गुरु हैं ब्रह्मा गुरु हरि हैं, गुरु की महिमा सर्वोपरि है।
गुरु हरें सारे तिमिर तम, तव वंदन हे नाथ करें हम।
सचमुच, हम सबके जीवन में गुरु का स्थान अद्वितीय है। आज हम जिस उन्नत, विकसित और सुख-सुविधाओं से भरी दुनिया में हैं, वह गुरु की असीम अनुकंपा का ही परिणाम है। इन्हीं कारणों से गुरु की महिमा का यशोगान युगों युगों से होता आ रहा है। वैदिक युग से होते हुए त्रेता युग से लेकर आज कलियुग तक गुरु की शरण में विद्यालाभ करके नजाने कितने छात्रों का जीवन कृत-कृत हो गया है। विश्वामित्र को गुरु के रूप में पाकर राम, मर्यादा पुरोषोत्तम श्रीराम बनें, कृष्ण को पाकर अर्जुन युद्धवीर अर्जुन बनें, चंद्रगुप्त मौर्य चाणक्य को गुरु के रूप में पाकर चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य बनें, अरस्तू से शिक्षा लाभ करके सिकंदर, सिकंदर महान बना, समर्थ रामदास को पाकर शिवाजी, छत्रपति शिवाजी बनें, रामकृष्ण परमहंस को पाकर नरेन्द्रनाथ दत्त धर्म मीमांसक स्वामी विवेकानंद बनें और रामानन्द अचरेकर को अपने कोच के रूप में पाकर सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के भगवान भारत रत्न सचिन तेंदुलकर बनें। इन आधारों पर यह कहना सर्वथा उचित ही होगा कि गुरु-शिष्य परंपरा अनाड़ी काल से चली आ रही है।
लेकिन इतिहास के पन्नों में कुछ ऐसी बातें भी दर्ज़ हो चुकी हैं जो मुझे इस सत्य को शत-प्रतिशत स्वीकार करने से रोकती है। द्वापर युग में गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को केवल इसलिए शिक्षा नहीं प्रदान की कि वह भील पुत्र था, उसमें सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने के सारे गुणों का भान होते ही गुरुदक्षिणा में उसका अँगूठा माँग लेना एक शिक्षक को कैसे ग्लानि भाव से नहीं भर देता, इस पर मुझे आश्चर्य होता है। गुरु परशुराम की ज़िद्द कि वे केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा देंगे, क्या जाति-प्रथा के पोषकों को बढ़ावा नहीं देती, उसपर भी कर्ण को यह अभिशाप देना कि आवश्यकता के समय तू सारी विद्या भूल जाएगा, कहाँ तक गुरु के स्वभाव के अनुरूप है। भीमराव रामजी आंबेडकर को केवल इसलिए संस्कृत की कक्षा में नहीं बैठने दिया जाना क्योंकि वे महार जाति के थे। ऐसी डाँवाडोल स्थिति आज भी देखेने को मिलती है जब अनेक मेधावी छात्र जो सरस्वती के कृपापात्र होते हुए भी लक्ष्मी के लाडलों के आगे अच्छे संस्थान में दाखिला न पाने के कारण हीनग्रंथि (inferiority complex) भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, जो भी हो हमें दोनों पक्षों पर विचार करना चाहिए और अंत में उज्जवल पक्ष की ही सराहना करनी चाहिए ताकि समाज को सही दिशानिर्देश मिल सके और सकारात्मक सोच का प्रसार भी हो। आज भले ही शिक्षा व्यवस्था के व्यवसायीकरण से हम सब परिचित हों। ‘कोटा फैक्ट्री’ जैसी वेब सिरीज़ भले ही डंके की चोट पर शिक्षा व्यवस्था की खामियों को दिखाती हो पर ‘तारे ज़मीन पर’ और ‘सुपर 30’ जैसी फिल्में भी हैं जो गुरु की अहमियत को आवश्यक सिद्ध कर ही देती हैं। यही विश्वास यही भरोसा भारत के भारत के पहले उपराष्ट्रपति श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन का भी था जिन्होंने शिक्षक की महती भूमिका को समझते हुए अपना जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप मनोनीत कर दिया।
अपने इन्हीं विचारों के साथ भाषण के अंतिम पड़ाव पर यही कहना चाहता हूँ कि
सात समंदर मसि करूँ, लेखनी सब बनराय।
सारी धरती कागद करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए।
धन्यवाद !