बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर
जन्म : 14 अप्रैल, सन् 1891, महू (मध्य प्रदेश)में
प्रमुख रचनाएँ : दॅ कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज़्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट (1917, प्रथम प्रकाशित कृति); द अनटचेबल्स, हू आर दे? (1948); हू आर द शूद्राज़ (1946); बुद्धा एंड हिज़ धम्मा (1957); थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स (1955); द प्रॉब्लम ऑफ़ द रुपी(1923); द एबोलुशन ऑफ़ प्रोविंशियल फ़ायनांस इन ब्रिटिश इं डिया (पीएच.डी. की थीसिस, 1916); द राइज़ एंड फ़ॉल ऑफ़ द हिंदू वीमैन (1965); एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट(1936); लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी(1943); बुद्धिज़्म एंड कम्युनिज़्म(1956), (पुस्तकें व भाषण); मूक नायक, बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका-संपादन); हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है
निधन : दिसंबर, सन् 1956 दिल्ली में
अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस
सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित है।
मानव-मुक्ति के पुरोधा बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर अपने समय के सबसे सुपठित जनों में से एक थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क (अमेरिका)फिर वहाँ से लंदन गए। उन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और पूरा वैदिक वाङ्मय अनुवाद के ज़रिये पढ़ा और ऐतिहासिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत कीं। सब मिलाकर वे इतिहास-मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता बन कर उभरे। स्वदेश में कुछ समय उन्होंने वकालत भी की। समाज और राजनीति में बेहद सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने अछूतों, स्त्रियों और मज़दूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक सं(घ)र्ष किया।
भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उन्होंने जीवन भर दलितों की मुक्ति एवं सामाजिक समता के लिए सं(घ)र्ष किया। उनका पूरा लेखन इसी सं(घ)र्ष और सरोकार से जुड़ा हुआ है। स्वयं दलित जाति में जन्मे डॉ. आंबेडकर को बचपन से ही जाति-आधारित उत्पीड़न-शोषण एवं अपमान से गुजरना पड़ा था। इसीलिए विघालय के दिनों में जब एक अध्यापक ने उनसे पूछा कि “तुम पढ़-लिख कर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था मैं पढ़-लिख कर वकील बनूँगा, अछूतों के लिए नया कानून बनाऊँगा और छुआछूत को खत्म करूँगा। डॉ. आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन इसी संकल्प के पीछे झोंक दिया। इसके लिए उन्होंने जमकर पढ़ाई की। व्यापक अध्ययन एवं चिंतन-मनन के बल पर उन्होंने हिंदुस्तान के स्वाधीनता संग्राम में एक नयी अंतर्वस्तु भरने का काम किया। वह यह था कि दासता का सबसे व्यापक व गहन रूप सामाजिक दासता है और उसके उन्मूलन के बिना कोई भी स्वतंत्रता कुछ लोगों का विशेषाधिकार रहेगी, इसलिए अधूरी होगी। उनके चिंतन व रचनात्मकता के मुख्यतः तीन प्रेरक व्यक्ति रहे – बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले। जातिवादी उत्पीड़न के कारण हिंदू समाज से मोहभंग होने के बाद वे बुद्ध के समतावादी दर्शन में आश्वस्त हुए और 14 अक्तूबर, सन् 1956 को 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध मतानुयायी बन गए।
भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समर्पण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कह कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनकी समूची बहुमुखी विद्वत्ता एकांत ज्ञान-साधना की जगह मानव-मुक्ति व जन-कल्याण के लिए थी – यह बात वे अपने चिंतन और क्रिया के क्षणों से बराबर साबित करते रहे। अपने इस प्रयोजन में वे अधिकतर सफल भी हुए।
पाठ का सामान्य परिचय
यहाँ प्रस्तुत पाठ आंबेडकर के विख्यात भाषण एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट (1936) के ललई सिंह यादव द्वारा कृत हिंदी-रूपांतर जाति-भेद का उच्छेद के दो प्रकरणों के तौर पर है। यह भाषण जाति-पाँति तोड़क मंडल (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (सन् 1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था; परंतु इसकी क्रांतिकारी दृष्टि से आयोजकों की पूर्णतः सहमति न बन सकने के कारण सम्मेलन ही स्थगित हो गया और यह पढ़ा न जा सका। बाद में, आंबेडकर ने इसे स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर वितरित किया, जो पर्याप्त लोकप्रिय हुई। उनके अनुसार समानता, स्वतंत्रता व बंधुता – ये तीन तत्त्व आदर्श समाज में अनिवार्यतः होने चाहिए, जिससे लोकतंत्र सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया के अर्थ तक भी पहुँचे। यहाँ प्रस्तुत पाठ उक्त पुस्तिका के प्रतिनिधि प्रकरण हैं। आज के जाति-मज़हब आधारित विषाक्त सामाजिक-राजनैतिक माहौल में इनकी प्रासंगिकता और बढ़ गई है।
श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
जाति-प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उघोग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उघोगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है।
मेरी कल्पना का आदर्श-समाज
जाति-प्रथा के खेदजनक परिणामों की नीरस गाथा को सुनते-सुनाते आप में से कुछ लोग निश्चय ही ऊब गए होंगे। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। अतः अब मैं समस्या के रचनात्मक पहलू को लेता हूँ। मेरे द्वारा जाति-प्रथा की आलोचना सुनकर आप लोग मुझसे यह प्रश्न पूछना चाहेंगे कि यदि मैं जातियों के विरुद्ध हूँ, तो फिर मेरी दृष्टि में आदर्श-समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेंगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गातिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।
इसी प्रकार स्वतंत्रता पर भी क्या कोई आपत्ति हो सकती है? गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता के अर्थों में शायद ही कोई ‘स्वतंत्रता’ का विरोध करे। इसी प्रकार संपत्ति के अधिकार, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औज़ार व सामग्री रखने के अधिकार जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके, के अर्थ में भी ‘स्वतंत्रता’ पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तो फिर मनुष्य की शक्ति के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्रता क्यों न प्रदान की जाए?
जाति-प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे ‘दासता’ में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि ट्टदासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। ‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।
अब आइए समता पर विचार करें। क्या ‘समता’ पर किसी की आपत्ति हो सकती है। फ्रांसीसी क्रांतिकारी के नारे में ‘समता’ शब्द ही विवाद का विषय रहा है। ‘समता’ के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। और उनका यह तर्क वज़न भी रखता है। लेकिन तथ्य होते हुए भी यह विशेष महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि शाब्दिक अर्थ में ‘समता’ असंभव होते हुए भी यह नियामक सिद्धांत है। मनुष्यों की क्षमता तीन बातों पर निर्भर रहती है। (1) शारीरिक वंश परंपरा, (2) सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि, सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है, और अंत में (3) मनुष्य के अपने प्रयत्न। इन तीनों दृष्टियों से निस्संदेह मनुष्य समान नहीं होते। तो क्या इन विशेषताओं के कारण, समाज को भी उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए? समता विरोध करने वालों के पास इसका क्या जवाब है?
व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सर्वथा उचित है। परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में असमान है, तो क्या इस आधार पर उनके साथ भिन्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाज़ी मार ले जाएँगे, जिन्हें उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। इस प्रकार पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही ‘उत्तम व्यवहार’ का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह सुविधा संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना होगा। अतः न्याय का तकाज़ा यह है कि जहाँ हम तीसरे (प्रयासों की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात है) आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों (जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हैं) पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। और हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, समाज की यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाए।
‘समता’ का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है, कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव होता।
इस प्रकार ‘समता’ य(घ)पि काल्पनिक जगत की वस्तु है, फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए, उसके लिए यही मार्ग भी रहता है, क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है।
प्रतिपादय – सारांश, श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
प्रतिपादय – श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
यह पाठ आंबेडकर के विख्यात भाषण ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट (1936) पर आधारित है। इसका अनुवाद ललाई सिंह यादव ने ‘जाति-भेद का उच्छेद’ शीर्षक के अंतर्गत किया। यह भाषण ‘जाति-पाँति तोड़क मंडल’ (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था, परंतु इसकी क्रांतिकारी दृष्टि से आयोजकों की पूर्ण सहमति न बन सकने के कारण सम्मेलन स्थगित हो गया।
सारांश – श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
लेखक कहता है कि आज के युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। जातिवाद के समर्थक कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। इसमें आपत्ति यह है कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है।
श्रम विभाजन सभ्य समाज की आवश्यकता होती है, परंतु जातिवाद के आधार पर श्रम विभाजन श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में स्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा श्रमिकों के अस्वाभाविक विभाजन के साथ-साथ विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए तो यह भी मानव की रुचि पर आधारित नहीं है। उन्नति उन्मुख समाज को चाहिए कि वह लोगों को अपनी रुचि का पेशा करने के लिए सक्षम बनाए। जाति प्रथा में यह दोष है कि इसमें मनुष्य का पेशा उसके प्रशिक्षण या उसकी निजी क्षमता के आधार पर न करके उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर या उसकी जाति के आधार से किया जाता है। यह मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है। ऐसी दशा में उद्योगधंधों की प्रक्रिया व तकनीक में परिवर्तन से भूखों मरने की नौबत आ जाती है। हिंदू धर्म में पेशा बदलने की अनुमति न होने के कारण कई बार बेरोजगारी की समस्या उभर आती है।
जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। इसमें व्यक्तिगत रुचि व भावना का कोई स्थान नहीं होता। पूर्वलेख ही इसका आधार है। ऐसी स्थिति में लोग काम में अरुचि दिखाते हैं। अतः आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक है क्योंकि योग्य प्रार्थी सही जगह अपनी योग्यता नहीं दिखा पाते।
2. प्रतिपादय – सारांश, मेरी कल्पना का आदर्श समाज
प्रतिपादय – मेरी कल्पना का आदर्श समाज
इस पाठ में लेखक ने बताया है कि आदर्श समाज में तीन तत्व अनिवार्यतः होने चाहिए- समानता, स्वतंत्रता व बंधुता । इनसे लोकतंत्र सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया के अर्थ तक पहुँच सकता है।
सारांश – मेरी कल्पना का आदर्श समाज
लेखक का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता व भ्रातृता पर आधारित होगा। समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि कोई भी परिवर्तन समाज में तुरंत प्रसारित हो जाए। ऐसे समाज में सबका सब कार्यों में भाग होना चाहिए तथा सबको सबकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सबको संपर्क के साधन व अवसर मिलने चाहिए। यही लोकतंत्र है। लोकतंत्र मूलतः सामाजिक जीवनचर्या की एक रीति व समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। आवागमन, जीवन व शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता, संपत्ति, जीविकोपार्जन के लिए जरूरी औजार व सामग्री रखने के अधिकार की स्वतंत्रता पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, परंतु मनुष्य के सक्षम व प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए लोग तैयार नहीं हैं। इसके लिए व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देनी होती है। इस स्वतंत्रता के अभाव में व्यक्ति ‘दासता’ में जकड़ा रहेगा।
‘दासता’ केवल कानूनी नहीं होती। यह ‘दासता’ वहाँ भी है जहाँ कुछ लोगों को दूसरों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। फ्रांसीसी क्रांति के नारे में ‘समता’ शब्द सदैव विवादित रहा है। समता के आलोचक कहते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। यह सत्य होते हुए भी महत्त्व नहीं रखता क्योंकि समता असंभव होते हुए भी नियामक सिद्धांत है। मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर है।
1. शारीरिक वंश परंपरा,
2. सामाजिक उत्तराधिकार,
3. मनुष्य के अपने प्रयत्न।
इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते, परंतु क्या इन तीनों कारणों से व्यक्ति से असमान व्यवहार करना चाहिए। असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार अनुचित नहीं है, परंतु हर व्यक्ति को विकास करने के अवसर मिलने चाहिए। लेखक का मानना है कि उच्च वर्ग के लोग उत्तम व्यवहार के मुकाबले में निश्चय ही जीतेंगे क्योंकि उतम व्यवहार का निर्णय भी संपन्नों को ही करना होगा। प्रयास मनुष्य के वश में हैं, परंतु वंश व सामाजिक प्रतिष्ठा उसके वश में नहीं है। अतः वंश और सामाजिकता के नाम पर असमानता अनुचित है। एक राजनेता को अनेक लोगों से मिलना होता है। उसके पास हर व्यक्ति के लिए अलग व्यवहार करने का समय नहीं होता। ऐसे में वह व्यवहार्य सिद्धांत का पालन करता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। वह सबसे व्यवहार इसलिए करता है क्योंकि वर्गीकरण व श्रेणीकरण संभव नहीं है। समता एक काल्पनिक वस्तु है, फिर भी राजनीतिज्ञों के लिए यही एकमात्र उपाय व मार्ग है।
शब्दार्थ
1. श्रम विभाजन – लोगों द्वारा किए जाने वाले काम को अलग-अलग बाँटना
2. विडंबना – दुर्भाग्य
3. समर्थन – Support
4. आपत्तिजनक – Objectionable
5. करार देना – घोषित करना
6. स्तर – श्रेणी
7. सक्षम -क्षमता
8. पेशा – धंधा
9. प्रशिक्षण – Training
10. दृष्टिकोण – Outlook
11. अकस्मात – अचानक
12. प्रतिकूल – उलटी
13. चारा होना – अवसर होना
14. पैतृक – पिता से प्राप्त
15. पारंगत – पूरी तरह से कुशल
16. दुर्भावना – बुरी नीयत
17. उत्पीड़न – शोषण करना
18. निष्क्रिय – बेकार
19. नीरस गाथा – बेकार की बातें
20. वांछित – आवश्यक
21. पहलू – पक्ष
22. निजी – अपनी
23. अबाध – बिना किसी बाधा के
24. पद्धति – तरीका
25. रीति – ढंग
26. गमनागमन – आना-जाना
27. जीविकोपार्जन – रोज़गार जुटाना
28. समक्ष – सामने
29. समता – समानता
30. आलोचक – निंदक
31. तकाज़ा – आवश्यकता
32. यद्यपि – चाहे
33. कसौटी – जाँच का आधार
34. औचित्य -उचित होना
35. सर्वथा – सब तरह से
36. निष्पक्ष – बिना किसी भेद-भाव के
पाठ के साथ
1. जाति प्रथा को श्रम -विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?
उत्तर – जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं –
1 जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का रूप लिए हुए है।
2 श्रम-विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में स्वाभाविक विभाजन नहीं करती।
3 भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
4 जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?
उत्तर – भारतीय समाज की यह बड़ी विडंबना है कि यहाँ जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। वे सभ्य समाज में श्रम विभाजन को जाति-भेद के द्वारा विभाजित करना चाहते हैं, क्योंकि इनकी दृष्टि में श्रम-विभाजन भी जाति-प्रथा का ही दूसरा रूप है। इसके आधार पर समाज में अनेक समस्याएँ मुँह बाए हैं –
1. जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के आधार पर श्रमिकों को अनेक वर्गों में विभाजित करती है।
2. विभाजित वर्गों में ऊँच-नीच की भावना पैदा होती है।
3. यह मनुष्य को उसके जाति के आधार पर उसे आजीवन उसी पेशे से बाँध देती है जिससे वह नई तकनीक के आने पर भी अपने पेशे में परिवर्तन नहीं कर पाता है।
4. हिंदू धर्म में जाति-प्रथा किसी भी मनुष्य को पैतृक पेशे के अलावा कोई अन्य पेशा करने की अनुमति नहीं देती।
5. मनुष्य जाति-प्रथा द्वारा थोपे गए कार्यों को अरुचिपूर्ण तथा विवशतावश करता है।
3. लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?
उत्तर – लेखक के अनुसार ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता बल्कि ‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है।
4. शारीरिक वंश -परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
उत्तर – शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह करते हैं क्योंकि समाज को अपने सभी सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता तभी प्राप्त हो सकती है, जब उन्हें आरंभ से ही समान अवसर और समान व्यवहार उपलब्ध कराया जाए। प्रत्येक मनुष्य को समता की दृष्टि से देखा जाए। यह आग्रह करने के पीछे आंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं –
-उत्तम व्यवहार के हक में वे लोग बाजी मार ले जाएँगे, जिन्हें उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है।
-समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है तो यह परम आवश्यक है कि आरंभ से ही समाज के सदस्यों को समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराया जाए।
5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन -सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?
उत्तर – मैं लेखक की बात से सहमत हूँ कि उन्होंने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। समाज में जब तक समता का भाव नहीं आता, तब तक जातिगत विभिन्नता समाप्त नहीं हो सकती, क्योंकि जाति-प्रथा मनुष्य का जन्म से ही पेशा निश्चित कर देती है। भावनात्मक समत्व तभी आ सकता है, जब समान भौतिक स्थितियाँ व जीवन सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। समाज में जाति-प्रथा का उन्मूलन समता का भाव होने से ही हो सकता है। अत: भावनात्मक समता लाने के लिए जातिगत श्रम-विभाजन की अपेक्षा व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें जिससे वह अपने पेशे का चुनाव स्वयं कर सके।
6. आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/समझेंगी?
उत्तर – आदर्श समाज के तीन तत्त्वों – स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता में से एक ‘भातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है। लेखक समाज की बात कर रहा है और समाज स्त्री-पुरुष दोनों से मिलकर बना है। उन्होंने आदर्श समाज में हर आयुवर्ग को शामिल किया है। ‘भ्रातृता’ शब्द संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है- भाईचारा। यह सर्वथा उपयुक्त है। समाज में भाईचारे के सहारे ही संबंध बनते हैं। कोई व्यक्ति एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकता। समाज में भाईचारे के कारण ही कोई परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचता है।
पाठ के आस-पास
1. आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है – उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।
उत्तर – शिक्षक के दिशानिर्देश में छात्र इस प्रश्न का उत्तर करेंगे।
2. कार्य कुशलता पर जाति प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।
उत्तर – शिक्षक के दिशानिर्देश में छात्र इस प्रश्न का उत्तर करेंगे।
इन्हें भी जानें
आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधी जी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए।
हिंद स्वराज नामक पुस्तक में गांधी जी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।
पठित गद्यांश से जुड़े अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
1. यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है।
1 गद्यांश में इनमें से किसे विडंबना कहा गया है?
(क) जातिवाद का विरोध करने को
(ख) इसे अनावश्यक मानने को
(ग) जातिवाद का समर्थन करने और कार्यकुशलता के लिए आवश्यक मानने को
(घ)) जातिवाद का समर्थन करने पर कार्यकुशलता के लिए आवश्यक मानने को
उत्तर- (ग) जातिवाद का समर्थन करने और कार्यकुशलता के लिए आवश्यक मानने को
2 जाति प्रथा के पोषकों का मानना है कि
(क) जाति प्रथा और श्रम विभाजन एक नहीं हो सकते।
(ख) जाति प्रथा श्रम विभाजन का अन्य रूप है।
(ग) श्रम विभाजन का कारण जाति प्रथा है।
(घ)) समाज में जाति प्रथा का स्थान नहीं होना चाहिए।
उत्तर- (ख) जाति प्रथा श्रम विभाजन का अन्य रूप है।
3 श्रम विभाजन की किस कमी की ओर संकेत किया गया है?
(क) इससे उत्पादन में कमी आती है।
(ख) इससे श्रमिक अपने पेशे में रुचि नहीं लेते हैं।
(ग) इस विभाजन से श्रमिकों का विभाजन हो जाता है।
(घ)) इनमें से कोई नहीं
उत्तर- (ग) इस विभाजन से श्रमिकों का विभाजन हो जाता है।
4 श्रम विभाजन का अर्थ है –
(क) काम करने वालों को बाँट देना।
(ख) काम को योग्यता अनुसार श्रमिकों में बाँट देना।
(ग) श्रमिक और काम धंधे दोनों को बाँट देना।
(घ)) उपरोक्त तीनों
उत्तर- (ख) काम को योग्यता अनुसार श्रमिकों में बाँट देना।
5 श्रम विभाजन का लाभ इनमें से क्या है?
(क) इससे हर काम में कुशलता आती है।
(ख) इससे श्रमिकों की कुशलता बढ़ती है।
(ग) इससे काम में हानि नहीं होती है।
(घ)) इससे श्रमिकों का अभी विभाजन हो जाता है।
उत्तर- (क) इससे हर काम में कुशलता आती है।
2 फिर मेरी दृष्टि में आदर्श-समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेंगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात् भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गातिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है।
1 लेखक जिस समाज को आदर्श मानता है, उसके संबंध में असत्य अवधारणा कौन-सी है?
(क) समाज में सबको स्वतंत्रता हो।
(ख) सब को एक समान समझा जाए।
(ग) समाज में गतिहीनता हो जिससे लोग परिवर्तन ग्रहण न कर सकें।
(घ)) समाज में समरसता और भाईचारा हो।
उत्तर (ग) समाज में गतिहीनता हो जिससे लोग परिवर्तन ग्रहण न कर सकें।
2 गद्यांश के आधार पर भ्रातृता का स्वरूप इनमें से क्या है?
(क) जिसमें लोग अपना हित समझें।
(ख) लोग अपनी रक्षा करने में सक्षम हों।
(ग) लोग अपने समुदाय के लोगों को भाई समझें।
(घ) लोग सामूहिक रूप से एक दूसरे का हित समझें और एक दूसरे की रक्षा करें।
उत्तर (घ) लोग सामूहिक रूप से एक-दूसरे का हित समझें और एक दूसरे की रक्षा करें।
3 लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप इनमें से क्या है?
(क) केवल एक शासन पद्धति
(ख) सामूहिक जीवन जीने का एक तरीका
(ग) अनुभव को संजोकर रखना
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर (ख) सामूहिक जीवन जीने का तरीका
4 डॉक्टर आंबेडकर कैसा भाईचारा चाहते थे?
(क) जिसमें लोग परस्पर दूध पानी की तरह मिलें।
(ख) जिसमें रूढ़िबद्धता हो।
(ग) जिसमें संबंधों में कुछ न कुछ बंधन हो।
(घ) उपयुक्त तीनों
उत्तर (क) जिसमें लोग परस्पर दूध पानी की तरह मिलें
5 ‘सब लोगों का उदारतापूर्वक मेल मिलाप’ इसके लिए जिस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, वह किस विकल्प में है?
(क) गतिशीलता
(ख) बहुविधि हित
(ग) अवाध संपर्क
(घ) दूध पानी का मिश्रण
उत्तर (क) गतिशीलता
पाठ से जुड़े अन्य बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
1. लेखक की दृष्टि में वर्तमान समाज में सबसे बड़ी विडंबना क्या है?
(क) जातिवाद के पोषकों की कमी न होना
(ख) जातिवाद के पोषक नगण्य होना
(ग) आर्थिक दृष्टि से जातिवाद उचित होना
(घ) सामाजिक दृष्टि से जातिवाद उचित होना
उत्तर:(क) जातिवाद के पोषकों की कमी न होना है।
2. आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए किसे आवश्यक मानता है?
(क) धन विभाजन को
(ख) जाति विभाजन को
(ग) श्रम विभाजन को
(घ) जन विभाजन को
उत्तर:(ग) श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है।
3. श्रम विभाजन व जाति प्रथा के अनुसार भारत की जाति प्रथा की विशेषता क्या है?
(क) श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन
(ख) विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच का करार
(ग) जाति के अनुसार दृष्टिकोण रखना
(घ) उपरोक्त सभी
उत्तर:(घ) उपरोक्त सभी
3. किस सिद्धांत में मनुष्य के प्रशिक्षण व उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना ही माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है?
(क) समानता के सिद्धांत में
(ख) स्वतंत्रता के सिद्धांत में
(ग) जाति प्रथा के दूषित सिद्धांत में
(घ) सामाजिकता के सिद्धांत में
उत्तर:(ग) जाति प्रथा के दूषित सिद्धांत में
4. ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के अनुसार भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का कौन-सा एक कारण है?
(क) धार्मिक आस्था
(ख) समानता
(ग) जाति प्रथा
(घ) स्वतंत्रता
उत्तर:(ग) श्रम विभाजन तथा जाति प्रथा’ पाठ के अनुसार भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का एक प्रमुख कारण ‘जाति प्रथा’ है।
5. वर्तमान समय में जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक कारण है?
(क) प्रत्यक्ष
(ख) प्रमुख
(ग) ‘क’ और ‘ख’ दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर: (ग) ‘क’ और ‘ख’ दोनों
6. जाति प्रथा किस प्रकार से समाज के लिए हानिकारक है?
(क) आर्थिक पहलू से
(ख) सामाजिक पहलू से
(ग) सांस्कृतिक पहलू से
(घ) ये सभी
उत्तरः-(घ) ये सभी।
7. ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ के आधार पर एक आदर्श समाज किस पर आधारित है?
(क) स्वतंत्रता पर
(ख) समानता पर
(ग) भ्रातृता पर
(घ) ये सभी
उत्तर:(घ) ये सभी।
8. ‘दूध पानी के मिश्रण की तरह भाईचारा हो।’ यही लोकतंत्र है, पंक्ति का आशय बताइए-
(क) भाई दूध-पानी की तरह मिले हो।
(ख) भाई-भाई से प्रेम करे।
(ग) दूध पानी का मिश्रण हो।
(घ) साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।
उत्तर:(घ) साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव होने से है।
9. ‘श्रम विभाजन व जाति प्रथा’ के अनुसार लोकतंत्र क्या है?
(क) शासन की एक पद्धति
(ख) सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति
(ग) समाज के सम्मिलित अनुभवों का आदान-प्रदान
(घ) ख और ग दोनों
उत्तर: (घ) ख और ग दोनों
10. हिंदू धर्म की जाति प्रथा में व्यक्ति को क्या चुनने की स्वतंत्रता नहीं है?
(क) इच्छानुसार पेशा
(ख) शिक्षा
(ग) धर्म
(घ) स्वतंत्रता
उत्तर:(क) इच्छानुसार पेशा
11. ‘श्रम विभाजन तथा जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर बताइए कि व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न देना क्या कहलाता है?
(क) दासता
(ख) असमानता
(ग) सामाजिकता
(घ) ये सभी
उत्तर:(क) दासता
12. फ्रांसीसी क्रांति के नारे में विवाद का विषय क्या रहा है?
(क) समता
(ख) स्वतंत्रता
(ग) समाजवाद
(घ) लोकतंत्र
उत्तर:(क) समता
13. ‘श्रम विभाजन व जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर बताइए कि मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर करती है?
(क) शारीरिक वंश परंपरा
(ख) सामाजिक उत्तराधिकार
(ग) मनुष्य के अपने प्रयत्न
(घ) उपरोक्त सभी
उत्तर:(घ) उपरोक्त सभी
14. ‘जाति प्रथा व श्रम विभाजन’ के अनुसार समता का औचित्य किस पर निर्भर करता है?
(क) समान अवसर पर
(ख) समान व्यवहार पर
(ग) ‘क’ और ‘ख’ दोनों
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर: (ग) ‘क’ और ‘ख’ दोनों
15. ‘श्रम विभाजन तथा जाति प्रथा’ पाठ के अनुसार एक राजनीतिज्ञ को बहुत बड़ी जनसंख्या से किस तरह का व्यवहार करना पड़ता है?
(क) जाति अनुसार
(ख) समान व्यवहार
(ग) धर्मानुसार
(घ) व्यवसाय के अनुसार
उत्तर:(ख) समान व्यवहार
16. लेखक के अनुसार ‘समता’ किस जगत की वस्तु है?
(क) काल्पनिक जगत की
(ख) वास्तविक जगत की
(ग) आर्थिक जगत की
(घ) सामाजिक जगत की
उत्तर:(क) काल्पनिक जगत की
पाठ से जुड़े अन्य परीक्षोपायोगी प्रश्न
प्रश्न 1: लेखक ने किन विशेषताओं को आदर्श समाज की धुरी माना हैं और क्यों? भ्रातृता के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- लेखक उस समाज को आदर्श मानता है जिसमें स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा हो उसमें इतनी गतिशीलता हो कि सभी लोग एक साथ सभी परिवर्तनों को ग्रहण कर सकें। ऐसे समाज में सभी के सामूहिक हित होने चाहिए तथा सबको सबकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। ‘भ्रातृता’ का अर्थ है भाईचारा। लेखक ऐसा भाईचारा चाहता है जिसमें बाधा न हो। सभी सामूहिक रूप से एक दूसरे के हितों को समझे तथा एक-दूसरे की रक्षा करें।
प्रश्न 2 : लेखक किस बात को निष्पक्ष निर्णय नहीं मानता? न्याय का तकाजा क्या है?
उत्तर- लेखक कहता है कि उत्तम व्यवहार प्रतियोगिता में उच्च वर्ग बाजी मार जाता है क्योंकि उसे शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा व व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। ऐसे में उच्च वर्ग को उत्तम व्यवहार का हकदार माना जाना निष्पक्ष निर्णय नहीं है। न्याय का तकाजा यह है कि व्यक्ति के साथ वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार न करके समान व्यवहार करना चाहिए।
प्रश्न 3 : पेशा बदलने की स्वतंत्रता न होने से क्या परिणाम होता हैं? हिंदू धर्म की क्या स्थिति है?
उत्तर- तकनीक व विकास प्रक्रिया के कारण उद्योगों का स्वरूप बदल जाता है। इस कारण व्यक्ति को अपना व्यवसाय बदलना पड़ता है। यदि उसे अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो उसे भूखा ही मरना पड़ेगा। हिंदू धर्म में जाति प्रथा दूषित है। वह किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की आजादी नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो।
प्रश्न 4: डॉ० आंबेडकर ‘समता’ को कैसी वस्तु मानते हैं तथा क्यों?
उत्तर- डॉ० आंबेडकर ‘समता’ को कल्पना की वस्तु मानते हैं। उनका मानना है कि हर व्यक्ति समान नहीं होता। वह जन्म से ही सामाजिक स्तर के हिसाब से तथा अपने प्रयत्नों के कारण भिन्न और असमान होता है। पूर्ण समता एक काल्पनिक स्थिति है, परंतु हर व्यक्ति को अपनी क्षमता को विकसित करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए।
प्रश्न 5: आर्थिक विकास के लिए जाति प्रथा कैसे बाधक है?
उत्तर- भारत में जाति-प्रथा के कारण व्यक्ति को जन्म के आधार पर मिला पेशा ही अपनाना पड़ता है। उसे विकास के समान अवसर नहीं मिलते। जबरदस्ती थोपे गए पेशे में उनकी अरुचि हो जाती है और वे काम को टालने या कामचोरी करने लगते हैं। वे एकाग्रता से कार्य नहीं करते। इस प्रवृत्ति से आर्थिक हानि होती है और उद्योगों का विकास नहीं होता। दूसरी तरफ नई तकनीकों के निरंतर विकास से पारंपरिक कार्यों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।