BHaktin paath ka sampoorn adhyyan

Aaroh Class – XII  Chapter -11 Mahadevi Verma – Bhaktin  महादेवी वर्मा भक्तिन (NCERT HINDI Core The Best Solutions)

जन्म : सन् 1907, फर्रूखाबाद (उत्तर प्रदेश)

प्रमुख रचनाएँ : दीपशिखा, यामा (काव्य -संग्रह); शृंखला की कड़ियाँ, आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर (निबंध -संग्रह); अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार (संस्मरण/रेखाचित्र)

प्रमुख पुरस्कार : ज्ञानपीठ पुरस्कार (‘यामा’ संग्रह के लिए 1983 ई. में), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का भारत भारती पुरस्कार, पद्मभूषण (1956 ई.)

निधन : सन् 1987, इलाहाबाद

संसार के मानव -समुदाय में वही व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक संबंध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो।

साहित्य सेवी और समाज सेवी दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गांधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित कर उन्होंने शिक्षा और समाज -कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। नारी -समाज में शिक्षा -प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने प्रयाग महिला विघापीठ की स्थापना की। साहित्य जगत में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार के रूप में रही है। अगर कविता के क्षेत्र में वे छायावाद के चार स्तंभों में से एक मानी जाती हैं (अन्य तीन हैं  – पंत, प्रसाद और निराला), तो अपने निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गघकार के रूप में उनकी चर्चा होती रही है। कविता और गघ इन दोनों क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा अलग -अलग स्वभाव लेकर सक्रिय हुई दिखती है। कविताओं में वे अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखलाई पड़ती हैं, तो अपने गघ में उनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। उनकी शृंखला की कड़ियाँ (1942 ई.) उस समय की अद्वितीय रचनार् है, जो हिंदी में स्त्री -विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। उनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं, जिनकी साधारणता हमारा ध्यान नहीं खींच पाती लेकिन महादेवी जी की मर्मभेदी और करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्त्वों का संधान करती है। इस तरह समाज के शोषित -पीड़ित तबके को उन्होंने अपनी गघ -रचनाओं में नायकत्व प्रदान किया है। उनके इस प्रयास ने हिंदी के साहित्यिक समाज पर ऐसा गहरा असर डाला कि संस्मरणात्मक रेखाचित्र की विधा के लिए शोषित -पीड़ित आम जन को विषय -वस्तु के रूप में मान्यता मिल गई है। ।

भक्तिन महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जो स्मृति की रेखाएँ में संकलित है। इसमें महादेवी जी ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का बहुत दिलचस्प खाका खींचा है। महादेवी के घर में काम शुरू करने से पहले उसने कैसे एक संघर्षशील, स्वाभिमानी और कर्मठ जीवन जिया, कैसे पितृसत्तात्मक -मान्यताओं और छल -छद्म भरे समाज में अपने और अपनी बेटियों के हक की लड़ाई लड़ती रही और उसमें हार कर कैसे ज़िंदगी की राह पूरी तरह बदल लेने के निर्णय तक पहुँची। इसका अत्यंत संवेदनशील चित्रण इस पाठ में हुआ है। इसके साथ, भक्तिन महादेवी जी के जीवन में आकर छा जाने वाली एक ऐसी परिस्थिति के रूप में दिखलाई पड़ती है, जिसके कारण लेखिका के व्यक्तित्व के कई अनछुए / प्रच्छन्न आयाम उद्घाटित होते चलते हैं। इसी कारण अपने व्यक्तित्व का ज़रूरी अंश मानकर वे भक्तिन को खोना नहीं चाहतीं। समग्रतः इस पाठ को परिस्थितिवश अक्खड़ बनी, पर महादेवी के प्रति अनमोल आत्मीयता से भरी भक्तिन के बहाने स्त्री -अस्मिता की संघर्षपूर्ण आवाज़ के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए।

भक्तिन’ महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जो ‘स्मृति की रेखाएँ’ में संकलित है। इसमें लेखिका ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का दिलचस्प खाका खींचा है।

महादेवी के घर में काम शुरू करने से पहले उसने कैसे एक संघर्षशील, स्वाभिमानी और कर्मठ जीवन बिताया था, कैसे पितृसत्तात्मक मान्यताओं और छल छद्म भरे समाज में अपने और अपनी बेटियों के हक की लड़ाई लड़ती रही और हारकर कैसे जिंदगी की राह पूरी तरह बदल लेने के निर्णय तक पहुँची, इसका संवेदनशील चित्रण लेखिका ने किया है।

साथ ही, भक्तिन लेखिका के जीवन में आकर छा जाने वाली एक ऐसी परिस्थिति के रूप में दिखाई पड़ती है, जिसके कारण लेखिका के व्यक्तित्व के कई अनछुए आयाम उद्घाटित होते हैं। इसी कारण अपने व्यक्तित्व का जरूरी अंश मानकर वे भक्तिन को खोना नहीं चाहतीं।

   छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कोनों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले -पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिंतन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कंठ से उत्तर देती है  – ‘तुम पचै का का बताई  – यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो संभवतः वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्ती भर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष और बीत जाने पर वह मेरे साथ रहने के समय को खींच कर सौ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे डेढ़ सौ वर्ष की असंभव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।

   सेवक -धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करने वाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है  – नाम है लछमिन अर्थात लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्रायः सभी को अपने -अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि -सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ । उपनाम रखने की प्रतिभा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कंठी माला देखकर उसका नया नामकरण किया तब वह भक्तिन -जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद हो उठी।

   भक्तिन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उसके स्वभाव को पूर्णतः क्या अंशतः समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव -प्रसिद्ध एक सूरमा की एकलौती बेटी ही नहीं, विमाता की किंवदंती बन जाने वाली ममता की छाया में भी पली है। पाँच वर्ष की वय में उसे हँडिया ग्राम के एक संपन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीया युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।

   पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावतः ईर्ष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने -पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ न बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना -उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसके पैरों में जो पंख लगा दिए थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गए। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दुख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिए उलटे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी -खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने फेंक -फेंककर उसने पिता के चिर विछोह की मर्मव्यथा व्यक्त की।

   जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दुख ही अधिक है। जब उसने गेहुएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन -तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक -भुशंडी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दंड मिलना आवश्यक हो गया।

   जिठानियाँ बैठकर लोक -चर्चा करतीं और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते वह मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती, राँधती और उसकी नन्ही लड़कियाँ गोबर उठातीं, कंडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफ़ेदराब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने लड़कों को औटते हुए दूध पर से मलाई उतारकर खिलातीं। वह काले गुड़ की डली के साथ कठौती में मट्ठा पाती और उसकी लड़कियाँ चने -बाजरे की घुघरी चबातीं ।

   इस दंड -विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल -जैसी पत्नी से पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली -चबाई की परिणति, उसके पत्नी -प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात -बात पर धमाधम पीटी -कूटी जातीं पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्विनी और पति के प्रति रोम -रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय -भैंस, खेत -खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा -चढ़ा था। उसने छाँट -छाँट कर, ऊपर से असंतोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दंपति के निरंतर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।

   धूमधाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरांत, पति ने घरौंदे से खेलती हुई दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उनतीस वर्ष की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी; पर पत्नी आज उसे बुढ़ऊ कह कर स्मरण करती है। भक्तिन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गई, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गए होंगे, अतः उन्हें बुढ़ऊ न कहना उनका घोर अपमान है।

   हाँ, तो भक्तिन के हरे -भरे खेत, मोटी -ताज़ी गाय -भैंस और फलों से लदे पेड़ देखकर जेठ -जिठौतों के मुँह में पानी भर आना ही स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ति तो तभी संभव थी, जब भइयहू दूसरा घर कर लेती; पर जन्म से खोटी भक्तिन इनके चकमे में आई ही नहीं। उसने क्रोध से पाँव पटक -पटककर आँगन को कंपायमान करते हुए कहा  – ‘हम कुकुरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।’

   उसने ससुर, अजिया ससुर और जाने कै पीढ़ियों के ससुरगणों की उउपार्जित जगह -ज़मीन में से सुई की नोक बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त गुरु से कान फूँकवा, कंठी बाँध और पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समर्पित कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी संपत्ति सुरक्षित रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने हुए बड़े दामाद को घरजमाई बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरंभ हुआ।  भक्तिन का दुर्भाग्य भी उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसंद कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरे भाइयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अतः यह प्रस्ताव जहाँ -का -तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ -बेटी खूब मन लगाकर अपनी संपत्ति की देख -भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरितार्थ करने वाले वर के समर्थक उसे किसी -न -किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।

   एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुस कर भीतर से द्वार बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँववालों को बुलाने लगे। युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुंडी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गए। तीतरबाज़ युवक कहता था, वह निमंत्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उँगलियों के उभार में इस निमंत्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अंत में दूध -का -दूध पानी -का -पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला -हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फ़ैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहे दोनों झूठे पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति -पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निशिं्चत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय -ढोर, खेती -बारी जब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गए कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अंत में एक बार लगान न पहुँचने पर ज़मींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में खड़ा रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अतः दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।

   घुटी हुई चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानो सब प्रकार की आहट सुनने के लिए कान कपडे़ से बाहर निकाले हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवक -धर्म में दीक्षित हुई, तब उसके जीवन के चौथे और संभवतः अंतिम परिच्छेद का जो अथ हुआ, उसकी इति अभी दूर है।

   भक्तिन की वेश -भूषा में गृहस्थ और वैरागी का सम्मिश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया  – क्या तुम खाना बनाना जानती हो! उत्तर में उसने, ऊपर के ओठ को सिकोड़ और नीचे के अधर को कुछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा  – ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग -भाजी छँउक सकित है, अउर बाकी का रहा!

   दूसरे दिन तड़के ही सिर पर कई लोटे औंधा कर उसने मेरी धुली धोती जल के छींटों से पवित्र कर पहनी और पूर्व के अंधकार और मेरी दीवार से फूटते हुए सूर्य और पीपल का, दो लोटे जल से अभिनंदन किया। दो मिनट नाक दबाकर जप करने के उपरांत जब वह कोयले की मोटी रेखा से अपने साम्राज्य की सीमा निश्चित कर चौके में प्रतिष्ठित हुई, तब मैंने समझ लिया कि इस सेवक का साथ टेढ़ी खीर है। अपने भोजन के संबंध में नितांत वीतराग होने पर भी मैं पाक -विघा के लिए परिवार में प्रख्यात हूँ और कोई भी पाक -कुशल दूसरे के काम में नुक्ताचीनी बिना किए रह नहीं सकता। पर जब छूत -पाक पर प्राण देनेवाले व्यक्तियों का, बात -बात पर भूखा मरना स्मरण हो आया और भक्तिन की शंकाकुल दृष्टि में छिपे हुए निषेध का अनुभव किया, तब कोयले की रेखा मेरे लिए लक्ष्मण के धनुष से खींची हुई रेखा के सामने दुर्लंघ्य हो उठी। निरुपाय अपने कमरे में बिछौने में पड़कर नाक के ऊपर खुली हुई पुस्तक स्थापित कर मैं चौके में पीढे़ पर आसीन अनधिकारी को भूलने का प्रयास करने लगी।

   भोजन के समय जब मैंने अपनी निश्चित सीमा के भीतर निर्दिष्ट स्थान ग्रहण कर लिया, तब भक्तिन ने प्रसन्नता से लबालब दृष्टि और आत्मतुष्टि से आप्लावित मुसकुराहट के साथ मेरी फूल की थाली में एक अंगुल मोटी और गहरी काली चित्तीदार चार रोटियाँ रखकर उसे टेढ़ी कर गाढ़ी दाल परोस दी। पर जब उसके उत्साह पर तुषारपात करते हुए मैंने रुआँसे भाव से कहा  – ‘यह क्या बनाया है?’ तब वह हत्बुद्धि हो रही।

   रोटियाँ अच्छी सेंकने के प्रयास में कुछ अधिक खरी हो गई हैं पर अच्छी हैं। तरकारियाँ थीं, पर जब दाल बनी है तब उनका क्या काम  – शाम को दाल न बनाकर तरकारी बना दी जाएगी। दूध -घी मुझे अच्छा नहीं लगता, नहीं तो सब ठीक हो जाता। अब न हो तो अमचूर और लाल मिर्च की चटनी पीस ली जावे। उससे भी काम न चले, तो वह गाँव से लाई हुई गठरी में से थोड़ा -सा गुड़ दे देगी। और शहर के लोग क्या कलाबत्तू खाते हैं? फिर वह कुछ अनाड़िन या फूहड़ नहीं। उसके ससुर, पितिया ससुर, अजिया सास आदि ने उसकी पाक -कुशलता के लिए न जाने कितने मौखिक प्रमाण -पत्र दे डाले हैं।

   भक्तिन के इस सारगर्भित लेक्चर का प्रभाव यह हुआ कि मैं मीठे से विरक्ति के कारण बिना गुड़ के और घी से अरुचि के कारण रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर बहुत ठाठ से यूनिवर्सिटी पहुँची और न्याय -सूत्र पढ़ते -पढ़ते शहर और देहात के जीवन के इस अंतर पर विचार करती रही।

   अलग भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी थी, अपने गिरते हुए स्वास्थ और परिवारवालों की चिंता -निवारण के लिए, पर प्रबंध ऐसा हो गया कि उपचार का प्रश्न ही खो गया। इस देहाती वृद्धा ने जीवन की सरलता के प्रति मुझे इतना जाग्रत कर दिया था कि मैं अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी, सुविधाओं की चिंता करना तो दूर की बात।

   इसके अतिरिक्त भक्तिन का स्वभाव ही ऐसा बन चुका है कि वह दूसरों को अपने मन के अनुसार बना लेना चाहती है पर अपने संबंध में किसी प्रकार के परिवर्तन की कल्पना तक उसके लिए संभव नहीं। इसी से आज मैं अधिक देहाती हूँ पर उसे शहर की हवा नहीं लग पाई। मकई का, रात को बना दलिया, सवेरे में से सोंधा लगता है। बाजरे के तिल लगाकर बनाए हुए पुए गरम कम अच्छे लगते हैं। ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे दानों की खिचड़ी स्वादिष्ट होती है। सफ़ेद महुए की लपसी संसार भर के हलवे को लजा सकती है आदि वह मुझे क्रियात्मक रूप से सिखाती रहती है पर यहाँ का रसगुल्ला तक भक्तिन के पोपले मुँह में प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका। मेरे रात -दिन नाराज़ होने पर भी उसने साफ़ धोती पहनना नहीं सीखा; पर मेरे स्वयं धोकर फैलाए हुए कपड़ों को भी वह तह करने के बहाने सिलवटों से भर देती है। मुझे उसने अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ करा दी हैं पर पुकारने पर वह ‘आँय’ के स्थान में ‘जी’ कहने का शिष्टाचार भी नहीं सीख सकती।

   भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं। वह सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन सकती; पर ‘नरो वा कुंजरों वा’ कहने में भी विश्वास नहीं करती। मेरे इधर -उधर पड़े पैसे -रुपये, भंडार -घर की किसी मटकी में कैसे अंतरहित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्तिन जानती है। पर, उस संबंध में किसी के संकेत करते ही वह उसे शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दे डालती है, जिसको स्वीकार कर लेना किसी तर्क -शिरोमणि के लिए संभव नहीं। यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा -रुपया जो इधर -उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! उसके जीवन का परम कर्तव्य मुझे प्रसन्न रखना है  – जिस बात से मुझे क्रोध आ सकता है, उसे बदलकर इधर -उधर करके बताना, क्या झूठ है! इतनी चोरी और इतना झूठ तो धर्मराज महाराज में भी होगा, नहीं तो वे भगवान जी को कैसे प्रसन्न रख सकते और संसार को कैसे चला सकते!

   शास्त्र का प्रश्न भी भक्तिन अपनी सुविधा के अनुसार सुलझा लेती है। मुझे स्त्रियों का सिर घुटाना अच्छा नहीं लगता, अतः मैंने भक्तिन को रोका। उसने अकुंठित भाव से उत्तर दिया कि शास्त्र में लिखा है। कुतूहलवश मैं पूछ ही बैठी  – ‘क्या लिखा है?’ तुरंत उत्तर मिला  – ‘तीरथ गए मुँडाए सिद्ध।’ कौन -से शास्त्र का यह रहस्यमय सूत्र है, यह जान लेना मेरे लिए संभव ही नहीं था। अतः मैं हारकर मौन हो रही और भक्तिन का चूड़ाकर्म हर बृहस्पतिवार को, एक दरिद्र नापित के गंगाजल से धुले उस्तरे द्वारा यथाविधि निष्पन्न होता रहा।

   पर वह मूर्ख है या विघा -बुद्धि का महत्त्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है। अपने विघा के अभाव को वह मेरी पढ़ाई -लिखाई पर अभिमान करके भर लेती है। एक बार जब मैंने सब काम करनेवालों से अँगूठे के निशान के स्थान में हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तब भक्तिन बड़े कष्ट में पड़ गई, क्योंकि एक तो उससे पढ़ने की मुसीबत नहीं उठाई जा सकती थी, दूसरे सब गाड़ीवान दाइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वयोवृद्धता का अपमान था। अतः उसने कहना आरंभ किया  – ‘हमारे मलकिन तौ रात -दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर -गिरिस्ती कउन देखी -सुनी।’  पढ़ाने वाले और पढ़ने वाले दोनों पर इस तर्क का ऐसा प्रभाव पड़ा कि भक्तिन इंस्पेक्टर के समान क्लास में घूम -घूमकर किसी के आ इ की बनावट किसी के हाथ की मंथरता, किसी की बुद्धि की मंदता पर टीका -टिप्पणी करने का अधिकार पा गई। उसे तो अँगूठा निशानी देकर वेतन लेना नहीं होता, इसी से बिना पढ़े ही वह पढ़ने वालों की गुरु बन बैठी। वह अपने तर्क ही नहीं, तर्कहीनता के लिए भी प्रमाण खोज लेने में पटु है। अपने -आपको महत्त्व देने के लिए ही वह अपनी मालकिन को असाधारणता देना चाहती है पर इसके लिए भी प्रमाण की खोज -ढूँढ़ आवश्यक हो उठती है।

   जब एक बार मैं उत्तर -पुस्तकों और चित्रों को लेकर व्यस्त थी, तब भक्तिन सबसे कहती घूमी  – ‘ऊ बिचरिअउ तौ रात -दिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घूमती फिरती हौ! चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।’ सब जानते थे कि ऐसे कामों में हाथ नहीं बटाया जा सकता, अतः उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर भक्तिन से पिंड छुड़ाया। बस इसी प्रमाण के आधार पर उसकी सब अतिशयोक्तियाँ अमरबेल -सी फैलने लगीं  – उसकी मालकिन -जैसा काम कोई जानता ही नहीं, इसी से तो बुलाने पर भी कोई हाथ बटाने की हिम्मत नहीं करता।

   पर वह स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती, इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है  – इसी से वह द्वार पर बैठकर बार -बार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर -पुस्तकों को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहुँचाती है, उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते, तब वह सहायता की इच्छा को क्रियात्मक रूप देती है, इसी से मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसे ही उद्भासित हो उठती है जैसे स्विच दबाने से बल्ब में छिपा आलोक। वह सूने में उसे बार -बार छूकर, आँखों के निकट ले जाकर और सब ओर घुमा -फिराकर मानो अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्टि में व्यक्त आत्मघोष कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता। यह स्वाभाविक भी है। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब बार -बार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती, तब वह कभी दही का शर्बत, कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती।

   दिन भर के कार्य -भार से छुट्टी पाकर जब मैं कोई लेख समाप्त करने या भाव को छंदबद्ध करने बैठती हूँ, तब छात्रावास की रोशनी बुझ चुकती है, मेरी हिरनी सोना तख्त के पैताने फ़र्श पर बैठकर पागुर करना बंद कर देती है, कुत्ता बसंत छोटी मचिया पर पंजों में मुख रखकर आँखें मूँद लेता है और बिल्ली गोधूलि मेरे तकिए पर सिकुड़कर सो रहती है।

   पर मुझे रात की निस्तब्धता में अकेली न छोड़ने के विचार से कोने में दरी के आसन पर बैठकर बिजली की चकाचौंध से आँखें मिचमिचाती हुई भक्तिन, प्रशांत भाव से जागरण करती है। वह ऊँघती भी नहीं, क्योंकि मेरे सिर उठाते ही उसकी धुँधली दृष्टि मेरी आँखों का अनुसरण करने लगती है। यदि मैं सिरहाने रखे रैक की ओर देखती हूँ, तो वह उठकर आवश्यक पुस्तक का रंग पूछती है, यदि मैं कलम रख देती हूँ, तो वह स्याही उठा लाती है और यदि मैं कागज़ एक ओर सरका देती हूँ, तो वह दूसरी फ़ाइल टटोलती है।

   बहुत रात गए सोने पर भी मैं जल्दी ही उठती हूँ और भक्तिन को तो मुझसे भी पहले जागना पड़ता है  – सोना उछल -कूद के लिए बाहर जाने को आकुल रहती है, बसंत नित्य कर्म के लिए दरवाज़ा खुलवाना चाहता है और गोधूलि चिड़ियों की चहचहाहट में शिकार का आमंत्रण सुन लेती है।

   मेरे भ्रमण की भी एकांत साथिन भक्तिन ही रही है। बदरी -केदार आदि के ऊँचे -नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गाँव की धूलभरी पगडंडी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती। किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही मैं भक्तिन को छाया के समान साथ पाती हूँ।

   युद्ध को देश की सीमा में बढ़ते देख जब लोग आतंकित हो उठे, तब भक्तिन के बेटी -दामाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुँचे पर बहुत समझाने -बुझाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी। सबको वह देख आती है रुपया भेज देती है पर उनके साथ रहने के लिए मेरा साथ छोड़ना आवश्यक है जो संभवतः भक्तिन को जीवन के अंत तक स्वीकार न होगा।

   जब गत वर्ष युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन -वृत्ति जगा दी थी, तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे गाँव चलने का अनुरोध करने आई। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नयी धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवाल में कीलें गाड़कर और उन पर तख्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा बनवाकर और उस पर अपना कंबल बिछाकर वह मेरे सोने का प्रबंध करेगी। मेरे रंग, स्याही आदि को नयी हँडियों में सँजोकर रख देगी और कागज़ -पत्रों को छींके में यथाविधि एकत्र कर देगी।

   ‘मेरे पास वहाँ जाकर रहने के लिए रुपया नहीं है, यह मैंने भक्तिन के प्रस्ताव को अवकाश न देने के लिए कहा था; पर उसके परिणाम ने मुझे विस्मित कर दिया। भक्तिन ने परम रहस्य का उद्घाटन करने की मुद्रा बना कर और पोपला मुँह मेरे कान के पास लाकर हौले -हौले बताया कि उसके पास पाँच बीसी और पाँच रुपया गड़ा रखा है। उसी से वह सब प्रबंध कर लेगी। फिर लड़ाई तो कुछ अमरौती खाकर आई नहीं है। जब सब ठीक हो जाएगा, तब यहीं लौट आएँगे। भक्तिन की कंजूसी के प्राण पूँजीभूत होते -होते पर्वताकार बन चुके थे परंतु इस उदारता के डाइनामाइट ने क्षण भर में उन्हें उड़ा दिया। इतने थोड़े रुपये का कोई महत्त्व नहीं परंतु रुपये के प्रति भक्तिन का अनुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे महत्त्व की सीमा तक पहुँचा देता है।

   भक्तिन और मेरे बीच में सेवक -स्वामी का संबंध है, यह कहना कठिन है क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है, जितना अपने घर में बारी -बारी से आने -जाने वाले अँधेरे -उजाले और आँगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं, जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख -दुख देते हैं, उसी प्रकार भक्तिन का स्वतंत्र व्यक्तित्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए है।

   परिवार और परिस्थितियों के कारण स्वभाव में जो विषमताएँ उत्पन्न हो गई हैं, उनके भीतर से एक स्नेह और सहानुभूति की आभा फूटती रहती है, इसी से उसके संपर्क में आने वाले व्यक्ति उसमें जीवन की सहज मार्मिकता ही पाते हैं। छात्रावास की बालिकाओं में से कोई अपनी चाय बनवाने के लिए देहली पर बैठी रहती है, कोई बाहर खड़ी मेरे लिए बने नाश्ते को चखकर उसके स्वाद की विवेचना करती रहती है। मेरे बाहर निकलते ही सब चिड़ियों के समान उड़ जाती हैं और भीतर आते ही यथास्थान विराजमान हो जाती हैं। इन्हें आने में रुकावट न हो, संभवतः इसी से भक्तिन अपना दोनों जून का भोजन सवेरे ही बनाकर ऊपर के आले में रख देती है और खाते समय चौके का एक कोना धोकर पाक -छत के सनातन नियम से समझौता कर लेती है।

   मेरे परिचितों और साहित्यिक बंधुओं से भी भक्तिन विशेष परिचित है पर उनके प्रति भक्तिन के सम्मान की मात्रा, मेरे प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर है और सद्भाव उनके प्रति मेरे सद्भाव से निश्चित होता है। इस संबंध में भक्तिन की सहजबुद्धि विस्मित कर देने वाली है।

   वह किसी को आकार -प्रकार और वेश -भूषा से स्मरण करती है और किसी को नाम के अपभ्रंस द्वारा । कवि और कविता के संबंध में उसका ज्ञान बढ़ा है पर आदर -भाव नहीं। किसी के लंबे बाल और अस्त -व्यस्त वेश -भूषा देखकर वह कह उठती है – ‘का ओहू कवित्त लिखे जानत हैं’ और तुरंत ही उसकी अवज्ञा प्रकट हो जाती है  – तब ऊ कुच्छौ करिहैं -धरिहैं ना  – बस गली -गली गाउत -बजाउत फिरिहैं।

   पर सबका दुख उसे प्रभावित कर सकता है। विघार्थी वर्ग में से कोई जब कारागार का अतिथि हो जाता है, तब उस समाचार को व्यथित भक्तिन बीता -बीता भरे लड़कन का जेहल -कलजुग रहा तौन रहा अब परलय होई जाई  – उनकर माई का बड़े लाट तक लड़ै का चाहीं, कहकर दिन भर सबको परेशान करती है। बापू से लेकर साधारण व्यक्ति तब सबके प्रति भक्तिन की सहानुभूति एकरस मिलती है।

   भक्तिन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे ही डरती है, जैसे यमलोक से। ऊँची दीवार देखते ही, वह आँख मूँदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमज़ोरी इतनी प्रसिद्धि पा चुकी है कि लोग मेरे जेल जाने की संभावना बता -बताकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह डरती नहीं, यह कहना असत्य होगा; पर डर से भी अधिक महत्त्व मेरे साथ का ठहरता है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी कै धोती साबुन से साफ़ कर ले, जिससे मुझे वहाँ उसके लिए लज्जित न होना पड़े । क्या -क्या सामान बाँध ले, जिससे मुझे वहाँ किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी को किसी के साथ जाने का अधिकार नहीं, यह आश्वासन भक्तिन के लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन्न नहीं होती, जितनी अपने साथ न जा सकने की संभावना से अपमानित। भला ऐसा अंधेर हो सकता है। जहाँ मालिक वहाँ नौकर  – मालिक को ले जाकर बंद कर देने में इतना अन्याय नहीं पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बराबर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने पर भक्तिन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। किसी की माई यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी, तो नहीं लड़ी; पर भक्तिन का तो बिना लड़े काम ही नहीं चल सकता।

   ऐसे विषम प्रतिद्वंद्वियों की स्थिति कल्पना में भी दुर्लभ है।

 मैं प्रायः सोचती हूँ कि जब ऐसा बुलावा आ पहुँचेगा, जिसमें न धोती साफ़ करने का अवकाश रहेगा, न सामान बाँधने का, न भक्तिन को रुकने का अधिकार होगा, न मुझे रोकने का, तब चिर विदा के अंतिम क्षणों में यह देहातिन वृद्धा क्या करेगी और मैं क्या करूँगी?

   भक्तिन की कहानी अधूरी है पर उसे खोकर मैं इसे पूरी नहीं करना चाहती।

जीवन का पहला परिच्छेद :

भक्तिन का असली नाम था लछमिन अर्थात् लक्ष्मी। वह ऐतिहासिक झूँसी गाँव के प्रसिद्ध सूरमा की इकलौती बेटी थी। उसका लालन -पालन उसकी सौतेली माँ ने किया। पाँच वर्ष की उम्र में इसका विवाह हँडिया गाँव के एक गोपालक के पुत्र के साथ कर दिया गया था। नौ वर्ष की उम्र में गौना हो गया। भक्तिन की विमाता ने उसके पिता की मृत्यु का समाचार देर से भेजा। सास ने रोने -पीटने के अपशकुन से बचने के लिए उसे पीहर यह कहकर भेज दिया कि वह बहुत दिनों से गई नहीं है। मायके जाने पर विमाता के दुर्व्यवहार तथा पिता की मृत्यु से व्यथित होकर वह पानी तक पिए बिना घर वापस चली आई। घर आकर सास को खरी -खोटी सुनाई तथा पति के ऊपर गहने फेंककर अपनी व्यथा व्यक्त की।

जीवन का दूसरा परिच्छेद :

भक्तिन को जीवन के दूसरे भाग में भी सुख नहीं मिला। उसकी लगातार तीन लड़कियाँ पैदा हुई तो सास व जेठानियों ने उसकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। इसका कारण यह था कि सास के तीन कमाऊ बेटे थे तथा जिठानियों ने भी पुत्रों को जन्म दिया था। जिठानियाँ बैठकर खातीं और लोक चर्चा करती लेकिन भक्तिन को घर का सारा काम चक्की चलाना, कूटना, पीसना, खाना बनाना आदि अकेला करना पड़ता था। छोटी लड़कियाँ गोबर उठाते तथा कंडे थापते हुए माँ की सहायता करती थीं। खाने के मामले में भी भक्तिन और बेटियों के प्रति व्यवहार अच्छा नहीं था। लेकिन भक्तिन के प्रति पति का पत्नी पर विश्वास था। पति -प्रेम के बल पर ही वह अलगौझा कर लेती है। खेतों में सारा काम भक्तिन ही करती थी अतः अपने ज्ञान के कारण गाय, भैंस, खेत, खलिहान, अमराई के पेड़ आदि में सबसे अच्छी चीजें प्राप्त करने में वह सफल बन जाती है। परिश्रम के कारण घर में समृद्धि आ गई। लेकिन भक्तिन का दुर्भाग्य उससे कम हठी नहीं था। पति ने बड़ी लड़की का विवाह धूमधाम से करने के बाद दो कन्याओं और गृहस्थी का भार 29 वर्षीय पत्नी पर छोड़कर उसके पति ने इस संसार से विदा ले ली। भक्तिन की संपत्ति पर मोह रखने वाले जेठ -जिठानियों के सामने उसने दूसरी शादी न करने की घोषणा कर दी। उसने केश कटवा दिए तथा गुरु से मंत्र लेकर कंठी बाँध ली। उसने दोनों लड़कियों की शादी कर दी और पति के चुने दामाद को घर जमाई बनाकर रखा।

जीवन का तीसरा परिच्छेद :

जीवन के तीसरे परिच्छेद में दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसकी लड़की भी विधवा हो गई। परिवार वालों की दृष्टि उसकी संपत्ति पर थी। उसके जिठौत विधवा बहन के विवाह के लिए अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया क्योंकि उसका विवाह हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की ने उस वर को नापसंद कर दिया। माँ -बेटी मन लगाकर अपनी संपत्ति की देखभाल करने लगीं।

एक दिन भक्तिन की अनुपस्थिति में उस तीतरबाज वर ने बेटी की कोठरी में घुसकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँव वालों को बुलाने लगे। लड़की ने उसकी खूब मरम्मत की तो पंच समस्या में पड़ गए। अंत में पंचायत ने कलयुग को इस समस्या का कारण बताया और अपीलहीन फैसला हुआ कि दोनों को पति -पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा। अपमानित बालिका व माँ विवश थीं।

यह संबंध सुखकर नहीं था। दामाद निश्चिंत होकर तीतर लड़ाता था, जिसकी वजह से पारिवारिक द्वेष इस कदर बढ़ गया कि लगान अदा करना भी मुश्किल हो गया। लगान न पहुँचने के कारण जमींदार ने भक्तिन को कड़ी धूप में खड़ा कर दिया। यह अपमान वह सहन न कर सकी और कमाई के विचार से शहर चली आई।

जीवन का चौथा और अंतिम परिच्छेद

मैली धोती तथा गले में कंठी माला पहने वह लेखिका के पास नौकरी की खोज में आई। वह अपना असली नाम लोगों से छुपाना चाहती थी। लेखिका ने उसकी कंठी माला देखकर उसका भक्तिन नामकरण किया। उसने रोटी बनाना, दाल बनाना आदि काम जानने का दावा किया।

नौकरी मिलने पर उसने अगले दिन स्नान करके लेखिका की धुली धोती भी जल के छींटों से पवित्र करने के बाद पहनी। निकलते सूर्य व पीपल को अर्घ दिया। दो मिनट जप किया और कोयले की मोटी रेखा से चौके की सीमा निर्धारित करके खाना बनाना शुरू किया। भक्तिन छूत -पाक को मानने वाली थी। लेखिका ने समझौता करना उचित समझा। भोजन के समय भक्तिन ने लेखिका को दाल के साथ मोटी काली चित्तीदार चार रोटियाँ परोसीं तो लेखिका ने टोका। उसने अपना तर्क दिया कि अच्छी सेंकने के प्रयास में रोटियाँ अधिक कड़ी हो गई। उसने सब्जी न बनाकर दाल बना दी। इसी प्रकार भक्तिन ने लेखिका को ग्रामीण भोजन पकाकर दिया, ग्रामीण जीवन -शैली सिखाई और अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ कर दी। इस देहाती वृद्धा की सरलता से लेखिका इतना प्रभावित हुई कि वह अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी। भक्तिन स्वयं को बदल नहीं सकती थी। वह दूसरों को अपने मन के अनुकूल बना लेना चाहती थी।

भक्तिन में दुर्गुणों का अभाव नहीं था। लेखिका के घर में इधर -उधर पड़े पैसों को वह किसी मटकी में छिपाकर रख देती थी जिसे वह बुरा नहीं मानती थी। पूछने पर वह कहती कि यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा रुपया जो इधर -उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! अपनी मालकिन को खुश करने के लिए वह बात को बदल भी देती थी। वह अपनी बातों को शास्त्र सम्मत मानती थी। वह अपने तर्क देती थी। लेखिका ने उसे सिर घुटाने से रोका तो उसने ‘तीरथ गए मुँड़ाए सिद्ध’ कहकर अपना कार्य शास्त्रसिद्ध बताया। वह स्वयं पढ़ी -लिखी नहीं थी। अब वह हस्ताक्षर करना भी सीखना नहीं चाहती थी। उसका तर्क था कि उसकी मालकिन दिन -रात किताब पढ़ती है। यदि वह भी पढ़ने लगे तो घर के काम कौन करेगा।

भक्तिन अपनी मालकिन को असाधारणता का दर्जा देती थी। इसी से वह अपना महत्त्व साबित कर सकती थी। उत्तर -पुस्तिका के निरीक्षण कार्य में लेखिका का किसी ने सहयोग नहीं दिया। इसलिए वह कहती फिरती थी कि उसकी मालकिन जैसा कार्य कोई नहीं जानता। वह स्वयं सहायता करती थी। कभी उत्तर -पुस्तिकाओं को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर, वह जो सहायता करती थी उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। लेखिका की किसी पुस्तक के प्रकाशन होने पर उसे प्रसन्नता होती थी। उस कृति में वह अपना सहयोग खोजती थी। लेखिका भी उसकी आभारी थी क्योंकि जब वह बार -बार के आग्रह के बाद भी भोजन के लिए न उठकर चित्र बनाती रहती थी, तब भक्तिन कभी दही का शरबत अथवा कभी तुलसी की चाय पिलाकर उसे भूख के कष्ट से बचाती थी।

भक्तिन में गजब का सेवा -भाव था। छात्रावास की रोशनी बुझने पर जब लेखिका के परिवार के सदस्य हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि भी आराम करने लगते थे, तब भी भक्तिन लेखिका के साथ जागती रहती थी। वह उसे कभी पुस्तक देती, कभी स्याही तो कभी फ़ाइल देती थी। भक्तिन लेखिका के जागने से पहले जागती थीं तथा लेखिका के बाद सोती थी।

बदरी -केदार के पहाड़ी तंग रास्तों पर वह लेखिका से आगे चलती थी, परंतु गाँव की धूलभरी पगडंडी पर उसके पीछे रहती थी। लेखिका भक्तिन को छाया के समान समझती थी। युद्ध के समय लोग डरे हुए थे, उस समय वह बेटी -दामाद के बुलाने पर भी लेखिका को छोड़कर जाने को तैयार नहीं थी। युद्ध की भीषणता से बचने के लिए वह लेखिका को अपने गाँव ले जाना चाहती थी। वहाँ वह लेखिका के रहने और काम करने के लिए हर तरह के प्रबंध करने का आश्वासन देती थी। वह अपनी पूँजी को भी दाँव पर लगाने के लिए तैयार थी।

लेखिका का मानना है कि भक्तिन और उनके बीच में स्वामी सेवक का संबंध नहीं था। इसका कारण यह था कि इच्छा होने पर भी वह भक्तिन को सेवा से हटा नहीं सकती थी और चले जाने का आदेश पाकर भी भक्तिन उसे हँसकर टालती रहती थी।

भक्तिन छात्रावास की बालिकाओं के लिए चाय बना देती थी। वह उन्हें लेखिका के नाश्ते का स्वाद भी लेने देती थी। यों वह अपने भीतर के स्नेह एवं ममता का परिचय देती है। वह लेखिका के परिचितों व साहित्यिक बंधुओं से भी परिचित थी। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थी जैसा लेखिका करती थी। वह उन्हें आकार -प्रकार, वेश -भूषा या नाम के द्वारा जानती थी। कवियों के प्रति उसके मन में विशेष आदर नहीं था, परंतु दूसरे के दुख से वह कातर हो उठती थी। किसी विद्यार्थी के जेल जाने पर वह व्यथित हो उठती थी। वह कारागार से डरती थी, परंतु लेखिका के जेल जाने पर खुद भी उनके साथ चलने का हठ किया। अपनी मालकिन के साथ जेल जाने के हक के लिए वह बड़े लाट तक से लड़ने को तैयार थी। भक्तिन का अंतिम परिच्छेद चालू है। भक्तिन को खोकर इसे पूरा करना लेखिका नहीं चाहती।

1.  संकल्प – निश्चय

2.  जिज्ञासु – जानने का इच्छुक

3.  मुद्रा – भाव

4.  बरिस – वर्ष

5.  रत्ती भर -थोड़ा -सा

6.  स्पर्धा – मुकाबला

7.  समृद्धि – संपन्न

8.  कपाल – मस्तक

9.  कुंचित – सिकुड़ी

10. विरोधाभास – विरोध जैसा

11. शेष इतिवृत्त – संपूर्ण कथा

12. देहातिन -ग्रामीण स्त्री

13. अंशत:  – थोड़ा -सा

14. विमाता – सौतेली माता

15. किंवदंती -जन -प्रचलित कथा

16. वय – आयु, उम्र

17. ख्याति – प्रसिद्धि

18. गौना – पति के घर दूसरे बार आने से पहले की जाने वाली विधि

19. अगाध – गहरा

20. सतर्क – सावधान

21. मरणांतक – मृत्यु देने वाला

22. अप्रत्याशित – जिसकी आशा न की गई हो

23. मर्मव्यथा – ह्रदय को कष्ट देने वाली पीड़ा

24. राब – पका हुआ गाढ़ा रस

25. मचिया – छोटी चारपाई

26. विधात्री – जन्म देने वाली

27. लीक छोड़ना -परंपरा को तोड़ना

28. पुरखिन – बड़ी बूढ़ी

29. अनुग्रह – कृपा

30. नैहर – मायका

31. टकसाल – जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं

32. परिणति – निष्कर्ष

33. अलगौझा – बँटवारा

34. दंपत्ति – पति -पत्नी

35. कै – कितने ही

36. होरहा – हरे अनाज का भुना हुआ रूप

37. अजियाससुर – पति के बाबा

38. कुकुरी – कुतिया

39. उपार्जित – कमाई

40. जिठौतों – पति के बड़े भाई

41. परिमार्जन – शुद्ध करना

42. दीक्षित होना – गुरु मंत्र लेना

43. अथ -प्रारंभ

44. अभिनंदन – स्वागत

45. उपरांत – केबाद

46. नितांत – पूर्णत:

47. वीतराग -जिसे किसी चीज़ का मोह न हो

48. निषेध – मनाही

49. पितियाससुर – पति का चाचा

50. निवारण – दूरकरना

51. लपसी – हलवा

52. पोपला -दंतविहीन

53. दंत कथाएँ – परंपरा से चलती आ रही किस्से -कहानियाँ

54. कंठस्थ – याद करना

55. तर्क -शिरोमणि -तर्क करने में श्रेष्ठ

56. चूड़ाकर्म – केश हटवाना

57. नापित – नाई

58. निष्पन्न – पूर्ण

59. नरो वा कुंजरो वा – मनुष्य अथवा हाथी

60. वयो वृद्धता  – वृद्धता की आयु

61. मंथरता – धीमीगति

62. पटु – चतुर

63. आभा – प्रकाश

64. पागुर – जुगाली करना

65. अतिशयोक्ति – बढ़ा -चढ़ाकर बोलना

66. अवज्ञा – आदेश न मानना

67. अपभ्रंश – बिगड़ा हुआ

68. कारागार – जेल

69. आश्वासन – भरोसा

70. विषम – विपरीत

71. अमरौती – अमर होने का फल

1. भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? भक्तिन को यह नाम किसने और क्यों दिया होगा?

उत्तर  – भक्तिन का असली नाम लछमिन अर्थात् लक्ष्मी था जो समृद्धि और ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है। परंतु उसे सदैव धन का अभाव ही रहा। वह जानती थी कि समृद्धि का सूचक यह नाम ‘लक्ष्मी’ एक गरीब महिला के लिए उपहास है। समाज उसके इस नाम को सुनकर उसकी हँसी न उड़ाएँ, इसलिए वह अपना असली नाम किसी को नहीं बताती थी। भक्तिन को यह नाम लेखिका ने दिया था। लेखिका ने यह नाम भक्तिन की वेश -भूषा, रहन -सहन, सेवा -भावना और कर्तव्यपरायणता को देखकर दिया होगा क्योंकि भक्तिन में एक सच्ची सेविका के संपूर्ण गुण विद्यमान थे, जिस पर कोई भी स्वामी गर्व कर सकता है।

2. दो कन्या -रत्न पैदा करने पर भक्तिन पुत्र -महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अकसर यह धारणा चलती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या इससे आप सहमत हैं?

उत्तर  – हाँ, मैं इस बात से अस्सी प्रतिशत तक सहमत हूँ कि दो कन्या -रत्न पैदा करने पर भी भक्तिन पुत्र -महिमा में अंधी अपनी जेठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा की पात्र बनी। ऐसी घटनाओं से ही प्राय: यह धारणा बनती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। समाज में प्राय: देखा जाता है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री ही स्त्री से घृणा और ईर्ष्या भाव रखती है। शायद इसके पीछे यह कारण हो सकता है कि समाज में नारी की मनोवृत्ति ऐसी बन गई है कि वह अपने सामने किसी भी अन्य समृद्ध नारी को देखना नहीं चाहती। वह नहीं चाहती कि उसके द्वारा प्राप्त पद, मान -सम्मान कोई अन्य स्त्री भी ग्रहण कर सके। लेकिन एक स्थिति यह भी है कि भक्तिन जहाँ और जिसके यहाँ काम करती थी वह भी एक महिला (महादेवी वर्मा) ही थी।

3. भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा ज़बरन पति थोपा जाना एक दुर्घटना भर नहीं, बल्कि विवाह के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करें या न करें अथवा किससे करें) इसकी स्वतंत्रता को कुचलते रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। कैसे?

उत्तर  – भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज है। ऐसे समाज में पुरुष ही पूर्णरूप से स्वतंत्र है, नारी समाज नहीं। भारत में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है कि यहाँ केवल पुरुषों को अपना मनपसंद जीवनसाथी चुनने का अधिकार है, स्त्री को नहीं। दूसरी तरफ आज भी जब कोई युवती अपनी इच्छा प्रकट करना चाहती है, तब समाज की अनेक मर्यादाएँ उसके सामने दीवार बनकर खड़ी हो जाती हैं। प्रस्तुत पाठ में भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा जबरदस्ती पति थोपना भी स्त्री के मानवाधिकारों के कुचलते रहने की सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। जहाँ युवती की इच्छाओं और अधिकारों को अनदेखा करके पुरुष प्रधान पंचायत एकपक्षीय निर्णय देकर युवती पर तीतरबाज़ पति थोप देती है।

4. भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं लेखिका ने ऐसा क्यों कहा होगा?

उत्तर  – भक्तिन अच्छी है। उसमें सेवा -भाव है, परंतु इसके बावजूद उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं। लेखिका उसे अच्छा कहने में कठिनाई महसूस करती है। लेखिका को भक्तिन के निम्नलिखित कार्य दुर्गुण लगते थे –

1. वह लेखिका के इधर -उधर पड़े पैसों को भंडारघर की मटकी में छिपा देती थी। जब उससे इस कार्य के लिए पूछा जाता तो वह स्वयं को सही ठहराने के लिए अनेक तरह के तर्क देते हुए इसे पैसों को संभालकर रखना कहती है।

2. वह लेखिका को प्रसन्न रखने के लिए बात को इधर -उधर घुमाकर बताती थी। इसे वह झूठ नहीं मानती थी।

3. शास्त्र की बातों को भी वह अपनी सुविधानुसार सुलझा लेती थी। वह किसी भी तर्क को नहीं मानती थी।

4. पढ़ाई -लिखाई में उसकी कोई रुचि नहीं थी। लेखिका के पढ़ने के आग्रह को भी उसने स्वीकार नहीं किया।

5. महादेवी के अनेक बार कहने पर भी वह ‘आँय’ की जगह ‘जी’ कहना नहीं सीखी।

5. भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है?

उत्तर  –    लेखिका को भक्तिन का सिर मुँडवाना पसंद नहीं था। लेखिका उसे ऐसा करने के लिए मना करती थीं। परंतु भक्तिन केश मुँडाने से मना किए जाने पर शास्त्रों का हवाला देते हुए कहती है ‘तीरथ गए मुँडाए सिद्ध’। यह बात किस शास्त्र में लिखी है इसका भक्तिन को कोई ज्ञान नहीं था जबकि लेखिका को पता था कि यह उक्ति शास्त्र द्वारा न होकर किसी व्यक्ति द्वारा कही गई है परंतु तर्क में पटु होने के कारण लेखिका भक्तिन को सिर मुँडवाने से रोक नहीं पाई।

6. भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती कैसे हो गईं?

उत्तर – भक्तिन एक चालाक देहाती महिला थी। उसका स्वभाव ऐसा बन चुका था कि वह दूसरों को तो अपने मन के अनुसार बना लेती थी पर अपने अंदर किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहती थी। उसने गाढ़ी दाल व मोटी रोटी खिलाकर लेखिका की स्वास्थ्य संबंधी चिंता दूर कर दी। अब लेखिका को रात को मकई का दलिया, सवेरे मट्ठा, तिल लगाकर बाजरे के बनाए हुए ठंडे पुए, ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे -हरे दानों की खिचड़ी तथा सफेद महुए की लपसी मिलने लगी। आरंभ में तो लेखिका को दिक्कत हुई पर बाद में इन सबको वह स्वाद से खाने लगी। इसके अतिरिक्त उसने महादेवी को देहाती भाषा भी सिखा दी थी। इस प्रकार भक्तिन के आने से महादेवी अधिक देहाती हो गई।

1. आलो आँधारि की नायिका और लेखिका बेबी हालदार और भक्तिन के व्यक्तित्व में आप क्या समानता देखते हैं?

उत्तर – ‘आलो आँधारि’ पाठ की नायिका और भक्तिन के व्यक्तित्व में यह समानता है कि दोनों ही घरेलू नौकरानियाँ हैं। दोनों को ही पारिवारिक सदस्यों से उपेक्षा मिली, दोनों ही आर्थिक संकट से जूझ रहे थे, दोनों को ही उत्तम मानसिकता वाले मालिक मिले और दोनों ने ही अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अपने जीवन का निर्वाह किया।

2. भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फ़ैसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं है। अखबारों या टी. वी. समाचारों में आनेवाली किसी ऐसी ही घटना को भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चर्चा करें।

उत्तर – आज भी हमारे समाज में विशेषकर गाँवों में विवाह के संदर्भ में पंचायत का रुख बड़ा ही क्रूर, संकीर्ण और रूढ़िवादी है। आज भी विवाह संबंधी निर्णय पंचायत में लिए जाते हैं। पंचायत अपनी रूढ़िवादी विचारधाराओं तथा पुरुष सत्ता के मद से प्रभावित होकर कभी -कभी एकतरफ़ा फैसले दे देती है। अखबारों तथा टी.वी में आय दिन इस प्रकार की घटनाएँ सुनने को मिलती हैं कि पंचायत ने पति -पत्नी के विवाद में पत्नी को दोषी पाया, बच्चा न होने की स्थिति में पुरुष को दूसरी शादी करने की मंजूरी दे दी, और अगर किसी विवाहिता ने किसी कारणवश अन्य पुरुष से बात कर ली तो उस पर बदचलनी का भी आरोप लगा दिया जाता है।

3. पाँच वर्ष की वय में ब्याही जानेवाली लड़कियों में सिर्फ़ भक्तिन नहीं है, बल्कि आज भी हज़ारों अभागिनियाँ हैं। बाल -विवाह और उम्र के अनमेलपन वाले विवाह की अपने आस -पास हो रही घटनाओं पर दोस्तों के साथ परिचर्चा करें।

उत्तर – भारत के ऐसे अनेक राज्य हैं जहाँ बाल -विवाह कुछ अंशों में अब भी प्रचलित है। बाल विवाह अनेक कारणों से अपने चलन में हैं जिसमें आर्थिक संकट सर्वोपरि है। इस समस्या को संपूर्ण समाज के सामने लाने के लिए ‘बालिका वधू’ नाम का एक धारावाहिक भी टेलीविज़न पर दिखाया जाता था। ‘दंगल’ फिल्म में भी हमें बाल विवाह का एक दृश्य देखने को मिलता है। इन सबसे निपटने के लिए ही हरियाणा में ‘बेटी पढ़ाओ -बेटी बचाओ’ अभियान की शुरुआत भी हुई थी।

4. महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु -पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेखिका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कई पशु -पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्र भी लिखे हैं। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढ़कर पढ़ें। जो मेरा परिवार नाम से प्रकाशित है।

उत्तर – छात्र अपने पुस्तकालय से यह पुस्तक जारी करवाकर अवश्य पढ़ें।

1. नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा -प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढ़िए और इनकी अर्थ -छवि स्पष्ट

कीजिए –

(क) पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले

उत्तर – प्रकाशन के क्षेत्र में जैसे किसी पुस्तक का प्रकाशन होता है और पाठकों द्वारा खरीद लिए जाने पर उसे पुनः छापा जाता है तथा प्रकाशित किया जाता है, ठीक उसी प्रकार भक्तिन ने अपनी पहली कन्या के बाद दो अन्य कन्याएँ और पैदा कर दीं।

(ख) खोटे सिक्कों की टकसाल जैसी पत्नी

उत्तर  – टकसाल सिक्के ढालने (Minting) वाली मशीन को कहते हैं। भारतीय समाज में ‘लड़के’ को खरा सिक्का और ‘लड़की’ को खोटा सिक्का कहा जाता है। तत्कालीन समाज में लड़कियों का कोई महत्त्व नहीं था। भक्तिन को खोटे सिक्के की टकसाल की संज्ञा दी गई है क्योंकि उसने एक के बाद एक तीन लड़कियाँ उत्पन्न कीं, जबकि समाज पुत्र जन्म देने वाली स्त्रियों को महत्त्व देता है।

(ग) अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण

उत्तर – भक्तिन (लछमिन) अपनी पिता के मृत्यु के कई दिनों के बाद पहुँची। जब वह मायके की सीमा तक पहुँची तो लोग कानाफूसी करते हुए पाए गए कि बेचारी अब आई है। आमतौर पर शोक की खबर प्रत्यक्ष तौर पर नहीं की जाती। कानाफूसी या फुसफुसाहट के अस्पष्ट शब्दों में कहीं जाती हैं। अत: लेखिका ने इसे अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ कहा है। वहीँ पिता के देहांत के कारण लोग उसे सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देख रहे थे तथा ढाँढ़स बँधा रहे थे। बातें स्पष्ट तौर पर की जा रही थीं। अत: उन्हें लेखिका ने स्पष्ट सहानुभूति कहा है।

2. ‘बहनोई’ शब्द ‘बहन (स्त्री.)+ओई’ से बना है। इस शब्द में हिंदी भाषा की एक अनन्य विशेषता प्रकट हुई है। पुंलिंग शब्दों में कुछ स्त्री -प्रत्यय जोड़ने से स्त्रीलिंग शब्द बनने की एक समान प्रक्रिया कई भाषाओं में दिखती है, पर स्त्रीलिंग शब्द में कुछ पुं. प्रत्यय जोड़कर पुंलिंग शब्द बनाने की घटना प्रायः अन्य भाषाओं में दिखलाई नहीं पड़ती। यहाँ पुं. प्रत्यय ‘ओई’ हिंदी की अपनी विशेषता है। ऐसे कुछ और शब्द और उनमें लगे पुं. प्रत्ययों की हिंदी तथा और भाषाओं में खोज करें।

उत्तर  – इसी प्रकार का एक शब्द है – ननद + ओई = ननदोई।

3. पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझ कर इन्हें खड़ी बोली हिंदी में ढाल कर प्रस्तुत कीजिए।

(क) ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग -भाजी छँउक सकित है, अउर बाकी का रहा।

उत्तर  – यह कौन -सी बड़ी बात है। रोटी बनाना जानती हूँ। दाल बना लेती हूँ। साग -भाजी छौंक सकती हूँ और शेष क्या रहा।

(ख) हमारे मालकिन तौ रात -दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर -गिरिस्ती कउन देखी -सुनी।

उत्तर  – हमारी मालकिन तो रात -दिन पुस्तकों में ही व्यस्त रहती हैं। अब यदि मैं भी पढ़ने लगूँ तो घर -गृहस्थी कौन देखेगा -सुनेगा?

(ग) ऊ बिचरिअउ तौ रात -दिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घूमती -फिरती हौ, चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।

उत्तर  – वह बेचारी तो रात -दिन काम में लगी रहती है और तुम लोग घूमते -फिरते हो। जाओ, थोड़ी उनकी सहायता करो।

(घ) तब ऊ कुच्छौ करिहैं -धरिहैं ना  – बस गली -गली गाउत -बजाउत फिरिहैं।

उत्तर  – तब वह कुछ करता -धरता नहीं होगा, बस गली -गली में गाता -बजाता फिरता होगा।

(ङ) तुम पचै का का बताईयहै पचास बरिस से संग रहित है।

उत्तर  – तुम लोगों को क्या बताऊँ पचास वर्ष से साथ में रहती हूँ।

(च) हम कुकुरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।

उत्तर  – मैं कुतिया -बिल्ली नहीं हूँ। मेरा मन करेगा तो मैं दूसरे के घर जाऊँगी, अन्यथा तुम लोगों की छाती पर ही चने भुनूँगी और राज करुँगी, यह समझ लेना।

4. भक्तिन पाठ में पहली कन्या के दो संस्करण जैसे प्रयोग लेखिका के खास भाषाई संस्कार की पहचान कराता है, साथ ही ये प्रयोग कथ्य को संप्रेषणीय बनाने में भी मददगार हैं। वर्तमान हिंदी में भी कुछ अन्य प्रकार की शब्दावली समाहित हुई है। नीचे कुछ वाक्य दिए जा रहे हैं जिससे वक्ता की खास पसंद का पता चलता है। आप वाक्य पढ़कर बताएँ कि इनमें किन तीन विशेष प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है? इन शब्दावलियों या इनके अतिरिक्त अन्य किन्हीं विशेष शब्दावलियों का प्रयोग करते हुए आप भी कुछ वाक्य बनाएँ और कक्षा में चर्चा करें कि ऐसे प्रयोग भाषा की समृद्धि में कहाँ तक सहायक है?

  – अरे! उससे सावधान रहना! वह नीचे से ऊपर तक वायरस से भरा हुआ है। जिस सिस्टम में जाता है उसे हैंग कर देता है।

उत्तर  – इस वाक्य में कंप्यूटर की तकनीकी भाषा का प्रयोग हुआ है। यहाँ ‘वायरस’ का अर्थ है  – दोष, ‘सिस्टम‘ का अर्थ है – कंप्यूटर (व्यवस्था), ‘हैंग’ का अर्थ है  – ठहराव। इस वाक्य का अर्थ यह है कि – वह पूरी तरह से दूषित या ऐबों से भरा हुआ है। वह जहाँ भी जाता है, वहाँ की पूरी कार्यप्रणाली को दोषपूर्ण कर देता है।

  – घबरा मत! मेरी इनस्वींगर के सामने उसके सारे वायरस घुटने टेकेंगे। अगर ज़्यादा फ़ाउल मारा तो रेड कार्ड दिखा के हमेशा के लिए पवेलियन भेज दूँगा।

उत्तर  – इस वाक्य में खेल से संबंधित शब्दावलियों का प्रयोग हुआ है। यहाँ ‘इनस्वींगर’ का अर्थ है – गहराई से निरीक्षण करने वाली कार्यवाही, ‘फाउल’ का अर्थ है  – गलत काम, ‘रेड कार्ड’ का अर्थ है  – बाहर जाने का संकेत तथा ‘पवेलियन’ का अर्थ है  – वापिस भेजना। इस वाक्य का अर्थ यह है – घबरा मत। जब मैं अंदर तक मार करने वाली कार्यवाही करूँगा तो उसकी सारी हेकड़ी निकल जाएगी। अगर उसने अधिक गड़बड़ करने की कोशिश की तो उसे आचार संहिता के दाँवपेंच में फँसाकर हमेशा के लिए बाहर निकाल फेंकूँगा।

  – जानी टेंसन नई लेने का वो जिस स्कूल में पढ़ता है अपुन उसका हैडमास्टर है।

उत्तर  – इस वाक्य में मुंबई (बॉम्बे) की भाषा का प्रयोग है। ‘जानी’ शब्द का अर्थ है  – कोई भी व्यक्ति, ‘टेंसन लेना’ का अर्थ है – चिंता करना, ‘स्कूल में पढ़ना’ का अर्थ है – काम करना तथा ‘हैडमास्टर’ होना का अर्थ है – कार्य में निपुण होना।

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प द्वारा दीजिए

1. सेवक धर्म में हनुमान जी से स्पर्धा करने वाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है नाम है लछमिन अर्थात् लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बंध सकी। वैसे तो जीवन में प्रायः सभी को अपने अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूं। उपनाम रखने की प्रतिभा होती तो मैं सबसे पहले उसका उपयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने इसी से जब मैंने कंठी माला देखकर उसका नया नामकरण किया तब वह भक्तिन जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गदगद होती उठी।

निम्नलिखित में से निर्देशानुसार विकल्पों का चयन कीजिए:

i) भक्ति ने अपना मूल नाम तो बता दिया पर लेखिका से क्या प्रार्थना की?

a. मूल या असली नाम से ही बुलाने की

b. अपने लिए नया नामकरण करने की

c. एक कवित्वहीन नाम से बुलाने की

d. मूल या असली नाम से न बुलाने की

उत्तर : d)मूल या असली नाम से न बुलाने की

ii) भक्ति अपना वास्तविक या असली नाम क्यों छुपाती थी?

a. वह गरीब थी इसलिए उसे लक्ष्मी नाम जँचता नहीं था।

b. वह लक्ष्मी नाम से घृणा करती थी।

c. उसे कोई अन्य नाम प्रिय था।

d. उसे किसी भेद के खुल जाने का डर था।

उत्तर : a) वह गरीब थी इसलिए उसे लक्ष्मी नाम जँचता नहीं था।

iii) भक्तिन की माँ को लेखिका ने अनामधन्या क्यों कहा?

a. क्योंकि वह अपनी पुत्री की सहायता ना कर सकी

b. क्योंकि भक्तिन की माँ का यही नाम था

c. क्योंकि वह अपने नाम से प्रसिद्ध नहीं थी

d. क्योंकि वह एक गोपालिका थी

उत्तर : c) क्योंकि वह अपने नाम से प्रसिद्ध नहीं थी

iv) निम्नलिखित कथन एवं कारण को पढ़िए और उसके आधार पर सही विकल्प चुनिए  –

कथन : लेखिका के नाम की विशालता उसके लिए दुर्वह थी।

कारण : क्योंकि लेखिका के जीवन में अपने नाम के अनुसार समृद्धि नहीं है।

a. कथन और कारण दोनों सही हैं।

b. कथन सही है लेकिन कारण गलत है।

c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है।

d. कथन और कारण दोनों गलत हैं।

उत्तर b) कथन सही है लेकिन कारण गलत है।

v) ‘स्पर्धा’ का समानार्थक शब्द होगा

a. बराबरी

b. हार

d. प्रतियोगिता

उत्तर (d) प्रतियोगिता

2. पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावतः ईर्ष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ ना बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जा कर देख आवे, यही कहकर और पहना उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसके पैरों में जो पंख लगा दिए थे, वह गांव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गए। हाय लछमिन अब आई की अस्पष्ट पुनरावृतियाँ और स्पष्ट सहानुभूति पूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गई। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दुख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिए उलटें पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी -खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने फेंक फेंक कर उसने पिता के चिर बिछोह की मर्म व्यथा व्यक्त की।

(i) गद्यांश में उल्लिखित ‘अप्रत्याशित अनुग्रह’ क्या है?

a. पिता का उस पर अगाध प्रेम

b. सज धज कर जाने की अनुमति मिलना

c. बिना माँगे नैहर जाने की अनुमति मिलना

d. संपत्ति की रक्षा

उत्तर c ). बिना माँगे नैहर जाने की अनुमति मिलना

ii) निम्नलिखित में से कौन -सा कथन सही नहीं है?

a. भक्तिन की विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था।

b. घर में पिताजी का चिह्न तक शेष नहीं था।

c. भक्तिन दुख से शिथिल हो गई थी और अपमान से जल गई थी।

d. नैहर में पानी भी बिना पिए उलटें पैरों ससुराल लौट पड़ी।

उत्तर : a). भक्तिन की विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था।

iii) निम्न लिखित कथन एवं कारण को पढिए और उसके आधार पर सही विकल्प चुनिए

कथन : विमाता ने पिताजी के मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा जब वह मृत्यु की

सूचना भी बन चुका था।

कारण : पिता -पुत्री के बीच अगाध प्रेम होने के कारण रोग की खबर जानकार वह बहुत दुखी हो जाएगी।

a. कथन और कारण दोनों सही हैं।

b. कथन सही है लेकिन कारण गलत है।

c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है।

d. कथन और कारण दोनों गलत हैं।

उत्तर b. कथन सही है लेकिन कारण गलत है।

iv) भक्तिन ने वापस अपने ससुराल पहुँचने पर अपनी सास को खरी -खोटी क्यों सुनाया?

a. क्योंकि वह अपनी सास के कपट पूर्ण व्यवहार से आहत थी।

b. क्योंकि भक्तिन की सास ने उसके पिता की मृत्यु की बात को जानते हुए भी उससे से नहीं बताया।

c. क्योंकि सास भक्तिन के दुख से बढ़कर उसके रोने पीटने के अपशकुन पर ज्यादा चिंतित थी।

d. उपरोक्त तीनों सही है

उत्तर d. उपरोक्त तीनों सही है

(v) ‘चिर विछोह’ से क्या तात्पर्य है?

a. क्षणिक वियोग

b. दीर्घकालिक वियोग

c. शाश्वत वियोग

d. दुखद अलगाव

उत्तर c. शाश्वत वियोग।

3. जब गत वर्ष युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान पर पलायन -वृत्ति जगा दी थी, तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे गाँव चलने का अनुरोध करने आई। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नई धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवाल में कीलें गाड़कर और उन पर तख्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा बनवाकर और उस पर अपना कंबल बिछाकर वह मेरे सोने का प्रबंध करेगी। मेरे रंग, स्याही आदि को नई हँड़ियों में सँजोकर रख देगी और कागज पत्रों को छींके में यथाविधि एकत्र कर देगी।

i. भक्तिन लेखिका से गाँव चलने का अनुरोध क्यों करती है?

a. लेखिका के प्रति आदर विनय का भाव प्रकट करने के लिए।

b. वह लेखिका को गाँव के घर -वातावरण से परिचय कराना चाहती थी।

c. उसमे लेखिका के प्रति अगाध प्रेम था और वह युद्ध के दौरान लेखिका की सुरक्षा पर चिंतित थी।

d. वह शहर के वातावरण से बचना और गाँव जाकर रहना चाहती थी।

उत्तर : c) उसमे लेखिका के प्रति अगाध प्रेम था और वह युद्ध के दौरान लेखिका की सुरक्षा पर चिंतित थी।

ii) ‘पलायन वृत्ति’ से क्या तात्पर्य है?

a. कहीं अन्यत्र भागना

b. युद्ध में शहीद हो जाना

c. अन्याय से युद्ध जीतना

d. अत्याचार एवं आक्रमण करना

उत्तर : a) कहीं अन्यत्र भागना

iii) निम्नलिखित कथन एवं कारण को पढ़िए और उसके आधार पर सही विकल्प चुनिए

कथन : वह दीवाल में कीलें गाड़कर और उन पर तख्ते रखकर मेरे कपड़े रखने का प्रबंध करेगी।

कारण : भक्तिन के गरीब घर में कपड़े, किताबें आदि रखने के लिए अलमारी या अन्य सुविधाएँ नहीं हैं।

a. कथन और कारण दोनों सही हैं

b. कथन सही है लेकिन कारण गलत है

c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है

d. कथन और कारण दोनों गलत हैं

उत्तर : c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है

iv) गद्यांश में भक्तिन की किन -किन चारित्रिक विशेषताएँ उभरकर आई हैं?

a. मालकिन के प्रति विनय का भाव

b. मालकिन के प्रति प्रेम एवं समर्पण का भाव

c. उसकी समझदारी एवं प्रबंधन क्षमता

d. उपर्युक्त सभी

उत्तर : d) उपर्युक्त सभी

v) गद्यांश के आधार पर कौन -सा कथन लेखिका के संबंध में सही नहीं है?

a. लेखिका अपने प्रति भक्तिन के प्यार को जानती है और बदले में प्यार निभाती है।

b. भक्तिन ने गाँव मे जिन -जिन सुविधाएँ तैयार करने के बारे में कहा, लेखिका को वे परिहासास्पद लगे।

c. लेखिका विख्यात रचनाकार होने के साथ -साथ एक चित्रकार भी है।

d. लेखिका भक्तिन के प्यार और भोलेपन में मुग्ध हो गई थी।

उत्तर : b) भक्तिन ने गाँव मे जिन -जिन सुविधाएँ तैयार करने के बारे में कहा, लेखिका को

वे परिहासास्पद लगे।

4. मेरे भ्रमण की भी एकांत साथिन भक्तिन ही रही है। बदरी -केदार आदि के ऊँचे -नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गाँव की धूलभरी पगडंडी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती किसी भी समय कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही मैं भक्तिन को छाया के समान साथ पाती हूँ।

i) गद्यांश के आधार पर भक्तिन के संबंध में कौन -सा कथन सही है?

a. भक्तिन भ्रमणशील है और हमेशा लेखिका के साथ भ्रमण करने जाती है।

b. भक्तिन अपने से बढ़कर लेखिका की सुरक्षा पर ज्यादा बल देती है

c. यात्राओं में भक्तिन हमेशा लेखिका के आगे -आगे चलने के लिए हठ करती है।

d. उपर्युक्त सभी कथन सही हैं।

उत्तर : b) भक्तिन अपने से बढ़कर लेखिका की सुरक्षा पर ज्यादा बल देती है।

ii) निम्नलिखित कथन एवं कारण को पढ़िए और उसके आधार पर सही विकल्प चुनिए

कथन : लेखिका सपरिवार भ्रमण के लिए जाती है और भक्तिन को साथ लेती है।

कारण : भक्तिन रास्ते में उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है।

a. कथन और कारण दोनों सही हैं।

b. कथन सही है लेकिन कारण गलत है।

c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है।

d. कथन और कारण दोनों गलत हैं।

उत्तर : c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है।

iii) बदरी -केदार के रास्ते कैसे हैं?

a. धूलभरी पगडंडियाँ

b. कीचड़ से भरा दलदली रास्ते

c. पहाड़ों से घिरा हुआ समतल प्रदेश

d. ऊँचे नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते

उत्तर : d) ऊँचे -नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते

iv) निम्नलिखित में से कौन -सा कथन सही नहीं है?

a. ऊँचे -नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे भक्तिन हठ करके लेखिका के पीछे चलती है।

b. कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही लेखिका भक्तिन को छाया के समान साथ पाती है।

c. गाँव की धूलभरी पगडंडी पर भक्तिन लेखिका के पीछे चलती है।

d. लेखिका को हर प्रकार से सुरक्षा प्रदान करना भक्तिन चाहती है।

उत्तर: a) ऊँचे -नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे भक्तिन हठ करके लेखिका के पीछे चलती है।

v) ‘पगडंडी’ शब्द का अर्थ होगा

a. पहाड़ी रास्ता

b. सँकरा मार्ग

c. धूलभरी चौड़ी सड़क

d. पक्की सड़क

उत्तर : b) सँकरा मार्ग

5. भक्तिन का दुर्भाग्य भी उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुलाया लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसंद कर दिया।

i) भक्तिन के बड़ी बेटी के विधवा होने पर उसके पति के बड़े भाइयों ने आशा की किरण क्यों देखी?

a. उन्हें भक्तिन के धन हड़पने का एक और अवसर मिल गया।

b. उन्हें भक्तिन के सेवा भाव का एक अवसर मिल गया।

c. उन्होंने भक्तिन के घर परिवार को संभालने की सोची।

d. विधवा बेटी की शादी कराना उनका उत्तरदायित्व था।

उत्तर : a)उन्हें भक्तिन के धन हड़पने का एक और अवसर मिल गया।

ii) ‘भइयहू’ शब्द का अर्थ है

a. साले की पत्नी

b. छोटे भाई की पत्नी

c. बहिन के पति

d. बड़े भाई की पत्नी

उत्तर : b) छोटे भाई की पत्नी

iii) निम्नलिखित कथन एवं कारण को पढ़िए और उसके आधार पर सही विकल्प चुनिए  –

कथन : भक्तिन की बेटी ने वर को नापसंद कर दिया।

कारण : वह समझदार थी और जानती थी कि शादी के नाम पर संपत्ति हड़पने की साजिश बना रहे हैं।

a. कथन और कारण दोनों सही हैं।

b. कथन सही है लेकिन कारण गलत है।

c. कथन गलत है लेकिन कारण सही है।

d. कथन और कारण दोनों गलत हैं।

उत्तर: a. कथन और कारण दोनों सही हैं।

iv) गद्यांश के अनुसार कौन -सा कथन भक्तिन के संबंध में सही नहीं है?

a. भक्तिन हठी थी

b. दुर्भाग्य भी हमेशा भक्तिन के साथ है।

c. जेठ और जिठौतों के साथ भक्तिन का अच्छा संबंध था।

d. भक्तिन तीतर लड़ाने वाले लड़के के साथ बेटी की शादी कराना नहीं चाहती थी।

उत्तर : c) जेठ और जिठौतों के साथ भक्तिन का अच्छा संबंध था।

v) विधवा बहिन केलिए वर के रूप में कौन बुलाया गया?

a. तीतर लड़ाने वाला जिठौत

b. बड़े जेठ का साला

c. छोटे जिठौत का साला

d. बड़े जिठौत का साला

उत्तर : d) बड़े जिठौत का साला

1. ‘भक्तिन’ पाठ के आधार पर भक्तिन की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : ‘भक्तिन’ लेखिका की सेविका है। उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

व्यक्तित्व – भक्तिन अधेड़ उम्र की महिला है। उसका कद छोटा व शरीर दुबला-पतला है। उसके होंठ पतले हैं तथा आँखें छोटी हैं।

परिश्रमी – भक्तिन कर्मठ महिला है। ससुराल में वह बहुत मेहनत करती है। वह घर, खेत, और पशुओं का सारा कार्य अकेले करती है। अलगौझा के बाद अपने लिए प्राप्त मिट्टी में परिश्रम करके उसे सोना बना दिया।

स्वाभिमानिनी – भक्तिन बेहद स्वाभिमानिनी है। पति की मृत्यु के बाद उसने किसी का पल्ला नहीं थामा तथा स्वयं मेहनत करके घर चलाया, बच्चों का पालन-पोषण किया और बेटियों की शादी भी कराया। लगान के मामले में जमींदार से दंड पाने को वह घोर अपमान मानती है और गाँव छोड़कर शहर चली आई।

महान सेविका – भक्तिन में सच्चे सेवक के सभी गुण हैं। लेखिका ने उसे हनुमान जी से स्पर्धा करने वाली बताया है। वह अपने सुख और स्वास्थ्य की चिंता किए बिना दिन-रात लेखिका की सेवा में लगी रहती है। बदरी-केदार की यात्रा में अपने से ज्यादा लेखिका की सुरक्षा को प्रमुखता देती है।

चालाक/समझदार – लेखन कार्य और चित्र बनाने में लेखिका की सहायता करना, अनपढ़ होकर भी पढ़नेवालों के इंस्पेक्टर बनना आदि उसकी समझदारी केलिए प्रमाण देते हैं।

ममतामयी – परिवार और परिस्थितियों के कारण स्वभाव में थोड़ी विषमताएँ उत्पन्न होने के बावजूद उसके भीतर से एक स्नेह और सहानुभूति की आभा फूटती रहती है। छात्रावास में रहनेवाली बालिकाओं के साथ उसका व्यवहार, जेल में बंद छात्रों के प्रति उसकी सहानुभूति आदि इसके प्रमाण हैं।

2. भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने संबंधी कौन सा उदाहरण लेखिका ने दिया है?

उत्तर : हर बृहस्पतिवार भक्तिन सिर का मुंडन कराती है। स्त्रियों का सिर घुटाना अच्छा न लगने के कारण लेखिका ने इसे रोका। तब भक्तिन ने उत्तर दिया कि शास्त्र में ऐसा लिखा है ‘तीर्थ गए मुंडाए सिद्ध’। यह सूत्र भक्तिन ने अपनी आस्था से बना लिया था।

3. भक्तिन सेवा धर्म किस तरह निभाती है?

उत्तर – भक्तिन अपनी स्वामिनी लेखिका के प्रति पूर्ण समर्पित थी। पूरे मनोयोग से अपने कर्तव्य को निभाती थी। लेखिका ने उसे हनुमान जी से स्पर्धा करने वाली बताया है। वह अपने सुख और स्वास्थ्य की चिंता किए बिना दिन-रात लेखिका की सेवा में लगी रहती है। लेखिका जब कभी देर रात तक लिखने-पढ़ने या चित्र बनाने में व्यस्त रहती थी तब तब भक्तिन लेखिका का साथ देती थी। बदरी-केदार की यात्रा में अपने से ज्यादा लेखिका की सुरक्षा को प्रमुखता देती थी। युद्ध के समय लेखिका के लिए अपने बचा कर रखे पैसे खर्च करने, उन्हें अपने गाँव ले जाने, तथा लेखिका के साथ जेल यात्रा करने के लिए भी भक्तिन तैयार हो गई थी।

4. युद्ध के समय बेटी-दामाद के बुलाने पर भी भक्तिन उनके साथ जाने को क्यों तैयार नहीं थी?

उत्तर : युद्ध के समय लोग डरे हुए थे, उस समय वह बेटी-दामाद के बुलाने पर तथा लेखिका द्वारा खूब समझाने पर भी उनके साथ जाने को भक्तिन तैयार नहीं थी। उनके साथ जाने के लिए लेखिका का साथ छोड़ना आवश्यक था, जो भक्तिन को जीवन के अंत तक स्वीकार नहीं था। उसने अपनी सुरक्षा की परवाह न करते हुए लेखिका के साथ रहना उचित समझा।

5. भक्तिन के ससुराल वालों ने उसके साथ कैसा व्यवहार किया?

उत्तर : भक्तिन की सास और जेठानियाँ उसके साथ अमानवीय व्यवहार करती थी। भक्तिन अपनी ससुराल में सबसे छोटी बहू थी तथा उसने तीन कन्याओं को जन्म दिया था। इसलिए उसकी सास व जिठानियाँ उस पर रोब जमाना चाहती थीं। घर और खेत के सारे काम उससे करवाती थी।

6. भक्तिन के ससुराल वालों ने उसके पति की मृत्यु पर उसे पुनर्विवाह के लिए क्यों कहा?

उत्तर: भक्तिन के ससुराल वालों का विचार ठीक नहीं था। उनकी नजर भक्तिन के परिश्रम से बनाई गई घर व संपत्ति पर थी। भक्तिन के पुनर्विवाह करके नए घर जाने पर उसकी सारी संपत्ति ससुराल वालों को मिल जाएगी। इसलिए भक्तिन के ससुराल वालों ने उसे पुनर्विवाह के लिए कहा।

7. ‘भक्तिन जीवन भर अपरिवर्तित ही रही’ – इस कथन का समर्थन कीजिए।

उत्तर : भक्तिन अपनी आदतों और इरादों की पक्की थी। वह अपनी जीवनशैली को सही मानती थी। भक्तिन को दूसरों को अपने अनुकूल बना लेने की क्षमता थी पर वह खुद बदलना नहीं चाहती थी। उसने लेखिका को अधिक देहाती बना डाला लेकिन खुद न शहरी भोजन का स्वाद लिया और न शहरी शिष्टाचार सीख लिया।

8. भक्तिन का जीवन सदैव दुखों से भरा रहा। स्पष्ट कीजिए

उत्तर : भक्तिन आजीवन अनेक समस्याओं से संघर्ष करती रही। बचपन में ही माँ गुजर गई। उसकी विमाता ने उसका पालन-पोषण किया लेकिन वह भक्तिन से अत्यंत ईर्ष्या और घृणा किया करती थी। अत: उसने उसकी कम उम्र में ही शादी करवा दी। विवाह के बाद तीन लड़कियाँ उत्पन्न करने के कारण उसे सास व जेठानियों का दुर्व्यवहार सहना पड़ा। किसी तरह परिवार से अलग होकर समृद्धि पाई, परंतु भाग्य ने उसके पति को छीन लिया। सुसराल वालों ने उसकी संपत्ति छीननी चाही, परंतु वह संघर्ष करती रही। फिर उसने अपनी बेटियों की शादी की, लेकिन भाग्य ने यहाँ भी इसके जीवन को समस्याओं के बीच ला खड़ा किया, इसकी बड़ी लड़की विधवा हो गई। इस प्रकार उसका सम्पूर्ण जीवन अत्यंत कष्टपूर्ण ढंग से व्यतीत हुआ।

9. भक्तिन को अपना गाँव छोड़कर शहर क्यों जाना पड़ा?

उत्तर : भक्तिन के बड़े दामाद की मृत्यु हो गई। परिवारवालों की दृष्टि उसकी संपत्ति पर थी। अपनी विधवा बहन के गठबंधन के लिए उसका जिठौत अपने तीतरबाज़ साले को बुला लाया लेकिन लड़की ने इसे वर के रूप में नापसंद कर दिया। पारिवारिक द्वेष बढ़ने से खेती-बाड़ी चौपट हो गई। अब उसके लिए लगान देना भी भारी पड़ गया। लगान समय पर न पहुँचाने के कारण ज़मींदार ने भक्तिन को दिनभर कड़ी धूप में खड़ा रखा तो उसके स्वाभिमान हृदय को गहरा आघात लगा। यह अपमान उसकी कर्मठता और परिश्रम में सबसे बड़ा कलंक बन गया। अत: वह दूसरे ही दिन कमाई के विचार से गाँव छोड़कर शहर आ गई।

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