फणीश्वर नाथ रेणु
जन्म : 4 मार्च, सन् 1921, औराही हिंगना (ज़िला पूर्णिया अब अररिया) बिहार में
प्रमुख रचनाएँ : मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, जुलूस, कितने चौराहे (उपन्यास); ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप (कहानी-संग्रह); ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व (संस्मरण); नेपाली क्रांति कथा (रिपोर्ताज); तथा रेणु रचनावली (पाँच खंडों में समग्र)
निधन : 11 अप्रैल, सन् 1977 पटना में
कुछ ऐसे चरित्र होते हैं जो प्राण-प्रतिष्ठा पाते ही अपने सिरजनहार के बँधे-बँधाए
नियम-कानून, नीति अथवा फ़ार्मूले को तोड़कर बाहर निकल आते हैं
हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जीवन उतार-चढ़ावों एवं संघर्षों से भरा हुआ था। साहित्य के अलावा विभिन्न राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में भी उन्होंने सक्रिय भागीदारी की। उनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही।
सन् 1954 में उनका बहुहर्चित आंचलिक उपन्यास मैला आँचल प्रकाशित हुआ जिसने हिंदी उपन्यास को एक नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श मैला आँचल से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की अवधारणा ने कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को केंद्र में ला खड़ा किया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोकसंस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज़ एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है इसीलिए उनका यह अंचल एक तरफ़ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ़ धूल भरा और मैला भी। स्वतंत्र्योत्तर भारत में जब सारा विकास शहर-केंद्रित होता जा रहा था। ऐसे में रेणु ने अपनी रचनाओं से अंचल की समस्याओं की ओर भी लोगों का ध्यान खींचा। उनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। फणीश्वर नाथ रेणु की प्रतिनिधि कहानियों में पहलवान की ढोलक भी शामिल है।
कहानी का सामान्य परिचय
यह कहानी कथाकार रेणु की समस्त विशेषताओं को एक साथ अभिव्यक्त करती है। रेणु की लेखनी में अपने गाँव, अंचल एवं संस्कृति को सजीव करने की अद्भुत क्षमता है। ऐसा लगता है मानो हरेक पात्र वास्तविक जीवन ही जी रहा हो। पात्रों एवं परिवेश का इतना सच्चा चित्रण अत्यंत दुर्लभ है। रेणु वैसे गिने-चुने कथाकारों में से हैं जिन्होंने गघ में भी संगीत पैदा कर दिया है, अन्यथा ढोलक की उठती-गिरती आवाज़ और पहलवान के क्रियाकलापों का ऐसा सामंजस्य दुर्लभ है।
इन विशेषताओं के साथ रेणु की यह कहानी व्यवस्था के बदलने के साथ लोक-कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है। राजा साहब की जगह नए राजकुमार का आकर जम जाना सिर्फ़ व्यक्तिगत सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि ज़मीनी पुरानी व्यवस्था के पूरी तरह उलट जाने और उस पर सभ्यता के नाम पर एकदम नयी व्यवस्था के आरोपित हो जाने का प्रतीक है। यह ‘भारत’ पर ‘इंडिया’ के छा जाने की समस्या है, जो लुट्टन पहलवान को लोक-कलाकार के आसन से उठा कर पेट-भरने के लिए हाय-तौबा करने वाली निरीहता की भूमि पर पटक देती है। ऐसी स्थिति में गाँव की गरीबी पहलवानी जैसे शौक को क्या पालती? फिर भी, पहलवान जीवट ढोल के बोल में अपने आपको न सिर्फ़ जिलाए रखता है, बल्कि भूख व महामारी से दम तोड़ रहे गाँव को मौत से लड़ने की ताकत भी देते रहता है। कहानी के अंत में भूख-महामारी की शक्ल में आए मौत के षड्यंत्र जब अजेय लुट्टन की भरी-पूरी पहलवानी को फटे ढोल की पोल में बदल देते हैं, तो इस करुणा/त्रासदी में लु ‘ न हमारे सामने कई सवाल छोड़ जाता है। वह पोल पुरानी व्यवस्था की है या नयी व्यवस्था की? क्या कला की प्रासंगिकता व्यवस्था की मुखापेक्षी है अथवा उसका कोई स्वतंत्र मूल्य भी है? मनुष्यता की साधना और जीवन-सौंदर्य के लिए लोक कलाओं को प्रासंगिक बनाए रखने हेतु हमारी क्या भूमिका हो सकती है? निश्चय ही यह पाठ हमारे मन में कई ऐसे प्रश्न छोड़ जाता है।
पहलवान की ढोलक – प्रतिपाद्य
‘पहलवान की ढोलक’ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित एक श्रेष्ठ कहानी है। फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। प्रस्तुत कहानी उनकी एक आंचलिक कहानी है, जिसमें उन्होंने भारत पर इंडिया के छा जाने की समस्या को प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। यह व्यवस्था बदलने के साथ लोक कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है। यह कहानी हमारे समक्ष व्यवस्था की पोल खोलती है। साथ ही व्यवस्था के कारण लोक कलाओं के लुप्त होने की ओर संकेत भी करती है तथा हमारे सामने ऐसे अनेक प्रश्न पैदा करती है कि यह सब क्यों हो रहा है? प्रस्तुत कहानी की भाषा सरल, सरस व स्वाभाविक बोलचाल की है। इसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से इनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है।
पहलवान की ढोलक – सारांश
श्यामनगर के समीप का एक गाँव सरदी के मौसम में मलेरिया और हैजे से ग्रस्त था। चारों ओर सन्नाटे से युक्त बाँस-फूस की झोंपड़ियाँ खड़ी थीं। रात्रि में घना अँधेरा छाया हुआ था। चारों ओर करुण सिसकियों और कराहने की आवाजें गूँज रही थीं। सियारों और पेचक की भयानक आवाजें इस सन्नाटे को बीच-बीच में अवश्य थोड़ा-सा तोड़ रही थीं। इस भयंकर सन्नाटे में कुत्ते समूह बाँधकर रो रहे थे। रात्रि भीषणता और सन्नाटे से युक्त थी, लेकिन लुट्टन पहलवान की ढोलक इस भीषणता को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इसी पहलवान की ढोलक की आवाज इस भीषण सन्नाटे से युक्त मृत गाँव में संजीवनी शक्ति भर रही थी।
लुट्टन सिंह के माता-पिता नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे छोड़कर चले गए थे। उसकी बचपन में शादी हो चुकी थी, इसलिए विधवा सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। ससुराल में पलते-बढ़ते वह पहलवान बन गया था। एक बार श्यामनगर में एक मेला लगा। मेले के दंगल में लुट्टन सिंह ने एक पंजाब के प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को चुनौती दे डाली, जो शेर के बच्चे के नाम से जाना जाता था। श्यामनगर के राजा ने बहुत कहने के बाद ही लुट्टन सिंह को उस पहलवान के साथ लड़ने की आज्ञा दी, क्योंकि वह एक बहुत प्रसिद्ध पहलवान था।
लुट्टन सिंह ने ढोलक की ‘धिना धिना धिकधिना’, आवाज से प्रेरित होकर चाँद सिंह पहलवान को बड़ी मेहनत के बाद चित कर दिया। चाँद सिंह के हारने के बाद लुट्टन सिंह की जय-जयकार होने लगी और वह लुट्टन सिंह पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे अपने दरबार में रख लिया। अब लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। लुट्टन सिंह पहलवान की पत्नी भी दो पुत्रों को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थी।
लुट्टन सिंह अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बनाना चाहता था, इसलिए वह बचपन से ही उन्हें कसरत आदि करवाने लग गया। उसने बेटों को दंगल की संस्कृति का पूरा ज्ञान दिया। लेकिन दुर्भाग्य से एक दिन उसके वयोवृद्ध राजा श्यामानंद का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् विलायत से नए महाराज आए। राज्य की गद्दी संभालते ही नए राजा साहब ने अनेक परिवर्तन कर दिए।
दंगल का स्थान घोड़ों की रेस ने ले लिया। बेचारे लुट्टन सिंह पहलवान पर कुठाराघात हुआ। वह हतप्रभ रह गया। राजा के इस रवैये को देखकर लुट्टन सिंह अपनी ढोलक कंधे में लटकाकर बच्चों सहित अपने गाँव वापस लौट आया। वह गाँव के एक किनारे पर झोंपड़ी में रहता हुआ नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। गाँव के किसान व खेतिहर मजदूर भला क्या कुश्ती सीखते।
अचानक गाँव में अनावृष्टि अनाज की कमी, मलेरिया, हैजे आदि भयंकर समस्याओं का वज्रपात हुआ। चारों ओर लोग भूख, हैजे और मलेरिये से मरने लगे। सारे गाँव में तबाही मच गई। लोग इस त्रासदी से इतना डर गए कि सूर्यास्त होते ही अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते थे। रात्रि की विभीषिका और सन्नाटे को केवल लट्टन सिंह पहलवान की ढोलक की तान ही ललकारकर चुनौती देती थी। यही तान इस भीषण समय में धैर्य प्रदान करती थी। यही तान शक्तिहीन गाँववालों में संजीवनी शक्ति भरने का कार्य करती थी। पहलवान के दोनों बेटे भी इसी भीषण विभीषिका के शिकार हुए। प्रातः होते ही पहलवान ने अपने दोनों बेटों को निस्तेज पाया। बाद में वह अशांत मन से दोनों को उठाकर नदी में बहा आया। लोग इस बात को सुनकर दंग रह गए। इस असह्य वेदना और त्रासदी से भी पहलवान नहीं टूटा। एक दिन गाँव वालों को लुट्टन पहलवान की ढोलक रात में नहीं सुनाई दी। सुबह उसके कुछ शिष्यों ने जाकर देखा तो पहलवान की लाश चित्त पड़ी हुई थी।
पहलवान की ढोलक
जाड़े का दिन। अमावस्या की रात – ठंडी और काली। मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! अँधेरा और निस्तब्धता!
अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।
सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़, ‘हरे राम! हे भगवान!’ की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘माँ-माँ’ पुकारकर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी।
कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी – सिर्फ़ पहलवान की ढोलक! संध्या से लेकर प्रातःकाल तक एक ही गति से बजती रहती – ‘चट्-धा, गिड़-धा,…चट्-धा, गिड़-धा!’ यानी ‘आ जा भिड़ जा, आ जा, भिड़ जा!’… बीच-बीच में – ‘चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट्-धा!’ यानी ‘उठाकर पटक दे!
उठाकर पटक दे!!’ यही आवाज़ मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
लुट्टन सिंह पहलवान!
यों तो वह कहा करता था – ‘लुट्टन सिंह पहलवान को होल इंडिया भर के लोग जानते चट्-धा, गिड़ .. – धा, . आ जा भि ड़ जा चट्-धा, गिड़ .. – धा, . आ जा भिड़ जा हैं’, किंतु उसके ‘होल-इंडिया’ की सीमा शायद एक ज़िले की सीमा के बराबर ही हो। ज़िले भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे।
लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल-पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ़ दिया करते थे लुट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था।
एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे’ को चुनौती दे दी।
‘शेर के बच्चे’ का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे’ की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था।
श्यामनगर के दंगल और शिकार-प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की बातें कर ही रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। सम्मान-प्राप्त चाँद सिंह पहले तो किंचित, उसकी स्पर्धा पर मुसकुराया फिर बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा।
शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गई – ‘पागल है पागल, मरा – ऐं! मरा-मरा!’… पर वाह रे बहादुर! लुट्टन बड़ी सफ़ाई से आक्रमण को सँभालकर निकलकर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। अंत में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपये का नोट देकर कहने लगे –
“जाओ, मेला देखकर घर जाओ!…”
“ नहीं सरकार, लड़ेंगे… हुकुम हो सरकार…!”
“तुम पागल हो, …जाओ!…”
मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया – “देह में गोश्त नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्चे से! सरकार इतना समझा रहे हैं…!!”
“दुहाई सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाऊँगा… मिले हुकुम!” वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता रहा था। भीड़ अधीर हो रही थी।
बाजे बंद हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था – “उसे लड़ने दिया जाए!”
अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुसकुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाज़ा उसे मिल गया था।
विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी – “लड़ने दो!” बाजे बजने लगे। दर्शकों में फिर उत्तेजना फैली। कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बंद करके दौड़े – “चाँद सिंह की जोड़ी-चाँद की कुश्ती हो रही है!!”
‘चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा…’
भरी आवाज़ में एक ढोल-जो अब तक चुप था – बोलने लगा –
‘ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना, ढाक् -ढिना…’ (अर्थात्-वाह पट्ठे ! वाह पट्ठे !!)
लुट्टन को चाँद ने कसकर दबा लिया था।
“अरे गया-गया!!” दर्शकों ने तालियाँ बजाईं – “हलुआ हो जाएगा, हलुआ.! हँसी-खेल नहीं-शेर का बच्चा है…बच्चू!”
‘चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा…’ (मत डरना, मत डरना, मत डरना…) लुट्टन की गर्दन पर केहुनी डालकर चाँद ‘चित्त’ करने की कोशिश कर रहा था।
“वहीं दफ़ना दे, बहादुर!” बादल सिंह अपने शिष्य को उत्साहित कर रहा था।
लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत चाँद के पक्ष में था। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लुट्टन के पक्ष में सिर्फ़ ढोल की आवाज़ थी, जिसकी ताल पर वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था – अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज़ सुनाई पड़ी –
‘धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना…!!’
लुट्टन को स्पष्ट सुनाई पड़ा, ढोल कह रहा था – “दाँव काटो, बाहर हो जा दाँव काटो, बाहर हो जा!!”
लोगों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, लुट्टन दाँव काटकर बाहर निकला और तुरंत लपककर उसने चाँद की गर्दन पकड़ ली।
“वाह रे मिट्टी के शेर!”
“अच्छा! बाहर निकल आया? इसीलिए तो….।”
जनमत बदल रहा था। मोटी और भौंड़ी आवाज़ वाला ढोल बज उठा –
‘चटाक्-चट्-धा,चटाक्-चट्-धा…'(उठा पटक दे! उठा पटक दे!!)
लुट्टन ने चालाकी से दाँव और ज़ोर लगाकर चाँद को ज़मीन पर दे मारा।
‘धिना-धिना, धिक-धिना!'(अर्थात् चित करो, चित करो!!) लुट्टन ने अंतिम ज़ोर लगाया – चाँद सिंह चारों खाने चित हो रहा।
‘धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़,’…(वाह बहादुर! वाह बहादुर!! वाह बहादुर!!)
जनता यह स्थिर नहीं कर सकी कि किसकी जय-ध्वनि की जाए। फलतः अपनी-अपनी इच्छानुसार किसी ने ‘माँ दुर्गा की’, ‘महावीर जी की’, कुछ ने राजा श्यामानंद की जय-ध्वनि की। अंत में सम्मिलित ‘जय!’ से आकाश गूँज उठा।
विजयी लुट्टन कूदता-फाँदता, ताल-ठोंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया।
राजा साहब के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपत्ति की – “हें-हें…अरे-रे!” किंतु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा – “जीते रहो, बहादुर! तुमने मिट्टी की लाज रख ली!”
पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुँह बिचकाया – “हुजूर! जाति का … सिंह…!” मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। ‘क्लीन-शेव्ड’ चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले – “हाँ सरकार, यह अन्याय है!”
राजा साहब ने मुसकुराते हुए सिर्फ़ इतना ही कहा – “उसने क्षत्रिय का काम किया है।”
उसी दिन से लुट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सूँघाकर आसमान दिखा दिया।
काला खाँ के संबंध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लँगोट लगाकर ‘आ-ली’ कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है लुट्टन ने उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया।
उसके बाद से वह राज-दरबार का दर्शनीय ‘जीव’ ही रहा। चिड़ियाखाने में पिंजड़े और ज़ंजीरों को झकझोर कर बाघ दहाड़ता – ‘हाँ -ऊँ, हाँ-ऊँ!!’ सुनने वाले कहते – ‘राजा का बाघ बोला।’ ठाकुरबाड़े के सामने पहलवान गरजता – ‘महा-वीर!’ लोग समझ लेते, पहलवान बोला।
मेलों में वह घुटने तक लंबा चोगा पहने, अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। दुकानदारों को चुहल करने की सूझती। हलवाई अपनी दुकान पर बुलाता – “पहलवान काका! ताज़ा रसगुल्ला बना है, ज़रा नाश्ता कर लो!”
पहलवान बच्चों की-सी स्वाभाविक हँसी हँसकर कहता – “अरे तनी-मनी काहे! ले आव डेढ़ सेर!” और बैठ जाता।
दो सेर रसगुल्ला को उदरस्थ करके, मुँह में आठ-दस पान की गिलोरियाँ ठूँस, ठूँसी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल से मेले में घूमता। मेले से दरबार लौटने के समय उसकी अजीब हुलिया रहती – आँखों पर रंगीन अबरख का चश्मा, हाथ में खिलौने को नचाता और मुँह से पीतल की सीटी बजाता, हँसता हुआ वह वापस जाता। बल और शरीर की वृद्धि के साथ बुद्धि का परिणाम घटकर बच्चों की बुद्धि के बराबर ही रह गया था उसमें।
दंगल में ढोल की आवाज़ सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदर्शन करना शुरू कर देता था। उसकी जोड़ी तो मिलती ही नहीं थी, यदि कोई उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लुट्टन को आज्ञा ही नहीं देते। इसलिए वह निराश होकर, लंगोट लगाकर देह में मिट्टी मल और उछालकर अपने को साँड़ या भैंसा साबित करता रहता था। बूढ़े राजा साहब देख-देखकर मुसकुराते रहते।
यों ही पंद्रह वर्ष बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों को लेकर उतरता था। पहलवान की सास पहले ही मर चुकी थी, पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी। दोनों लड़के पिता की तरह ही गठीले और तगड़े थे। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता – “वाह! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ऐ दोनों बेटे!”
दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे। अतः दोनों का भरण-पोषण दरबार से ही हो रहा था। प्रतिदिन प्रातःकाल पहलवान स्वयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में, लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की भी शिक्षा देता – “समझे! ढोलक की आवाज़ पर पूरा ध्यान देना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे! ढोल की आवाज़ के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतरकर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!”… ऐसी ही बहुत-सी बातें वह कहा करता। फिर मालिक को कैसे खुश रखा जाता है, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए, आदि की शिक्षा वह नित्य दिया करता था।
किंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा, सब किए-कराए पर एक दिन पानी फिर गया। वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय शिथिलता आ गई थी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत से परिवर्तन हुए। उन्हीं परिवर्तनों की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया।
पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन-व्यय सुनते ही राजकुमार ने कहा – “टैरिबुल!”
नए मैनेजर साहब ने कहा – “हौरिबुल!”
पहलवान को साफ़ जवाब मिल गया, राज-दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं। उसको गिड़गिड़ाने का भी मौका नहीं दिया गया।
उसी दिन वह ढोलक कंधे से लटकाकर, अपने दोनों पुत्रों के साथ अपने गाँव में लौट आया और वहीं रहने लगा। गाँव के एक छोर पर, गाँव वालों ने एक झोंपड़ी बाँध दी। वहीं रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। खाने-पीने का खर्च गाँववालों की ओर से बँधा हुआ था। सुबह-शाम वह स्वयं ढोलक बजाकर अपने शिष्यों और पुत्रों को दाँव-पेंच वगैरा सिखाया करता था। गाँव के किसान और खेतिहर-मज़दूर के बच्चे भला क्या खाकर कुश्ती सीखते! धीरे-धीरे पहलवान का स्कूल खाली पड़ने लगा। अंत में अपने दोनों पुत्रों को ही वह ढोलक बजा-बजाकर लड़ाता रहा-सिखाता रहा। दोनों लड़के दिन भर मज़दूरी करके जो कुछ भी लाते, उसी में गुज़र होती रही। अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैज़े ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया।
गाँव प्रायः सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोज़ दो-तीन लाशें उठने लगीं। लोगों में खलबली मची हुई थी। दिन में तो-कलरव, हाहाकार तथा हृदय-विदारक रुदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में सूर्योदय होते ही लोग काँखते-कूँखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढ़स देते थे – “अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन! जो गया सो तो चला गया, वह तुम्हारा नहीं था; वह जो है उसको तो देखो।” “भैया! घर में मुर्दा रखके कब तक रोओगे? कफ़न? कफ़न की क्या ज़रूरत है, दे आओ नदी में।” इत्यादि।
किंतु, सूर्यास्त होते ही जब लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते तो चूँ भी नहीं करते। उनकी बोलने की शक्ति भी जाती रहती थी। पास में दम तोड़ते हुए पुत्र को अंतिम बार ‘बेटा!’ कहकर पुकारने की भी हिम्मत माताओं की नहीं होती थी।
रात्रि की विभीषिका को सिर्फ़ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस खयाल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढे़-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।
जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल की चपेटाघात में पडे़, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था – “बाबा! उठा पटक दो वाला ताल बजाओ!”
‘चटाक्-चट-धा, चटाक्-चट-धा…’ सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान। बीच-बीच में पहलवानों की भाषा में उत्साहित भी करता था। – “मारो बहादुर!”
प्रातःकाल उसने देखा – उसके दोनों बच्चे ज़मीन पर निस्पंद पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दाँत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी। एक लंबी साँस लेकर पहलवान ने मुसकुराने की चेष्टा की थी – “दोनों बहादुर गिर पड़े!”
उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली। सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गई।
किंतु, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज़, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा – “दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!”
चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण शिष्यों ने प्रातःकाल जाकर देखा – पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है।
आँसू पोंछते हुए एक ने कहा – “गुरु जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के बल सुलाना। मैं जिंदगी में कभी ‘चित’ नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना।” वह आगे बोल नहीं सका।
शब्दार्थ
1. भयार्त्त- भय के कारण चीख-पुकार मचाना
2. सम्मिलित- मिलाया हुआ
3. क्रंदन- रोना
4. पेचक- उल्लू
5. निस्तब्धता- चुप्पी
6. कैकरना- उलटी करना
7. ताड़ना- भाँपना
8. घूरा- गंदगी का ढेर
9. संजीवनी- जीवन देने वाली
10. भीषणता- भयंकरता
11. अनुसरण- पीछे-पीछे चलना
12. धारोष्ण- गर्म दूध
13. सीना- छाती
14. सुडौल- सुंदर
15. मांसल- जिस पर मांस चढ़ग याहो
16. दुलकी- उछलना
17. पैंतरा- दाव-पेंच
18. गोश्त- मांस
19. जयामत- सभा
20. उत्तेजित- जोश में आना
21. पक्ष- समर्थन
22. विवश- मज़बूर करना
23. चित्त करना-पीठ लगाना
24. मुँह बिचकाना-घृणा का भाव
25. कीर्ति- यश
26. पौष्टिक- Hygienic
27. संकुचित- सिकुड़ा हुआ
28. लकवा मारना- पंगु हो जाना
29. चुहल- शरारत
30. उदरस्थ- पेट में डालकर
31. अबरख- रंगीन चमकीला कागज़
32. अजेय- जिसे कोई जीत न सके
33. प्रताप- शक्ति
34. विलायत- विदेश
35. शिथिलता- धीमा पड़ना
36. व्यय- खर्च
37. टैरिबुल- भयानक
38. कलरव- शोर
39. प्रभा- ज्योति
40. आत्मीय- अपने
41. ढाढ़स देना- तसल्ली देना
42. विभीषिका- भयानक स्थिति
43. पथ्यविहीन- इलाज़ से वंचित
44. स्नायु- नसें
45. सर्वनाश-सबकुछ नष्ट हो जाना
46. दिलेर- बहादुर
47. रुग्ण- बीमार
48. चित्त- पीठ के बल
पाठ के साथ
1. कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए।
उत्तर – कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए।
उत्तर : कुश्ती के समय ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेंच में अद्भुत तालमेल था। ढोल बजते ही लुट्टन की रगों में खून बिजली की तरह दौड़ने लगता था। उसे हर थाप में नए दाँव-पेंच सुनाई पड़ते थे। ढोल की आवाज उसे साहस प्रदान करती थी। ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेंच में निम्नलिखित तालमेल था =
धाक-धिना, तिरकट तिना – दाँव काटो, बाहर हो जाओ।
चटाक् चट्-धा – उठा पटक दे।
धिना धिना धिक-धिना – चित करो, चित करो।
ढाक्-ढिना – वाह पठ्ठे।
चट-गिड़-धा – मत डरना।
ये ध्वन्यात्मक शब्द हमारे मन में उत्साह का संचार करते हैं।
2. कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए?
उत्तर – 1. नौ वर्ष की आयु में ही लुट्टन के माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उसकी शादी बचपन में ही हो गई थी इसलिए उसका पालन-पोषण उसकी विधवा सास ने ही किया। सास पर हुए अत्याचारों को देख-कर बदला लेने के लिए वह पहलवानी करने लगा।
2. किशोरावस्था में उसने श्यामनगर में लगने वाले मेले में चाँद सिंह नामक पहलवान को हराया, जिससे उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। उसने नियमित कसरत और व्यायाम के बलबूते पर ‘काला खाँ’ जैसे प्रसिद्ध पहलवानों को हराया तथा एक अजेय पहलवान बन गया।
3. वह पंद्रह वर्ष तक राजदरबार में रहा। उसने अपने दोनों बेटों को भी पहलवानी सिखाई। राजा साहब के स्वर्गवास के बाद नए राजा ने उसे दरबार से हटा दिया और वह गाँव लौट आया।
4. गाँव आकर उसने गाँव के बाहर अपना अखाड़ा बनाया तथा ग्रामीण युवकों को कुश्ती सिखाने लगा।
5. गाँव में अचानक महामारी फैल गई जिससे गाँव में सूखा पड़ गया तथा चारों ओर लोग हैज़े और मलेरिया के शिकार हो गए। उसके दोनों बेटे भी इसी विभीषिका में मारे गए और अंतत: रात्रि में एक दिन लुट्टन सिंह भी मृत्यु को प्राप्त हो गया।
3. लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है?
उत्तर – ‘उसका गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है’ लुट्टन पहलवान ने अपने बेटों से ऐसा कहा, क्योंकि उसने किसी पहलवान से कुश्ती के दाँव-पेंच नहीं सीखे थे और न ही उसका लक्ष्य एक पहलवान बनना था। वह तो बचपन में गाय चराता हुआ गायों की धार का गरम दूध पिया करता था। इसी से उसका शरीर हट्टा-कट्टा हो गया था। वह तो उन लोगों से बदला लेने के लिए कसरतें करता था जिन्होंने उसकी सास पर अत्याचार किए थे। जब श्यामनगर में वह मेला देखने गया, तो वहाँ के दंगल में ढोल बज रहा था तथा पहलवान कुश्ती कर रहे थे। अचानक ही वह पहलवान से लड़ने हेतु अखाड़े में कूद पड़ा और अंत में उसने ढोल की थापों से प्रेरणा लेते हुए पंजाब के प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को हरा दिया।
4. गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहांत के बावजूद लुट्टन पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा?
उत्तर – लुट्टन पहलवान का ढोल की थापों के साथ गहरा जुड़ाव था। यह आवाज उसकी नसों में बिजली का संचालन करती थी, उसे उत्तेजित करती थी। उसमें जीवंतता भरती थी। इस प्रकार उसे जीवित रहने के लिए ढोल की आवश्यकता थी। वह यह भी समझता था कि यह ढोल की आवाज़ न केवल उसे वरन् औरों को भी उत्साह देती है। ढ़ोल की आवाज़ मरणासन्न लोगों में भी संजीवनी फूँकती थी। इस कारण वह महामारी फैलने के दौरान भी ढोल बजाता रहा। अपने बेटों की मृत्यु के बावजूद भी उसने सन्नाटे को तोड़ने के लिए, गाँववालों के जीवन के उत्साह को बनाए रखने के लिए ढोल बजाना जारी रखा।
5. ढोलक की आवाज़ का पूरे गाँव पर क्या असर होता था?
उत्तर – महामारी की त्रासदी से जूझते हुए ग्रामीणों को ढोलक की आवाज़ धैर्य, साहस, ज़िंदादिली और स्फूर्ति प्रदान करती थी। उपचार व पथ्य विहीन लोगों में संजीवनी शक्ति की तरह मौत से लड़ने का हौसला देती थी। यह आवाज़ बूढ़े-बच्चों व जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य उपस्थित कर देती थी। उनकी स्पंदन शक्ति से शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। मरते हुए प्राणियों को भी आँख मूँदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी तथा लोग मृत्यु से भी नहीं डरते थे। इसे सुनकर लोगों के मन में जीने की नई उमंग पैदा हो जाती थी।
6. महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में क्या अंतर होता था?
उत्तर – महामारी फैलने के बाद सूर्योदय और सूर्यास्त के बाद के दृश्य बिलकुल भिन्न होते थे। सूर्योदय के पश्चात् दिन-भर गाँव में हलचल रहती थी। बीमार लोग चीत्कार करते थे, रुदन करते थे किंतु फिर भी उनके चेहरों पर एक चमक रहती थी। वे सुबह होते ही खाँसते कराहते स्वजनों के पास जाकर उन्हें सांत्वना दिया करते थे। इस प्रकार उनका जीवन उत्साहमय बना रहता था।
सूर्यास्त के पश्चात् सब लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते थे। तब वे चूँ भी नहीं करते थे। मानो उनकी बोलने की शक्ति कुंद हो जाती थी। यहाँ तक की माताएँ अपने दम तोड़ते पुत्र को ‘बेटा’ भी नहीं कह पाती थीं लेकिन फिर भी कै और कराहने की आवाज़ बीच-बीच में सन्नाटे में विघ्न डालती थी।
7. कुश्ती या दंगल पहले लोगों और राजाओं का प्रिय शौक हुआ करता था। पहलवानों को राजा एवं लोगों के द्वारा विशेष सम्मान दिया जाता था –
(क) ऐसी स्थिति अब क्यों नहीं है?
उत्तर – कुश्ती व दंगल पहले लोगों व राजाओं के प्रिय शौक हुआ करते थे। पहलवानों को विशेष सम्मान दिया जाता था, परंतु आज स्थिति बदल गई है। अब पहले की तरह सम्मान नहीं दिया जाता, क्योंकि आज न तो कुश्ती व दंगल समाज का प्रिय खेल है और न ही भागदौड़ की इस जिंदगी में लोगों के पास इसे देखने या प्रोत्साहित करने का समय है। मनोरंजन के नवीन साधनों का चलन जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे- वैसे कुश्ती की लोकप्रियता घटती गई। लेकिन फिर भी मुक्केबाज, मेरी कॉम और दंगल जैसी फिल्में कुछ हद तक इसे प्रोत्साहित करते नज़र आते हैं।
(ख) इसकी जगह अब किन खेलों ने ले ली है?
उत्तर – कुश्ती की जगह अब अनेक आधुनिक खेलों ने ले ली है, इनमें क्रिकेट, हॉकी, घुड़दौड़, मोटर-रेस, बैडमिंटन, टेनिस, फुटबाल आदि खेल शुमार हैं।
(ग) कुश्ती को फिर से प्रिय खेल बनाने के लिए क्या-क्या कार्य किए जा सकते हैं?
उत्तर – कुश्ती को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए निम्नलिखित कार्य किए जा सकते हैं –
1. कुश्ती को भारत में यूएफ़सी (UFC) या डबल्यूडबल्यूई (WWE) के ढंग से प्रस्तुत किया जाए।
2. ग्रामीण स्तर पर कुश्ती मुकाबले करवाए जाएँ।
3. पहलवानों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए।
4. सरकार कुश्ती को राष्ट्रीय खेलों में सम्मिलित करे।
5. मीडिया इस खेल का विश्व-स्तर पर प्रसारण करे।
6. सरकार की तरफ से पहलवानों को सहायता राशि प्रदान की जाए।
8. आशय स्पष्ट करें –
आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।
उत्तर – प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि मलेरिया और हैज़े के फैलने से संपूर्ण वातावरण त्रस्त था। चारों ओर भयानक अँधेरा और सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसी स्थिति में कोई भावुक तारा आकाश से टूटकर अपनी रोशनी पृथ्वी पर लाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अर्थात् दृष्टि का ऐसा विलोप हो गया था कि सामान्यत: दृष्टिगत होने वाली प्राकृतिक परिघटनाएँ भी महामारी की भयावहता के कारण दृष्टि और बोध के केंद्र में नहीं आ पा रही थी।
9. पाठ में अनेक स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। पाठ में से ऐसे अंश चुनिए और उनका आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी।
आशय – यहाँ पर रात का मानवीकरण किया गया है। गाँव में हैजा और मलेरिया की भयावहता फैली हुई थी। महामारी की चपेट में आकर लोग मर रहे थे। चारों ओर मौत का सन्नाटा छाया हुआ था ऐसे में ओस की बूँदें आँसू बहाती सी प्रतीत हो रही थी।
अन्य तारे अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।
आशय – यहाँ पर तारों को हँसता हुआ दिखाकर उनका मानवीकरण किया गया है। यहाँ पर तारे मज़ाक उड़ाते हुए प्रतीत हो रहे थे।
पाठ के आस-पास
1. पाठ में मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव की दयनीय स्थिति को चित्रित किया गया है। आप ऐसी किसी अन्य आपद स्थिति की कल्पना करें और लिखें कि आप ऐसी स्थिति का सामना कैसे करेंगे/ करेंगी?
उत्तर – पाठ में मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव की दयनीय स्थिति को चित्रित किया गया है। आजकल ‘कोरोना’ जैसी बीमारी से पूरी दुनिया में दहशत है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मैं अपनी ओर से निम्न प्रयास करूँगा –
1. लोगों को कोरोना वैश्विक महामारी के बारे में विशेष जानकारी दूँगा।
2. कोरोना पीड़ितों को उचित इलाज करवाने की सलाह दूँगा।
3. कोरोना पीड़ितों को घर में रहकर तथा मास्क लगाने का परामर्श दूँगा।
4. उनकी आर्थिक और सामाजिक सहायता करूँगा।
5. स्वच्छता बनाए रखने में सहायता करूँगा।
2. ढोलक की थाप मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी – कला से जीवन के संबंध को ध्यान में रखते हुए चर्चा कीजिए।
उत्तर – कला व्यक्ति के मन में बसी हुई स्वार्थभावना, धर्म, भाषा और जाति आदि के बंधनों को मिटाकर मानव मन को सार्वभौमिकता प्रदान करती है। यह कला ही है, जिसमें मानव मन में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता होती है। आत्मसंतोष एवं आनंद की अनुभूति भी इसके सान्निध्य से से प्राप्त होती है और इसके मंगलकारी प्रभाव से व्यक्ति के व्यक्तित्व का उज्ज्वल विकास होता है। जब यह कला संगीत के रुप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं, श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है।
3. चर्चा करें – कलाओं का अस्तित्व व्यवस्था का मोहताज नहीं है।
उत्तर – कलाओं को फलने-फूलने के लिए भले ही आर्थिक व्यवस्था की ज़रुरत पड़ती है परन्तु कलाओं का अस्तित्व केवल व्यवस्था का मोहताज नहीं होता है क्योंकि यदि कलाकार व्यवस्था द्वारा पोषित है और अपनी कला के प्रति समर्पित नहीं है तो वह कभी भी जनमानस में अपना स्थान नहीं बना पाएगा और कुछ ही समय बाद लुप्त हो जाएगा। किसी भी कला को विकसित होने में कलाकार का अपनी कला के प्रति एकनिष्ठ भाव, समर्पण भावना, उसकी अथक मेहनत और जन-सामान्य का प्यार और सराहना आवश्यक तत्त्व होते हैं। जिस किसी ने भी इन उपर्युक्त गुणों को पा लिया, वह व्यवस्था के बिना भी सदैव अपने स्थान पर टिका रहता है।
चर्चा कीजिए
1. हर विषय, क्षेत्र, परिवेश आदि के कुछ विशिष्ट शब्द होते हैं। पाठ में कुश्ती से जुड़ी शब्दावली का बहुतायत प्रयोग हुआ है। उन शब्दों की सूची बनाइए। साथ ही नीचे दिए गए क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाले कोई पाँच-पाँच शब्द बताइए-
● चिकित्सा – डॉक्टर, नर्स, इलाज, परहेज, औषधि, जाँच।
● क्रिकेट – बल्ला, गेंद, विकेट, अंपायर, चौका-छक्का।
● न्यायालय – जज, वकील, अभियुक्त, केस, जमानत।
● कंप्यूटर – डिस्क, कीबोर्ड, माउस, सीपीयू, मॉनिटर
2. पाठ में अनेक अंश ऐसे हैं जो भाषा के विशिष्ट प्रयोगों की बानगी प्रस्तुत करते हैं। भाषा का विशिष्ट प्रयोग न केवल भाषाई सर्जनात्मकता को बढ़ावा देता है बल्कि कथ्य को भी प्रभावी बनाता है। यदि उन शब्दों, वाक्यांशों के स्थान पर किन्हीं अन्य का प्रयोग किया जाए तो संभवतः वह अर्थगत चमत्कार और भाषिक सौंदर्य उद्घाटित न हो सके। कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं –
● फिर बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा।
● राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए।
● पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी।
इन विशिष्ट भाषा-प्रयोगों का प्रयोग करते हुए एक अनुच्छेद लिखिए।
सुल्तानपुर का दंगल लोमहर्षक था। पहलवान मुखजोर सिंह और रतनलाल दोनों ही कर्ण-अर्जुन की तरह एक दूसरे से कम न थे। परंतु अचानक मुखजोर सिंह ने बाज की तरह रतनलाल पर हमला बोल दिया और उसे चारों खाने चित्त कर दिया। दर्शकों ने अखाड़े को तालियों की गूँजों से भर दिया। दर्शकों में राजा कृपासिन्धु राय साहब भी थे, जो मुखजोर सिंह पर कायल हो चुके थे। राजा साहब ने भी अपनी स्नेह-दृष्टि से उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। इस प्रकार मुखजोर सिंह राज पहलवान घोषित होकर राजा की कृपा दृष्टि का पात्र बना और सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा। परंतु कुछ समय बाद ही पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी।
पहलवान की ढोलक पाठ से अन्य बहुविकल्पीय परीक्षोपयोगी प्रश्न
प्रश्न-1 पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोपड़ियों में किसका साम्राज्य था?
(क) भूतों का
(ख) अंधकार और सन्नाटे का
(ग) रात का
(घ) हवा का
उत्तर – (ख) अंधकार और सन्नाटे का
प्रश्न-2 किस जानवर में परिस्थितियों को ताड़ने की विशेष बुद्धि होती है?
(क) बिल्ली
(ख) उल्लू
(ग) कुत्ता
(घ) सियार
उत्तर – (ग) कुत्ता
प्रश्न- 3 मृत गाँव में किसकी आवाज संजीवनी शक्ति भरती रहती थी?
(क) कुत्तों की
(ख) पेचक की
(ग) पहलवान की ढोलक की
(घ) सियारों की
उत्तर – (ग) पहलवान की ढोलक की
प्रश्न- 4 लुट्टन का पालन-पोषण किसने किया?
(क) राजा श्यामानंद ने
(ख) उसकी विधवा सास ने
(ग) गाँव वालों ने
(घ) उसके शिष्यों ने
उत्तर – (ख) उसकी विधवा सास ने
प्रश्न-5 श्याम नगर के दंगल में लुट्टन ने किसको चुनौती दी?
(क) चाँद सिंह को
(ख) बादल सिंह को
(ग) श्याम सिंह को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर – (क) चाँद सिंह को
प्रश्न – 6 चाँद सिंह के गुरु का क्या नाम था?
(क) काला खाँ
(ख) पहलवान काका
(ग) श्याम सिंह
(घ) बादल सिंह
उत्तर – (घ) बादल सिंह
प्रश्न-7 लुट्टन पहलवान कितने वर्ष तक राज दरबार का अजेय पहलवान बना रहा?
(क) दस वर्ष तक
(ख) बीस वर्ष तक
(ग) पंद्रह वर्ष तक
(घ) पचीस वर्ष तक
उत्तर – (ग) पंद्रह वर्ष तक
प्रश्न- 8 “जीते रहो बहादुर ! तुमने मिट्टी की लाज रख ली”- यह कथन किसका है?
(क) चाँद सिंह का
(ख) बादल सिंह का
(ग) लुट्टन सिंह का
(घ) राजा श्यामानंद का
उत्तर – (घ) राजा श्यामानंद का
प्रश्न- 9 ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी किस प्रकार की कहानी है?
(क) राजनीतिक
(ख) आंचलिक
(ग) सामाजिक
(घ) उपदेशात्मक
उत्तर – (ख) आंचलिक
प्रश्न-10 राजा की मृत्यु के बाद कुश्ती के स्थान पर किस खेल ने जगह ले ली?
(क) घोड़ों की रेस
(ख) कबड्डी
(ग) फुटबाल
(घ) शतरंज
उत्तर – (क) घोड़ों की रेस
पहलवान की ढोलक पाठ से अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
प्रश्न 1. महामारी से पीड़ित गाँव की दुर्दशा का चित्रण कीजिए।
उत्तर- लेखक के गाँव में महामारी बुरी तरह फैल गई थी। मलेरिया और हैज़े ने सबको अपनी लपेट में ले लिया था। रोज दो-चार लाशें उठ जाती थीं। दिन-भर लोग काँखते कूखते और कराहते घूमते थे। खाँसी के मारे उनका बुरा हाल था। शरीर में इतना भी दम नहीं था कि वे रो-चिल्ला सकें। यहाँ तक कि माताएँ अपने मरते हुए बच्चे को ‘बेटा’ कहने की शक्ति भी न पाती थीं। कोई-कोई कै करता था तो कोई ‘हे राम! हे भगवान’ की पुकार लगाता था। बच्चे भी दुर्बल कंठ से माँ-माँ पुकारकर रो पड़ते थे। हालत इतनी बुरी थी कि रात होते ही वातावरण में भयानक सन्नाटा छा जाता था। अँधेरी रात आँसू बहाती प्रतीत होती थी। सियार, उल्लू और कुत्ते मिलकर रोते थे, जिससे रात की भयानकता और अधिक बढ़ जाती थी।” प्रश्न 3. रात के भयानक सन्नाटे में पहलवान की ढोलक क्या करिश्मा करती थी? उत्तर-रात के भयानक सन्नाटे में पहलवान की ढोलक ही कुछ आशा और जीवंतता भरती थी। वह मानो रात की भयंकरता को ललकारती थी। वह मृत्यु से जूझते हुए लोगों के निराश हृदयों में संजीवनी शक्ति भरती थी।
प्रश्न 2. लुट्टन सिंह अपना परिचय किस प्रकार दिया करता था और क्यों?
उत्तर- लुट्न सिंह स्वयं को होल इंडिया भर का मशहूर पहलवान कहता था। वास्तव में अज्ञान और उत्साह के कारण वह अपने जिले को ही पूरा देश मानता था। वह यह कहना चाहता था कि वह पहलवानी के मामले में बहुत मशहूर है।
प्रश्न 3. लुट्टन के बचपन का वर्णन कीजिए।
उत्तर- लुट्टन की शादी बचपन में ही हो गई थी। जब वह नौ वर्ष का था, तब माता-पिता की मृत्यु हो गई। अतः उसका – लालन-पालन उसकी सास ने किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँववालों से सास को मिली तकलीफों का बदला लेने की इच्छा ने उसे पहलवान बना दिया और वह कुश्ती लड़ने लगा।
प्रश्न 4. लुट्टन सिंह को पहलवान बनने की प्रेरणा कैसे मिली?
उत्तर-लुट्टन सिंह को पहलवान बनने की प्रेरणा उन लोगों से मिली जो उसकी सास को बहुत परेशान करते थे। लुट्टन सिंह के मन में आता था कि वह एक-एक करके अपनी सास के दुश्मनों से बदला ले। इसके लिए स्वस्थ शरीर की जरूरत थी। अतः उसने पहलवानी करने का निश्चय किया।
प्रश्न 5. श्यामनगर के दंगल ने लुट्टन पहलवान को लड़ने के लिए कैसे प्रेरित किया?
उत्तर-श्यामनगर के राजा कुश्ती के शौकीन थे। उन्होंने अपने यहाँ दंगल का आयोजन किया। लुट्टन सिंह भी दंगल देखने पहुँचा। दंगल में चाँद सिंह नाम का पहलवान भी आया हुआ था। वह पंजाबी पहलवान ‘शेर के बच्चे’ की उपाधि से सुशोभित था। लोग उसके नाम से ही डरते थे। कोई पहलवान उससे भिड़ने की हिम्मत नहीं जुटाता था। इसलिए चाँद सिंह दंगल में अकेला गरज रहा था और रह-रहकर किलकारियाँ मार रहा था। लुट्टन सिंह ने उसे देखा और बाहर बजते ढोल की आवाज़ को सुना तो उसकी नस नस में जोश भर गया। उसने उसी जोश और उत्तेजना में शेर के बच्चे को चुनौती दे दी।
प्रश्न 6. लुइन के अखाड़े में कूदते ही चारों ओर खलबली क्यों मच गई?
उत्तर-लुट्टन ने चाँद सिंह को लड़ने की चुनौती दी और अखाड़े में आ गया। चाँद सिंह उसकी चुनौती सुनकर उपेक्षा मुसकराया और बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा। यह देखकर दंगल के आसपास जुटे दर्शकों में खलबली मच गई। वे लोग लुट्टन सिंह की शक्ति को नहीं जानते थे। अतः उन्हें लगा कि यह नया सा, कमजोर सा पहलवान चाँद सिंह के हाथों मारा जाएगा। अतः किसी के मुँह से निकला – ‘यह पागल है… अभी मरा ।’ अन्य लोग भी लुट्टन सिंह की मौत को आया देख घबरा उठे। सभा में अचानक खलबली मच गई।
प्रश्न 7. राजा ने लुट्टन को लड़ने से क्यों रोका?
उत्तर- राजा ने लुट्टन का नाम नहीं सुना था। न ही वह उसकी शक्ति के बारे में जानता था। वह चाँद सिंह पर अवश्य मुग्ध था और उसे शक्तिशाली पहलवान मानता था। उसे लगा कि यह नया पहलवान अनजाने में, नासमझी में दंगल में उतर आया है। यह चाँद सिंह के हाथों मारा जाएगा। अतः उसने लुट्टन सिंह पर दया करते हुए उसे लड़ने से रोका।
प्रश्न 8. लुट्न सिंह और चाँद सिंह की कुश्ती में किसे समर्थन मिल रहा था और क्यों?
उत्तर-लुहन सिंह और चाँद सिंह की कुश्ती आरंभ हुई। आसपास जुटे राजकर्मचारी और अन्य लोग चाँद सिंह का समर्थन कर रहे थे। कारण स्पष्ट था। लुट्टन सिंह को कोई नहीं जानता था। वह अचानक दंगल में उतर आया था। चाँद सिंह पहले-से ही मशहूर पहलवान था। वह ‘शेर के बच्चे’ की उपाधि जीत चुका था। अतः वह लोगों के मन में बस चुका था। स्वाभाविक रूप से लोग उसी को जीतता हुआ देखना चाहते थे।
पहलवान की ढोलक पाठ के गद्यांश से अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
गद्यांश – 1
एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे’ को चुनौती दे दी।
‘शेर के बच्चे’ का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे’ की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था।
(क) लुटट्न कहाँ गया और क्यों?
(i) श्यामनगर के मेले में दंगल देखने
(ii) क्योंकि वह प्रसन्न था
(iii) मेले में पहलवानों को देखने
(iv) श्यामनगर के मेले में झूला झूलने
उत्तर – (i) श्यामनगर के मेले में दंगल देखने
(ख) शेर का बच्चा किसे कहा गया था?
(i) बादल सिंह
(ii) लुटट्न सिंह
(iii) चाँद सिंह
(iv) पंजाबी पहलवान
उत्तर – (iii) चाँद सिंह
(ग) चांद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता क्यों था?
(i) क्योंकि वह शेर का बच्चा था।
(ii) श्यामनगर का मेला देखने के लिए
(iii) दूसरे पहलवानों को डराने के लिए
(iv) अपनी उपाधि को सिद्ध करने के लिए
उत्तर – (iv) अपनी उपाधि को सिद्ध करने के लिए
(घ) ‘नसों में बिजली उत्पन्न करना’ का क्या अर्थ है?
(i) तेजी आना
(ii) ताजगी भरना
(iii) जोश उत्पन्न करना
(iv) बिजली बनाना
उत्तर – (iii) जोश उत्पन्न करना
(ङ) चांद सिंह की विशेषता क्या थी?
(i) वह सुंदर और जवान था।
(ii) उसने पंजाबी और पठान पहलवानों को हराया था।
(iii) उसने शेर के बच्चे का टायटिल प्राप्त किया था।
(iv) उपर्युक्त सभी
उत्तर – (iv) उपर्युक्त सभी
उत्तर- (क) (i) श्यामनगर मेले में दंगल देखने
(ख) (iii) चाँद सिंह को
(ड़)(iv)उपर्युक्त सभी
(ग) (iv) अपनी उपाधि को सिद्ध करने के लिए (घ) (iii) जोश उत्पन्न करना
गद्यांश-2
दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे। अतः दोनों का भरण-पोषण दरबार से ही हो रहा था। प्रतिदिन प्रातःकाल पहलवान स्वयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में, लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की भी शिक्षा देता – “समझे! ढोलक की आवाज़ पर पूरा ध्यान देना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे! ढोल की आवाज़ के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतरकर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!”… ऐसी ही बहुत-सी बातें वह कहा करता। फिर मालिक को कैसे खुश रखा जाता है, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए, आदि की शिक्षा वह नित्य दिया करता था।
(क) राजदरबार का भावी पहलवान किसे घोषित किया जा चुका था?
(i) लुट्टन सिंह को
(ii) बादल सिंह को
(iii) चाँद सिंह को
(iv) लुट्टन पहलवान के दोनों लड़कों को
उत्तर – (iv) लुट्टन पहलवान के दोनों लड़कों को
(ख) पहलवान के बेटों का भरण-पोषण राजदरबार से होने का क्या कारण था?
(i) उनके पिता का दरबारी पहलवान होना
(iii) जनता की इच्छाशक्ति
(ii) समाज के उच्च अधिकारी के पुत्र होना
(iv) राजा का विशेष लगाव
उत्तर – (i) उनके पिता का दरबारी पहलवान होना
(ग) पहलवान अपने बेटों को क्या शिक्षा देता था?
(i) पहलवानी की
(iii) स्वामी भक्ति की
(ii) ढोलक का सम्मान करने की
(iv) ये सभी
उत्तर – (iv) ये सभी
(घ) राजा साहब ने पहलवान को दरबार में किस कारण से रखा?
(i) शेर के बच्चे चाँद सिंह को धूल चटाने के कारण
(ii) उसके ढोलक बजाने के ढंग से प्रभावित होने के कारण
(iii) लोगों द्वारा आग्रह करने के कारण
(iv) अपने सैनिकों को पहलवानी सिखाने के कारण
उत्तर – (i) शेर के बच्चे चाँद सिंह को धूल चटाने के कारण
(ङ) गाँवों से अखाड़े समाप्त होते जाने का क्या कारण हो सकता है?
(i) राजदरबारों में पहलवानी की उपेक्षा करना
(iii) समाज के लोगों द्वारा इसकी उपेक्षा करना
(ii) मनोरंजन के अन्य साधन तलाशना
(iv) ये सभी
उत्तर – (iv) ये सभी
गद्यांश-3
रात्रि की विभीषिका को सिर्फ़ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस खयाल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढे़-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।
(क) पहलवान की ढोलक में किस बीमारी को रोकने की शक्ति थी?
(i) बुखार को
(ii) तपेदिक को
(iii) महामारी को
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर – (iv) इनमें से कोई नहीं
(ख) गाँव के वासियों में संजीवनी शक्ति भरने का काम किसने किया?
(i) राजा ने
(ii) पहलवान ने
(iii) पहलवान की ढोलक ने
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर – (iii) पहलवान की ढोलक ने
(ग) गाँव के बच्चे, बूढ़े, जवानों को पहलवान की ढोलक की आवाज सुनते ही क्या याद आ जाता था?
(i) दंगल का दृश्य
(ii) मृत्यु का भय
(iii) राजा की दयालुता
(iv) रात्रि का अंधकार
उत्तर – (i) दंगल का दृश्य
(घ) ढोलक की आवाज को सुनकर बिना किसी तकलीफ के अपने प्राण कौन त्याग देता था?
(i) लुट्टन सिंह
(ii) चाँद सिंह
(iii) मरता हुआ व्यक्ति
(iv) स्वस्थ व्यक्ति
उत्तर -(iii) मरता हुआ व्यक्ति
(ड़) गाँव के लोगों की कैसी स्थिति थी?
(i) अर्द्धमृत
(ii) औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन
(iii) (i) और (ii) दोनों
(iv) संतोषजनक
उत्तर – (iii) (i) और (ii) दोनों