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Jaishankar Prasad ke ‘Skandgupta’ Natak Ka Best Explanation

Skandgupt Naatak By Jayshankar Prasad Ka Best Explanation

राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझ सकेंगे।

गुप्तकालीन संस्कृति एवं इतिहास से परिचित हो सकेंगे।

भारत पर किए गए हूणों के आक्रमण को जान पाएँगे।

भारतीय वीर पुत्र स्कंदगुप्त को जान सकेंगे।

इस पाठ का रसास्वादन व व्याख्या कर सकेंगे।

नाटक का विविध विश्लेषण कर सकेंगे।

अन्य जानकारियों से परिचित हो सकेंगे।

हिंदी साहित्य-संसार में अपने अनूठी शैली द्वारा युगदृष्टा और युगस्रष्टा रहे छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1889 में वाराणसी स्थित एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही शुरू हुई थी और क्वींस कॉलेज, वाराणसी में उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की थी, किंतु माता-पिता और बड़े भाई की असमय पर हुई मृत्यु के कारण उन्हें अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़कर परंपरागत व्यवसाय संभालते हुए दिनभर दुकान में बैठना पड़ता था। प्रसाद जी ने प्राचीन, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक या दार्शनिक स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण कर अपना रचना संसार निर्माण किया है। संस्कृत भाषा पर उनका अधिकार था। इसके अतिरिक्त हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली आदि अन्य भाषाओं के भी वे ज्ञाता थे। कोमल प्रवृत्ति के प्रसाद जी ने अपने निजी जीवन में अत्याधिक दुख सहन किए। एक ओर माता-पिता, भाई के साथ-साथ क्रमश: पहली और फिर दूसरी पत्नी की हुई मृत्यु ने उनके जीवन में दुख की शृंखलाएँ निर्माण की तो दूसरी ओर परंपरागत व्यवसाय ठीक तरह से न चलने के कारण उन्हें ऋणग्रस्त होना पड़ा। अपने निजी जीवन में निर्मित हुए दुख, दर्द और अभावग्रस्तता पर उन्होंने अपने कोमल, करुणामय, भावुक तथा सौंदर्यनिष्ठ स्वच्छंदी स्वभाव के बल पर विजय प्राप्त कर अपनी रचनाओं में सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना की है।

प्राचीन भारत के गौरवपूर्ण इतिहास का, संस्कृति का, साथ ही साथ भारतीय दर्शन का सूक्ष्मता से अध्ययन करनेवाले प्रसाद जी के व्यक्तित्व पर बौद्ध दर्शन का अत्याधिक प्रभाव था। इसी प्रभाव के अनुरूप उन्होंने अपनी रचनाओं में बौद्धकालीन घटनाओं, चरित्रों को आधारभूमि के रूप में अपनाकर गौरवपूर्ण भारतीय इतिहास की टूटी हुई कड़ियों को वर्तमान युग से जोड़ा है। बौद्ध दर्शन की करूणा, शांति जैसी आचार-विचारधाराओं की प्रतिस्थापना उन्होंने अपनी रचनाओं में की है। जिसका मूल उद्देश्य विश्व-मानवता और विश्व-मैत्री है। अपनी रचनाओं में उन्होंने पूरी मानवता का विराट दर्शन कराया है। प्रसाद जी ने अपने कुल 48 वर्ष के अल्पकालीन जीवन में मानव मंगल के उच्चतर संदेश को अपने साहित्य संसार के माध्यम से सम्यकवाणी देने का प्रयास किया है। उनका देहांत 14 जनवरी, 1937 में हुआ।

कृतित्व

1. काव्य – ‘कानन’, ‘कुसुम’, ‘करुणालय’, ‘प्रेम-पथिक’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘झरना’, ‘आँसू’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’ ।

2. नाटक – ‘कामना’, ‘विशाखा’, ‘एक घूँट’, ‘अजातशत्रु’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘राज्यश्री’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ ।

3. उपन्यास – ‘कंकाल’, ‘तितली’ और ‘इरावती’ (अधूरा)।

4. कहानी संग्रह – ‘छाया’, ‘आँधी’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘इंद्रजाल’ और ‘आकाशदीप’।

5. निबंध संग्रह – ‘काव्य और कला’ तथा अन्य निबंध। 

6. प्रसाद संगीत – नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन’।

7. विविध – ‘चित्राधार’।

चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य द्वारा शासित विस्तृत साम्राज्य के उत्तराधिकारी कुमारगुप्त (प्रथम) का शासन काल ईस्वी सन् 415 के पूर्व प्रारंभ हो चुका था; क्योंकि उसका स्तंभलेख भिलसद (एटा यूपी) से प्राप्त हुआ है। उसके पूर्वज समुद्रगुप्त और विक्रमादित्य ऐसे वीर शासक थे। उनके द्वारा विजित और सुदृढ़ रूप से नियंत्रित साम्राज्य का अधिकारी कुमारगुप्त हुआ। ऐसी अवस्था में उसे न तो किसी विशेष प्रकार की नवीन व्यवस्था – प्रणाली स्थापित करनी पड़ी और न अन्य कोई राजनीतिक उद्यम प्रकट करने का अवसर मिला। चारों ओर शांति विराज रही थी। प्रजा शांत और संपन्न थी। यही कारण है कि कला-कौशल एवं साहित्य, विज्ञान इत्यादि की उस समय विशेष श्रीवृद्धि हुई और वह काल भारतवर्ष का स्वर्ण युग कहलाया।

इतना होने पर भी वस्तु विचार का परिणाम यही निकलता है कि कुमारगुप्त (प्रथम) दुर्बल और विलासी शासक था, भले ही उसने पूर्वजों द्वारा प्राप्त शांति-ऐश्वर्य का संरक्षण तीन-चार दशकों तक किया हो। उसकी दुर्बलता और विलासिता के दो प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उसकी वीरता एवं पराक्रम का कोई भी राजनीतिक प्रमाण नहीं प्राप्त है, यों तो तत्कालीन प्रशस्तिकारों ने अवश्य ही अपने प्रभु के प्रीत्यर्थ बहुत कुछ लिखा है; साथ ही उसके नाम के आगे-पीछे विरुद्धवाही उपाधियों की भी कमी नहीं है। उसके जीवन की प्रमुख घटनाएँ हैं, एक अश्वमेध यज्ञ और दूसरी पुष्यमित्रों का युद्ध। अश्वमेध यज्ञ की बात उसकी स्वर्ण-मुद्राओं से सिद्ध होती है और युद्ध की बात भितरीवाले शिलालेख (गाजीपुर यूपी) से। इन्होंने अपने जीवन का बहुत बड़ा काम नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 450 ईस्वी में करके किया।

प्रसिद्ध नाटककार जयशंकर प्रसाद का ‘स्कंदगुप्त’ 1928 में प्रकाशित ऐतिहासिक नाटक है। प्रस्तुत नाटक में 455 से 466 तक कुल 11 वर्षों के काल का वर्णन चित्रित किया गया है। प्रस्तुत नाटक में हूणों के आक्रमण के दौरान गुप्तवंशीय देशभक्त युवराज स्कंदगुप्त (विक्रमादित्य) के शौर्य, संयम तथा कर्तव्यपरायणता को दर्शा कर उसके आधार पर प्रसाद जी ने आज के दौर के युवको में राष्ट्रीय चेतना को प्रज्वलित करने की कोशिश की है। इस संदर्भ में प्रसाद जी का ही कथन द्रष्टव्य है “इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं का दिग्दर्शन करना है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का प्रयत्न किया है।” साथ ही प्रस्तुत नाटक में पारिवारिक कलह, सत्ता का मोह, उसके कारण किए गए षड्यंत्र तथा उसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न देश के पतन को भी रेखांकित किया गया।

1. महाबलाधिकृत = प्रधान सेनापति

2. स्कंधावार = राज्य का शिविर/छावनी

3. शरीरांत होना = स्वर्ग सिधार जाना 

4. विषयपति = किसी छोटे प्रांत का शासक

5. महाप्रतिहार = प्राचीन काल का उच्च राज कर्मचारी (प्रमुख कोतवाल) 

6. विक्रमादित्य = विक्रम और आदित्य (सूर्य) = पराक्रम का सूर्य 

7. महामहोपाध्याय = गुरुओं के गुरु  

‘स्कंदगुप्त’ नाटक एक विशालकाय नाटक है। इस नाटक में आए दीर्घ अवधि के घटना-प्रसंगों के कारण इसे ‘महाकाव्यात्मक’ नाटक भी कहा जाता है। प्रस्तुत नाटक की कथावस्तु पाँच अंकों में विभाजित है और ये पाँच अंक कुल तैंतीस दृश्यों में विभाजित हैं। प्रथम अंक में सात दृश्य, द्वितीय अंक में सात दृश्य, तृतीय अंक में छह दृश्य, चतुर्थ अंक में सात दृश्य और पंचम अंक में छह दृश्य हैं। इस नाटक में कुल 14 गीत भी समाहित हैं।

‘स्कंदगुप्त’ के प्रमुख पात्र

पुरुष पात्र –

स्कंदगुप्त – युवराज (विक्रमादित्य) 

कुमारगुप्त – मगध का सम्राट 

गोविंदगुप्त – कुमारगुप्त का भाई 

पुरगुप्त – कुमारगुप्त का छोटा पुत्र

पर्णदत्त – मगध का महानायक

चक्रपालित – पर्णदत्त का पुत्र 

बंधुवर्मा – मालव का राजा 

भीमवर्मा – बंधुवर्मा का भाई 

मातृगुप्त – कवि कालिदास 

प्रपंचबुद्धि – बौद्ध कापालिक 

शर्वनाग – अंतर्वेद का विषयपति

कुमारदास (धातुसेन) – सिंहल का राजकुमार

भटार्क – नवीन महाबलाधिकृत

पृथ्वीसेन – मंत्री कुमारामात्य

खिंगिल – हूण आक्रमणकारी

मुद्गल – विदूषक

प्रख्यात कीर्ति – लंकाकुल का श्रमण

देवकी – कुमारगुप्त की बड़ी रानी, स्कंद की माता 

अनंतदेवी – कुमारगुप्त की छोटी रानी, पुरगुप्त की माता 

जयमाला – बंधुवर्मा की पत्नी 

देवसेना – बंधुवर्मा की बहन

विजया – मालव के धन कुबेर की कन्या, देवसेना की सहेली 

कमला – भटार्क की माँ

रामा – शर्वनाग की पत्नी

मालिनी – मातृ गुप्त की स्त्री  

स्कंदगुप्त

नायक और केंद्रीय पात्र – स्कंदगुप्त प्रस्तुत नाटक का केंद्रीय पात्र और नायक है। नाटक का नाम भी उसी के नाम के आधार पर किया गया है। किंतु इस नाटक में परंपरागत नायकों की छवि से अलग स्कंदगुप्त के व्यक्तित्व के कई आयाम देखने को मिलते है। उदासीनता, वैराग्य, वीरत्व, प्रेमी हृदय, अवसादग्रस्तता आदि मिलकर स्कंदगुप्त के विशिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इसलिए यह चरित्र प्रसाद के नाटकों के सभी पात्रों में से सर्वाधिक मानवीय बन पड़ा है। वह वीर है किंतु मानव-सुलभ विकारों से भी युक्त है।

राष्ट्र का सच्चा सेवक नाटक की शुरूआत में गुप्त-कुल के अस्थिर उत्तराधिकार नियम और विमाता के कुटिल षड्यंत्रों से आहत स्कंद राज्य प्राप्ति के प्रति उदासीन दिखाई पड़ता है किंतु जब विदेशी हूणों के आक्रमण से आर्यावर्त की एकता और अखंडता खतरे में पड़ती है तो वह अपने समूचे शक्ति-बल से लड़ते हुए राष्ट्र को रक्षित करता है। निस्वार्थ कर्मयोगी की तरह वह स्वयं के लिए कोई भी इच्छा न रखते हुए राष्ट्र के लिए लड़ता है। वह कहता है-“भटार्क, यदि कोई साथी न मिला तो साम्राज्य के लिए नहीं, जन्मभूमि के उद्धार के लिए मैं अकेला युद्ध करूँगा …।” हमारे अंतर्मन की स्थिति चाहे कैसी भी हो किंतु राष्ट्र के लिए हमें अपने कर्तव्यों को तत्परता से निभाना ही होगा – यह संदेश स्कंदगुप्त का चरित्र देता है। आर्यावर्त को पहले-पहल शकों और पुष्यमित्रों से और तदंतर हूणों से मुक्ति दिलाने का कार्य स्कंदगुप्त साहसपूर्वक करता है। वह आत्मविश्वास से भरपूर, निर्भीक और उत्साही युवक के रूप में दिखलाई पड़ता है। स्कंदगुप्त के चरित्र में स्वाभिमान का गुण भी है, वह विजया द्वारा दिए गए प्रलोभन को एक झटके में ठुकरा देता है।

व्यवहार-कुशल नेतृत्व स्कंदगुप्त एक व्यवहार कुशल राजपुरुष के रूप में भी दिखलाई पड़ता है। आर्यावर्त पर आए संकट के समय उसके द्वारा बनाई गई योजना इस बात की सूचक है। हूणों से किए गए पहले युद्ध को छोड़कर शेष दोनों युद्धों में वह सफलता प्राप्त करता है। एक परिपक्व राजपुरुष की भाँति वह पराजित खिंगिल को क्षमादान दे देता है। इससे पूर्व भी वह विश्वासघात करनेवाले और अपनी माता देवकी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल भटार्क और शर्वनाग को क्षमा करता है, जिससे शर्वनाग का हृदय परिवर्तित होकर सदैव के लिए स्कंद का ऋणी बन जाता है। भटार्क भी अंततः स्कंद को ही आदर्श मानता है।

एकाकी, द्वंद्वग्रस्त और निराशा का शिकार जयशंकर प्रसाद ने राष्ट्र-रक्षा के लिए लड़ते स्कंदगुप्त के वीरत्व के साथ उसका अकेलापन भी नाटक में समानांतर रूप से उभारा है। “परिवार, प्रणय, राज्य और व्यक्तिगत जीवन में स्कंदगुप्त उन नाटकीय परिस्थितियों के मध्य स्थित दिखाई देता है जो किसी भी व्यक्ति को भावुकता और द्वंद्व में उलझाकर रख सकती है।” राष्ट्र के लिए लड़ने वाला स्कंद भीतरी रूप से द्वंद्वग्रस्त है उसका कथन देखिए- “बौद्धों का निर्वाण, योगियों की समाधि और पागलों की-सी संपूर्ण विस्मृति मुझे एक साथ चाहिए। चेतना कहती है कि तू राजा है, और उत्तर में जैसे कोई कहता है कि तू खिलौना है – उसी खिलवाड़ी बटपत्रशायी बालकों के हाथ का खिलौना है। तेरा मुकुट श्रमजीवी से भी तुच्छ है।” स्कंदगुप्त युवा है। युवावस्था के अनुरूप वह पहले-पहल विजया के प्रति आकर्षित होता है। विजया द्वारा भटार्क का वरण करने पर उसे अफसोस भी होता है। कालान्तर में स्कंद देवसेना के उदात्त गुणों से प्रभावित होकर उससे प्रणय-निवेदन करता है किंतु देवसेना के अस्वीकार से उसे झटका लगता है। इस रूप में हम स्कंदगुप्त को नितांत एकाकी पाते हैं।

अनंतदेवी के इशारों पर चलने वाले भटार्क द्वारा हूणों की सहायता करके उन्हें अंतर्वेद में प्रविष्ट कराने से मिली हार से स्कंद बुरी तरह टूट जाता है। माता देवकी की मृत्यु का समाचार उसके दुख को और अधिक गहरा कर देता है। देवसेना द्वारा उसका प्रणय और विवाह का निवेदन अस्वीकार कर दिया जाता है। ऐसे में उसे अपना जीवन ‘कर्तव्य विस्मृत, भविष्य अन्धकारपूर्ण, लक्ष्यहीन दौड़ और अनंत सागर का सन्तरण’ लगता है। माता देवकी और वृद्ध पर्णदत्त का स्वर्गवास, देवसेना से विदाई पाकर स्कंद नितांत अकेला हो जाता है और सोचता है- “कितना अकेला आज मैं!”

पर्णदत्त

गुप्त-कुल के वृद्ध सेनापति पर्णदत्त हैं। उनकी पूर्ण निष्ठा गुप्त साम्राज्य को सुरक्षित करने में है। नाटक की शुरूआत में ही वह उदासीन स्कंद को उसके कर्तव्यों के प्रति जागृत करते हैं। कुंभा दुर्घटना के बाद बिखरे हुए राष्ट्र को संगठित करने में वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और राष्ट्र के लिए लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। उसके माध्यम से नाटककार प्रसाद ने राष्ट्रीय चेतना का उद्बोधन देशवासियों को दिया है, समाज में समानता की प्रगतिशील दृष्टि का भी वाहक वही है और राष्ट्रीय आकांक्षाओं को पूरा करने का संकल्प भी नाटककार उसी के द्वारा पूरा करवाता है। वह स्कंदगुप्त की प्रेरक शक्ति है। पर्णदत्त का चरित्र एक समाजसेवी के रूप में उभरकर सामने आता है। युद्ध का अवसर न रहने पर भी वृद्ध पर्णदत्त जिस तत्परता के साथ हत या आहत सैनिकों के परिवारों के पोषण में लग जाता है यह राज्य की सेवा से भी बढ़कर है।”

भटार्क

भटार्क ‘स्कंदगुप्त’ नाटक का महत्त्वाकांक्षी पात्र है। वह वीर और साहसी है। गुप्त-कुल में यथोचित पद न मिलने के कारण उसके मन में प्रतिहिंसा की भावना उपजती है। अपनी इच्छाओं की प्राप्ति के लिए महाबलाधिकृत के पद के लालच में आकर वह अनंतदेवी के अनैतिक और राष्ट्र के विरोधी कार्यों में सहयोग देता है। बीच-बीच में माँ कमला के कटु शब्द सुनकर जब उसका हृदय उसे धिक्कारता है तब वह राष्ट्रहित के विषय में सोचते हुए अपनी संकुचित वृत्ति को धिक्कारता है। लेकिन उसकी महत्त्वाकांक्षा उसके सद्भावों पर हावी हो जाती है, जिसके फलस्वरूप वह कुंभा के बाँध को तोड़कर स्कंदगुप्त के साथ समूची सेना और राष्ट्र को घोर संकट में डाल देता है। अंततः स्कंदगुप्त के विशाल और उदार हृदय से प्रेरणा लेता हुआ भटार्क राष्ट्र-रक्षा में योग देता है। अपनी कमजोरियों से बार-बार संघर्ष करते हुए वह ऊपर उठता है, उसका हृदय-परिवर्तन होता है। जयशंकर प्रसाद ने भटार्क का चरित्र चित्रण मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है।

शर्वनाग

शर्वनाग की स्थिति भी भटार्क जैसी ही है। पहले-पहल वह कादम्ब, कामिनी और कंचन को ही जीवन समझने वाले साधारण सैनिक के रूप में सामने आता है। वह साहसी है, भटार्क और अनंतदेवी उसके इसी साहस का लाभ महारानी देवकी की हत्या के षड्यंत्र में उठाते हैं। स्कंदगुप्त की उदारता स्वरूप शर्वनाग को जीवन-दान के साथ ही अंतर्वेद के विषयपति का पद मिलता है, कृतज्ञता से भरकर उसका हृदय-परिवर्तन होता है और वह राष्ट्रसेवा के कार्यों में लग जाता है। शर्वनाग राह से भटकी विजया को सुपथ के लिए प्रेरित करता है। हूणों के अत्याचार से उसकी संतान की मृत्यु हो जाती है जिससे वह उन्मत्त अवस्था में पहुँच जाता है।

प्रख्यातकीर्ति

‘स्कंदगुप्त’ नाटक में प्रख्यातकीर्ति नामक पात्र की अवतारणा प्रसाद जी ने भारतीय संस्कृति के समावेशी गुण के अनुरूप की है। नाटक में एक स्थल पर प्रख्यातकीर्ति कहता है, “मनुष्य अपूर्ण है। इसलिए सत्य का विकास जो उसके द्वारा होता है, अपूर्ण होता है। यही विकास का रहस्य है….. । सभी धर्म समय और देश की स्थिति के अनुसार, विवृत्त होते रहे हैं और होंगे। हम लोगों को हठधर्मी से उन आगन्तुक क्रमिक पूर्णता प्राप्त करने वाले ज्ञानों से मुँह न फेरना चाहिए। हम लोग एक ही मूल धर्म की दो शाखाएँ हैं। आओ हम दोनों के विचार के फूलों से दुख-दग्ध मानवों का कठोर पथ कोमल करें।” बौद्ध-भिक्षु होने पर भी प्रख्यातकीर्ति राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति चिंतित है जिसके कारण वह निर्भीकता से हूण सेनापति और महारानी अनंतदेवी को खरी-खोटी सुना देता है।

प्रपंचबुद्धि

प्रख्यातकीर्ति के विपरीत प्रपंचबुद्धि एक ऐसे बौद्ध भिक्षु के रूप में चित्रित हैं जो अहिंसा-प्रधान धर्म के पोषण के लिए हिंसा का सहारा लेता है और कुटिल कृत्य करता है।

मातृगुप्त

मातृगुप्त, जिसे जयशंकर प्रसाद ने नाटक की भूमिका में महाकवि कालिदास सिद्ध किया है-वह मूलतः कवि है। कश्मीर का निवासी मातृगुप्त मलेच्छों से उस सुंदर प्रदेश के आक्रांत होने से दुखी है। कवि कर्म को सामाजिक सम्मान न मिलना भी उसे सालता है। वह आर्यावर्त और स्कंदगुप्त का शुभ चिंतक है। श्मशान भूमि में देवसेना की जीवन-रक्षा के फलस्वरूप स्कंदगुप्त उसे कश्मीर का विषयपति बना देता है। कश्मीर में उसका सामना अपनी प्रेमिका मालिनी से होता है, जो अब वेश्या बन चुकी है। उसके इस रूप को देखकर मातृगुप्त को मानसिक आघात पहुँचता है। निजी जीवन की विडंबनाओं के बावजूद मातृगुप्त अपने काव्य के माध्यम से देशवासियों के मन में राष्ट्र-प्रेम का संचार करता है।

बन्धुवर्मा और भीमवर्मा

बंधुद्वय राष्ट्र की एकता और रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं। अपने मालव–राज्य को स्कंदगुप्त के प्रति समर्पित करते हुए और राष्ट्र यज्ञ में प्राणों की आहुति देकर बंधुवर्मा अपने प्रण को पूरा करता है।

धातुसेन / कुमारदास

सिंहल का राजकुमार है जो भारत भ्रमण के लिए आया हुआ है। वह गुप्त साम्राज्य में हो रहे नित नए परिवर्तनों पर गहरी दृष्टि रखता है। विदेशी होकर भी आर्यावर्त के लिए चिंतित और उसकी रक्षा के लिए सन्नद्ध है। महाबोधि-विहार में बलि-कर्म को लेकर होने वाले ब्राह्मण-बौद्ध संघर्ष में वह मानव-धर्म की सुचिंतित व्याख्या करता है।

मुद्गल

मुद्गल विदूषक के रूप में है जो अपने मूल काम हास्य-व्यंग्य के साथ ही राष्ट्र-हित के कार्यों में भी संलग्न दिखाई पड़ता है।

चक्रपालित

गुप्त-कुल के वृद्ध सेनापति पर्णदत्त पुत्र चक्रपालित है। युवावस्था के अनुरूप उत्साही, ऊर्जावान और आत्मविश्वास से भरपूर राष्ट्र-प्रेमी युवक है। वह बिना किसी लाग-लपेट के स्वानुभूत उद्गारों को स्पष्ट कह देने का साहस रखता है।

गोविन्दगुप्त

सम्राट कुमारगुप्त के भाई हैं। अपने भाई की विलासिता से क्षुब्ध होकर वे गुप्त जीवन बिता रहे होते हैं किंतु जब विदेशी आक्रमणों से आक्रांत आर्यावर्त को स्कंद द्वारा रक्षित होते देखते हैं तो स्कंद के सहायक बनकर उभरते हैं। अंततः राष्ट्रोद्धार के लिए स्वयं का बलिदान कर देते हैं।

पृथ्वीसेन, महाप्रतिहार और दंडनायक

पृथ्वीसेन, महाप्रतिहार और दण्डनायक आत्म-बलिदान का मार्ग अपनाते हुए गुप्त-साम्राज्य के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हैं।

पुरगुप्त

पुरगुप्त एक विलासी युवराज के रूप में चित्रित हुआ है जिसे उसकी माँ अनंतदेवी किसी भी कीमत पर गुप्त-सम्राट बनाना चाहती है। सम्राट कुमारगुप्त के साथ पुरगुप्त के चारित्रिक विकास का अवकाश नाटक में नहीं है।

खिंगिल हूण –

सेनापति है जो अत्याचारी आक्रामक शक्ति का सूचक है। नाटक के अंत में स्कंद उसे पराजित करते हुए भारत छोड़ने की चेतावनी देता है।

नारी पात्र

जयशंकर प्रसाद के नाटकों की नारियाँ अपनी चारित्रिक विशेषताओं के कारण समूचे हिंदी नाट्य-साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं।

देवसेना

देवसेना ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की प्रमुख नारी पात्र है। इस गीतिमय नारी चरित्र में उदार मानव-हृदय के सद्भाव अपने उच्चतम स्तर पर देखने को मिलते हैं। राष्ट्र के प्रति प्रेम हो या व्यक्ति के लिए प्रेम-देवसेना नि:स्वार्थ त्याग और निष्काम प्रेम का आदर्श रचती है। जनमंगलकारी कार्यों को त्यागकर एकांत में गार्हस्थ्य सुख की कामना करनेवाला स्कंद देवसेना की ही प्रेरणा से साम्राज्य के उद्धार का संकल्प करता है। अतः बर्बर हूणों से भारतीय जनता की रक्षा करनेवाले स्कंद को भीष्म के सदृश दृढ़ बनाने का श्रेय उस अबला को है, जिसने अपने ताप के फल को भी आराध्यदेव के चरणों में अर्पण कर दिया। देवसेना के चरित्र में भी ‘व्यक्ति वैचित्र्य’ सिद्धांत का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। निजी जीवन में वह अकेली है, वैसे वह ‘समाज की सेविका है।

संगीत प्रेमी – देवसेना संगीत से गहरा प्रेम करती है। संगीत उसके प्रत्येक हर्ष और विषाद, प्रेम और त्याग का अवलंबन है। वह पूरे ब्रह्मांड में होने वाली प्रत्येक घटना, जीवन के प्रत्येक क्षण को संगीत की लय और तान के रूप में देखती है। वह कहती है- “प्रत्येक परमाणु के मिलने में एक स्वर है, प्रत्येक हरी-भरी पत्ती के हिलने में एक लय है। मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रखा है, इसी से तो उसका स्वर विश्व-वीणा में शीघ्र नहीं मिलता। पांडित्य के मारे जब देखो, जहाँ देखो बेताल-बेसुरा बोलेगा पक्षियों को देखो, उनकी ‘चहचह ‘कलकल’ ‘छलछल’ में, काकली में, रागिनी है।”  नियति के संगीत के प्रति निश्चिन्त रहने वाली देवसेना इसीलिए नाटक में कहीं भी स्खलित नहीं होती।

स्वाभिमानी और चरित्रगत दृढ़ता से परिपूर्ण – देवसेना जीवन के विकट क्षणों में भी अपने स्वाभिमानी चरित्र की दृढ़ता को बनाए रखती है। यहाँ तक कि जब युवराज स्कंदगुप्त उसके समक्ष प्रणय-निवेदन करता है तो वह उसे यह कहकर अस्वीकार कर देती है कि कहीं यह कार्य उसकी मातृभूमि मालव के महत्त्व और भाई बंधुवर्मा के उत्सर्ग के विपरीत रहेगा। इसीलिए वह स्कंदगुप्त से प्रेम करते हुए भी आजीवन स्कंदगुप्त की दासी बनने का संकल्प लेती है। नाटक के अंत में वह इन शब्दों में स्कंद से क्षमा माँगते हुए विदा लेती है- “कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है सम्राट ! यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखों का अंत है। जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए। मेरे इस जीवन के देवता ! और उस जीवन के प्राप्य ! क्षमा!”

राष्ट्र की सच्ची सेविका – देवसेना समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य के प्रति पूर्णतः सजग है। इसीलिए वह आर्यावर्त की एकता और रक्षा के लिए मालव-राज्य को स्कंदगुप्त के अधीनस्थ करने में अपने भाई बंधुवर्मा को पूर्ण सम्मति देती है। हूणों के आक्रमण के समय वह वृद्ध पर्णदत्त के साथ गीत गा-गाकर भिक्षाटन करती है ताकि राष्ट्र-सेवकों को भोजन मिल सके। अपने गीतों के माध्यम से वह नागरिकों को देश के प्रति कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करती है

“देश की दुर्दशा निहारोगे

डूबते को कभी उबारोगे

हारते ही रहे, न है कुछ अब

दाँव पर आपको न हारोगे

कुछ करोगे कि बस सदा रोकर

दीन हो दैव को पुकारोगे

सो रहे तुम, न भाग्य सोता है

आप बिगड़ी तुम्हीं सँवारोगे

दीन जीवन बिता रहे अब तक

क्या हुए जा रहे, विचारोगे…”

अनंतदेवी

अनंतदेवी ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की खल स्त्री पात्र है। वह अति-महत्त्वाकांक्षी, कुटिल बुद्धि, कठोर एवं क्रूर हृदय नारी है। अपने पुत्र पुरगुप्त को गुप्त-सम्राट बनाने और सम्राट पद के वास्तविक अधिकारी सौतेले पुत्र स्कंदगुप्त को रास्ते से हटाने के लिए वह अनेक षड्यंत्र रचती है। अनंतदेवी के विषय में नाटक का पात्र भटार्क कहता, “एक दुर्भेद्य नारी-हृदय में विश्व-प्रहेलिका का रहस्य-बीज है। आह! कितनी साहसशीला स्त्री है? देखूँ, गुप्त-साम्राज्य के भाग्य की कुंजी यह किधर घुमाती है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह समय-समय पर भटार्क, विजया, प्रपंचबुद्धि और यहाँ तक कि अपने वृद्ध पति कुमारगुप्त का भी इस्तेमाल करती है। अनंतदेवी की महत्त्वाकांक्षा ‘स्कंदगुप्त’ के सारे घटनाचक्रों, षड्यंत्रों और कथानक-विकास का केंद्र-बिंदु है। वह अपना कार्य सिद्ध करने के लिए परिस्थितियों के अनुकूल क्रियाशील होने में अत्यंत पटु है।

विजया

‘स्कंदगुप्त’ नाटक में विजया महत्त्वाकांक्षी चरित्र है। वह रूपवती और आकर्षक व्यक्तित्व वाली है। अपने पिता से उसे अतुल धन मिला है। विजया को अपने रूप और धन दोनों पर बहुत घमंड है और इनका प्रयोग वह अपने महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए करती है। विजया ईष्यालु भी है, जिसके कारण वह देवसेना को मौत के मुँह में पहुँचा देती है। वह स्कंदगुप्त के प्रति इसलिए आकर्षित होती है क्योंकि वह युवराज है। लेकिन जब उसे स्कंदगुप्त की उदासीनता का पता चलता है तो वह भटार्क के पद और वीरता से आकृष्ट होकर उसका वरण कर लेती है। अंत में वह पुनः अपने धन की आड़ लेकर स्कंदगुप्त को पाने की इच्छा प्रकट करती है। विजया की कोई भी महत्त्वाकांक्षा पूरी नहीं होती। अंततः उसे आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़ता है।

रामा

रामा शर्वनाग की पत्नी और महादेवी देवकी की सेविका है। वह महादेवी के प्रति कृतज्ञ भाव से इतनी परिपूरित है कि अनंतदेवी के कुटिल आदेश का पालन करने वाले अपने पति को धिक्कारते हुए उसके समक्ष पिशाचिनी-सी प्रलय की काली आँधी बनकर खड़ी हो जाती है।

जयमाला

जयमाला मालव-नरेश बंधुवर्मा की पत्नी है, जो शकों के आक्रमण के समय मालव-दुर्ग की रक्षा में देवसेना के साथ खड़ी होती है। उसे जीवन के गूढ़ रहस्यों की गहरी समझ है। शकों से आक्रांत मालव की स्कंदगुप्त द्वारा रक्षा करने की कृतज्ञता-स्वरूप बंधुवर्मा जब गुप्त-साम्राज्य में मालव का विलय करना चाहता है तो वह स्वाभिमान और अस्तित्व का हवाला देते हुए पहले-पहल तैयार नहीं होती, बाद में मान जाती है और अपने पति के साथ स्कंदगुप्त के नेतृत्व में आर्यावर्त की रक्षा-यज्ञ में सहयोग देती है।

कमला

कमला एक ऐसी नारी के रूप में चित्रित है जो राष्ट्र-प्रेम से सराबोर है। अपने पथभ्रष्ट पुत्र भटार्क को सही दिशा में लाने की पुरजोर कोशिश करती है, असफल होने पर वह अपनी ही कोख को लांछित करती है। कमला की सत्प्रेरणा से ही भटार्क का हृदय-परिवर्तन होता है।

देवकी

स्कंदगुप्त की माता महादेवी देवकी मातृ-स्नेह से पूरित चरित्र है। स्कंदगुप्त के चरित्र में उनके व्यक्तित्व की शालीनता और राज-निष्ठा झलकती है।

मालिनी

मालिनी मातृगुप्त की पूर्व-प्रेमिका और वर्तमान में प्रसिद्ध वेश्या के रूप में चित्रित है। अपने अस्तित्व के द्वंद्व से ग्रस्त मालिनी के चरित्र का विकास नाटक में अधिक नहीं हो पाया है।

गुप्तकालीन मगध सम्राट कुमारगुप्त की दो रानियाँ हैं। बड़ी रानी का नाम है- ‘देवकी’ और छोटी रानी का नाम है ‘अनंतदेवी’। बड़ी रानी देवकी के पुत्र हैं ‘स्कंदगुप्त’ (विक्रमादित्य) जो युवराज भी हैं और छोटी रानी ‘अनंतदेवी’ के पुत्र का नाम है ‘पुरगुप्त’ जो राजकुमार है। ‘स्कंदगुप्त’ युवराज होने के कारण ‘कुमारगुप्त’ के बाद सम्राट बनने का अधिकार भी उसी का होता है। सम्राट बनने के सारे गुण स्कंदगुप्त में हैं। राज्य के सभी स्कंदगुप्त को ही राजा के रूप में संतोषजनक दृष्टि से देखते हैं। लेकिन छोटी रानी ‘अनंतदेवी’ को ये बात रास नहीं आती। विलासी जीवन में लिप्त कुमारगुप्त को अपने वश में कर तथा प्रधान सेनापति भटार्क को अपने साथ मिलाकर वह षड्यंत्र रचती रहती है।

इसी क्रम में पड़ोसी राष्ट्र मालव से दूत आकर उनके राजा बंधुवर्मा का उनके राज्य पर आक्रमण करनेवाले शक और हूणों से रक्षा करने का संदेश स्कंदगुप्त को देता है। ऐसे समय में जब स्कंदगुप्त की सेना शत्रु पुष्यमित्रों से जूझ रही है, फिर भी महानायक पर्णदत्त तथा उनके पुत्र चक्रपालित पर युद्ध का भार सौंपकर स्कंदगुप्त “शरणागत बंधुवर्मा की रक्षा करना और संधि का पालन करना क्षत्रिय धर्म है।” कहकर मालव राष्ट्र की मदद के लिए रवाना हो जाते हैं। इसी समय का फायदा उठाकर षड्यंत्रकारी अनंतदेवी, भटार्क, बौद्ध कापालिक प्रपंचबुद्धि के मार्गदर्शन में सम्राट कुमारगुप्त की मौत की सूचना देकर अनंतदेवी के पुत्र राजकुमार पुरगुप्त को सम्राट घोषित करते हैं। अनंतदेवी और भटार्क साम्राज्य के परम भक्त तथा शुभचिंतक पृथ्वीसेन, महाप्रतिहार और दंडनायक के विरोध करने पर उन्हें बंदी बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब राष्ट्र संकटों से घिरा हुआ हो तो राज्य में अंतर्गत विद्रोह नहीं होना चाहिए, ऐसा सोचकर वे तीनों आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इस तरह अनंतदेवी का रास्ता साफ हो जाता है और वह अपने पुत्र पुरगुप्त को राजा घोषित करती है।

प्रपंचबुद्धि ही के कहने पर शर्वनाग को लालच दिखाकर तथा मदिरा पिलाकर स्कंद की माता देवकी की हत्या करने के लिए राजी किया जाता है। लेकिन शर्वनाग की पत्नी रामा बीच में रोड़ा बनकर खड़ी हो जाती है। इधर मालव देश के राजा बंधुवर्मा की मदद के लिए गए हुए युवराज को अपने राज्य में घटित षड्यंत्र का पता चलता है। स्कंदगुप्त कुसुमपुर पहुँचकर देखता है कि उसकी माता देवकी को बंदी बना लिया गया है और अनंतदेवी के आदेश से उसे जान से मारने की तैयारियाँ चल रही हैं। वह भटार्क से दो हाथ कर उसे गिराकर अपनी माँ को बचा लेता है और क्षमा याचना करने पर विमाता अनंतदेवी, पुरगुप्त तथा भटार्क को माफ कर देता है। दुश्मनों का सामना करने के लिए वह सैन्य शक्ति संगठित करता है और सफलता प्राप्त कर उस राज्य की प्राप्ति भी कर लेता है। लेकिन अपने सौतेले भाई अनंतदेवी के पुत्र पुरगुप्त को ही वह मगध के सिंहासन पर बिठाता है।

इधर मालव राष्ट्र के राजा बंधुवर्मा अपनी पत्नी जयमाला और बहन देवसेना से विचार-विमर्श कर आनेवाले संकटों से अवगत होकर तथा स्कंदगुप्त ने शक और हूणों से राष्ट्र की रक्षा की है, इसलिए राष्ट्र ही की रक्षा के लिए अपना राज्य स्कंदगुप्त को भेंट स्वरूप देकर उनका राज्याभिषेक करना चाहता है। मन ही मन देवसेना स्कंदगुप्त को चाहती है। उसकी सहेली विजया भी स्कंदगुप्त को चाहती है। लेकिन यह सोचकर की देवसेना ही उससे शादी करेगी, वह उसके रास्ते से हटकर विद्रोही षड्यंत्रकारी भटार्क से जा मिलती है। भटार्क की माँ कमला भटार्क को राष्ट्रद्रोही होने के कारण तथा राज्याभिषेक में कुछ गड़बड़ी करने के लिए आया हुआ है यह जानकर उसे कोसती रहती है। वहीं विजया आकर भटार्क के साथ होने की घोषणा करती है। इसी समय सम्राट कुमारगुप्त के भाई और स्कंदगुप्त के चाचा गोविंदगुप्त, मुद्गल तथा मातृगुप्त के साथ आकर भटार्क, विजया, शर्वनाग और कमला को बंदी बनाकर स्कंदगुप्त के सामने पेश करते हैं। शर्वनाग पश्चात्ताप करते हुए मृत्यु दंड की माँग करता है। लेकिन माँ देवकी के कहने पर उसकी पत्नी रामा के देशप्रेम को याद रखते हुए शर्वनाग को स्कंदगुप्त सिर्फ माफ ही नहीं करता, अपितु उसे अंतर्वेद के विषयपति नियुक्त करता है।

माँ ही के कहने पर वह भटार्क को भी माफ कर देता है। लेकिन विजया को उनके साथ देखकर स्कंदगुप्त विचलित और दुखी हो जाता है। यहाँ देवसेना स्कंदगुप्त का विजया की ओर आकर्षित होना भाँप जाती है और विजया को ही वह जीत गई मानती है।

तृतीय अंक में स्कंदगुप्त को प्रपंचबुद्धि, भटार्क और अनंतदेवी के षड्यंत्र का सामना करना पड़ता है। वे  कापालिक प्रपंचबुद्धि के मार्गदर्शन में सब करते रहते हैं। विजया देवसेना को जलन के कारण मार डालना चाहती है। भटार्क और अनंतदेवी उसका साथ देते हैं और प्रपंचबुद्धि को उग्रतारा को प्रसन्न करने के लिए राजबलि चाहिए होती है, इसलिए विजया देवसेना को फुसलाकर श्मशान में ले आती है। जहाँ प्रपंचबुद्धि उसका बलि चढ़ानेवाला ही होता है कि तभी मातृगुप्त को इस बात की खबर लगने के कारण वह स्कंद को वहाँ ले आता है। स्कंदगुप्त प्रेमिका तथा बंधुवर्मा की बहन देवसेना को राजबलि से बचाकर प्रपंचबुद्धि को सजा देता है और मातृगुप्त को इस काम के उपहार में कश्मीर राज्य का शासक बना देता है।

इसी दौरान पश्चिमोत्तर सीमा की ओर गांधार के घाटी रणक्षेत्र में दुश्मनों का सामना करना पड़ता है। सैनिक चर खबर लाता है कि हूण शीघ्र ही नदी पार कर आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बंधुवर्मा के पूछने पर कुंभा के रणक्षेत्र में गद्दार भटार्क फिर एक बार दुश्मनों से मिल जाने के उसके कार्यकलापों से अवगत कराता है। स्कंदगुप्त बंधुवर्मा को कुंभा की रणक्षेत्र की ओर जाने के लिए कहता है, किंतु मगध की सेना उसकी अपेक्षा स्कंद के होने से ज्यादा ताकत के साथ लड़ सकेगी कहकर स्कंद को भेजकर खुद मालव सेना के साथ हूणों से लड़ विजय प्राप्त करता है और बहन देवसेना तथा भाई भीमवर्मा स्कंदगुप्त के हैं, कहकर अंतिम साँस लेता है। कुंभा के रणक्षेत्र में चक्रपालित भटार्क के दुश्मनों से मिल जाने की खबर देता है। लेकिन युद्ध के समय उस पर संदेह जताकर उसे खिलाफ करने की अपेक्षा उसकी गद्दारी से उसे वाकिफ़ कराता है। लेकिन उसके यह कहने पर कि वह गद्दार नहीं है, देशभक्त है। उसे मौका देने के लिए उसे रणनीति में शरीक करता है। स्कंद के नेतृत्व में सेना जी जान से लड़ती है और विजय प्राप्त करती है। लेकिन गद्दार भटार्क हूणों से मिलकर भागनेवाले हूणों को बाँध से जाने का मौका देकर तथा उनका पीछा करनेवाले गुप्त के सैनिकों को नदी पार करते वक्त बाँध तोड़कर नदी में बहा देता है।

चौथे अंक में नाचगाना, मदिरा में लिप्त भटार्क से स्कंद की माँ देवकी पूछने आती है कि स्कंद कहाँ है? वह कहता है कि वह कुंभा की धारा में बह गया। स्कंद के मरने की खबर सुनकर देवकी वही गिरकर मृत्यु को प्राप्त होती है। भटार्क के गद्दारी पर उसकी माँ कमला उसे कोसती है और उसे बेटा कहने में शर्म महसूस करती है। भटार्क को पश्चात्ताप होता है और वह शस्त्र त्याग देता है। कमला के कहने पर वह देवकी का अंतिम संस्कार राजसम्मान के साथ करने की सूचना सैनिकों को देता है।

चतुर्थ अंक के सप्तम दृश्य में कमला माँ की कुटी में स्कंद विपरीत परिस्थितियों के निर्माण होने के कारण निःसहाय और अकेला दिखाई देता है। हताश स्कंद को कमला हिम्मत बाँधती है और लड़ने की प्रेरणा देती है। पर्णदत्त और देवसेना देवकी के समाधि के पास कुटिया बनाकर भीख माँगकर जीवन व्यतीत करते हैं। स्कंद वहाँ आकर माँ की समाधि का दर्शन कर देवसेना से मिलता है। वह देवसेना से गुजारिश कर यह कहता है कि अब हम अलग नहीं होंगे। लेकिन देवसेना यह कहकर कि आपने विजया को चाहा था। इसलिए मैं प्रतिदान के रूप में आपकी नहीं हो सकती। बावजूद इसके कि मैंने जिंदगीभर आपके सिवा किसी को नहीं चाहा। मैं आजीवन आपकी दासी बनी रहूँगी। स्कंद भी उसके सामने माँ के समाधि को साक्षी बनाकर आजीवन कुमार जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा लेता है।

देवसेना पर्णदत्त को लाने के लिए चली जाती है। तभी विजया वहाँ आकर स्कंद से अपने प्यार, यौवन तथा राज्य प्राप्त करने के लिए धन की अभिलाषा देकर उसके साथ हो जाने की गुजारिश करती है। किंतु स्कंद उसे अपनी प्रतिज्ञा सुना कर लताड़ता है। उसकी यह बात वहाँ आए हुए भटार्क सुनता है और उसे भला बुरा सुनाता है। शर्म से ग्लानित होकर विजया आत्महत्या कर लेती है। स्कंद के कहने पर विजया के अंतिम संस्कार के लिए जो गड्ढा खोदा जाता है, उसमें भटार्क को रत्नगृह मिल जाता है। भटार्क रत्नभंडार देश के काम में लाने की बात कहकर सेना संकलन करने की आज्ञा स्कंद से माँगता है।

पर्णदत्त भीख के रूप में नागरिकों से देश के लिए लड़नेवाले युवक माँगता है। बहुत से युवक निकल पड़ते हैं। स्कंदगुप्त, चक्रपालित, भीमवर्मा, मातृगुप्त, शर्वनाग, कमला, देवसेना, रामा सब प्रकट हो जाते हैं।

इधर अनंतदेवी, प्रख्यातकीर्ति और पुरगुप्त हूण सेनापति के साथ स्कंदगुप्त के लौट आनेपर विचार-विमर्श कर रहे होते हैं कि तभी धातुसेन वहाँ आकर सब को बंदी बना लेता है। रणक्षेत्र में खिंगिल हूण सेना के साथ आता है और घमासान युद्ध के बाद घायल होकर बंदी हो जाता है। आर्य पर्णदत्त सम्राट को बचाने की कोशिश में वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। बंदी अनंतदेवी और पुरगुप्त के क्षमा याचना करने पर उन्हें माफ करते हुए स्कंदगुप्त रक्त का टीका पुरगुप्त को लगा कर उसे सम्राट घोषित करता है और उसे सख्त निर्देश देता है कि उसके बाद उसके जन्मभूमि की दुर्दशा न हो। वह हूण खिंगिल को भी छोड़ सख्त ताकित करता है कि सिंध के पार के इस पवित्र देश में कभी आने का साहस न करें। देवसेना भी उससे कहीं चले जाने की आज्ञा माँगती है। उसे कठिन हृदय से आशीर्वाद देकर खुद हतभाग्य होकर स्कंद अकेला रह जाता है।

‘स्कंदगुप्त’ नाटक दीर्घ अवधि का नाटक है। प्रस्तुत नाटक की कथावस्तु पाँच अंकों के कुल तैंतीस दृश्यों में विभाजित है, जिसका सार इस प्रकार है।

प्रथम अंक की शुरूआत उज्जयिनी में गुप्त-साम्राज्य के स्कंधावार में घूमते स्कंदगुप्त के स्वगत कथन से होती है जिसमें उसकी उदासीन मनःस्थिति के साथ ही गुप्त साम्राज्य के प्रति समर्पित भाव का पता लगता है। स्कंद की उदासीनता और राजधानी अयोध्या में नित्य हो रहे परिवर्तनों से चिंतित गुप्त साम्राज्य के महानायक पर्णदत्त स्कंद को अपने अधिकारों के प्रयोग और उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए प्रेरित करते हैं। स्कंद, पर्णदत्त और चक्रपालित के संवादों से हूणों, पुष्यमित्रों और मलेच्छों के आक्रमण की सूचना मिलती है। इनकी पारस्परिक बातचीत में गुप्त सम्राट का सिंहासन हड़पने के लिए चल रहे षड्यंत्रों का भी संकेत है। दृश्य का अंत चक्रपालित के पुष्यमित्रों पर विजय अभियान और सकंद द्वारा दूत से मिले संदेश के उपरांत मालव राज्य की सहायता के निर्णय से होता है। दूसरा दृश्य कुसुमपुर के राजमंदिर में सम्राट कुमारगुप्त और उनकी परिषद् में घटित होता है। इस दृश्य में धातुसेन और मुद्गल के संवादों में हास्य-व्यंग्य की झलक है। मंत्री कुमारामात्य पृथ्वीसेन महाराज को मालव, हूणों, और पुष्यमित्रों के आक्रमण और संबंधित योजना से अवगत कराते हैं। इस दृश्य का अंत महारानी अनंतदेवी द्वारा महाराज के लिए किये गये नृत्य-गायन और मदिरा-पान के प्रबंध से होता है। तृतीय दृश्य का आरंभ पथ में मातृगुप्त के स्वगत कथन से है जिसमें वह कवि-कर्म की विडंबना और अपनी मातृभूमि कश्मीर से विलग होने के द्वंद्व से ग्रस्त दिखता है। इसके बाद मातृगुप्त-कुमारदास के पारस्परिक वार्तालाप से मगध-साम्राज्य में होने वाली भावी हलचल का संकेत है। चतुर्थ-पंचम दृश्य कई घटनाओं को अपने अंदर समाए हुए हैं। अनंत देवी अपने प्रकोष्ठ में बौद्ध कापालिक प्रपंचबुद्धि, भटार्क और शर्वनाग के साथ मिलकर महाराज कुमारगुप्त की मृत्यु के साथ ही स्कंदगुप्त के स्थान पर पुरगुप्त को गुप्त-सम्राट बनाने का कुटिल षड्यंत्र रचती है। इन कार्यों का विरोध करने वाले गुप्त-साम्राज्य के सेवक दंडनायक, महाप्रतिहार व पृथ्वीसेन, पुरगुप्त और भटार्क के धृष्टतापूर्वक व्यवहार से आहत होकर आत्मघात कर लेते हैं। छठे दृश्य में हूणों की बर्बरता का संकेत है। सप्तम दृश्य अवंति के दुर्ग से संबंधित है। स्कंदगुप्त की सहायता पाकर मालव राज्य विदेशी आक्रांताओं से मुक्त होता है। इसी दृश्य में स्कंदगुप्त विजया के प्रति आकर्षित होता है। गीतिमय और भावमय चरित्र देवसेना का भी इसी दृश्य में दर्शक / पाठक से परिचय होता है।

दूसरे अंक के पहले दृश्य की शुरूआत मालव में शिप्रा-तट-कुंज पर देवसेना और विजया के वार्तालाप से होती है जिससे विजया का स्कंद के प्रति आकर्षण भाव ज्ञात होता है किंतु स्कंद-चक्रपालित के वार्तालाप को सुनकर विजया को राज्य-प्राप्ति के प्रति स्कंद की उदासीनता, अपनी महत्वाकांक्षा में बाधा दिखाई देती है। द्वितीय दृश्य में स्कंद की सौतेली माता महारानी अनंतदेवी के कहने पर मठ में प्रपंचबुद्धि, भटार्क और शर्वनाग स्कंदगुप्त की माता और स्वर्गीय महाराज की बड़ी पत्नी देवकी की हत्या का षड्यंत्र रचते हैं। तृतीय दृश्य देवकी के मंदिर में शर्वनाग और उसकी पत्नी रामा की आपसी बहस से आरंभ होता है जिसके द्वारा देवकी की सेविका रामा को मदिरा और महत्वाकांक्षा से उन्मत्त अपने पति की बातों से देवकी की हत्या के षड्यंत्र की भनक लग जाती है, वह शर्वनाग को समझाने का निष्फल प्रयास करती है। चतुर्थ दृश्य में देवकी और रामा बंदीगृह में हैं। अनंतदेवी के आदेश के अनुरूप शर्वनाग देवकी की हत्या करने को तत्पर है, सहसा स्कंदगुप्त, धातुसेन और मुद्गल के साथ पहुँचकर अपनी माता को बचा लेता है। पंचम दृश्य अवंति-दुर्ग का है जिसमें मालवनरेश बंधुवर्मा अपने छोटे भाई भीमवर्मा के साथ सहमति से मालव-राज्य को स्कंदगुप्त के नियंत्रण में देने का निर्णय लेता है। उसकी पत्नी जयमाला शुरू-शुरू में इसका विरोध करती है किंतु देवसेना, भीमवर्मा और बंधुवर्मा के सम्मिलित विचार जानकर सहर्ष सहमत हो जाती है छठा दृश्य पथ में भटार्क और उसकी माता कमला के आपसी वार्तलाप से शुरू होता है। कमला अपने पुत्र को गुप्त साम्राज्य की प्रतिष्ठा के विरुद्ध किए गए अनैतिक कार्यों के लिए दुत्कारती है। यहीं पर विजया भटार्क के प्रति आकर्षित होती है। सातवें दृश्य में राजसभा में स्कंदगुप्त अपने पिता के बड़े भाई गोविंदगुप्त और माता देवकी की चरण-वंदना करता है। मालव-नरेश अपने राज्य को स्कंदगुप्त के नेतृत्व में समर्पित कर देता है। स्कंद को राजसिंहासन पर बिठाया जाता है। शर्वनाग और भटार्क को क्षमा कर दिया जाता है। विजया द्वारा भटार्क का वरण करने की सूचना पाकर स्कंद आश्चर्यचकित होता है।

तृतीय अंक के पहले दृश्य में शिप्रा-तट पर प्रपंचबुद्धि और भटार्क के वार्तालाप के दौरान विजया और देवसेना पहुँचती हैं। दूसरे दृश्य में विजया ईर्ष्यावश देवसेना को धोखे से प्रपंचबुद्धि के पास उसकी बलि देने के लिए छोड़ आती है। बलि से पूर्व सहसा स्कंदगुप्त आकर देवसेना को बचा लेता है। देवसेना और स्कंद के आलिंगन में प्रसाद जी ने उनके पारस्परिक प्रेम का संकेत दिया है। तृतीय दृश्य मगध में अनंतदेवी, पुरगुप्त, विजया और भटार्क के षड्यंत्रकारी वार्तालाप से शुरू होता है। अनंतदेवी की पुरगुप्त को मगध-सम्राट बनाने की इच्छा अभी खत्म नहीं हुई है। बौद्धों को स्कंद के विरुद्ध भड़काया जा रहा है। भटार्क हूण सेनापति खिंगिल से मिलकर आर्यावर्त को संकट में डाल रहा है। वहीं, भावी सम्राट पुरगुप्त भोग-विलास में लिप्त है। आम सैनिक भी इस षड्यंत्र को समझते हुए भटार्क का विरोध करते हैं। चतुर्थ दृश्य के अंतर्गत उपवन में जयमाला और देवसेना का वार्तालाप होता है। इसी दृश्य में मातृगुप्त को कश्मीर का शासक नियुक्त करने की सूचना है। पंचम और षष्ठ दृश्य क्रमशः गांधार घाटी और दुर्ग के सम्मुख कुंभा के रण-क्षेत्र से संबंधित हैं। स्कंदगुप्त के नेतृत्व में हूणों से लड़ते-लड़ते बंधुवर्मा मृत्यु को प्राप्त होते हैं। भटार्क की हूणों के पक्ष में की गई कुटिल योजना के फलस्वरूप कुंभा का बाँध तोड़ दिया जाता है, जिसके कारण हूण दुर्ग में प्रवेश कर जाते हैं और सैनिकों समेत स्कंदगुप्त कुंभा के जल में बह जाता है। चतुर्थ अंक का पहला दृश्य, प्रकोष्ठ में विजया और अनंतदेवी के वार्तालाप से शुरू होता है। अनंतदेवी विजया को अपने पुत्र पुरगुप्त की रानी बनने का स्वप्न दिखलाती है लेकिन विजया भटार्क को छोड़कर ‘क्षुद्र पुरगुप्त के विलास-जर्जर मन और यौवन में जीर्ण शरीर का अवलंब’ नहीं लेना चाहती। क्षुब्ध अनंतदेवी के कटु-बाणों से आहत विजया स्वगत–कथन में अपने अतुल धन और दिशा-भ्रमित अस्तित्व पर विचार कर ही रही होती है कि अचानक सैनिक वेश में आया शर्वनाग उसमें भटार्क की महत्वाकांक्षा के कारण हूणों के आतंक से घिरे गुप्त-साम्राज्य के कल्याण-मार्ग को स्वच्छ करने की प्रेरणा जगाता है। दूसरा दृश्य भटार्क के शिविर में हो रहे नृत्य-गायन से शुरू होता है। स्कंदगुप्त की माता महारानी देवकी के साथ भटार्क की माँ कमला वहाँ पहुँचती हैं। देवकी अपने पुत्र स्कंदगुप्त के विषय में भटार्क से पूछती है और उसका गैर-जिम्मेदाराना चिंतादायक उत्तर सुनकर प्राण त्याग देती है। इस घटनाक्रम से आहत अपनी माँ कमला के कटु वचनों से लज्जित भटार्क शस्त्र-त्याग देता है और अपनी दुर्बुद्धि से फिर कभी कष्ट न पहुँचाने का संकल्प लेता है। तृतीय दृश्य में काश्मीर के न्यायाधिकरण में मातृगुप्त और वेश्या-रूप में उसकी प्रेमिका मालिनी की विचित्र स्थितियों में भेंट होती है, तभी मातृगुप्त को चर द्वारा स्कंदगुप्त का कुछ भी पता न लगने और जल्द ही काश्मीर पर हूणों का आक्रमण होने का समाचार मिलता है : अपने भीतर और बाहर की विपरीत परिस्थितियों से मातृगुप्त हताश और निराश हो जाता है। चतुर्थ दृश्य के अंतर्गत नगर प्रांत के पथ में धातुसेन और बौद्ध भिक्षु प्रख्यातकीर्ति की बातचीत है जिसमें महान संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य वाले भारत में बौद्ध जनता और संघ के साम्राज्य के विरुद्ध होने का संकेत है। पाँचवाँ दृश्य भी इसी क्रम में है जिसमें ब्राह्मण और बौद्धों का संघर्ष दिखलाते हुए उन्हें मानव-धर्म का मूल पाठ धातुसेन और प्रख्यातकीर्ति के माध्यम से प्रसाद जी ने सिखाया है। षष्ठम दृश्य में पथ में विजया मातृगुप्त को भारत की महिमा के गीत गाने के लिए प्रेरित करती है, वहीं चक्रपालित और प्रख्यातकीर्ति भी आ जाते हैं। सप्तम दृश्य के अंतर्गत भटार्क की माता कमला की कुटी में विचित्र वेश में स्कंदगुप्त का प्रवेश होता है। स्कंदगुप्त अपने मन की भीतरी और बाहरी परिस्थितियों के कारण तीव्र द्वंद्व से ग्रस्त है। वहीं शर्वनाग हूणों के अत्याचार से पीड़ित और त्रस्त होकर उन्मत्त अवस्था में आता है। उसके बाद शर्वनाग की पत्नी रामा आती है, वह भी हूणों के अत्याचार के कारण पागलों जैसी स्थिति में पहुँच चुकी है। इन दोनों की दशा देखकर स्कंदगुप्त का आंतरिक द्वंद्व और घना हो जाता है। किंतु हताश और निराश स्कंदगुप्त को कमला राष्ट्र-रक्षा के प्रति पुनः उत्साहित करती है।

पंचम अंक के पहले दृश्य के अंतर्गत पथ में मुद्गल और विजया के वार्तालाप से पता लगता है कि विजया अपने किए पर शर्मिंदा है और क्षमा के लिए स्कंदगुप्त से मिलना चाहती है। इसी दृश्य में भटार्क के स्वगत-कथन में उसके अपराध-बोध और आत्म-ग्लानि को व्यक्त किया गया है। दूसरे दृश्य की शुरूआत में कनिष्क स्तूप के पास बनी महारानी देवकी की समाधि के पास पर्णदत्त भारत की दुर्दशा से चिंतित हैं। एक नागरिक से हुई पर्णदत्त की बातचीत में प्रसाद जी ने देश की जर्जर स्थिति से बेखबर युवकों के भोग-विलास पर व्यंग्य किया है। महारानी की समाधि पर देवसेना और स्कंदगुप्त की भेंट होती है। स्कंदगुप्त देवसेना के समक्ष अपनी प्रेममय भावनाओं को प्रकट करता है किंतु देवसेना राष्ट्र-सेविका ही बनी रहना चाहती है। देवसेना के इस भाव को देखकर स्कंदगुप्त कुमार-जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेता है। इसके बाद विजया अपने यौवन और अतुल्य धन के आकर्षण से स्कंदगुप्त को लालायित करना चाहती है, जिसे स्कंद ठुकरा देता है। विजया का पति भटार्क भी उसी समय वहाँ आ जाता है, जिसके कटु वचन सुनकर विजया आत्महत्या कर लेती है। विजया के शव को धरती में गाड़ते समय भटार्क को विजया का रत्न-गृह प्राप्त हो जाता है जिसे वह सेना के संकलन में व्यय करने की बात स्कंदगुप्त से कहता है। तृतीय दृश्य में स्तूप के पास पर्णदत्त और देवसेना नागरिकों से भीख माँगते हुए उन्हें हूणों के विरुद्ध एकजुट होने का संदेश देते हैं। उनके साथ बदले हुए वेश में मातृगुप्त, भीमवर्मा, चक्रपालित, शर्वनाग, कमला, रामा आदि भी हैं। भीड़ में से स्कंदगुप्त निकलता है और पर्णदत्त के समक्ष स्वयं को राष्ट्र-सेवा के लिए प्रस्तुत करता है। चतुर्थ दृश्य महाबोधि-विहार का है जिसमें अनंतदेवी, पुरगुप्त, प्रख्यातकीर्ति और हूण सेनापति की बातचीत चल रही है। प्रख्यातकीर्ति हूणों की हिंसक नीति का तिरस्कार करता है जिससे अनंतदेवी क्रुद्ध होती है। हूण सेनापति प्रख्यातकीर्ति का वध करना चाहता है, तभी धातुसेन सैनिकों सहित पहुँचकर प्रख्यातकीर्ति को बचा लेता है और बाकी सबको बंदी बना लेता है। पाँचवाँ दृश्य रणक्षेत्र का है, जिसमें स्कंदगुप्त, भटार्क, चक्रपालित, पर्णदत्त, मातृगुप्त, भीमवर्मा आदि सेना के साथ ‘हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार’ उद्बोधन-गीत गाते हैं। हूण आक्रमणकारी खिंगिल और स्कंदगुप्त के बीच घोर युद्ध में खिंगिल घायल हो जाता है। उसे बंदी बना लिया जाता है। स्कंदगुप्त को बचाने में पर्णदत्त की मृत्यु हो जाती है। तभी धातुसेन के साथ आए बंदी वेश में पुरगुप्त और अनंतदेवी स्कंदगुप्त से क्षमा माँगते हैं। स्कंद पुरगुप्त को युवराज बना देता है और खिंगिल को चेतावनी देकर छोड़ देता है। षष्टम दृश्य इस अंक का और नाटक का भी अंतिम दृश्य है। उद्यान में देवसेना के स्वगत कथन और उसके द्वारा गाये गीत ‘आह वेदना मिली विदाई’ में देवसेना की पीड़ा झलकती है। स्कंदगुप्त और देवसेना की भावुक भेंट में देवसेना स्कंदगुप्त से विदा माँगती है, स्कंद न चाहते हुए भी उसको विदा देता है। इसी के साथ नाटक समाप्त हो जाता है। नाटक का आरंभ भी स्कंदगुप्त के स्वगत कथन से होता है और नाटक के अंत में हम स्कंदगुप्त को अकेला पाते हैं।

‘स्कंदगुप्त’ नाटक की कथावस्तु के अंतर्गत कई स्थल ऐसे हैं जिनमें चरित्र परिस्थितियों के वशीभूत होकर अंतर्द्वन्द्व से ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। नाटक का प्रमुख पात्र स्कंदगुप्त अपनी पारिवारिक स्थितियों के अंतर्गत विमाता अनंतदेवी के द्वेषपूर्ण व्यवहार और षड्यंत्रों के कारण ‘क्या करूँ और क्या न करूँ’ के द्वंद्व में फँसा दिखता है। स्कंदगुप्त के अंतर्द्वद्व का एक अन्य मुख्य कारण पहले विजया और फिर देवसेना का विलग हो जाना भी है, क्योंकि इन दोनों के प्रति स्कंदगुप्त में आकर्षण और प्रेम का भाव जगा था। गुप्त साम्राज्य की अंदरूनी कलह के साथ ही विदेशी आक्रान्ताओं का हमला भी स्कंदगुप्त के भीतरी द्वंद्व का कारण है।

‘स्कंदगुप्त नाटक’ की कथावस्तु में बाह्य द्वंद्व के अंतर्गत राजनीतिक और धार्मिक द्वंद्व का चित्रण हुआ है। राजनीतिक द्वंद्व की सृष्टि राजनीतिक घटनाक्रमों का आधार लेते हुए की गई है, जिनमें गुप्त कुल की अस्थिरता और हूणों का आक्रमण प्रमुख हैं। समझने में सुविधा की दृष्टि से यहाँ गुप्त कुल से संबंधित राजनीतिक द्वंद्व को आंतरिक राजनीतिक द्वंद्व व हूणों के आक्रमण से संबंधित द्वंद्व को बाहरी राजनीतिक द्वंद्व में विभाजित करके विश्लेषित किया जा रहा है।

संवाद और भाषा

छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद संस्कृतनिष्ठ काव्यात्मक भाषा के प्रयोक्ता हैं। प्रसाद के कवि-व्यक्तित्व का प्रभाव उनकी नाट्य-भाषा पर भी झलकता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित होने के कारण इसके संवादों की भाषा में खड़ी बोली के संस्कृतनिष्ठ रूप का अधिक होना स्वाभाविक ही है। ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की भाषा काव्यात्मक, प्रतीकात्मक, व्यंजना- प्रधान, भाव- प्रधान और बिंब-प्रधान है। भाषा में नाटकीयता और व्यंजना का गुण बनाए रखने के लिए प्रसाद जी ने ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में प्रचुर मात्रा में मुहावरों का भी सटीक प्रयोग किया है। देवसेना, मातृगुप्त जैसे भावना-प्रधान चरित्रों के संवाद अपेक्षाकृत काव्यात्मक है। एक उदाहरण दृष्टव्य है।

“मातृगुप्त—(अपनी भावनाओं में तल्लीन, जैसे किसी को न देख रहा हो अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर वंशी बजा रहा था, सौरभ और पराग की चहल-पहल थी। सवेरे सूर्य की किरणें उसे चूमने को लौटती थीं, सन्ध्या में शीतल चाँदनी उसे अपनी चादर से ढँक देती थी। उस मधुर सौन्दर्य, उस अतीन्द्रिय जगत की साकार कल्पना की ओर मैंने हाथ बढ़ाया था, वहीं स्वप्न टूट गया!”

‘स्कंदगुप्त’ का रचना काल सन् 1928 ई. है। उस समय भारत में जैसे-जैसे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन तीव्र गति को प्राप्त कर रहा था, वैसे-वैसे ब्रिटिश शासन का अत्याचार भी बढ़ता जा रहा था। गाँधी जी के नेतृत्व में चला असहयोग आंदोलन किन्हीं कारणों से वापस ले लिया गया था। ऐसे समय में स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भारतीय युवा पीढ़ी में कुछ समय के लिए अवसाद और निराशा का भाव भर गया था। ‘साइमन कमीशन’ की घोषणा ने युवाओं को फिर से सक्रिय किया। अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति के परिणामस्वरूप एक ओर साम्प्रदायिक दंगे लगातार बढ़ रहे तो दूसरी ओर स्वाधीनता आंदोलन में रजवाड़ों द्वारा कोई सहयोग नहीं किया जा रहा था। रजवाड़ों को पेंशन या उपाधि का लालच देकर स्वाधीनता आंदोलन से दूर रखने में भी अंग्रेजों को सफलता मिल रही थी। उद्योग धंधों पर ब्रिटिश सरकार का कब्जा था जिससे भारत में आर्थिक विषमता भी बढ़ती जा रही थी। उस दौर में भारतीय नागरिकों की एक पीढ़ी ऐसी भी थी जो अंग्रेजी सरकार की नौकरियाँ करते हुए उनकी अत्याचारपूर्ण नीति का अंधाधुंध पालन कर रही थी। साथ ही, कुछ युवा ऐसे भी थे जो अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने और पाश्चात्य रहन-सहन अपनाने के बाद स्वयं को सामान्य भारतवासियों से उच्च स्तर का समझ रहे थे, उन्हें भारत की स्वतंत्रता से कोई लेना-देना नहीं था। इन्हीं सब देशकालगत विषम परिस्थितियों के आलोक में प्रसाद ने स्वर्णिम इतिहास का सहारा लेकर ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की रचना की। ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में भारत देश के इतिहास के गुप्त-काल की घटनाओं को आधार बनाया गया है, जिसका उल्लेख प्रसाद जी ने प्रस्तुत नाटक की भूमिका में विस्तार से किया है।

बोध प्रश्न

(क) उचित विकल्प द्वारा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. जयशंकर प्रसाद का ‘स्कंदगुप्त’ नाटक भारतीय इतिहास के किस काल की घटनाओं पर आधारित है?

क) मुगल काल

ख) गुप्त काल

ग) मौर्य काल

घ) सप्तवाहन काल

2. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में स्कंदगुप्त की विमाता का नाम क्या है?

क) कमला

ख) अनंतदेवी

ग) देवकी

घ) रामा

3. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में देवसेना नामक पात्र किस राजा की बहन के रूप में चित्रित है?

क) पृथ्वीसेन

ख) बंधुवर्मा

ग) धातुसेन

घ) खिंगिल

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-एक शब्दों में दीजिए :

1. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में हूण आक्रमणकारी का नाम क्या है?

उत्तर – खिंगिल

2. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में सिंहल के राजकुमार का नाम क्या है?

उत्तर – कुमारदास/धातुसेन

3. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में ब्राह्मण और बौद्धों में संघर्ष किस बात को लेकर हुआ?

उत्तर – बलि-कर्म

(ग) निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

1. गांधार के रणक्षेत्र में भटार्क ने अचानक ______ के बाँध को खोल दिया।

उत्तर – कुंभा नदी

2. शर्वनाग की पत्नी रामा ______ की रक्षा के लिए अपने पति से भिड़ गई थी।

उत्तर – महारानी देवकी

3. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक के अंत में स्कंदगुप्त न चाहते हुए भी ______ को विदा दे देता है।

उत्तर – देवसेना

4. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक का पहला अंक कथावस्तु के विकास की दृष्टि से ______ के अंतर्गत आता है।

उत्तर – आरंभ

5. नाटक के अंत में स्कंदगुप्त ______ को गुप्त सम्राट घोषित कर देता है।

उत्तर – पुरगुप्त

6. प्रथम अंक में गुप्त – साम्राज्य के निष्ठावान सेवक ______ , ______ और ______ तीनों पुरगुप्त के दुर्व्यवहार के कारण छुरे से आत्मघात कर लेते हैं।

उत्तर – कुमारामात्य पृथ्वीसेन, महादण्डनायक और महाप्रतिहार।

7. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक के ______ अंक के ______ दृश्य और ______ अंक के ______ दृश्य में हास्य की सृष्टि की गई है।

उत्तर – प्रथम अंक के षष्ठ दृश्य, तृतीय अंक के चतुर्थ दृश्य,

8. विजया के शव को गाड़ने के लिए भूमि खोदते समय रत्न-गृह का मिलना ______ प्रसंग के अंतर्गत आता है।

उत्तर – चामत्कारिक प्रसंग

9. प्रथम अंक के प्रथम दृश्य में चर और दूत का संवाद ______ प्रसंग के अंतर्गत आएगा।

उत्तर – सूच्य,

10. ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की कथावस्तु में शकों व हूणों के आक्रमण और भारतीय जनता पर हूणों के अत्याचार से ______ उत्पन्न हुआ है।

उत्तर – बाह्य राजनीतिक द्वंद्व।

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