, हमारे समाज से कट रहा है। श्री हरीश पाठक के शब्दों में, ‘उसे घर से कटना, भागना, पलायन करना अच्छा लगता है और स्टार टीवी, ए टी एन के सितारे इसके सपनों में आते हैं। समाज से उनका कोई लेना-देना नहीं है। उनकी आँखों पर सन ग्लास या रे बेन चश्मे होते हैं, उनके गले में आड़े-तिरछे लॉकेट जिसमें मेडोना तक की तस्वीर चिपकी रहती है, उनके पैरों में गुच्ची जूता, दायें कान में बाली, टी शर्ट पर ‘ कोबरा’ या ‘जेड’ की आकृति, खाने में हेम्बर्गर या पिज्जा, पीने में कोल्ड कॉफी, वेनीला या संडे आइस्क्रीम, घूमने के लिए यामहा, होंडा या जिप्सी और शाम बिताने के लिए डिस्कोथिक की बुझती – जलती रोशनी, हालात यहाँ तक आ पहुँचे हैं कि मुंबई हो या दिल्ली, कलकत्ता हो या बैंगलौर वहाँ के मूल निवासियों को उनके अपने शहर पराये लगने लगे हैं, क्योंकि यूरोप और अमरीकी संस्कृति की इस बिगड़ी हुई नकल ने उन्हें अपनी ही जड़ों से काट दिया है।’
भारतीय युवा मन भारतीय संस्कृति से दूर, अनास्थावान् भौतिकवादी क्यों बन रहा है? इसका दायित्व पूर्णतः शासन पर है। जैसे-जैसे दिग्भ्रान्त सत्ता ने अपने सामाजिक- सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट किया वैसे-वैसे भारतीय युवक मानसिक स्तर पर आधारहीन होता चला गया। परिणामतः हमारे युवक पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के रंग में रंगते चले गए। दूसरी ओर, धर्म-निरपेक्ष भारत में सर्वाधिक चोट हिंदू-धर्म पर की गई। इतना ही नहीं हिंदुत्व अर्थात् भारतीयता की बात सांप्रदायिकता का लक्षण बना दी गई। इस तथाकथित सांप्रदायिकता की विषाक्त भावना से बचने के कारण भारतीय संस्कृति उसके लिए अस्पृश्य बन गई। तीसरी ओर, अंग्रेजी शिक्षा और कोन्वेंट पद्धति के विद्यालयों ने युवकों के आचार-विचार-व्यवहार को पाश्चात्य-संस्कृति तथा सभ्यता में दीक्षित कर दिया है। पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से अशांत, अतृप्त और खिन्न होकर जब युवक निराशा के तिमिर से भयभीत होता है तो लौटकर पुनः मातृ-संस्कृति की गोद में ही आश्वस्त होता है, सुख पाता है। आध्यात्मिकता का पीयूष ही उसके मृत प्राणों में नवजीवन का संचार करता है।