संकेत बिंदु – (1) व्यक्ति का चाल-चलन और मानवीय गुण (2) मानवीय गुणों के अंकुर (3) आपदाओं, कष्टों और रोगों पर विजय प्राप्ति (4) समाज की पूँजी (5) चरित्र-बल के अभाव में समाज।
व्यक्ति का आचरण या चाल-चलन चरित्र कहलाता है। शक्ति का कार्यकारी रूप बल है। आचरण और व्यवहार में शुद्धता रखते हुए दृढ़ता से कर्तव्य पथ पर बढ़ते रहना चरित्र-बल है। व्यक्तित्व की निश्छल-स्वाभाविक प्रस्तुति चरित्र-बल है। यूनानी साहित्यकार प्लूटार्क के शब्दों में ‘चरित्र-बल केवल सुदीर्घकालीन स्वभाव की शक्ति है।’
चरित्र-बल ही मानवीय गुणों की मर्यादा है। स्वभाव और विचारों की दृढ़ता का सूचक है। तप, त्याग और तेज का दर्पण तथा सुखमय सहज जीवन जीने की कला है। आत्म-शक्ति के विकास का अंकुर है। सम्मान और वैभव प्राप्ति की सीढ़ी है।
चरित्र-बल अजेय है, भगवान को परम प्रिय है और है संकट का सहारा। उसके सामने ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ तक तुच्छ हैं। वह ज्ञान, भक्ति और वैराग्य से परे है। विद्वत्ता उसके मुकाबले कम मूल्यवान है। चरित्रवान की महत्ता व्यक्त करते हुए शेक्सपियर लिखते हैं, ‘उसके शब्द इकरारनामा हैं। उसकी शपथें आप्तवचन हैं। उसका प्रेम निष्ठापूर्ण है। उसके विचार निष्कलंक हैं। उसका हृदय छल से दूर है, जैसा स्वर्ग पृथ्वी से।’
चरित्र में जब मानवीय गुणों-प्रेम, दया, उपकार, सेवा, विनय, कर्तव्य और शील के अंकुर उत्पन्न होते हैं तो चरित्र-बल की नींव पड़ती है। ज्ञान जब आचरण में व्यक्त होता हुआ स्थायित्व ग्रहण करता है तो चरित्र-बल का निर्माण होता है। जीवन की आकस्मिक और अवांछित घटनाएँ मानव हृदय को जब आंदोलित करती हैं तो उनके प्रतिशोध, प्रतिरोध में जो संकल्प-तत्त्व स्वतः स्फुरित होता है, उससे चरित्र-बल का निर्माण होता है।
सच्चाई तो यह कि अन्य गुणों का विकास एकांत में भली-भाँति संभव है, पर चरित्र- बल के उज्ज्वल विकास के लिए सामाजिक-जीवन चाहिए। सामाजिक-जीवन ही उसके धैर्य, क्षमा, यम-नियम, अस्तेय, पवित्रता, सत्य एवं इंद्रिय-निग्रह की परीक्षा भूमि है।
कठिनाइयों को जीतने, वासनाओं का दमन करने और दुखों को सहन करने से चरित्र- बल शक्ति संपन्न होगा। उस शक्ति से दीप्त हो चरित्र-बल अपने व्यक्तित्व का उज्ज्वल रूप प्रस्तुत करेगा।
चरित्र-बल के उज्ज्वल-पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए ‘दिनकर’ जी कहते हैं, ‘नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश, धन धाम। ‘वसुदेव ने नहीं, उनके पुत्र वासुदेव कृष्ण ने चरित्र -बल पर महाभारत के युद्ध में पांडवो को विजयश्री प्राप्त कराई। राजा शुद्धोदन ने नहीं, उनके पुत्र गौतम ने बुद्ध बनकर अपने चरित्र-बल से संसार को झुकाया।
जीवन में आई आपदाओं-विपदाओं कष्ट क्लेशों, रोग-शोक को सरलता, सुगमता और बिना मनोबल गिराए विजय प्राप्ति का महान गुर है चरित्र-बल। गर्भवती भगवती सीता ने चरित्र-बल पर ही अपना विपत्काल सहर्ष काटा। छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब की जेल में रुदन नहीं किया। दो आजीवन कारावासी स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने अंडमान की जेल में काव्य-सृजन कर चरित्र बल की तेजस्विता से कष्ट क्लेश को पछाड़ा।
‘शेष प्रश्न’ में शरत्चन्द्र कहते हैं, ‘समाज के प्रचलित विधि-विधानों के उल्लंघन का दुख सिर्फ चरित्र-बल और विवेक-बुद्धि के बल पर ही सहन किया जा सकता है।’ ईसा मसीह ने क्रास पर चढ़ने की पीड़ा सही, बंदा बैरागी ने गर्म लौह-शलाकाओं के दागों को झेला, भाई मतिदास ने आरे से शीश चिरवाने की असह्य वेदना सही। शचीन्द्र सान्याल ने भूख-हड़ताल में मृत्यु का वरण कर लिया। यह सहन-शक्ति प्राप्त हुई चरित्र-बल से। यही कारण है कि वीरों के चेहरों को अवसाद की पीड़ा ने कलंकित नहीं किया।
स्वामी विवेकानंद का मत है कि ‘चरित्र-बल ही कठिनाई रूपी पत्थर की दीवारों में छेद कर सकता है।’ स्वयं स्वामी विवेकानंद ने अपने चरित्र बल से शिकागो-यात्रा की कठिनाई न केवल पार की, अपितु विश्व में वैदिक धर्म ध्वजा को फहराया। महात्मा
गाँधी के चरित्र बल ने क्रूर अंग्रेजी सत्ता की प्राचीर में छेद ही नहीं किया, उसको ध्वस्त ही कर दिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपने चरित्र बल पर इंदिरा गाँधी के आपत्काल में सेंध ही नहीं लगाई, उसके लाक्षागृह को जलाकर भस्म ही कर दिया।
काका कालेलकर का मत है ‘लोगों के चारित्र्य-बल की संपत्ति ही किसी समाज की पूँजी होती है।’ समाज उससे गौरवान्वित होता है। इतिहास उसे स्वर्णाक्षरों में अंकित कर अजरता-अमरता प्रदान करता है।
‘पथिक’ काव्य में रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं- ‘अरि को वश में करना चरित्र से; शोभा है सज्जन की।‘ अपने शुद्ध-निश्छल आचरण द्वारा शत्रु को भी वश में कर लेना चरित्र- बल का अद्भुत गुण है। हिंसा के परम उपासक महाराज अशोक अपने सिद्धांत-विरोधी भगवान बुद्ध के चरित्र-बल के सम्मुख उनके चरणों में नतमस्तक हुए। नंद वंश का महामात्य और चाणक्य का विरोधी अमात्य ‘राक्षस’ भी अंततः आचार्य चाणक्य के चरित्र-बल के सम्मुख नत मस्तक हुआ।
बेपैंदी के लोटे के समान जीवन की अस्थिरता को झेलता है। अपनी आत्मा को बेचकर आत्म-हीनता पूर्ण दयनीय जीवन जीता है। सम्मान-सत्कार उससे दूर भागते हैं। यश-कीर्ति उससे घृणा करते हैं। उसका जीवन-मृत्यु तुल्य है। इसलिए दाग कहते हैं-
संभल कर जरा पाँव रखिए जमीं पर।
अगर चाल बिगड़ी तो बिगड़ा चलन भी।
चरित्र-बल मानव जीवन की पूँजी है। विद्या के समान जितना इसको खर्च करेंगे, समाज और राष्ट्र कार्य में अर्पित करेंगे, उतना ही चरित्र-बल बढ़ेगा। इस पूँजी के रहते व्यक्ति सांसारिक सुख से निर्धन नहीं हो सकता है और ऐश्वर्य से वंचित नहीं रह सकता।