लेखक परिचय
भारतेंदु की संक्षिप्त जीवनी
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 1850 ई० में हुआ था। वे प्रसिद्ध सेठ अमीचंद के वंशज थे और उनके पिता बाबू गोपालचंद्र उपनाम गिरिधरदास हिंदी के अच्छे कवि और अपने समय के प्रगतिशील व्यक्तियों में से थे। जब वे पाँच वर्ष के थे तब उनकी माता पार्वती देवी का और जब वे दस वर्ष के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया। पिता की असामयिक मृत्यु हो जाने के कारण उनकी शिक्षा का समुचित प्रबंध न हो सका। यद्यपि वे तीन-चार वर्ष तक बनारस के क्वीन्स कॉलेज में बराबर पढ़ने जाते थे, किंतु उन्होंने जो कुछ ज्ञान प्राप्त किया वह स्वाध्याय द्वारा। वे भारतवर्ष की लगभग सभी प्रधान भाषाएँ जानते थे। पाँच-छह वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा का परिचय देना प्रारंभ कर दिया था। पंद्रह वर्ष की अवस्था में उनका विवाह मन्ना देवी से हुआ। विवाह के बाद उन्होंने अनेक स्थानों की यात्राएँ की और अवसर मिलने पर सदैव अंध-विश्वास और अप्रामाणिकता का विरोध किया। उन्होंने स्वदेशी, निज-भाषा- उन्नति, राष्ट्रीयता, भारत की उन्नति, स्त्री-शिक्षा आदि बातों पर सदैव जोर दिया। 6 जनवरी 1885 को चौंतीस वर्ष चार महीने की अवस्था में उनका देहांत हो गया। उनके दो पुत्र और एक पुत्री हुई थी। किंतु पुत्रों का बाल्यावस्था में ही देहांत हो गया था। उनकी पुत्री विद्यावती एक विदुषी महिला थीं। भारतेन्दु की लोकप्रियता का प्रमाण इसी से मिलता है कि सारे देश ने उन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि प्रदान की। भारतेंदु की प्रतिभा चौमुखी थी और उन्होंने विविध प्रकार से हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया।
स्मरणीय बिंदु
राजा सत्य हरिश्चंद्र के बारे में जानेंगे।
महर्षि विश्वामित्र के बारे में जानेंगे।
सत्य सबसे बड़ा रक्षक है, यह जानेंगे।
क्रोध व मिथ्याभिमान बहुत बड़े शत्रु हैं।
कर्तव्यपरायणता का महत्त्व समझ सकेंगे।
नाटक की व्याख्या व रसास्वादन कर सकेंगे।
अन्य जानकारियों से परिचित होंगे।
प्रेरणा स्रोत
अखिल विश्व में एक ‘सत्य’ ही जीवन श्रेष्ठ बनाता है,
बिना सत्य के जप, तप, योगाचार भ्रष्ट हो जाता है।
यह पृथ्वी, आकाश और यह रवि-शशि, तारे मंडल भी,
एक सत्य पर आधारित है, क्षुब्ध महोदधि चंचल भी ।
जो नर अपने मुख से वाणी बोल पुन: हट जाते हैं,
नर तन पाकर पशु से भी वे जीवन नीच विताते हैं।
मर्द कहाँ वे जो निज मुख कहते थे सो करते थे,
अपने प्रण की पूर्ति हेतु जो हँसते हँसते मरते थे?
हिंदी नाटकों के जन्मदाता
हम हिंदी नाटक साहित्य के क्रमिक विकास को देखते हुए यह कह सकते हैं कि भारतेंदु हरिश्चंद्र जी हिंदी नाटकों के जन्मदाता हैं। भारतेंदु जी ने निम्नलिखित नाटक लिखे हैं-
विद्यासुन्दर, सत्यहरिश्चंद्र, चन्द्रावली, दुर्लभबंधु, अँधेर नगरी, भारत जननी, कर्पूरमंजरी, नीलदेवी, पाखण्ड विडम्बन, मुद्राराक्षस, धनंजय विजय, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति विषस्य विषमोषधम्, भारतदुर्दशा, रत्नावली, सतीप्रताप, प्रेम योगिनी।
‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक का आधार संस्कृत
‘सत्य हरिश्चंद्र’ भारतेंदु जी की उच्च कोटि की रचना है। इसको पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह रचना मौलिक है, परंतु निम्नलिखित प्रमाणों से इसकी अमौलिकता सिद्ध होती है –
(1) महाकवि क्षेमेश्वर के ‘चण्डकौशिक’ में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के विषय में जो कुछ लिखा गया है, वही ‘सत्य हरिश्चंद्र’ में भी लिखा गया है। दोनों के पात्र भी परस्पर मिलते हैं। दोनों में अंतर केवल यही है कि ‘सत्य हरिश्चंद्र’ का नायक महाराज हरिश्चंद्र ‘चण्डकौशिक’ के नायक महाराजा हरिश्चंद्र की अपेक्षा अधिक उदार तथा दानी है।
(2) ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक की सभी घटनाएँ ‘शिवपुराण’ से भी मिलती हैं।
(3) ‘सत्य हरिश्चंद्र’ में वशिष्ठ से कामधेनु छीनने के लिए विश्वामित्र का उनसे युद्ध करना और पराजित होकर ब्रह्मत्व को प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करने की कहानी ‘वाल्मीकि रामायण’ से ली गई है।
(4) महाभारत के 141वें अध्याय में वर्णित विश्वामित्र के द्वारा मास यज्ञ किया जाना और इंद्र का प्रसन्न होकर वर्षा करने की कहानी ‘सत्य- हरिश्चंद्र’ में भी वर्णित है।
(5) विश्वामित्र के आड़ी और वशिष्ठ के बगुले के रूप में वर्णित संघर्ष की घटना ‘मार्कण्डेय पुराण’ से ली गई है।
(6) परशुराम जी के आविर्भाव की कथा ‘कल्कि पुराण’ के 85वें अध्याय से ली गई है।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की रचना ‘सत्य हरिश्चंद्र’ मौलिक न होकर संस्कृत के ग्रंथों पर आधारित है।
‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक की कहानी का सार
अयोध्या के सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के सत्यपालन तथा दानशीलता की कहानी समस्त संसार में प्रसिद्ध हो गई। देवेश इंद्र ने भी उनकी कहानी को सुना। इंद्र के हृदय में द्वेष और भय उत्पन्न हो गया। एक दिन नारद जी उनके पास आ पहुँचे और उन्होंने भी देवराज की आशंका की पुष्टि कर दी। विश्वामित्र ने भी राजा हरिश्चंद्र को नीचा दिखाने का निश्चय कर लिया। इंद्र और विश्वामित्र ने मिलकर हरिश्चंद्र से बदला लेने के लिए कार्य प्रारंभ कर दिया। एक रात्रि को स्वप्न में विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से सारा राज्य दान में ले लिया। अब राजा को इस बात की चिंता रहने लगी कि किस प्रकार वह स्वप्न की घटना को पूरा करें। उन्होंने राजसभा में इस स्वप्न को बताया और यह शपथ ली कि वह उस दिन से राज्य को ब्राह्मण देव जो स्वप्न में दिखाई दिए थे उनकी की अमानत समझेंगे और स्वयं उसके प्रतिनिधि बनकर राज्य कार्य करेंगे।
इसी समय क्रोध में आग-बबूला हुए विश्वामित्र भी राजसभा में आ पहुँचे। राजा ने उन्हें सम्मुख देखकर पहचान लिया कि यह वही ब्राह्मण है जिन्हें उन्होंने स्वप्न में अपना राज्य दान दिया था और वे अपना राज-पाट सब कुछ उन्हें दे देते हैं। राज-पाट लेने के पश्चात् दक्षिणा में एक हजार स्वर्ण मुद्रा माँगते हैं। राजा प्रधान मंत्री को एक हजार मुद्रा देने की आज्ञा देते हैं, परंतु महर्षि विश्वामित्र उनसे कहते हैं कि इस राज्य पर अब तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। इस पर राजा हरिश्चंद्र उनसे दक्षिणा देने के लिए एक महीने का समय माँगते है। फिर राजा अपनी स्त्री, पुत्र तथा अपने आपको काशी में बेचकर महर्षि की दक्षिणा देते हैं।
एक दिन एक विषैला सर्प हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व (रोहित) को डस लेता है और उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। उसकी माता शैव्या उसे लेकर श्मशान भूमि में जाती है। उसी श्मशान भूमि में राजा हरिश्चंद्र डोम की नौकरी करते थे। वे मृतकों को फूँकने से पहले उनसे कर वसूल करते थे। शैव्या पुत्र के मृतक शरीर को अपनी गोदी में रखकर हृदय विदारक विलाप करती है। उसके विलाप को सुनकर राजा समझ जाते हैं कि यह उन्हीं का पुत्र है। परंतु वे अपने कर्त्तव्य को नहीं भूलते हैं और पुत्र का अंतिम संस्कार करने से पहले वे रानी से कर माँगते हैं। रानी के पास तो पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए भी पर्याप्त कफन नहीं होता है। इसलिए हरिश्चंद्र शैव्या को पुत्र का दाह संस्कार करने से रोक देते हैं। अंत में शैव्या अपना वस्त्र फाड़कर राजा को देने लगती है। इसी समय भगवान् प्रकट हो जाते हैं और वे रोहतास को जीवित कर देते हैं। राजा अपनी परीक्षा में सफल होते हैं और भगवान प्रसन्न होकर उनका राज्य भी उन्हें लौटा देना चाहते हैं और विश्वामित्र राजा से क्षमा-याचना करते हैं, परंतु राजा भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उनकी प्रजा उनके साथ स्वर्ग को जाए।
नाटकीय तत्त्वों के आधार पर ‘सत्य हरिश्चंद्र’
(1) कथावस्तु, (2) कथोपकथन, (3) पात्र चरित्र चित्रण, (4) देश-काल और वातावरण, (5) अभिनय, (6) भाषा तथा शैली, (7) उद्देश्य
कथावस्तु
‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक की कथा बहुत प्राचीन है परंतु इसकी भावना नित-नवीन तथा युग के लिए स्फूर्तिदायक है। कथा का आधार पुराण है। प्रथम अंक में नाटककार ने राजा हरिश्चंद्र के सत्य की प्रतिष्ठा इतनी अधिक बढ़ा दी है कि वह धीरे-धीरे सुरलोक तक पहुँच जाती है। द्वितीय अंक में राजा स्वप्न में अपना सर्वस्व ब्राह्मण को दे देते हैं। स्वप्न के द्वारा कथा को चरमावस्था तक पहुँचाने में राजा के सत्य की दृढ़ता और भी अधिक हो जाती है। तृतीय अंक में गंगा आदि तथा राजा के द्वारा अपने आपको, अपनी स्त्री तथा पुत्र को बेचने का वर्णन है। चतुर्थ अंक में समस्त नाटक का प्राण है। कथा में क्रमिक विकास तथा प्रवाह है। घटनाओं का विकास मनोवैज्ञानिक है।
कथोपकथन –
संवाद लंबे हैं, परंतु फिर भी विषय की विशदता के आधार पर वे गतिशील हैं। संवाद प्रभावशाली हैं। स्वगत कथनों की भरमार है, यह इस नाटक का सबसे बड़ा दोष है। कहीं-कहीं पर तो संवाद बहुत ही लंबे हो गए हैं इसलिए इस तत्त्व की दृष्टि से यह नाटक असफल है।
पात्र चरित्र चित्रण –
राजा हरिश्चंद्र, रानी शैव्या, इद्र तथा विश्वामित्र इस नाटक के प्रमुख पात्र हैं। इनका चरित्र-चित्रण बहुत सुंदर हुआ है। कथोपकथनों के द्वारा पात्रों के चरित्र का विकास हुआ है। पात्रों की भरमार भी नहीं है। नाटककार ने पात्रों के चरित्र-चित्रण में मनोवैज्ञानिक प्रणाली का आश्रय लिया है। लेखक को पात्रों के चरित्र चित्रण में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।
देशकाल तथा वातावरण –
‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक में तत्कालीन देश-काल तथा वातावरण के चित्रण के साथ साथ आधुनिक युग की पुकार भी सुनाई पड़ती है।
भाषा तथा शैली –
शैली पात्रों के उपयुक्त तथा अनुकूल है। दर्शकों को पात्रों के कथोपकथनों तथा हाव-भावों की शैली में कृत्रिमता दृष्टिगोचर नहीं होती है। भाषा सरल है।
अभिनय –
‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक सर्वप्रिय है। इसका भारतवर्ष के कोने-कोने में प्राचीनकाल से अभिनय होता चला आ रहा है, परंतु संवादों के लंबे होने तथा स्वगत कथोपकथनों के कारण दर्शकगण कुछ उकता जाते हैं। स्वयं नाटककार ने इसका अनेक बार अभिनय किया था।
रस-
इस नाटक का प्रमुख रस करुण है। इसमें वीर तथा भयानक रस का भी परिपाक बहुत ही प्रभावपूर्ण बन पड़ा है। हास्य रस का पूर्ण अभाव है।
उद्देश्य –
इस नाटक में नाटककार का उद्देश्य राजा हरिश्चंद्र की सत्य-वादिता तथा दानशीलता पर प्रकाश डालना है। लेखक को अपने इस उद्देश्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।
उपर्युक्त नाटकीय तत्त्वों का विवेचन करने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक इस दृष्टि से एक सफल रचना है।
पात्रों का चरित्र चित्रण
राजा हरिश्चंद्र
राजा हरिश्चंद्र ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक के नायक अर्थात् प्रमुख पात्र हैं। वे सत्यवादिता, दानशीलता, विनम्रता, सहनशीलता, कर्त्तव्यपरायणता आदि गुणों के कारण विश्व-विख्यात हैं।
नायक – राजा हरिश्चंद्र ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक के धीरोदात्त नायक है। उनमें धीरोदात्त नायक के सभी गुण हैं। आरंभ से लेकर अंत तक वे कथा के साथ चलते हैं। सभी घटनाएँ उनसे संबंधित हैं। फलप्राप्ति भी उन्हीं को होती है।
सत्यवादी तथा दानशील – स्वप्न में दिए गए दान को भी यथार्थ रूप देना उनकी सत्यवादिता तथा दानशीलता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। स्त्री, पुत्र तथा स्वयं को बेचकर विश्वामित्र को दक्षिणा देना उनकी दानशीलता को बहुत ऊँचा उठाता है।
कर्त्तव्यपरायण – श्मशान भूमि में पुत्र रोहतास का भी कफन कर दिए बिना दाह-संस्कार न होने देना उनके कर्त्तव्यपरायणता तथा स्वामी भक्ति पर प्रकाश डालते हैं। संसार में अन्यत्र ऐसा कर्त्तव्यपरायणता का उदाहरण मिलना बहुत कठिन ही नहीं बल्कि असंभव ही है।
सहनशील – सहनशीलता ही ऐसा गुण है जो कि राजा हरिश्चंद्र के अन्य गुणों की रक्षा करता है। पुत्र के मृतक शरीर को श्मशान भूमि में पड़ा देख कर और पत्नी के फूट-फूट कर रोने पर भी वे उस वज्रपात को चुपचाप सहन कर लेते हैं और अपने कर्त्तव्य पथ से भ्रष्ट नहीं होते हैं। महर्षि विश्वामित्र जब क्रोध में आग बबूला होकर उनकी राजसभा मे आते हैं, तब भी वे चुपचाप रहकर अपनी सहनशीलता का परिचय देते हैं। इस प्रकार वे घोर कष्टों को भी हँसकर सहन कर लेते हैं।
प्रजा हितैषी – राजा हरिश्चंद्र अपनी प्रजा को भी पुत्रवत् समझते हैं। नाटक के अंत में राजा हरिश्चंद्र भगवान विष्णु से यही प्रार्थना करते हैं कि मुझे और मेरी प्रजा को आप अपनी शरण में ले लीजिए।
आदर्श चरित्र – राजा हरिश्चंद्र का चरित्र एक महान तथा आदर्श चरित्र है। राजा हरिश्चंद्र के चरित्र से महात्मा गांधी ने भी सत्यवादिता की शिक्षा ग्रहण की जिसके कारण वे इतने बड़े महापुरुष बन गए कि समस्त विश्व के वन्दनीय हो गए।
इंद्र
देवराज इंद्र इस नाटक में प्रतिनायक हैं। वे द्वेष की साक्षात् मूर्ति हैं। वे वाक्पटु तथा चापलूस हैं।
प्रतिनायक – इंद्र ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक का प्रतिनायक है। वह राजा हरिश्चंद्र (नायक) का विरोधी। उसमें प्रतिनायक के अवगुण विद्यमान हैं। वह राजा हरिश्चंद्र की ख्याति को सुनकर भयभीत हो जाता है और उसके सत्यव्रत को डिगाने के लिए महर्षि विश्वामित्र के साथ मिलकर षड्यन्त्र रचता है। वह दूसरे के कंधे पर से बंदूक चलाने वाला है। हरिश्चंद्र को कर्त्तव्य-भ्रष्ट करने के लिए वह विश्वामित्र को उकसाकर उन्हीं से सब कार्य कराता है।
द्वेष भाव से पूर्ण – इंद्र के चरित्र में सबसे बड़ा अवगुण उसका द्वेष भाव से पूर्ण होना है। जब वह राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता, दानशीलता, कर्त्तव्यपरायणता की ख्याति सुनता है, तो उनका मन-मस्तिष्क द्वेष से भर जाता है। उसके हृदय में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। वह विश्वामित्र को हरिश्चंद्र के प्रतिकूल पाकर उसे और अधिक उकसाता है। इतना ही नहीं, नारद से तो वह यहाँ तक पूछता है, “यदि हरिश्चंद्र इतने बड़े दानी हैं, तो क्या उसकी लक्ष्मी स्थिर रहती है?”
चापलूस एवं वाक्पटु — महर्षि विश्वामित्र को राजा हरिश्चंद्र के प्रतिकूल पाकर इंद्र उसकी चापलूसी करता है। चापलूसी करते हुए वह कहता है :-
“भला सत्य धर्म पालन करना क्या हँसी-खेल है। यह आप जैसा महात्माओं का ही काम है, जिन्होंने अपना घरबार छोड़ दिया है।”
स्वार्थी एवं अवसरवादी – पहले तो इंद्र राजा हरिश्चंद्र को गिराने, उनको नीचा दिखाने तथा कर्त्तव्य पथभ्रष्ट करने का पूर्ण प्रयत्न करता है, परंतु जब उसे अपने इस दुष्कर्म में सफलता नहीं मिलती है, तो वह राजा हरिश्चंद्र से कहता है, “यह सभी कुछ तो आपकी कीर्ति को अचल रखने के लिए ही किया गया है।”
विश्वामित्र
विश्वामित्र ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक के एक प्रमुख पात्र हैं। यद्यपि वे प्रतिनायक नहीं हैं, परंतु फिर भी उनके सभी कार्य प्रतिनायक होने के कारण वे प्रतिनायक ही प्रतीत होते हैं। उनकी गति तो इस कहावत से मेल खाती है, “मान न मान में तेरा मेहमान।” यह तो ठीक है ही कि महाविद्याओं को छुड़ा लेने में विश्वामित्र का वैर स्वाभाविक ही था, परंतु जिस रूप में वे उसे निभाने का प्रयत्न करते हैं, उसमें ब्राह्म तथा क्षात्र तेज दोनों को धब्बा लगता है। उदारता तो उनमें नाम मात्र को भी नहीं है। अवसर पाकर बात का बतंगड़ बनाने में बड़े ही सिद्धहस्त हैं। विश्वामित्र राजा हरिश्चंद्र द्वारा दी गई आधी दक्षिणा को स्वीकार नहीं करते हैं और उन्हें दास बनाने के लिए विवश करते हैं और तक्षक (साँप) के द्वारा रोहतास को डसवाते हैं। उनके इन सभी दुष्कर्मों में यह जानते हुए भी कि राजा हरिश्चंद्र की अंत में विजय होगी, उनकी परीक्षा लेने के लिए चले जाते हैं। यही उनकी हठधर्मिता है। इस नाटक में विश्वामित्र के मिथ्याभिमान का सुंदर चित्रण किया गया है।
रानी शैव्या (तारामती)
रानी शैव्या राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तथा नाटक की नायिका है। वह भी अपने पति के समान सत्य धर्म का पालन करती है। शैव्या भारतीय नारी का एक महान आदर्श है। पति के साथ कष्टों में कूदने में वह तनिक भी पीछे नहीं हटती है। पति के द्वारा विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए किए गए वायदे को पूर्ण करने के लिए वह प्रसन्नतापूर्वक अपने आपको बेचने के लिए तैयार हो जाती है। वह अपने पतिव्रत धर्म के पालन का निर्वाह करती हुई कहती है, “तुम दास होगे, तो मैं स्वाधीन रहकर क्या करूँगी? स्त्री को अर्धांगिनी भी कहते हैं। इससे पहले बाँया अंग बेच दो, तब दाँया बेचो।”
कितनी महान कर्त्तव्यपरायणता है शैव्या के चरित्र में! जब वह अपने पुत्र के मृतक देह को श्मशान भूमि में ले जाती है, तो थोड़ी देर के लिए तो पुत्र-प्रेम में पागल होकर वह पति को भी कर्तव्य पथ से विचलित करने का प्रयत्न करती है, परंतु पति के कहने पर वह संभल जाती है और आधा कफन फाड़ कर दे देती है और इस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन करती है। वास्तव में शैव्या का चरित्र एक सच्ची वीर पत्नी, पुत्री और माता का चरित्र है।