कविता का उद्देश्य
1. कविता के माध्यम से सत्य को जान सकेंगे।
2. कवि की चिंतनशैली से अवगत हो सकेंगे।
3. कविता का रसवास्वादन व व्याख्या कर सकेंगे।
4. कविता लेखन की नई शैली से अवगत हो सकेंगे।
5. अनुग्रह करने की नई विधि से परिचित हो सकेंगे।
6. कठिन शब्दों के अर्थ जान सकेंगे।
7. अन्य जानकारियों से परिचित हो सकेंगे।
कवि परिचय
सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म 7 मार्च 1911 ई. में कसया (कुशीनगर) में हुआ था। इनके पिता हीरानन्द वात्स्यायन पुरातत्त्व विभाग में उच्च पदाधिकारी थे। उनका बहुत-सा जीवन पुरातत्त्व खुदाई शिविरों में बीता था। इसी कारण अज्ञेय की शिक्षा ग्रहण करने की दशा अव्यवस्थित रही। इनका बाल्यकाल 1911 से 1915 तक का समय लखनऊ में तथा 1915 से 1919 तक का समय श्रीनगर और जम्मू में तथा 1919 से 1927 तक नालन्दा में तथा 1927 से 1935 तक ऊटकमंड में व्यतीत हुआ और साथ-साथ ही ये शिक्षा ग्रहण भी करते रहे। इन्होंने सन् 1929 में लाहौर के फॉरसन कॉलेज से बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। तदुपरान्त अज्ञेय जी क्रांतिकारी दल में प्रविष्ट होकर उनकी योजनाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। इन पर कई मुकदमे ठोके गए और ये कई बार जेल भी गए।
सन् 1936 में अज्ञेय जी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गए। इन्होंने ‘सैनिक’ (आगरा) के संपादक मंडल में नौकरी की। फिर 1937 में श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह पर आप डेढ़ वर्ष तक ‘विशाल भारत’ (कलकत्ता) से जुड़े रहे एवं वहीं रहे। कलकत्ता से लौटकर इन्होंने 1939 में रेडियो में नौकरी की। सन् 1943 में सेना में भर्ती हो गए और 1946 तक सैनिक जीवन व्यतीत किया। वहाँ से आने के बाद 1947 में ‘प्रतीक’ के प्रकाशन का भार संभाला जिसमें इन्हें बहुत अधिक क्षति हुई। कारणतः 1950 में फिर से रेडियो की नौकरी करनी पड़ी। लेकिन उन्होंने प्रतीक का प्रकाश बंद नहीं किया। उनकी इस कर्मठता का विद्यानिवास मिश्र के साक्ष्य से पता चलता है – “मार्च 1947 में इन्होंने इस कार्य का विस्तार करने के लिए इलाहाबाद में अपना निवास स्थान बनाया और वहाँ रहकर प्रतीक के माध्यम से कला, संस्कृति और साहित्य के अंतरावलंबन का एक सर्वांगीण संदेश रखा। प्रतीक का दायरा बहुत ही विस्तृत था और आज जो भी नयी पीढ़ी के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं, उनमें से अधिकांश की प्रतिभा का उन्मीलन प्रतीक में हुआ। प्रतीक में अज्ञेय ने अपना सब कुछ लगाया और उसमें इतनी आर्थिक हानि सही कि उस हानि को पूरा करने के लिए उन्हें 1963 तक कठोर परिश्रम करना पड़ा है। 1950 में प्रतीक के लिए ही इन्होंने दिल्ली में रेडियों की नौकरी स्वीकार की और दो वर्ष तक इन्होंने अपने बूते पर ही चलाया।”
सन् 1955 में अज्ञेय जी पहली बार यूनेस्को गए। फिर जापान और फिलीपींस गए। सितंबर 1961 में ये कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के प्राध्यापक नियुक्त होकर गए। फिर 1966 में उन्हें रूमानिया, यूगोस्लाविया, रूस तथा मंगोलिया की यात्रा का अवसर मिला।
सन् 1965 में कुछ दिनों के लिए ‘दिनमान’ के संपादक रहे। फिर जोधपुर विश्वविद्यालय में आचार्य पद को संभाला। इसे छोड़कर फिर ये ‘नवभारत टाइम्स’ दैनिक के संपादक बने।
अज्ञेय जी का पहला विवाह सन्तोष से हुआ। इन दोनों में विवाह के दिन से ही संबंध विच्छेद के प्रयास शुरू हो गए। अंततः तलाक हुआ। अज्ञेय ने फिर चौदह साल बाद प्रेयसी कपिला मलिक से माता-पिता के विरोध करने पर भी 1956 में विवाह कर लिया। ये दोनों विवाह के पहले और बाद के कुल मिलाकर 13 वर्ष साथ रहे फिर तलाक से ही अलग-अलग रहने लगे। कपिला अब भी अपने नाम के पीछे वात्स्यायन लगाती है और वे भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की प्रसिद्ध विदुषी हैं।
अज्ञेय जी कपिला से अलग होने पर इला डालमिया के साथ रहने लगे। इन दोनों में चौंतीस साल का अंतर था। इनका खुला संबंध था। ये दोनों विवाह की औपचारिकता में भी नहीं पड़े थे। इस संबंध में ‘जनसत्ता’ की टिप्पणी देखी जा सकती हैं—‘“पाखण्ड वाले भारत में ‘अज्ञेय’ इला जी को बेटी या बेटी के समान कह सकते थे, लेकिन उन्होंने कभी इस संबंध को ऐसे पारंपरिक और औपचारिक रूप में प्रचारित नहीं किया। वे इस खुले हुए संबंध को ऐसी सहज गरिमा से जीते रहे कि वह कभी कांड नहीं बना। न ‘अज्ञेय’ जी किसी औपचारिकता में पड़े न इला डालमिया। इला जी ने अपनी पारंपरिक मारवाड़ी पृष्ठभूमि के बावजूद इस संबंध को एक खुली आधुनिकता से जिया (12-4-87 जनसत्ता)।
अज्ञेय का साहित्य संसार
काव्य यात्रा : यहाँ अज्ञेय की रचनाओं का संक्षिप्त वर्णन ही दिया जा रहा है।
भग्नदूत : यह सन् 1933 में प्रकाशित अज्ञेय का पहला काव्य संग्रह है। इसके प्रणयन के समय छायावाद अपनी चरमावस्था में था। इसी कारण छायावाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था। इसकी अनुभूति में रोमानीपन, भाषा में बनावटीपन और तुक का आग्रह अधिक है।
चिन्ता : इसका प्रकाशन वर्ष 1942 है। इसका मूल विषय स्त्री और पुरुष का आपसी आकर्षण है। यहाँ कवि यौन संबंधों को पति-पत्नी के सामाजिक संबंध तक सीमित न रहकर उसकी व्यापकता को देखता है। चिरंतन पुरुष और चिरंतन नारी में गतिशील संबंधों को स्वीकार करता है।
इत्यलम् : इस काव्य संकलन का प्रकाशन वर्ष 1946 है। यह पाँच खण्डों में विभक्त है – भग्नादूत, बन्दी, स्वप्न, हिय हारिल, वंचना में दुर्ग और मिट्टी की इहा।
हरी घास पर क्षण भर : इसका प्रकाशन वर्ष 1949 है। इसमें कवि की आत्मान्वेषण मूलक, प्रकृति संबंधी एवं प्रणयानुभूति संबंधी कविताएँ संकलित हैं। यहाँ हरी घास ‘मुक्त जीवन’ के आमन्त्रण की प्रतीक है।
बावरा अहेरी : इसका प्रकाशन 1954 में हुआ। इसमें प्रेमानुभूति, प्रकृति संबंधी एवं व्यंग्यात्मक कविताएँ संकलित हैं। यहाँ कवि मौन के समीप जाता जा रहा प्रतीत होता है।
इन्द्रधनु रौंदे हुए ये : इसका प्रकाशन वर्ष 1957 है। इसमें कवि के समाज सम्पृक्त का बोध अभिव्यक्त हुआ है। यहाँ उनका व्यक्तित्व कवि के रूप में कम विचारक के रूप में अधिक व्यक्त हुआ है।
अरी ओ करुणा प्रभामय : सन् 1959 में प्रकाशित इस संकलन में कवि रहस्योन्मुख है।
आँगन के पार द्वार : इसका प्रकाशन वर्ष 1961 है। इस पर अज्ञेय को 1964 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण एवं लम्बी कविता ‘असाध्य वीणा’ है। इसमें कवि समष्टि के प्रति अहं का विलयन करता है।
कितनी नावों में कितनी बार : इसमें कवि की बाहरी यात्राओं के साथ-साथ अंतर्मन की यात्राओं से संबंधित कविताएँ संकलित हैं। इसमें उनका मूल स्वर ‘मम’ से ‘ममेतर’ है।
क्योंकि मैं उसे जानता हूँ : इसमें कवि द्वारा रचित 1965 से 1968 तक की कविताएँ संकलित हैं। इसमें कवि की गहरी सामाजिक सम्पृक्ति अभिव्यक्त हुई है।
सागर मुद्रा : इसमें कवि द्वारा रचित 1967 से 1969 तक की सभी कविताएँ संकलित हैं। यहाँ कवि की प्रेमानुभूति की अभिव्यक्ति के साथ उनका विशिष्ट रहस्यवाद भी व्यंजित हुआ है।
पहले मैं सन्नाटा बनता हूँ : इसमें कवि की 1970 से 1973 के मध्य रची सभी कविताएँ संकलित हैं। इसमें कवि अज्ञेय की विशेष रूप से दार्शनिकता एवं सत्यान्वेषण की प्रवत्ति अभिव्यक्त हुई है।
महावृक्ष के नीचे : इसका प्रकाशन 1977 में हुआ। इस संकलन की कविताओं का प्रमुख स्वर मनुष्य की सर्जन प्रेरणा के उत्सव का है।
नदी की बाँक पर छाया : इसका प्रकाशन 1982 में हुआ।
पूर्वा : इसका प्रकाशन 1965 में हुआ। इसमें अज्ञेय की आरम्भिक कविताओं से लेकर सन् 1950 तक की कविताएँ संकलित हैं।
अज्ञेय न केवल कविता के क्षेत्र में ख्यात थे बल्कि कहानी, उपन्यास के क्षेत्र में भी ख्यात थे। उनके सात कहानी संग्रह और तीन उपन्यास प्रकाशित हुए।
विपथगा : इसका प्रकाशन वर्ष 1937 ई. है। इसमें उनकी कारावास में लिखी 12 कहानियाँ संगृहीत हैं, जो चरित्र – प्रधान हैं।
परंपरा : यह सामाजिकता की प्रधानता लिए 22 कहानियों का संग्रह 1944 में प्रकाशित हुआ।
कोठरी की बात : इसका प्रकाशन 1945 में हुआ। इसमें क्रांतिकारियों के जीवन एवं चरित्र से संबंधित सात कहानियाँ संकलित हैं।
अमरवल्लरी और अन्य कहानियाँ : यह अज्ञेय की पुरानी कहानियों का ही संग्रह है। इसकी सभी आठ कहानियाँ पहले प्रकाशित हो चुकी हैं।
जयदोल : इसका प्रकाशन 1951 में हुआ। इसमें प्रेम और फौजी जीवन से संबंधित 12 कहानियाँ संकलित है।
कड़ियाँ और अन्य कहानियाँ : इसमें भी अज्ञेय की मात्र एक नई कहानी के साथ पुरानी कहानियाँ ही संगृहीत है।
ये तेरे प्रतिरूप : इसका प्रकाशन वर्ष 1961 है। इसमें चौदह कहानियाँ संगृहीत हैं लेकिन इसमें 11 कहानियाँ ही नई है।
उपन्यास साहित्य
1. शेखर : एक जीवनी : (दो भाग) प्रकाशन वर्ष क्रमशः सन् 1940, 1944 ई. है।
2. नदी के द्वीप
3. अपने-अपने अजनबी
निबंध साहित्य
अज्ञेय के छह निबंध संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
1. त्रिशंकु : अज्ञेय द्वारा रचित तेरह निबंधों का यह संग्रह सन् 1945 में प्रकाशित हुआ।
बावरा अहेरी
‘बावरा अहेरी’ कविता अज्ञेय के काव्य संकलन ‘बावरा अहेरी’ में संकलित है। जिसका प्रकाशन 1957 में हुआ था। इस संकलन की सभी कविताएँ प्रकृति समन्वयी हैं। कवि ने कहीं तो प्रकृति के रस और उल्लास को अपने भीतर भरना चाहा है तो कहीं प्रकृति कवि के संवेदनों का अंग बनकर आई है। ‘बावरा अहेरी’ कविता प्रातःकाल के सौंदर्य के वर्णन से संबंधित है। कवि ने उषाकाल को बावरा अहेरी अर्थात् पागल शिकारी बताया है।
पाठ परिचय
इस कविता में कवि ने व्यापक सत्य से पाठकों को अवगत कराया है। सामान्यत: यह माना जाता है कि शिकारी पागल होते हैं और दूसरों को अहित करते हैं। लेकिन कवि का यह मानना है कि एक शिकारी ऐसा भी है जो सबका हित करता है। वह इतना अच्छा शिकारी है कि लोगों के हृदय में रहे द्वेष का शिकार करके उसके मन को पवित्र कर देता है। यह शिकारी और कोई नहीं बल्कि सूर्य है और इस सूर्य को बावरा (पागल) इसलिए कहा गया है क्योंकि आज के कलयुग में जब कोई केवल अच्छे कार्य करता रहता है तो यह तथाकथित समाज उसे पागल की संज्ञा ही देता है। मूल रूप से यही कहा जा सकता है कि इस कविता में बावरा अहेरी अर्थात् सूर्य सुंदर को सुंदरतर से सुंदरतम की अवस्था तक ले जाता है और पतितों को भी पावन कर पूजनीय बनाने की क्षमता रखता है।
बावरा अहेरी
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथ
छोटी-छोटी चिड़ियाँ, मँझोले परेवे बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले, डील वाले डौल के बेडौल
उड़ने जहाज
कलस-तिसूल वाले मन्दिर – शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदररी
बेपनाह काया को :
गोधूलि की धूल को, मोटरों के धुएँ को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक- खची तन्वि
रूपरेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दंड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं, मानो उसी मात्र से अहेरी को हरा देंगी।
शब्दार्थः
बावरा अहेरी – पागल शिकारी, यहाँ सूर्य को कहा गया है।
कनियाँ – दाने।
मँझोले परेवे – मध्यम आकार का तेज उड़ने वाला कबूतर।
कलस-तिसूल – मन्दिर पर लगने वाला कलश और त्रिशूल।
घुस्सों वाली – कंबल धारण करने वाली।
पुष्पिताग्र – जिसके अग्रभाग फूलों से लदे हों।
कर्णिकार – कन्नेर।
आलोक-खची – प्रकाश से युक्त।
तन्वी – पतली।
उद्दण्ड उच्छृंखल।
प्रसंग:
प्रस्तुत अवतरण कविवर अज्ञेय विरचित ‘बावरा अहेरी’ काव्य संकलन में संकलित ‘बावरा अहेरी’ कविता से अवतरित है। इसमें कवि सूर्य के व्यापक प्रकाश का चित्रण करता है। उनका कहना है कि सूर्य जड़ एवं चेतन दोनों को ही आलोकित करता है।
व्याख्याः
प्रातःकाल का पागल शिकारी सूर्य लाल-लाल किरणों रूपी दानों को बिखेरकर सभी को जाल में पहले तो फँसा लेता है। फिर शिकारी की ही तरह अपने जाल को खींचता है तो सभी को उसमें बाँध लेता है। वह छोटी-छोटी चिड़ियाँ, मध्यम आकार के पक्षी, बड़े आकार के पक्षी, आकाश में उड़ने वाले वायुयान, कलश और त्रिशूल लगे मंदिर, डील-डौल आकार के पक्षी, तारघर में काम करने वाली ठिगने कद की मोटी, चपटी, गोल और ऊन के कंबल धारण करने वाली सुंदरी, आश्रयहीन शरीर, गायों के खुरों से उड़ी हुई धूल, गाड़ी मोटरों से निकला हुआ धुआँ, पार्क के किनारे, अग्रभाग अर्थात् डालियों के सिरों में पुष्पित कन्नेर के प्रकाश से निर्मित कोमल एवं सुंदर रेखा और दूर कूड़ा-करकट जलाने वाली चिमनियाँ जो इस प्रकार धुआँ उगलती हैं, मानो धुएँ से ही अहेरी अर्थात् सूर्य को हरा देंगी। इन सबको ही सूर्य अपनी किरणों के जाल में बाँध कर खींच लेता है। अर्थात् प्रकृति और यंत्र सभ्यता दोनों ही सूर्य के आलोक से आलोकित होते हैं।
विशेष
1. कवि कहना चाहता है कि सूर्य के प्रकाश से प्रकृति एवं यंत्र सभ्यता दोनों ही प्रकाशित होते हैं।
2. डैनों-डील, धूली, धूल, धुएँ अनुप्रास अलंकार,
बावरा अहेरी – रूपक अलंकार,
‘लाल-लाल, बड़े-बड़े, छोटी-छोटी – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।
बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैं:
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँडहर की शिरा-शिरा छेद दे
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर दे :
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँख आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ, और मन में क तज्ञता उमड़ आय
पहनूँ सिरोपे – से ये कनक – तार तेरे –
बावरे अहेरी रे !
शब्दार्थः
अवध्य – जिसका वध न हो।
विवर – गुफा।
दुबकी – दबी हुई, डरी हुई।
कलौंस – कालिमा।
ढूह – ढेर।
माँज जा – साफ कर दे।
आँज जा – काजल लगा जा।
सिरोफा – परिधान।
प्रसंग
प्रस्तुत अवतरण कविवर अज्ञेय विरचित ‘बावरा अहेरी’ काव्य संकलन में संकलित ‘बावरा अहेरी’ कविता से अवतरित है। इसमें कवि सूर्य के व्यापक प्रकाश का चित्रण करता है। उनका कहना है कि सूर्य जड़ एवं चेतन दोनों को ही आलोकित करता है।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि अरे पागल शिकारी सूर्य! विश्व में ऐसा कोई नहीं है जिसका तू वध न कर सके। सब तेरे शिकार हैं। अर्थात् तू इतना शक्तिशाली है कि तू संसार के हर प्राणी को नष्ट कर सकता है। जब तू इतना शक्तिशाली है तो मेरा भी एक काम कर दे, मेरे मन की अँधेरी गुफा में जो कालिमा छिपी है उसे धो दे, नष्ट कर दे। हे! प्रकाश-पुंज सूर्य क्या तू उसे छिपी ही छोड़कर चला जाएगा? अर्थात् हे सूर्य मेरे अंदर जो अहंभाव है, उसे नष्ट कर दे। मैं अपने हृदय के सारे दरवाजे खोल देता हूँ जिससे कि तेरा प्रकाश वहाँ तक पहुँच जाए और इसे नष्ट कर दे। मेरे खंडहर हृदय की एक-एक नस को अपने आलोक के रश्मि-बाणों से छेद दे। मेरे अहंकार को ढहाकर ढेर बना दे। मेरे असफल दिनों के कलंक को तू धो दे। तू मेरी आँखों में काजल डाल दे ताकि मैं तुझे, तेरे ज्ञान को पहचान सकूँ। तेरे इस उपकार के प्रति मेरे हृदय में कृतज्ञता के भाव उमड़ पड़े। हे! पागल शिकारी सूर्य मेरी इच्छा है कि मैं तेरी प्रातःकालीन स्वर्णिम किरणों को परिधान (वस्त्र) समझकर पहन सकूँ। अर्थात् मैं नख से शिख तक तेरे ज्ञान से मंडित हो सकूँ।
विशेष
1. कवि ने सूर्य को ज्ञान का प्रतीक मानकर उससे प्रार्थना की है कि मेरे मन में छिपे अहंकार को नष्ट कर दे और मुझे अपने आलोक से आलोकित कर दे।
2. सूर्य ज्ञान एवं अहेरी का प्रतीक है।
3. भाषा की दृष्टि से माँज जा, आँज जा, गढ़ सारा ढाह कर ढूह भरकर दे आदि प्रयोग भावपूर्ण, प्रवाहमयी और प्रभावपूर्ण है।
4. मन-विवर, आलोक की कली – रूपक अलंकार
शिरा – शिरा – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
सिरोपे-से – उपमा अलंकार
5. अहेरी प्रतीक है – दर्शन का
खंडहर प्रतीक है – अन्तस् का
अनी प्रतीक है – सूर्य किरणों का
टिप्पणीः यहाँ अज्ञेय फिट्जेराल्ड से प्रभावित दिखाई देते हैं फिट्जेराल्ड ने ‘रूबाइयट ऑफ उमर खय्याम’ में सूर्य के लिए ‘पूर्व के अहेरी’ शब्द प्रयुक्त किया है। यहाँ अज्ञेय ने भी यही प्रतीक लिया है।
बोध प्रश्न
1. कविता ‘बावरा अहेरी’ पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए।
2. कविता में कौन किससे और क्या निवेदन कर रहा है?
3. सूर्य को पागल शिकारी क्यों कहा गया है?
4. सब को अपने जाल में फँसा लेने पर भी सूर्य सबका हित ही करता है, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
5. इस कविता में आपको क्या खास लगा? लिखिए।
6. कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दीजिए।