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अध्यापक मेरा आदर्श है/ अध्यापक और आदर्श छात्र का आदर्श उसका अध्यापक / विद्यार्थी, विद्यालय और अध्यापक

ek aadarsh shikshak an ideal teacher par ek shandaar nibandh

संकेत बिंदु – (1) विद्यालय की भूमिका (2) आदर्श अध्यापक के गुण (3) प्राचीनकाल के आदर्श गुरु (4) मेरे आदर्श अध्यापक (5) उपसंहार।

ज्ञान और गुण, बुद्धि और विवेक, शिक्षा और अध्ययन, चरित्र और आदर्श की ही सम्मिलित राशि एक मनुष्य को मानवता के सोपान तक ले जाने में सहायक होती हैं। छात्र ये सभी गुण प्राप्त करने के लिए, अपने जीवन को आदर्शमय बनाने के लिए और अपने भविष्य को सुंदर, सुखद और गरिमापूर्ण बनाने के लिए विद्यालय की शरण में जाकर विद्याध्ययन करता है ताकि वह जीवन में सदा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने के योग्य बन सके। हमारे समाज शास्त्रियों ने बाल्यवस्था और किशोरावस्था इस ज्ञान अर्जन के लिए निर्धारित की है; क्योंकि व्यक्ति संसार में आकर अपने कर्त्तव्य का बोध करता हुआ सबसे पहले संसार के योग्य बने। अध्यापक द्वारा दी गई शिक्षा ही छात्र को सदा योग्य बनाती है जिससे व्यक्ति एक सफल गृहस्थ, एक संपूर्ण पिता, एक अच्छा नागरिक और आदर्शवादी राष्ट्र निर्माता बने। प्रारंभ में विद्यार्थी जीवन ही परिश्रम, लगन और एकनिष्ठ तपस्या साधना का जीवन होता है।

‘एक साधे सब सधे, सब साधे सध जाए’ की उक्तिपूर्ण तथा आदर्श के लिए हीं चरितार्थ होती है। ज्ञानियों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि – सुखार्थी चेत् त्यज्ञेत् विद्या, विद्यार्थी चेत् त्यज्ञेत् सुखम अर्थात् विद्यार्थी जीवन में सुख चाहने वाला विद्या को त्याग दें और विद्या चाहने वाला सुख को त्याग दे। आदर्श अध्यापक जो विद्यार्थी का पूर्ण ध्यान रखे और विद्यार्थी को उसका पाठ्यक्रम तैयार कराता रहे, उसका यह क्रम एक आदर्श हो जाया करता है। अध्यापन कराना ही अध्यापक का मुख्य कार्य है। दूसरा क्रम यह है कि अध्यापक छात्र के अध्ययन पर तो ध्यान रखता ही रहे, साथ ही वह छात्र की स्वच्छता, अनुशासन पर भी ध्यान रखे। आदर्श अध्यापक ही छात्र को प्रत्येक अच्छी बुरी आदतों, बुरी संगति से दूर रखने का भी प्रयास करें।

जो अध्यापक आदर्शवादी होगा वह अपने प्रत्येक बात के क्रियाकलाप पर ध्यान देगा और पढ़ाने और छात्र के मनोरंजन व खेल के साथ-साथ समय-समय पर टी.वी. देखने का भी क्रमानुसार ज्ञान कराता रहे। छात्र सत्य के साथ कितना झूठ बोलता है, इसका आभास भी आदर्श अध्यापक को होना अनिवार्य है।

अपने माता-पिता, अभिभावक के बाद प्रत्येक छात्र का आदर्श उसका अध्यापक ही होता है। प्राचीन काल में अध्यापक को गुरु कहा जाता था और विद्यालय के स्थान पर गुरुकुल हुआ करते थे, जहाँ छात्रों को शिक्षा प्रदान की जाती थी। चाहे राम हों या कृष्ण, नानक हो या बुद्ध या कोई अन्य महान आत्माएँ, इन सभी ने अपने गुरुओं से शिक्षाएँ प्राप्त कर एक आदर्श स्थापित किया। कभी-कभी तो शिष्य गुरु से भी आगे निकल जाया करता है जिसका मुख्य कारण केवल अध्यापक का आदर्श होता है। इतिहास बताता है कि गुरु गोरखनाथ के गुरु मच्छेन्द्रनाथ थे, लेकिन गुरु मच्छेन्द्रनाथ से गोरखनाथ काफी आगे निकल गए थे। इसी संदर्भ में गोरखनाथ के शिष्य बाबा भैरव थे, जिन्होंने अपने गुरु से भी आगे बढ़कर माँ दुर्गा की परीक्षा ली थी और अंत में माँ ने भैरों का वध कर भैरों को अमरता प्रदान की थी। इस घटना से यह सिद्ध होता है कि विद्यार्थी या शिष्य को गुरु या अध्यापक का आदर्श ही संसार में कुछ करने की प्ररेणा देता है।

भारतीय आदर्श विद्यालय में एक अध्यापक विद्याप्रकाश थे, जैसा नाम वैसा काम भी था उनका। उनकी कक्षा के 32 विद्यार्थी प्रथम द्वितीय और तृतीय श्रेणी में राज्य में अग्रणी रहे और एक विद्यार्थी तो पूरे क्षेत्र में सबसे आगे रहा। विद्याप्रकाश के एक छात्र जिसने बारहवीं कक्षा की परीक्षा दी उनका परीक्षा परिणाम देखकर पूरा विद्यालय स्तब्ध रह गया, क्योंकि यह छात्र पूरे देश में प्रथम छात्र घोषित किया गया। उस छात्र ने गणित विषय में 99 अंक, अर्थशास्त्र में 90 प्रतिशत अंक प्राप्त कर अपना, अपने अध्यापक का, अपने विद्यालय का और अपने परिवार का नाम ऊँचा किया। इस छात्र ने बताया कि मैंने विद्याप्रकाश जो मेरे अध्यापक हैं उन्हें अपना आदर्श माना और मैंने मेहनत की। मुझे मेरी मेहनत का फल भगवान ने दिया।

विद्याप्रकाश के बारे में सभी छात्रों का एक मत से यही कहना था कि वैसे तो विद्यालय के सभी अध्यापक अपनी जगह सही हैं, मगर जो व्यक्तित्व हमारे आदर्श अध्यापक विद्याप्रकाश जी का है, वह अन्य किसी का नहीं क्योंकि विद्याप्रकाश जी ने हम सभी को अपने पुत्रों के समान प्रत्येक अच्छी बुरी बात का ज्ञान कराया, कभी-कभी हमारे साथ ही बैठकर खाना भी खा लेते थे, हमारे साथ खेलते भी थे, हमें घुमाने के लिए पिकनिक पर भी ले जाते थे, लेकिन विद्याप्रकाश जी पढ़ाई के साथ कोई रियायत नहीं करते थे। विद्याप्रकाश जी का कहना था कि यदि मेरी कक्षा का छात्र उन्नति करता है तो मुझे इतना हर्ष होता है कि जैसे मैंने स्वयं उन्नति की है। विद्याप्रकाश को सभी छात्र अपना आदर्श मानते थे क्योंकि विद्याप्रकाश स्वयं आदर्शवादी थे। यह भी पता चला कि विद्याप्रकाश द्वारा पढ़ाये गए छात्रों में से कई छात्र अपनी मेहनत और भाग्य से जज, पुलिस कमिश्नर, आई. ए. एस. अधिकारी, तहसीलदार, उपायुक्त, खाद्य अधिकारी, बैंक मैनेजर और न जाने किस-किस पद पर विराजमान हैं।

कुर्ता-पायजामा पहनने वाले विद्याप्रकाश जी को पूरा विद्यालय, यहाँ तक की विद्यालय के प्रधानाचार्य भी सम्मानपूर्वक उनका आदर करते थे। छात्र तो उनके चरण स्पर्श करके ही अपनी पढ़ाई प्रारंभ किया करते थे। आदर्शवान बनना और केवल आदर्श का नाम लेना इन दोनों बातों में अंतर है, लेकिन यदि व्यक्ति प्रयास करे तो आदर्श स्थापित करने में कुछ भी तो खर्चा नहीं करना पड़ता। आदर्श केवल मन का विज्ञान है और विज्ञान कभी असफल नहीं होता।

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