कवयित्री मीरा परिचय
जन्म : सन् 1498, कुड़की गाँव (मारवाड़ रियासत)
प्रमुख रचनाएँ : मीरा पदावली, नरसीजी-रो-माहेरो
मृत्यु : सन् 1546
मीरा सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री थीं। कृष्ण की उपासिका होने के कारण उनकी कविता में सगुण भक्ति मुख्य रूप से मौजूद है लेकिन निर्गुण भक्ति का प्रभाव भी मिलता है। संत कवि रैदास उनके गुरु माने जाते हैं। बचपन से ही उनके मन में कृष्ण भक्ति की भावना जन्म ले चुकी थी। इसलिए वे कृष्ण को ही अपना आराध्य और पति मानती रहीं।
अन्य भक्तिकालीन कवियों की तरह मीरा ने भी देश में दूर-दूर तक यात्राएँ कीं। चित्तौड़ राजघराने में अनेक कष्ट उठाने के बाद मीरा वापस मेड़ता आ गईं। यहाँ से उन्होंने कृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन की यात्रा की। जीवन के अंतिम दिनों में वे द्वारका चली गईं। माना जाता है कि वहीं रणछोड़ दास जी की मंदिर की मूर्ति में वे समाहित हो गईं।
उन्होंने लोकलाज और कुल की मर्यादा के नाम पर लगाए गए सामाजिक और वैचारिक बंधनों का हमेशा विरोध किया। पर्दा प्रथा का भी पालन नहीं किया तथा मंदिर में सार्वजनिक रूप से नाचने-गाने में कभी हिचक महसूस नहीं की। मीरा मानती थीं कि महापुरुषों के साथ संवाद (जिसे सत्संग कहा जाता था) से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है। अपनी इन मान्यताओं को लेकर वे दृढ़निश्चयी थीं। निंदा या बंदगी उनको अपने पथ से विचलित नहीं कर पाई। जिस पर विश्वास किया, उस पर अमल किया। इस अर्थ में उस युग में जहाँ रूढ़ियों से ग्रस्त समाज का दबदबा था, वहाँ मीरा स्त्री मुक्ति की आवाज़ बनकर उभरीं।
मीरा की कविता में प्रेम की गंभीर अभिव्यंजना है। उसमें विरह की वेदना है और मिलन का उल्लास भी। मीरा की कविता का प्रधान गुण सादगी और सरलता है। कला का अभाव ही उसकी सबसे बड़ी कला है। उन्होंने मुक्तक गेय पदों की रचना की। लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत दोनों क्षेत्रों में उनके पद आज भी लोकप्रिय हैं। उनकी भाषा मूलतः राजस्थानी है तथा कहीं-कहीं ब्रजभाषा का प्रभाव है। कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा पर सूफ़ियों के प्रभाव को भी देखा जा सकता है। मीरा की कविता के मूल में दर्द है। वे बार-बार कहती हैं कि कोई मेरे दर्द को पहचानता नहीं, न शत्रु न मित्र।
यहाँ प्रस्तुत पहले पद में मीरा ने कृष्ण से अपनी अनन्यता व्यक्त की है तथा व्यर्थ के कार्यों में व्यस्त लोगों के प्रति दुख प्रकट किया है।
दूसरे पद में, प्रेम रस में डूबी हुई मीरा सभी रीति-रिवाजों और बंधनों से मुक्त होने और गिरिधर के स्नेह के कारण अमर होने की बात कर रही हैं।
शब्दार्थ
गिरधर – गिरि को धारण करने वाला, कृष्ण
गोपाल – गायें पालने वाला, कृष्ण
मोर-मुकुट – मोर के पंखों से बना मुकुट
सोई – वही
कुल की कानि – वंश की मर्यादा
कहा – क्या
करिहै – करेगा
संतन – संत
ढिग – पास
लोक-लाज – समाज की मर्यादा
अंसुवन जल – आँसुओं का जल
सींचि – सींचकर
प्रेम-बेलि – प्रेम रूपी बेल
आणंद – आनंद
मथनियाँ – मथानी, मथने वाला उपकरण
विलोयी – मथी
दधि – दही
मथि – मथकर
घृत – घी
काढ़ि लियो – निकाल लिया
डारि दयी – छोड़ दिया
छोयी – छाछ
राजी – प्रसन्न
तारो – उद्धार करो
पग – पैर
नारायण – ईश्वर, कृष्ण
आपहि – खुद ही
साची – सच्ची
भइ – हो गई
बावरी – बावली, पागल
न्यात – कुटुंब के लोग, रिश्तेदार
कुल-नासी – कुल का नाश करने वाली
विस – विष, जहर
पीवत – पीते हुए
हाँसी – हँसी
नागर – श्रेष्ठ, चतुर
सहज – आसान, स्वाभाविक अविनासी – जिसका विनाश न हो, अमर।
पद
पद 1
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जा के सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई
छांड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहै कोई?
संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोयी
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोयी
अब त बेलि फैलि गयी, आणंद-फल होयी
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
भगत देखि राजी हुयी, जगत देखि रोयी
दासि मीरां लाल गिरधर! तारो अब मोही
पद 1 मीरा कहती है कि उसके जीवन में कृष्ण ही उसके सर्वस्व हैं। उसने लोक-लाज छोड़कर और कुल-मर्यादा का बंधन तोड़कर संतों का साथ कर लिया है। उसने अपने आँसुओं से सींच-सींचकर प्रेम की बेल को बढ़ा लिया है। उसे कृष्ण का प्रेम ही माखन जैसा मूल्यवान प्रतीत होता है और शेष सांसारिकता छाछ जैसी व्यर्थ प्रतीत होती है। वह भक्तों को देखकर प्रसन्न होती है और जगत को देखकर रोती है।
पद 2
पग घुंघरू बांधि मीरां नाची,
मैं तो मेरे नारायण सूं, आपहि हो गई साची
लोग कहै, मीरां भइ बावरी; न्यात कहै कुल-नासी
विस का प्याला राणा भेज्या, पीवत मीरां हाँसी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनासी
पद 2 इस पद में मीरा कृष्ण के प्रति अपने अनुराग को प्रकट करती हैं। वे अपने नारायण के प्रति पूरी तरह समर्पित हो चुकी हैं। लोग उसे ‘दीवानी’ कहते हैं, उनके संबंधी उसे ‘कुलनाशी’ कहते हैं। राणा जी ने उसे मारने के लिए विष का प्याला भेजा है जिसे मीरा ने हँसते-हँसते पी लिया है। मीरा का कहना है कि वे ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और भक्ति से सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।
विशेष – दोनों पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित-संपादित मीराँ मुक्तावली से लिए गए हैं।
अभ्यास
पद के साथ
1. मीरा कृष्ण की उपासना किस रूप में करती हैं? वह रूप कैसा है?
उत्तर – मीरा श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व मानती हैं। वे स्वयं को उनकी दासी भी मानती है और श्रीकृष्ण की उपासना एक समर्पिता पत्नी,प्रेयसी और परिचारिका के रूप में करती हैं। मीरा के प्रभु सिर पर मोर-मुकुट धारण करने वाले मन को मोहनेवाले सलोने रूप वाले हैं।
2. भाव व शिल्प सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोयी
अब त बेलि फैलि गई, आणंद-फल होयी
उत्तर – भाव-सौंदर्य – इस पद में मीरा की भक्ति अपनी चरम सीमा पर है। मीरा ने अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर कृष्ण रूपी प्रेम की बेल बोई है और अब उस प्रेमरूपी बेल में फल आने शुरू हो गए हैं अर्थात् मीरा को अब आनंद की अनुभूति होने लगी है।
शिल्प-सौंदर्य – भाषा मधुर, संगीतमय और राजस्थानी मिश्रित भाषा है। ‘सींची-सींची’ में पुनरुक्ति- प्रकाश अलंकार है। प्रेम-बेलि बोयी, आणंद-फल, अंसुवन जल में रूपक अलंकार का बड़ी ही कुशलता से प्रयोग किया गया है।
(ख) दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
उत्तर – भाव-सौंदर्य – इस पद में मीरा ने भक्ति की महिमा को बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। इस पद में भक्ति को मक्खन के समान महत्त्वपूर्ण तथा सांसारिक सुख को छाछ के समान सारहीन माना गया है। इन काव्य पंक्तियों में मीरा संसार के सार-तत्त्व को ग्रहण करने और व्यर्थ की बातों को छोड़ देने के लिए कहती हैं।
शिल्प-सौंदर्य – भाषा मधुर, संगीतमय और राजस्थान मिश्रित भाषा है। पद भक्ति रस से परिपूर्ण है। ‘घी’ और ‘छाछ’ शब्द प्रतीकात्मक रूप में लिए गए हैं। ‘दूध की मथनियाँ…छोयी’ में अन्योक्ति अलंकार है।
3. लोग मीरा को बावरी क्यों कहते हैं?
उत्तर – मीरा कृष्ण भक्ति में अपनी सुध-बुध खो चुकी थी। कृष्ण की भक्ति के लिए उसने राज-परिवार का भी त्याग कर दिया था। उसके इस कृत्य पर लोगों ने उसकी भरपूर निंदा की परंतु मीरा तो सब सांसारिकता को त्याग कर कृष्ण की अनन्य भक्ति में रम चुकी थी। मीरा की अनन्य कृष्णभक्ति की इसी पराकष्ठा को बावलेपन की संज्ञा दी गई है और इसी कारण से लोग उन्हें बावरी कहते थे।
4. विस का प्याला राणा भेज्या, पीवत मीरां हाँसी – इसमें क्या व्यंग्य छिपा है?
उत्तर – मीरा की कृष्ण भक्ति के कारण उसके परिवार वाले परेशान रहते थे। उन्हें अपनी कुल की मर्यादा खतरे में मालूम पड़ती थी। अत:, उन्होंने मीरा को मारने के लिए जहर का प्याला भेजा और मीरा ने भी उसे हँसते-हँसते पी लिया परंतु कृष्ण भक्ति के कारण जहर भी मीरा का कुछ न बिगाड़ पाया। इस तरह यहाँ पर विरोधियों पर व्यंग्य किया गया है कि वे कुछ भी क्यों न कर लें ईश्वर भक्ति करने वालों का बाल भी बाँका नहीं कर सकते हैं।
5. मीरा जगत को देखकर रोती क्यों हैं?
उत्तर – मीरा संसार में लोगों को मोह-माया में जकड़े हुए देखकर रोती है। मीरा के अनुसार संसार के सुख-दुख ये सब मिथ्या हैं। मीरा सांसारिक सुख-दुख को सारहीन मानती हैं। उसे लगता है कि किस-प्रकार लोग सांसारिक मोह-माया को सच मान बैठे हैं और अपने जीवन को व्यर्थ की गँवा रहे हैं और इसी कारण वे जगत को देखकर रोती हैं।
पद के आस-पास
1. कल्पना करें, प्रेम प्राप्ति के लिए मीरा को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा।
उत्तर – प्रेम-प्राप्ति की राहें आसान नहीं होती हैं। मीरा को भी प्रेम-प्राप्ति के लिए अनेक कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ा होगा, जैसे – सर्वप्रथम तो उन्हें घर-परिवार का विरोध सहना पड़ा होगा। उन्हें रोकने के अनगिनत प्रयास किए गए होंगे। समाज के लोगों ने भी उस पर टीका-टिप्पणी की होंगी। यहाँ तक कि उन्हें रोकने के लिए उन्हें मारने तक के प्रयास भी किए गए होंगे। इस तरह मीरा को प्रेम-प्राप्ति से विरक्त करने के लिए हर संभव प्रयास किए गए होंगे।
2. लोक-लाज खोने का अभिप्राय क्या है?
उत्तर – लोक-लाज खोने का अभिप्राय या आशय परिवार की मर्यादा या इज्ज़त खोने से है। हर एक समाज की अपनी एक मर्यादा व परंपरा होती है और जब कोई व्यक्ति इसके विपरीत कार्य करता है तो उसे मर्यादा का उल्लंघन मानकर लोक-लाज खोने की बात की जाती है।
मीरा का विवाह राजपुताना परिवार में हुआ था। राज परिवार से संबंधित होने के कारण वहाँ महिलाओं को अनेक प्रथाओं,नियमों व परंपराओं का पालन जैसे पर्दा प्रथा का पालन करना, पर-पुरूषों के सामने न आना, मंदिरों में जाकर भजन-कीर्तन में शामिल न होना आदि अनेक अंकुशों का पालन करना पड़ता था। मीरा ने परिवार की इन झूठी मर्यादाओं और रूढ़ियों की परवाह नहीं की और कृष्ण की भक्ति, सत्संग-भजन, साधु संतों के साथ उठना-बैठना सभी निर्भयपूर्वक जारी रखा। इसी संदर्भ में मीरा के लोक-लाज छोड़ने की बात की गई है।
3. मीरा ने ‘सहज मिले अविनासी’ क्यों कहा है?
उत्तर – मीरा ने प्रभु को अविनाशी कहा है। मीरा के अनुसार ऐसे अविनाशी प्रभु को पाने के लिए सच्चे मन से सहज भक्ति करनी पड़ती है। ऐसी सहज भक्ति से प्रभु प्रसन्न होकर भक्त को बड़े ही सहज भाव से मिल जाते हैं।
4. लोग कहै, मीरां भइ बावरी, न्यात कहै कुल-नासी – मीरा के बारे में लोग (समाज) और न्यात (कुटुंब) की ऐसी धारणाएँ क्यों हैं?
उत्तर – तत्कालीन समाज के लोग सांसारिक मोह-माया को वास्तविकता मानते थे उनके लिए धन-संपत्ति, जमीन-जायदाद आदि बातें ही सत्य होती थीं और मीरा का इन सांसारिक सुख-संपत्ति का त्याग करना उनके अनुसार उसे बावली की श्रेणी में ला खड़ा करता है। उसके विपरीत परिवार वालों के अनुसार मीरा ने कुल-मर्यादा की परवाह न करते हुए मंदिरों में नाचना, साधु-संतों के साथ उठना-बैठना आदि कार्यों को जारी रखा। अत:, वे मीरा के इन कृत्यों को कुल का नाश करने वाला मानते हैं।