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श्रम का महत्त्व

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संकेत बिंदु – (1) श्रम और महत्त्व का अर्थ (2) विभिन्न महापुरुषों और ग्रंथों के अनुसार श्रम (3) विकसित सभ्यता और महाशक्ति बनने में श्रम का महत्त्व (4) श्रम से लक्ष्य और लक्ष्मी को प्राप्ति (5) शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास।

जिस कार्य से शरीर पूरी तरह थक जाए, वह ही ‘श्रम’ है। अर्थ, उपयोग, परिणाम, प्रभाव, मूल्य की दृष्टि से अन्य से बढ़कर माना या समझे जाना तत्त्व ’महत्त्व’ है। इस प्रकार श्रम के महत्त्व से तात्पर्य हुआ- शरीर को थका देने वाले कार्य का मूल्य और प्रभाव, उपयोग और परिणाम सर्वाधिक होता है। श्रम की श्रेष्ठता, शक्तिमता, ऐश्वर्य तथा उन्नयन अतुलनीय है।

श्रम-साध्य पसीना मोती की बूँद बनता है। – अमृतलाल नागर, श्रम प्रेम को प्रत्यक्ष करता है। – जिब्रान, श्रम करने वाला मनुष्य प्रगाढ़ और मधुर निद्रा का आनंद लेता है। श्रम से स्वास्थ्य और स्वास्थ्य से संतोष उत्पन्न होता है। इसलिए श्रमी का चेहरा श्रम के गर्व से दीप्त होकर सुंदर लगता है।

श्रम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मनोरथ करने से नहीं। जैसे कि सोते हुए सिंह के मुख में मृग अपने आप प्रवेश नहीं करता।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा॥

महात्मा गाँधी का विचार है, ‘श्रम पूँजी से कहीं श्रेष्ठ है। मैं श्रम और पूँजी का विवाह करा देना चाहता हूँ। वे दोनों मिलकर आश्चर्यजनक काम कर सकते हैं।’ इतना ही नहीं, विचारपूर्वक किया हुआ श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाज-सेवा है।

ऋग्वेद का मत है, ‘मनुष्य अपने ध्येय को श्रम और तप से ही प्राप्त कर सकता है।’ ऋग्वेद के समर्थन में होमर कहता है,  ‘Labour Conquers all things.’ श्रम सभी पर विजयी होता है। सफोक्लीज भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहता है, ‘Without Labour nothing prospers. बिना श्रम के कोई भी उन्नति नहीं कर सकता। इसलिए कहा गया ‘श्रम एव जयते’, श्रम की सदा विजय होती है।

श्रम प्रभु का वरदान है। इसीलिए ऋग्वेद कहता है, ‘न मृधा श्रान्तं यदवन्ति देवा:।‘ और ‘न ऋते श्रांतस्य सख्याय देवाः’, जो श्रम नहीं करते उसके साथ देवता मित्रता नहीं करते। हजरत मोहम्मद वेदवाणी का समर्थन करते हुए कहते हैं – ‘जो समर्थ और सक्षम होते हुए भी अपने लिए अथवा दूसरों के लिए काम नहीं करता, उस पर परमेश्वर की कृपा-दृष्टि कभी नहीं होगी। इतना ही नहीं ‘ श्रम करके ईमान के साथ गुजारा करने वाले लोग परमेश्वर को बहुत प्रिय हैं।

श्रम चुंबक है। सब प्रकार की सुख-समृद्धि उसके आकर्षण में स्वयमेव खिंचती चली जाती है। थाली में रखा भोजन स्वयं मुँह में नहीं चला जाता। इसीलिए त्रिकाल सत्य घोषित हुआ कि श्रमी के घर के द्वार को भूख दूर से ताकती है, पर भीतर प्रवेश नहीं कर पाती।

सृष्टि के आदि से अद्यतन काल तक विकसित सभ्यता मानव के श्रम का ही परिणाम तो है। पाषाण युग से वर्तमान विज्ञान युग तक की वैभव संपन्नता की लंबी यात्रा श्रम की सार्थकता की एक ऐसी गाथा है, जो विश्व को पग-पग पर श्रम प्रेरणा की प्रसादी बाँट रही है।

अमेरिका, रूस, चीन, जापान, इजरायल, फ्रांस, स्विट्जरलैंड आदि देशों की उन्नति की नींव श्रम के स्वेद-बिंदुओं से सिंचित है। वहाँ के निवासियों के सतत एवं निष्ठापूर्ण परिश्रम ने ही उनके राष्ट्र को विश्व के शीर्षस्थ राष्ट्रों में ला बिठाया है।

द्वितीय महायुद्ध में क्षतिग्रस्त रूस, ग्रेट ब्रिटेन तथा जापान, आर्थिक और मानसिक रूप से जर्जर कल का चीन एवं स्थान-भ्रष्ट इजरायल पलक झपकते विश्व की महती शक्ति कैसे बन गए? एक ही उत्तर है- श्रम की कृपा से। ‘परिश्रम ही पूजा है, श्रम ही ईश्वर है’, इस सिद्धांत को अपनाने से। विश्व के सात महान आश्चर्य परिश्रम की महत्ता के द्योतक हैं। हजारों-लाखों श्रमिकों की निरंतर सेवा, त्याग, बलिदान की अकथनीय, अलुप्त कहानी है, जो महान आश्चर्यों के सौंदर्य दर्पण में अंत: चक्षुओं से देखी जा सकती है, अंतरात्मा से सुनी जा सकती है।

तप श्रम का ही पर्याय है। किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए श्रम को ‘तप’ कहते हैं। तप से नहुष इंद्रासन का अधिकारी बना; रावण लंकेश्वर बना; बार-बार हारने वाला अब्राहम लिंकन अंततः अमेरिका का राष्ट्रपति बना।

तप बल रचइ प्रपंचु विधाता। तपबल विष्णु सकल जग त्राता।

तपबल संधु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरहिं महि भारा॥

श्रम से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। श्रमहीन, आलसी, भाग्यवादी, निराश व्यक्ति से लक्ष्मी ऐसे दूर भागती है, जैसे युवा पत्नी वृद्ध पति से। लक्ष्मी के बिना सांसारिक सुख दुर्लभ है। यदि जगत में ही स्वर्ग-सम आनंद लेना है तो परिश्रम का आलिंगन अनिवार्य है।

जीवन की दौड़ में परिश्रम करने वाला विजयी रहता है। पढ़ाई में परिश्रम करने वाला छात्र परीक्षा में पास होता है, सीढ़ी-दर-सीढ़ी माँ शारदा के मंदिर की ओर अग्रसर होता है। नौकरी करने वाला कर्मचारी और व्यापार वाले करने व्यापारी की उन्नति का मूल उसके परिश्रम में निहित है। सफलता का रहस्य परिश्रम के रूप में है, ध्येय की दृढ़ता में है। बिड़ला, टाटा का बृहद् उद्योग-संसार उनके श्रम की मुँह बोलती मूर्ति है।

श्रम से शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है, कार्य में दक्षता आती है| जीवन में आत्म-विश्वास जागृत होता है, जो सफलता का मुख्य रहस्य है, पराक्रम का सार है, भावी उन्नति का प्रमुख सोपान है।

श्रम से जी चुराना अर्थात् अकर्मण्यता विनाश की पगडंडी है, मृत्यु का द्वार है। महाभारत में वेदव्यास जी ने लिखा है, ‘अकर्मण्य व्यक्ति सम्मान से भ्रष्ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान असह्य दुख भोगता हैं। गाँधी जी ने अकर्मण्य को चोर बताया है,’ जो कर्म किए बिना भोजन करते हैं, वे चोर हैं।

परिश्रम की पूर्णता सतत नर्मशीलता में है, ध्येय के प्रति निष्ठापूर्ण साधना में है, मन- मस्तिष्क को एकाग्रचित करने में है। जीवन को पूर्णतः ध्येय के प्रति समर्पित करने में है।

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