बालमुकुंद गुप्त – लेखक परिचय
जन्मः सन् 1865, ग्राम गुड़ियानी, ज़िला रोहतक (हरियाणा)
प्रमुख संपादन : अखबार-ए-चुनार, हिंदुस्तान, हिंदी बंगवासी, भारतमित्र आदि
प्रमुख रचनाएँ : शिवशंभु के चिट्ठे, चिट्ठे और खत, खेल तमाशा
मृत्यु : सन् 1907
गुप्त जी की आरंभिक शिक्षा उर्दू में हुई। बाद में उन्होंने हिंदी सीखी। विधिवत् शिक्षा मिडिल तक प्राप्त की, मगर स्वाध्याय से काफ़ी ज्ञान अर्जित किया। वे खड़ी बोली और आधुनिक हिंदी साहित्य को स्थापित करने वाले लेखकों में से एक थे। उन्हें भारतेंदु-युग और द्विवेदी-युग के बीच की कड़ी के रूप में देखा जाता है।
बालमुकुंद गुप्त राष्ट्रीय नवजागरण के सक्रिय पत्रकार थे। उस दौर के अन्य पत्रकारों की तरह वे साहित्य-सृजन में भी सक्रिय रहे। पत्रकारिता उनके लिए स्वाधीनता-संग्राम का हथियार थी। यही कारण है कि उनके लेखन में निर्भीकता पूरी तरह मौजूद है। साथ ही उसमें व्यंग्य-विनोद का भी पुट दिखाई पड़ता है। उन्होंने बांग्ला और संस्कृत की कुछ रचनाओं के अनुवाद भी किए। वे शब्दों के अद्भुत पारखी थे। अनस्थिरता शब्द की शुद्धता को लेकर उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी से लंबी बहस की। इस तरह के अन्य अनेक शब्दों पर उन्होंने बहस चलाई।
पाठ परिचय
विदाई-संभाषण बालमुकुंद गुप्त की सर्वाधिक चर्चित व्यंग्य कृति ‘शिवशंभु के चिट्ठे का एक अंश है। यह पाठ वायसराय कर्ज़न (जो 1899-1904 एवं 1904-1905 तक दो बार वायसराय रहे) के शासन में भारतीयों की स्थिति का खुलासा करता है। कहने को उनके शासन काल में विकास के बहुत सारे कार्य हुए, नए-नए आयोग बनाए गए, किंतु उन सबका उद्देश्य शासन में गोरों का वर्चस्व स्थापित करना एवं साथ ही इस देश के संसाधनों का अंग्रेज़ों के हित में सर्वोत्तम उपयोग करना था। हर स्तर पर कर्ज़न ने अंग्रेज़ों का वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश की। वे सरकारी निरंकुशता के पक्षधर थे। लिहाजा प्रेस की स्वतंत्रता तक पर उन्होंने प्रतिबंध लगा दिया। अंततः कौंसिल में मनपसंद अंग्रेज़ सदस्य नियुक्त करवाने के मुद्दे पर उन्हें देश-विदेश दोनों जगहों पर नीचा देखना पड़ा। क्षुब्ध होकर उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और वापस इंग्लैंड चले गए।
पाठ में भारतीयों की बेबसी, दुख एवं लाचारी को व्यंग्यात्मक ढंग से लॉर्ड कर्ज़न की लाचारी से जोड़ने की कोशिश की गई है। साथ ही यह दिखाने की कोशिश की गई है कि शासन के आततायी रूप से हर किसी को कष्ट होता है – चाहे वह सामान्य जनता हो या फिर लॉर्ड कर्ज़न जैसा वायसराय। यह उस समय लिखा गया गद्य का नमूना है, जब प्रेस पर पाबंदी का दौर चल रहा था। ऐसी स्थिति में विनोदप्रियता, चुलबुलापन, संजीदगी, नवीन भाषा-प्रयोग एवं रवानगी के साथ ही यह एक साहसिक गद्य का भी नमूना है।
विदाई-संभाषण
माइ लॉर्ड! अंत को आपके शासन-काल का इस देश में अंत हो गया। अब आप इस देश से अलग होते हैं। इस संसार में सब बातों का अंत है। इससे आपके शासन-काल का भी अंत होता, चाहे आपकी एक बार की कल्पना के अनुसार आप यहाँ के चिरस्थाई वाइसराय भी हो जाते। किंतु इतनी जल्दी वह समय पूरा हो जाएगा, ऐसा विचार न आप ही का था, न इस देश के निवासियों का। इससे जान पड़ता है कि आपके और यहाँ के निवासियों के बीच में कोई तीसरी शक्ति और भी है, जिस पर यहाँ वालों का तो क्या, आपका भी काबू नहीं है।
बिछड़न-समय बड़ा करुणोत्पादक होता है। आपको बिछड़ते देखकर आज हृदय में बड़ा दुख है। माइ लॉर्ड! आपके दूसरी बार इस देश में आने से भारतवासी किसी प्रकार प्रसन्न न थे। वे यही चाहते थे कि आप फिर न आवें। पर आप आए और उससे यहाँ के लोग बहुत ही दुखित हुए। वे दिन-रात यही मनाते थे कि जल्द श्रीमान् यहाँ से पधारें। पर अहो! आज आपके जाने पर हर्ष की जगह विषाद होता है। इसी से जाना कि बिछड़न-समय बड़ा करुणोत्पादक होता है, बड़ा पवित्र, बड़ा निर्मल और बड़ा कोमल होता है। वैर-भाव छूटकर शांत रस का आविर्भाव उस समय होता है।
माइ लॉर्ड का देश देखने का इस दीन ब्राह्मण को कभी इस जन्म में सौभाग्य नहीं हुआ। इससे नहीं जानता कि वहाँ बिछड़ने के समय लोगों का क्या भाव होता है। पर इस देश के पशु-पक्षियों को भी बिछड़ने के समय उदास देखा है। एक बार शिवशंभु के दो गायें थीं। उनमें एक अधिक बलवाली थी। वह कभी-कभी अपने सींगों टक्कर से दूसरी कमजोर गाय को गिरा देती थी। एक दिन वह टक्कर मारने वाली गाय पुरोहित को दे दी गई। देखा कि दुर्बल गाय उसके चले जाने से प्रसन्न नहीं हुई, वरंच उस दिन वह भूखी खड़ी रही, चारा छुआ तक नहीं। माइ लॉर्ड! जिस देश के पशुओं के बिछड़ते समय यह दशा होती है, वहाँ मनुष्यों की कैसी दशा हो सकती है, इसका अंदाज़ लगाना कठिन नहीं है।
आगे भी इस देश में जो प्रधान शासक आए, अंत में उनको जाना पड़ा। इससे आपका जाना भी परंपरा की चाल से कुछ अलग नहीं है, तथापि आपके शासन-काल का नाटक घोर दुखांत है, और अधिक आश्चर्य की बात यह है कि दर्शक तो क्या, स्वयं सूत्रधार भी नहीं जानता था कि उसने जो खेल सुखांत समझकर खेलना आंरभ किया था, वह दुखांत हो जावेगा। जिसके आदि में सुख था, मध्य में सीमा से बाहर सुख था, उसका अंत ऐसे घोर दुख के साथ कैसे हुआ? आह! घमंडी खिलाड़ी समझता है कि दूसरों को अपनी लीला दिखाता हूँ। किंतु परदे के पीछे एक और ही लीलामय की लीला हो रही है, यह उसे खबर नहीं!
इस बार बंबई में उतरकर माइ लॉर्ड! आपने जो इरादे ज़ाहिर किए थे, ज़रा देखिए तो उनमें से कौन-कौन पूरे हुए? आपने कहा था कि यहाँ से जाते समय भारतवर्ष को ऐसा कर जाऊँगा कि मेरे बाद आने वाले बडे़ लाटों को वर्षों तक कुछ करना न पड़ेगा, वे कितने ही वर्षों सुख की नींद सोते रहेंगे। किंतु बात उलटी हुई। आपको स्वयं इस बार बेचैनी उठानी पड़ी है और इस देश में जैसी अशांति आप फैला चले हैं, उसके मिटाने में आपके पद पर आने वालों को न जाने कब तक नींद और भूख हराम करना पड़ेगा। इस बार आपने अपना बिस्तरा गरम राख पर रखा है और भारतवासियों को गरम तवे पर पानी की बूँदों की भाँति नचाया है। आप स्वयं भी खुश न हो सके और यहाँ की प्रजा को सुखी न होने दिया, इसका लोगों के चित्त पर बड़ा ही दुख है। ’
वर्तमान में मुंबई विचारिए तो, क्या शान आपकी इस देश में थी और अब क्या हो गई! कितने ऊँचे होकर आप कितने नीचे गिरे! अलिफ़ लैला के अलहदीन ने चिराग रगड़कर और अबुलहसन ने बगदाद के खलीफ़ा की गद्दी पर आँख खोलकर वह शान न देखी, जो दिल्ली-दरबार में आपने देखी। आपकी और आपकी लेडी की कुर्सी सोने की थी और आपके प्रभु महाराज के छोटे भाई और उनकी पत्नी की चाँदी की। आप दाहिने थे, वह बाएँ, आप प्रथम थे, वह दूसरे। इस देश के सब रईसों ने आपको सलाम पहले किया और बादशाह के भाई को पीछे। जुलूस में आपका हाथी सबसे आगे और सबसे ऊँचा था; हौदा, चँवर, छत्र आदि सबसे बढ़-चढ़कर थे। सारांश यह है कि ईश्वर और महाराज एडवर्ड के बाद इस देश में आप ही का एक दर्जा था। किंतु अब देखते हैं कि जंगी लाट के मुकाबले में आपने पटखनी खाई, सिर के बल नीचे आ रहे! आपके स्वदेश में वही ऊँचे माने गए, आपको साफ़ नीचा देखना पड़ा! पद-त्याग की धमकी से भी ऊँचे न हो सके।
आप बहुत धीर-गंभीर प्रसिद्ध थे। उस सारी धीरता-गंभीरता का आपने इस बार कौंसिल में बेकानूनी कानून पास करते और कनवोकेशन वक्तृता देते समय दिवाला निकाल दिया। यह दिवाला तो इस देश में हुआ। उधर विलायत में आपके बार-बार इस्तीफ़ा देने की धमकी ने प्रकाश कर दिया कि जड़ हिल गई है। अंत में वहाँ भी आपको दिवालिया होना पड़ा और धीरता-गंभीरता के साथ दृढ़ता को भी तिलांजलि देनी पड़ी। इस देश के हाकिम आपकी ताल पर नाचते थे, राजा-महाराजा डोरी हिलाने से सामने हाथ बाँधे हाजिर होते थे। आपके एक इशारे में प्रलय होती थी। कितने ही राजों को मट्टी के खिलौने की भाँति आपने तोड़-फोड़ डाला। कितने ही मट्टी-काठ के खिलौने आपकी कृपा के जादू से बडे़-बडे़ पदाधिकारी बन गए। आपके इस इशारे में इस देश की शिक्षा पायमाल हो गई, स्वाधीनता उड़ गई। बंग देश के सिर पर आरह रखा गया। आह, इतने बडे़ माइ लॉर्ड का यह दर्जा हुआ कि फौजी अफ़सर उनके इच्छित पद पर नियत न हो सका और उनको उसी गुस्से के मारे इस्तीफ़ा दाखिल करना पड़ा, वह भी मंज़ूर हो गया। उनका रखाया एक आदमी नौकर न रखा, उलटा उन्हीं को निकल जाने का हुक्म मिला!
जिस प्रकार आपका बहुत ऊँचे चढ़कर गिरना यहाँ के निवासियों को दुखित कर रहा है, गिरकर पड़ा रहना उससे भी अधिक दुखित करता है। आपका पद छूट गया तथापि आपका पीछा नहीं छूटा है। एक अदना क्लर्क जिसे नौकरी छोड़ने के लिए एक महीने का नोटिस मिल गया हो नोटिस की अवधि को बड़ी घृणा से काटता है। आपको इस समय अपने पद पर रहना कहाँ तक पसंद है – यह आप ही जानते होंगे। अपनी दशा पर आपको कैसी घृणा आती है, इस बात के जान लेने का इन देशवासियों को अवसर नहीं मिला, पर पतन के पीछे इतनी उलझन में पड़ते उन्होंने किसी को नहीं देखा।
माइ लॉर्ड, एक बार अपने कामों की ओर ध्यान दीजिए। आप किस काम को आए थे और क्या कर चले। शासक-प्रजा के प्रति कुछ तो कर्तव्य होता है, यह बात आप निश्चित मानते होंगे। सो कृपा करके बतलाइए, क्या कर्तव्य आप इस देश की प्रजा के साथ पालन कर चले! क्या आँख बंद करके मनमाने हुक्म चलाना और किसी की कुछ न सुनने का नाम ही शासन है? क्या प्रजा की बात पर कभी कान न देना और उसको दबाकर उसकी मर्जी के विरुद्ध जिद्द से सब काम किए चले जाना ही शासन कहलाता है? एक काम तो ऐसा बतलाइए, जिसमें आपने जिद्द छोड़कर प्रजा की बात पर ध्यान दिया हो। कैसर1 और ज़ार भी घेरने-घोटने से प्रजा की बात सुन लेते हैं पर आप एक मौका तो बताइए, जिसमें किसी अनुरोध या प्रार्थना सुनने के लिए प्रजा के लोगों को आपने अपने निकट फटकने दिया हो और उनकी बात सुनी हो। नादिरशाह3 ने जब दिल्ली में कत्लेआम किया तो आसिफ़जाह के तलवार गले में डालकर प्रार्थना करने पर उसने कत्लेआम उसी दम रोक दिया। पर आठ करोड़ प्रजा के गिड़गिड़ाकर विच्छेद न करने की प्रार्थना पर आपने ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। इस समय आपकी शासन-अवधि पूरी हो गई है तथापि बंग-विच्छेद किए बिना घर जाना आपको पसंद नहीं है! नादिर से भी बढ़कर आपकी जिद्द है। क्या समझते हैं कि आपकी जिद्द से प्रजा के जी में दुख नहीं होता? आप विचारिए तो एक आदमी को आपके कहने पर पद न देने से आप नौकरी छोड़े जाते हैं, इस देश की प्रजा को भी यदि कहीं जाने की जगह होती, तो क्या वह नाराज होकर इस देश को छोड़ न जाती?
यहाँ की प्रजा ने आपकी जिद्द का फल यहीं देख लिया। उसने देख लिया कि आपकी जिस जिद्द ने इस देश की प्रजा को पीड़ित किया, आपको भी उसने कम पीड़ा न दी, यहाँ तक कि आप स्वयं उसका शिकार हुए। यहाँ की प्रजा वह प्रजा है, जो अपने दुख और कष्टों की अपेक्षा परिणाम का अधिक ध्यान रखती है। वह जानती है कि संसार में सब चीज़ों का अंत है। दुख का समय भी एक दिन निकल जावेगा, इसी से सब दुखों को झेलकर, पराधीनता सहकर भी वह जीती है। माइ लॉर्ड! इस कृतज्ञता की भूमि की महिमा आपने कुछ न समझी और न यहाँ की दीन प्रजा की श्रद्धा-भक्ति अपने साथ ले जा सके, इसका बड़ा दुख है।
इस देश के शिक्षितों को तो देखने की आपकी आँखों को ताब नहीं। अनपढ़-गूँगी प्रजा का नाम कभी-कभी आपके मुँह से निकल जाया करता है। उसी अनपढ़ प्रजा में नर सुलतान नाम के एक राजकुमार का गीत गाया जाता है। एक बार अपनी विपद के कई साल सुलतान ने नरवरगढ़ नाम के एक स्थान में काटे थे। वहाँ चौकीदारी से लेकर उसे एक ऊँचे पद तक काम करना पड़ा था। जिस दिन घोड़े पर सवार होकर वह उस नगर से विदा हुआ, नगर-द्वार से बाहर आकर उस नगर को जिस रीति से उसने अभिवादन किया था, वह सुनिए। उसने आँखों में आँसू भरकर कहा, “प्यारे नरवरगढ़! मेरा प्रणाम ले। आज मैं तुझसे जुदा होता हूँ । तू मेरा अन्नदाता है। अपनी विपद के दिन मैंने तुझमें काटे हैं। तेरे ऋण का बदला मैं गरीब सिपाही नहीं दे सकता। भाई नरवरगढ़! यदि मैंने जानबूझकर एक दिन भी अपनी सेवा में चूक की हो, यहाँ की प्रजा की शुभ चिंता न की हो, यहाँ की स्त्रियों को माता और बहन की दृष्टि से न देखा हो तो मेरा प्रणाम न ले, नहीं तो प्रसन्न होकर एक बार मेरा प्रणाम ले और मुझे जाने की आज्ञा दे!” माइ लॉर्ड! जिस प्रजा में ऐसे राजकुमार का गीत गाया जाता है, उसके देश से क्या आप भी चलते समय कुछ संभाषण करेंगे? क्या आप कह सकेंगे, “अभागे भारत! मैंने तुझसे सब प्रकार का लाभ उठाया और तेरी बदौलत वह शान देखी, जो इस जीवन में असंभव है। तूने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा; पर मैंने तेरे बिगाड़ने में कुछ कमी न की। संसार के सबसे पुराने देश! जब तक मेरे हाथ में शक्ति थी, तेरी भलाई की इच्छा मेरे जी में न थी। अब कुछ शक्ति नहीं है, जो तेरे लिए कुछ कर सकूँ। पर आशीर्वाद करता हूँ कि तू फिर उठे और अपने प्राचीन गौरव और यश को फिर से लाभ करे। मेरे बाद आने वाले तेरे गौरव को समझें।” आप कर सकते हैं और यह देश आपकी पिछली सब बातें भूल सकता है, पर इतनी उदारता माइ लॉर्ड में कहाँ?
लॉर्ड कर्ज़न एक साक्षिप्त परिचय
इनका पूरा नाम जॉर्ज नेथेनियल कर्ज़न है।
ये सबसे कमवयस्क और अति विवादित वायसराय के रूप में जाने जाते हैं।
ये 1899-1904 एवं 1904-1905 तक दो बार वायसराय रहे थे।
इन्होंने कलकत्ता कॉरपोरेशन एक्ट 1899 पारित किया।
स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904: इस अधिनियम ने एक निदेशक के अधीन एक पुरातत्त्व विभाग की स्थापना की।
आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (The official secrets act) 1904
1905 में अविभाजित बंगाल प्रेसीडेंसी का विभाजन इनकी सबसे बड़ी नीतियों में से एक था।
निबंध का सार
बालमुकुंद गुप्त द्वारा रचित व्यंग्यात्मक निबंध ‘विदाई–संभाषण’ में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्ज़न की इंग्लैंड-वापसी पर व्यंग्य किया गया है तथा उन्हें भारत विरोधी कार्य करने के लिए लज्जित किया गया है।
लेखक बालमुकुंद गुप्त लॉर्ड कर्ज़न को संबोधित करके कहते हैं – आप भारत में स्थायी रूप से वायसराय बने रहना चाहते थे। परंतु आपके शासन का भी अंत हो गया। इससे स्पष्ट है कि ईश्वर इच्छा आपसे बड़ी है। आपके दोबारा भारत आने पर भारतवासी बिलकुल प्रसन्न नहीं थे। वे हमेशा आपके चले जाने की प्रतीक्षा किया करते थे। परंतु आज आपके जाने पर मन में करुणा जाग रही है। सचमुच विदाई का समय करुणा उत्पन्न करने वाला होता है। भारत में तो पशु-पक्षी तक विदाई की पीड़ा महसूस करते हैं। शिवशंभु के पास दो गायें थीं। उसमें से एक अधिक बलवाली थीं। किंतु जब बलशाली गाय वहाँ से विदा हुई तो कमज़ोर गाय उससे बिछड़ने पर बिना चारा खाए खड़ी उदास रही। जहाँ पशु ऐसे हैं तो वहाँ के मनुष्य विदाई का कितना दुख मनाते होंगे। आगे लेखक कहते हैं कि लॉर्ड कर्ज़न के शासन का अंत दुखमय हुआ। कर्ज़न ने इस खेल को सुखांत समझकर खेला था। उसे आरंभ से मध्य तक सुख ही सुख मिला। परंतु अंत दुखद हुआ। वास्तव में सारी लीला रचने वाला लीलामय कोई और है। घमंडी खिलाड़ी व्यर्थ में ही घमंड दिखाया करता है।
दूसरी बार भारत में आने पर लॉर्ड कर्ज़न ने ऐसी योजना बनाई थी कि जिससे भारत में अंग्रेज़ों का राज सदा-सदा के लिए बना रहे। परंतु उन्होंने अपनी करतूतों से ऐसी अशांति फैला दी कि आने वाले शासकों को सुख की नींद नहीं आ सकेगी। उन्होंने स्वयं भी संकट सहे और भारतीय जनता को भी दुखी किया। भारत के लोगों को इस बात का बेहद दुख है।
भारत में लॉर्ड कर्ज़न की शान सबसे ऊपर थी। दिल्ली दरबार में ईश्वर तथा महाराज एडवर्ड के बाद उनका सर्वोच्च स्थान था। उनकी कुर्सी सोने की थी। जुलूस में उनका हाथी सबसे ऊँचा सबसे आगे और शानदार हौदी पर बैठकर हाथी सवारी का आनंद उठाया करते थे। परंतु इतनी शान के बावजूद उन्हें ब्रिटेन के एक जंगी लाट हर्बर्ट किचेनर के सामने छुटपन का शिकार होना पड़ा।
अपने पद के नशे में डूबे कर्ज़न ने कौंसिल में गैरकानूनी कानून पास करके तथा कनवोकेशन में अनुचित भाषण देकर अपनी धीरता-गंभीरता का दिवाला निकाल दिया। उधर विलायत में उन्होंने इस्तीफा देने की धमकी दे डाली, जिसे स्वीकार कर लिया गया। भारत में उनके इशारों पर ही हाकिमों को नाचना पड़ता था। उन्हीं के इशारों पर देश की शिक्षा और स्वाधीनता नष्ट हो गई। उन्होंने ही बंग देश के विभाजन की योजना बनाई। परंतु उनके अपने ही देश में एक फौजी अफसर उनके कहने पर नियुक्त न हो सका। परिणामस्वरूप उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा।
भारतवासी लॉर्ड कर्ज़न की यह पतित दशा देखकर अत्यंत दुखी हैं। अब उनका जाना तय है। अतः वे इस अवधि को कैसे काट रहे होंगे-ये वे ही जानते होंगे। लेखक लॉर्ड कर्ज़न को उसके मनमानी-पूर्ण शासन की याद दिलाते हैं। कर्ज़न ने यहाँ मनमाना शासन चलाया। उसने आँख मूँदकर और कान बंद करके शासन किया। कोई भी काम प्रजा की इच्छानुसार नहीं किया। कैसर और ज़ार भी घेरने-घोटने पर प्रजा की बात सुन लेते थे। नादिरशाह ने भी आसिफ़जाह के तलवार गले में लटकाने पर उसी वक्त कत्लेआम रोक दिया था, किंतु लॉर्ड कर्ज़न में इतनी भी समझदारी नहीं थी कि वह भारत की आठ करोड़ प्रजा की फरियाद पर बंगाल का विभाजन रोक दे। यद्यपि अब उनका भारत से जाना निश्चित हो चुका है, तो भी वे जाते-जाते बंग-भंग की जिद पूरी करना चाहते हैं। तब भला भारत की जनता कहाँ जाकर अपना दुखड़ा रोए।
इंग्लिश में एक कहावत है Tit for tat अर्थात् जैसे को तैसा। भारत की प्रजा ने लॉर्ड कर्ज़न की मनमानी का परिणाम यहीं देख लिया। उनकी जिस जिद ने भारतवासियों को दुखी किया, उसी जिद ने स्वयं कर्ज़न को भी शिकार बनाया। भारत की जनता भगवान पर असीम विश्वास रखती है। वह दुख के दिन जैसे-तैसे बिता लेगी। परंतु उसे इस बात का दुख है कि लॉर्ड कर्ज़न देश की प्रजा की श्रद्धा, समर्पण और विश्वास जीत न सके।
लेखक मिट्टी की अहमियत को दर्शाने के लिए नर सुलतान का प्रसंग भी लॉर्ड कर्ज़न के साथ करके दोनों की तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। लॉर्ड कर्ज़न कभी-कभी इस देश की अनपढ़ जनता का नाम अपने मुँह पर लाया करते थे। वही अनपढ़ प्रजा नर सुलतान नाम के एक राजकुमार की महिमा का गीत गाती है। उस राजकुमार ने अपनी विपत्ति के दिन नरवरगढ़ नाम के राज्य में काटे थे। वहाँ उसने चौकीदार से लेकर ऊँचे पद तक अनेक कार्य किए थे। उसने विदाई के समय नरवरगढ़ की जनता का, वहाँ की भूमि का उपकार माना था और उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया था। भारत की जनता आज तक उस कृतज्ञ राजकुमार को याद करती है।
अंत में लेखक लॉर्ड कर्ज़न से पूछते हैं- “क्या आप भी ऐसा विदाई – संभाषण कर सकते हैं, जिसमें आप अपने स्वार्थ का, अपनी धूर्तता का उल्लेख करें और भारत की भोली-भाली जनता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करें। क्या आप भारत के प्राचीन गौरव और यश को फिर से जागने की कामना प्रकट कर सकते हैं?” लेखक को विश्वास है कि यदि कर्ज़न ने ऐसा किया तो यहाँ की जनता उसकी गलतियों को क्षमा कर देगी। परंतु लॉर्ड कर्ज़न में इतनी उदारता नहीं है।
यह भी जानें
1. कैसर – रोमन तानाशाह जूलियस सीज़र के नाम से बना शब्द जो तानाशाह जर्मन शासकों (962 से 1876 तक) के लिए प्रयोग होता था।
2. ज़ार – यह भी जूलियस सीज़र से बना शब्द है जो विशेष रूप से रूस के तानाशाह शासकों (16वीं सदी से 1917 तक) के लिए प्रयुक्त होता था। इस शब्द का पहली बार बुल्गेरियाई शासक (913 में) के लिए प्रयोग हुआ था।
3. नादिरशाह– (1688-1747) 1736 से 1747 तक ईरान के शाह रहे। अपने तानाशाही स्वरूप के कारण ‘नेपोलियन ऑफ परशिया’ के नाम से भी जाने जाते थे पानीपत के तीसरे युद्ध में अहमदशाह अब्दाली को नादिरशाह ने ही आक्रमण के लिए भेजा था।
शब्दार्थ
1. लॉर्ड – स्वामी
2. चिरस्थाई – हमेशा
3. वाइसराय – शासक
4. विषाद – दुख
5. आविर्भाव -आना
6. वरंच – बल्कि
7. सूत्रधार – संचालन करने वाला
8. ज़ाहिर – प्रकट
9. चित्त – ह्रदय
10. चिराग – दीया
11. खलीफ़ा – शासक
12. रईस – अमीर
13. हौदा – हाथी के पीठ पर रखा जाने वाला चौकोर आसन
14. जंगी लाट – सेना का अफसर
15. वक्तृता – भाषण
16. इस्तीफ़ा – त्यागपत्र
17. विलायत – विदेश
18. हाकिम – शासक
19. तिलांजलि देना – छोड़ देना
20. पायमाल होना – नष्ट होना
21. आरह रखना -विभाजित करना
22. नियत – तय
23. अदना – छोटा
24. कान देना – ध्यान देना
25. कैसर – मनमाना शासन
26. ज़ार – रूस के मनमाने शासन के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द
27. घेरना घोटना – अत्यधिक आग्रह करना
28. नादिरशाह – ईरान का बादशाह
29. विच्छेद – अलगहोना
30. ताब न होना – चाह न होना
31. अभिवादन – प्रणाम
32. चूक करना – कमी करना
33. बदौलत – कारण
34. संभाषण – भाषण देना
35. उदारता – बड़प्पन
अभ्यास
पाठ के साथ
1. शिवशंभु की दो गायों की कहानी के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
उत्तर – शिवशंभु की दो गायों की कहानी के माध्यम से लेखक कहना चाहते हैं कि भारत देश में बिछड़ने का समय, बड़ा करुण, बड़ा पवित्र, बड़ा निर्मल और बड़ा कोमल होता है। बिछड़ते समय सभी बैर-भाव को भूलाकर शांत और सुहृद हो जाते हैं। इस पाठ में बताया गया है कि यह भाव भारत देश के नागरिकों के साथ-साथ भारत देश के पशुओं में भी देखने मिलता है। शिवशंभु की दो गायें थीं उसमें से एक बलिष्ठ गाय दूसरी दुर्बल गाय को मारती रहती थी। फिर भी मारनेवाली गाय के जाने के दुख में दूसरी गाय ने पूरे दिन चारा नहीं खाया।
2. आठ करोड़ प्रजा के गिड़गिड़ाकर विच्छेद न करने की प्रार्थना पर आपने ज़रा भी ध्यान नहीं दिया – यहाँ किस ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर – यहाँ बंग-भंग या बंगाल विभाजन की ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत किया गया है। लॉर्ड कर्जन ने भारत में नित-प्रति होने वाली क्रांतिकारी घटनाओं को रोकने के लिए कूटनीति अपनाते हुए बंगाल का विभाजन कर दिया – पूर्वी और पश्चिमी बंगाल। आठ करोड़ जनता ने इस विभाजन के पक्ष में न थे। उन्होंने प्रार्थना भी की परंतु लॉर्ड कर्जन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी।
3. कर्ज़न को इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ गया?
उत्तर – निम्नलिखित कारणों की वजह से लॉर्ड कर्जन को इस्तीफा देना पड़ गया –
• लॉर्ड कर्जन के बंग-भंग के कारण भारतीय उनके विरुद्ध खड़े हो गए। इससे कर्ज़न और ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिल गईं थीं।
• लॉर्ड कर्जन ने इंग्लैंड के एक फ़ौजी अफसर को अपनी इच्छा के पद पर रखना चाहते थे, पर ब्रिटिश सरकार ने उनकी बात न मानी। इससे क्षुब्ध होकर गुस्से में उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
4. बिचारिए तो, क्या शान आपकी इस देश में थी और अब क्या हो गई! कितने ऊँचे होकर आप कितने नीचे गिरे! – आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – लॉर्ड कर्जन को भारत में जितना मान-सम्मान और जैसी शान-ओ-शौकत मिली, वैसी किसी अन्य शासक को नहीं मिली होगी। दिल्ली के दरबार में इनकी सोने की कुर्सी लगी हुई थी। देश के सब रईसों ने इनको पहले सलाम किया और बादशाह के भाई को पीछे। जुलूस में इनका हाथी सबसे आगे और सबसे ऊँचा था। हौदा, चँवर, छत्र आदि सबसे बढ़-चढ़कर थे। इनके एक इशारे पर देश के धनी-मानी लोग हाथ बाँधें खड़े रहते थे। ईश्वर और महाराज एडवर्ड के बाद इस देश में इन्हीं का एक दर्जा था, परंतु इस्तीफा देने के बाद सब कुछ खत्म हो गया। इसकी सिफारिश पर एक आदमी भी नहीं रखा गया। जिद के कारण इसका वैभव नष्ट हो गया।
5. आपके और यहाँ के निवासियों के बीच में कोई तीसरी शक्ति और भी है – यहाँ तीसरी शक्ति किसे कहा गया है?
उत्तर – आपके और यहाँ के निवासियों के बीच में कोई तीसरी शक्ति और भी है – यहाँ तीसरी शक्ति का प्रयोग दो संदर्भों में हुआ है। पहला, लॉर्ड कर्जन और भारत के निवासियों के बीच में तीसरी शक्ति ब्रिटिश सरकार है। यही शक्ति लॉर्ड कर्जन और भारत के निवासियों को नियंत्रित कर रही थी। दूसरा, ईश्वर की शक्ति जिनके संकेत पर संसार के सभी कार्य चलते हैं।
पाठ के आस—पास
1. पाठ का यह अंश शिवशंभु के चिट्ठे से लिया गया है। शिवशंभु नाम की चर्चा पाठ में भी हुई है। बालमुकुन्द गुप्त ने इस नाम का उपयोग क्यों किया होगा?
उत्तर – भारतीयों को ब्रिटिश शासन का विरोध करने की आज़ादी नहीं थी। इसलिए बालमुकुंद गुप्त ने शिवशंभु नामक काल्पनिक पात्र का सहारा लेकर शासन की पोल खोलने की युक्ति निकाली। शिवशंभु सदा भाँग के नशे में मस्त रहता था। इस पात्र की आड़ लेकर वे सुरक्षित भी रह सकते थे और लोकप्रिय भी हो सकते थे। ये पात्र सबके सामने खरी-खरी बातें कहता और ब्रिटिश शासन की खामियों को उजागर करता जो शिवशंभु के चिट्ठे के नाम से जनता तक पहुँचाया जाता।
2. नादिर से भी बढ़कर आपकी जिद्द है – कर्ज़न के संदर्भ में क्या आपको यह बात सही लगती है? पक्ष या विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर – जी हाँ, मुझे यह बात सही लगती है। नादिरशाह एक तानाशाह था। उसने दिल्ली की जनता का कत्लेआम करवाया था। पर जब आसिफजाह ने उनसे कहाँ की अब मरे हुए आदमियों को फिर से उठाकर मारना पड़ेगा तो उस क्रूर नादिरशाह ने कत्लेआम रुकवा दिया था। लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया था। आठ करोड़ जनता ने बहुत प्रार्थना की परंतु लॉर्ड कर्जन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। इस संदर्भ में कर्जन की जिद नादिरशाह से भी बड़ी होने की बात सही लगती है।
3. क्या आँख बंद करके मनमाने हुक्म चलाना और किसी की कुछ न सुनने का नाम ही शासन है? – इन पंक्तियों को ध्यान में रखते हुए शासन क्या है? इस पर चर्चा कीजिए।
उत्तर- शासन का अर्थ है– सुव्यवस्था या उत्तम प्रबंध। शासन व्यवस्था में शासक और प्रजा दोनों की भागीदारी होती है। प्रजा को अपनी बात कहने का पूरा हक है। इस पाठ में दिया गया है कि लॉर्ड कर्जन जनता पर अपना मनमाना हुक्म चलाता था और जनता की विनती को अनसुनी कर देता था। जो जनता के साथ अन्याय था। ऐसा शासन लंबे समय तक नहीं चल सकता और इसके विरोध में जन-जन खड़ा होता ही है।
4. इस पाठ में आए अलिफ़ लैला, अलहदीन, अबुल हसन और बगदाद के खलीफ़ा के बारे में सूचना एकत्रित कर कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर – इस प्रश्न का उत्तर छात्र स्वयं करेंगे।
गौर करने की बात
क. इससे आपका जाना भी परंपरा की चाल से कुछ अलग नहीं है, तथापि आपके शासनकाल का नाटक घोर दुखांत है, और अधिक आश्चर्य की बात यह है कि दर्शक तो क्या, स्वयं सूत्रधार भी नहीं जानता था कि उसने जो खेल सुखांत समझकर खेलना आरंभ किया था, वह दुखांत हो जावेगा।
ख. यहाँ की प्रजा ने आपकी जिद्द का फल यहीं देख लिया। उसने देख लिया कि आपकी जिस जिद्द ने इस देश की प्रजा को पीड़ित किया, आपको भी उसने कम पीड़ा न दी, यहाँ तक कि आप स्वयं उसका शिकार हुए।
भाषा की बात
1. वे दिन-रात यही मनाते थे कि जल्द श्रीमान् यहाँ से पधारें। सामान्य तौर पर आने के लिए पधारें शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ पधारें शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर – यहाँ ‘पधारें’ शब्द का अर्थ है – सिधारें या जाएँ (विदा हों)।
2. पाठ में से कुछ वाक्य नीचे दिए गए हैं, जिनमें भाषा का विशिष्ट प्रयोग (भारतेंदु युगीन हिंदी) हुआ है। उन्हें सामान्य हिंदी में लिखिए –
क. आगे भी इस देश में जो प्रधान शासक आए, अंत को उनको जाना पड़ा।
उत्तर – पहले भी इस देश में जो प्रधान शासक हुए, उन्हें अंत में जाना पड़ा।
ख. आप किस को आए थे और क्या कर चले?
उत्तर – आप किसलिए आए थे और क्या कर चले?
ग. उनका रखाया एक आदमी नौकर न रखा।
उत्तर – उनके रखवाने से एक आदमी नौकर न रखा गया।
घ. पर आशीर्वाद करता हूँ कि तू फिर उठे और अपने प्राचीन गौरव और यश को फिर से लाभ करे।
उत्तर – पर आशीर्वाद देता हूँ कि तू फिर उठे और अपने प्राचीन गौरव और यश को फिर से प्राप्त करे।