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जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी प्यारी हैं

motherland is superior than paradise janmbhumi shreshth hai par hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) संसार में सर्वोच्च पर (2) जननी का मातृत्व रूप संसार की सबसे बड़ी साधना (3) मनुष्य पर अनेक उपकार (4) पद्म पुराण के अनुसार स्वर्ग की विशेषताएँ (5) उपसंहार।

लंका की समृद्धि और सौंदर्य को देखकर लक्ष्मण ने श्री राम से कहा, ‘क्यों न हम लंका को अपनी राजधानी बना लें।’ इस पर श्री राम ने कहा- ‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ हे लक्ष्मण ! लंका भले ही  स्वर्णमयी है, फिर भी मुझे वह रुचती नहीं, क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ होती हैं। जन्म देने के कारण ही माँ ’जननी’ कही जाती है तो जिस भूमि पर हम जन्म लेते हैं, जिसके अन्न-जल से हमारा पोषण होता है; वह जन्मभूमि कहलाती है।

जननी जन्म देकर इहलोक के दर्शन कराती है, इसलिए संसार में उसका पद सर्वोच्च। ‘भूमेः गरीयसी माता’ (माँ भूमि से भी बड़ी है।) इसीलिए कहा गया है। भास के शब्दों में मनुष्य के लिए तो माता अवश्य ही देवताओं की भी देवता है। (माता किल मनुष्याणां देवतानां च दैवतम्) जन्मभूमि के अन्न और जल से हमने जीवन पाया है। उसकी सभ्यता और संस्कृति ने हमें जीवन मूल्यों का ज्ञान दिया है, इसलिए वह पूज्य है। स्वर्ग की भावना मृत्यु के उपरांत सुख-शांति के निवास की कल्पना है। जीवन में पुण्यात्मा बनने की प्रेरणा नहीं, इसलिए वह जननी और जन्मभूमि से श्रेष्ठतर नहीं।

मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में ‘जननी का मातृत्व रूप संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है।’ दूसरी ओर, जगत में पालन- पोषण, क्रीड़ाकर्म तथा उपसंहार का संपूर्ण श्रेय मातृभूमि को है, इसलिए वह पुण्यमयी है। स्वर्ग काल्पनिक जीवन में सुख और ऐश्वर्य का आधार हो सकता है, इसलिए वह जीवन की आवश्यकता है, पर न वह माता और मातृभूमि के समान पूज्य है और न ही महान।

जन्म देने के बाद माता अपने अमृतमय दूध से बालक का पालन-पोषण करती है। इसलिए उसके दूध का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। वह वाणी देकर बालक के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए वह आचार्यों और पिता से भी बड़ी मानी गई, सर्वश्रेष्ठ गुरु समझी गई।

माता के समान ही मातृभूमि के भी मनुष्य पर अनेक उपकार हैं। अतः वह परम श्रेष्ठ है, वंदनीया है। मातृभूमि की कृपा का वर्णन करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं, ‘हे मातृभूमि ! तुम क्षमामयी हो, इसलिए अपने पुत्रों के अपराधों को बिना किसी दंड दिए छोड़ देती हो। तुम दयामयी हो, इसलिए दुःखियों और पीड़ितों के कष्ट, दुख दूर करने में प्रवृत्त रहती हो। क्षेममयी हो, इसलिए विपत्ति, संकट, हानि में प्राणी की रक्षा करती हो। तुम सुधामयी हो, इसलिए अमृत के समान जीवन (जल) प्रदान करती हो। तुम वात्सल्यमयी हो, इसलिए प्राणी पर अपार स्नेह बरसाती हो। तुम प्रेममयी हो, इसलिए प्राणी से प्रीति करती हो। विभवशालिनी हो, इसलिए प्राणी पर धन-संपत्ति और ऐश्वर्य लुटाती हो। तुम विश्वपालिनी हो, इसलिए प्राणिमात्र का पालन-पोषण करती हो। तुम दुख हर्त्री हो, इसलिए प्राणि के आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आधिदैहिक दुखों को दूर करती हो। भयनिवारिणी हो, अतः अनिष्ट या संकट-सूचक संभावना से उत्पन्न स्थिति में प्राणी को चिंतित और विकल नहीं होने देतीं। तुम शांतिकारिणी हो, अतः प्राणी के मन में उत्पन्न उपद्रव, क्रोध, उग्रता का दमन करती हो। सुखकर्त्री हो, इसलिए प्राणी के अनुकूल या अभीप्सित वातावरण बनाती हो। जिस पर मनुष्य अपना सर्वस्व अर्पण करने को प्रस्तुत हो, उससे बढ़कर दूसरी क्या श्रद्धास्पद वस्तु हो सकती है?

स्वर्ग में क्या है? लोग स्वर्ग की कामना क्यों करते हैं? यह भी जान लेना चाहिए। पद्म पुराण के भूखंड अध्याय में स्वर्ग की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है-

स्वर्ग में अत्यंत रमणीय नंदनवन है, वहाँ कल्पवृक्ष आदि हैं, जो सब कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं। वहाँ अद्भुत प्रकार के रस और आनंद हैं। सुंदर विलास भवन हैं। चंद्रमंडल के समान श्वेत परिच्छदों से युक्त स्वर्ण निर्मित रंभाएँ हैं। वहाँ सब प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति होती है। सुख और दुख, दोनों से अमर है। वहाँ न रोग है, न शोक है, न जरा (बुढ़ापा) है, न मृत्यु है। न गर्मी है न सर्दी है। न वहाँ किसी को भूख सताती है और न प्यास व्याकुल करती है। न वहाँ किसी को किसी प्रकार की ग्लानि होती है। पुण्यकर्मा प्राणी ही वहाँ जाकर सुखपूर्वक विचरण करते हैं।

पर यह सब कुछ तो मरणोपरांत है। स्वर्ग की आशा करना बगल का छोड़कर पेट के पुत्र की आशा करना है; पर माता और मातृभूमि तो प्रत्यक्ष हैं। इनका अहसान जन्म से लेकर मृत्यु तक पग-पग पर हमें दिखाई देता है। अतः ये दोनों स्वर्ग से महान हैं।

हजरत मोहम्मद माता को स्वर्ग से अधिक महत्ता प्रदान करते हैं-”तेरा स्वर्ग तेरी माँ के पैरों के तले है। मातृभूमि की सेवा में तेरा ‘बहिश्त’ है। “

जिस जन्मभूमि पर आकर जन्म लेने के लिए स्वर्ग के निवासी देवता भी जननी के गर्भ से जन्म पाने के लिए तरसते हों, वह जननी और जन्मभूमि निश्चित ही श्रद्धास्पद होगी, स्वर्ग से श्रेष्ठ होगी और पूज्य होगी।

‘जननी’ शब्द वह समुद्र तट है जिसके पीताश्रम पर सभी आत्माओं को आश्रय मिलता है। जन्मभूमि वह विशाल सागर है, जिसमें डुबकी लगाकर आत्मा जीवन जीने की शैली तथा सभ्यता और संस्कृति का दामन पकड़ती है। इसलिए दोनों का महत्त्व है। इनके सम्मुख स्वर्ग फीका है। उर्दू कवि दाग के शब्दों में- ‘ऐसी जन्नत को क्या करे कोई?’

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