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हिंदू धर्म के गुण और अवगुण

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हिंदू धर्म के गुण और अवगुणों पर विचार करने से पूर्व हमें यह जान लेना है कि वास्तव में हिंदू धर्म क्या है? धर्म के विषय में वेदव्यास का मत है कि ‘धर्म-शक्ति प्रजा और समाज को धारण करती है। अधर्म है अनाचार और उच्छृंखलता तथा धर्म है श्रेष्ठ सामाजिक आचार-विचार।’ ऋग्वेद में भी सत्-पथ पर चलने के लिए आचार-सुधार की आवश्यकता बतलाई है। इस प्रकार धर्म आचारमूलक है, अनाचार मूलक नहीं। हिंदू धर्म में मनु के विचार से धर्म-पालन के लिए ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण का चुकाना परमावश्यक है। ऋषि ऋण के अंतर्गत ज्ञान प्राप्ति देव ऋण के अंतर्गत हवन, पुण्य कर्म इत्यादि और पितृ ऋण के अंतर्गत पिता के प्रति कर्त्तव्य पालन आता है।

हिंदू धर्म में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए जिस प्रकार समाज को चार वर्णों में विभाजित किया है उसी प्रकार मानव जीवन को भी चार आश्रमों में विभाजित किया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन चारों आश्रमों का पालन करना आवश्यक है। धर्म समाज की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा मानव इस लोक में अपने जीवन को सुधारता है। वास्तव में धर्म का संबंध मानव-जीवन से है।

हिंदू धर्म ने समाज और मानव जीवन की व्यवस्थाएँ प्रारंभ में निर्धारित कीं; उनके बंधन ज्यों-के-त्यों बने हुए नहीं रह सके। समय और व्यक्ति के अंतर से इन सब में अंतर प्रारंभ हो गए। वर्ण व्यवस्था जातियों में बदलती चली गई और आश्रम धर्मों का उचित पालन होना बंद हो गया। संन्यासियों ने विवाह करने शुरू कर दिए और ब्रह्मचारियों ने विषय भोग। इसका प्रभाव समाज पर बुरा पड़ा। समाज और भी अव्यवस्थित होने लगा। आचार्यों ने इस प्रकार अनावरण करने वाले व्यक्तियों के लिए सामाजिक दंड निर्धारित करके इन प्रवृतियों को रोकने के प्रयत्न किए। फलस्वरूप वर्णों से बहिष्कृत व्यक्तियों ने अपनी-अपनी जातियों का संगठन करना प्रारंभ कर दिया और इस प्रकार अनेकों जातियों के जन्म हुए एक-एक वर्ण की अनेकानेक उप-शाखाएँ बनती चली गईं। इस जाति भिन्नता के कारण समाज का संगठन टूट गया। समाज की शक्ति क्षीण होती चली गई और इतने भेद और उपभेद पैदा हो गए कि संगठन का सूत्र एकदम समाप्त हो गया। यह विच्छेदात्मक प्रवृत्ति इतनी बलवती हुई कि इसका प्रभाव भारत में आने वाले मुसलमान धर्म पर भी पड़े बिना न रहा। भारत के मुसलमानों में भी जातियाँ आज मिलती हैं। यह मुसलमान धर्म पर हिंदू धर्म की गहरी छाप है। इस्लाम धर्म का संगठन भी भारत में आकर छिन्न-भिन्न हो गया।

हिंदू धर्म की इस विच्छेदात्मक प्रवृत्ति का खंडन स्वामी दयानंद ने किया और संगठन की एक बार भारत में ऐसी लहर चलाई कि सभी वर्गों को मिला कर ॐ के झंडे के नीचे खड़ा कर दिया। इस भावना को महात्मा गांधी ने अपने हरिजन आंदोलन द्वारा विशाल रूप देकर राजनीति का अंग बना दिया और ऐसा व्यापक बना दिया कि वर्तमान राजनीति में उस संगठन की आवश्यकता ही नहीं रही। आज के प्रजातंत्रवाद में एक पंडित जो चुनाव में खड़ा होता है उसे भी मत (Vote) माँगने के लिए भंगी की झोंपड़ी पर जाना पड़ता है।

हिंदू धर्म मध्य युग में आकर एक प्रकार से कर्म-कांड प्रधान हो गया था। धर्म-विचारात्मकता की ओर से रूढ़िवाद की तरफ़ बढ़ रहा था। यह धर्म की स्वस्थ अवस्था नहीं थी। धर्म पर कर्म कांड की प्रधानता हो चुकी थी। मठों की स्थापना होने लगी थी और मठाधीशों की परिस्थिति राजा महाराजाओं जैसी होने लगी थी। इन मठाधीशों का जनता पर प्रभाव था, क्योंकि जनता धर्म-भावना-प्रधान थी। यही कारण था कि इन मठाधीशों की शक्ति बहुत बढ़ी चढ़ी थी। उस युग में भी हमें मुसलमान मठाधीशों के ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं। निजामुद्दीन औलिया की प्रसिद्ध गाथा से इतिहास के विद्यार्थी सभी परिचित हैं। प्रारंभ में यह मठ धर्म के केंद्र थे, विद्या अध्ययन करने के लिए विश्वविख्यात विद्यालय थे, बड़े-बड़े विचारक और योगी यहाँ पर रहते थे। परंतु यह परिस्थिति अधिक समय तक न चल सकी। मानव जीवन में स्वार्थ और विलास की न्यूनताएँ कहीं बलवती होती हैं। इनके प्रभाव से परिस्थिति यहाँ तक गंभीर बनी कि वही ज्ञान के केंद्र, व्यभिचार, स्वार्थ और ऐश्वर्य के केंद्र बन गए। कर्म कांड का रूप बदलने लगा। यज्ञ पर जानवरों की बलि दी जाने लगी और कहते हैं कि कहीं-कहीं पर मानव की बलि भी दी जाती थी। अनार्य जातियों के कुछ देवी-देवताओं को भी हिंदू धर्म ने अपने में मिला लिया और उनकी पूजा भी होने लगी। जैसे काली की पूजा का विधान हमें वेदों में नहीं मिलता।

यह परिस्थिति अधिक दिन तक न रह सकी। जैन धर्म और बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हिंदू धर्म की इन्हीं खराबियों के कारण हुआ। यह दोनों ही धर्म एक प्रकार से हिंदू धर्म के रूपांतर हैं, सुधार है। हिंदू धर्म में इस काल के अंदर जो अवगुण या दोष भी उत्पन्न हो गए थे वह हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों में निहित नहीं थे। धर्म सिद्धांतों के निरूपण और उनके प्रयोग में दोष आ गए थे, उनके मूल में नहीं। जैन और बौद्ध धर्म के नवीन विचारकों ने हिंदू धर्म के उन दोषों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया और आवरण की सत्यता पर बल देकर धर्म देकर धर्म के नवीन दृष्टिकोण का निर्माण किया। हिंदू धर्म में कुछ प्रथाएँ ऐसी बनती चली गईं कि जिन्हें अंग्रेजी शासन काल में आकर सरकारी कानून द्वारा रोकने की आवश्यकता हुई। सती की प्रथा को हम इनके उदाहरण स्वरूप ले सकते हैं। ब्रह्म समाज ने इस प्रथा के विपरीत विद्रोह किया और फिर सरकार को अंत में नियम द्वारा यह प्रथा बंद करनी पड़ी। इस प्रकार अछूतों का मन्दिरों में जाना, कुओं पर चढ़ना इत्यादि पर आर्य समाज ने बल दिया, महात्मा गाँधी ने आंदोलन किए और वर्तमान शासन व्यवस्थाओं ने उन्हें मानकर कानून बना दिया।

हिंदू धर्म के आर्य-काल में नारी का स्थान पुरुष से किसी प्रकार भी कम नहीं था। नारी का स्थान स्वार्थी आचार्यों ने बराबर गिराकर यहाँ तक बना दिया कि उसे विद्या और समाज के क्षेत्रों के बाहर निकालकर घर की भित्तियों में बंद कर दिया। यह थी धर्म की गिरावट। अंग्रेजी शासन काल में स्त्री समाज पर पाश्चात्य नारी आंदोलनों का प्रभाव हुआ। आर्य समाज ने नारी-शिक्षा पर भी बल दिया और आज उनमें भी शिक्षा बढ़ती जा रही है। स्त्री-शिक्षा के लोप का जो प्रधान प्रभाव मालूम देता है वह मुसलमान शासन काल में मुसलमानी धर्म का हिंदू धर्म पर प्रभाव है। इसका प्रभाव समाज पर बुरा पड़ा क्योंकि बच्चों का निर्माण जितना स्त्रियों के हाथ में है उतना पुरुषों के हाथ में नहीं और बच्चों पर समाज और देश का भविष्य आधारित है।

इस प्रकार हमने हिंदू धर्म के गुण और अवगुणों पर संक्षिप्त रूप से विचार किया और देखा कि धर्म के अवगुणों का संबंध हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों से नहीं है। उनके व्यवहार और जीवन में प्रयोग से है। यदि आज भी हिंदू धर्म के सिद्धांतों को उनके मूल रूप में अपनाया जाए तो वह व्यक्ति और समाज के लिए लाभदायक सिद्ध होंगे। हिंदू धर्म की मूल धारा हिंदुओं के हृदयों में सतत प्रवाहित रही है और वह यही मूल आत्मा है जिसके बल पर आज तक हिंदू धर्म जीवित रह सका है।

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