Class – X, Sparsh, Chapter -13, Shailendra – Teesri Kasam Ke Shilpkaar, (NCERT Hindi  Course B) The Best Solutions

(1947)

भारत की आज़ादी के साल मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में जन्मे प्रहलाद अग्रवाल ने हिंदी से एम – ए – तक शिक्षा हासिल की। इन्हें किशोर वय से ही हिंदी फ़िल्मों के इतिहास और फ़िल्मकारों के जीवन और उनके अभिनय के बारे में विस्तार से जानने और उस पर चर्चा करने का शौक रहा। इन दिनों सतना के शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राध्यापन कर रहे प्रहलाद अग्रवाल फ़िल्म क्षेत्र से जुड़े लोगों और फ़िल्मों पर बहुत कुछ लिख चुके हैं और आगे भी इसी क्षेत्र को अपने लेखन का विषय बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – सातवाँ दशक, तानाशाह, मैं खुशबू, सुपर स्टार, राजकपूर : आधी हकीकत आधा फ़साना, कवि शैलेंद्र : ज़िंदगी की जीत में यकीन, प्यासा : चिर अतृप्त गुरुदत्त, उत्ताल उमंग : सुभाष घई की फ़िल्मकला, ओ रे माँझी : बिमल राय का सिनेमा और महाबाज़ार के महानायक : इक्कीसवीं सदी का सिनेमा।

साल के किसी महीने का शायद ही कोई शुक्रवार ऐसा जाता हो जब कोई न कोई हिंदी फ़िल्म सिने पर्दे पर न पहुँचती हो। इनमें से कुछ सफल रहती हैं तो कुछ असफल। कुछ दर्शकों को कुछ अर्से तक याद रह जाती हैं, कुछ को वह सिनेमाघर से बाहर निकलते ही भूल जाते हैं। लेकिन जब कोई फ़िल्मकार किसी साहित्यिक कृति को पूरी लगन और ईमानदारी से पर्दे पर उतारता है तो उसकी फ़िल्म न केवल यादगार बन जाती है बल्कि लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें कोई बेहतर संदेश देने में भी कामयाब रहती है।

एक गीतकार के रूप में कई दशकों तक फ़िल्म क्षेत्र से जुड़े रहे कवि और गीतकार ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ को सिने पर्दे पर उतारा तो वह मील का पत्थर सिद्ध हुई। आज भी उसकी गणना हिंदी की कुछ अमर फ़िल्मों में की जाती है। इस फ़िल्म ने न केवल अपने गीत, संगीत, कहानी की बदौलत शोहरत पाई बल्कि इसमें अपने ज़माने के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने अपने फ़िल्मी जीवन की सबसे बेहतरीन एक्टिंग करके सबको चमत्कृत कर दिया। फ़िल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसा ही अभिनय कर दिखाया जैसी उनसे उम्मीद थी।

इस मायने में एक यादगार फ़िल्म होने के बावजूद ‘तीसरी कसम’ को आज इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस फ़िल्म के निर्माण ने यह भी उजागर कर दिया कि हिंदी फ़िल्म जगत में एक सार्थक और उद्देश्यपरक फ़िल्म बनाना कितना कठिन और जोखिम का काम है।

‘संगम’ की अद्भुत सफलता ने राजकपूर में गहन आत्मविश्वास भर दिया और उसने एक साथ चार फ़िल्मों के निर्माण की घोषणा की – ‘मेरा नाम जोकर’, ‘अजन्ता’, ‘मैं और मेरा दोस्त’ और ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’। पर जब 1965 में राजकपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ का निर्माण आरंभ किया तब संभवतः उसने भी यह कल्पना नहीं की होगी कि इस फ़िल्म का एक ही भाग बनाने में छह वर्षों का समय लग जाएगा।

इन छह वर्षों के अंतराल में राजकपूर द्वारा अभिनीत कई फ़िल्में प्रदर्शित हुईं, जिनमें सन् 1966 में प्रदर्शित कवि शैलेंद्र की ‘तीसरी कसम’ भी शामिल है। यह वह फ़िल्म है जिसमें राजकपूर ने अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका अदा की। यही नहीं, ‘तीसरी कसम’ वह फ़िल्म है जिसने हिंदी साहित्य की एक अत्यंत मार्मिक कृति को सैल्यूलाइड पर पूरी सार्थकता से उतारा। ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म नहीं, सैल्यूलाइड पर लिखी कविता थी।

‘तीसरी कसम’ शैलेंद्र के जीवन की पहली और अंतिम फ़िल्म है। ‘तीसरी कसम’ को ‘राष्ट्रपति स्वर्णपदक’ मिला, बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फ़िल्म फेस्टिवल में भी यह फ़िल्म पुरस्कृत हुई। इसकी कलात्मकता की लंबी-चौड़ी तारीफ़ें हुईं। इसमें शैलेंद्र की संवेदनशीलता पूरी शिद्दत के साथ मौजूद है। उन्होंने ऐसी फ़िल्म बनाई थी जिसे सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था।

शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए हैं। राजकपूर ने अपने अनन्य सहयोगी की फ़िल्म में उतनी ही तन्मयता के साथ काम किया, किसी पारिश्रमिक की अपेक्षा किए बगैर। शैलेंद्र ने लिखा था कि वे राजकपूर के पास ‘तीसरी कसम’ की कहानी सुनाने पहुँचे तो कहानी सुनकर उन्होंने बड़े उत्साहपूर्वक काम करना स्वीकार कर लिया। पर तुरंत गंभीरतापूर्वक बोले – “मेरा पारिश्रमिक एडवांस देना होगा।” शैलेंद्र को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि राजकपूर ज़िंदगी-भर की दोस्ती का ये बदला देंगे। शैलेंद्र का मुरझाया हुआ चेहरा देखकर राजकपूर ने मुसकराते हुए कहा, “निकालो एक रुपया, मेरा पारिश्रमिक! पूरा एडवांस।” शैलेंद्र राजकपूर की इस याराना मस्ती से परिचित तो थे, लेकिन एक निर्माता के रूप में बड़े व्यावसायिक सूझबूझ वाले भी चक्कर खा जाते हैं, फिर 92 ध स्पर्श शैलेंद्र तो फ़िल्म-निर्माता बनने के लिए सर्वथा अयोग्य थे। राजकपूर ने एक अच्छे और सच्चे मित्र की हैसियत से शैलेंद्र को फ़िल्म की असफलता के खतरों से आगाह भी किया। पर वह तो एक आदर्शवादी भावुक कवि था, जिसे अपार संपत्ति और यश तक की इतनी कामना नहीं थी जितनी आत्म-संतुष्टि के सुख की अभिलाषा थी। ‘तीसरी कसम’ कितनी ही महान फ़िल्म क्यों न रही हो, लेकिन यह एक दुखद सत्य है कि इसे प्रदर्शित करने के लिए बमुश्किल वितरक मिले। बावजूद इसके कि ‘तीसरी कसम’ में राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे नामज़द सितारे थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था, जिनकी लोकप्रियता उन दिनों सातवें आसमान पर थी और इसके गीत भी फ़िल्म के प्रदर्शन के पूर्व ही बेहद लोकप्रिय हो चुके थे, लेकिन इस फ़िल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। दरअसल इस फ़िल्म की संवेदना किसी दो से चार बनाने का गणित जानने वाले की समझ से परे थी। उसमें रची-बसी करुणा तराज़ू पर तौली जा सकने वाली चीज़ नहीं थी। इसीलिए बमुश्किल जब ‘तीसरी कसम’ रिलीज़ हुई तो इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फ़िल्म कब आई, कब चली गई, मालूम ही नहीं पड़ा।

ऐसा नहीं है कि शैलेंद्र बीस सालों तक फ़िल्म इंडस्ट्री में रहते हुए भी वहाँ के तौर-तरीकों से नावाकिफ़ थे, परंतु उनमें उलझकर वे अपनी आदमियत नहीं खो सके थे। ‘श्री 420’ का एक लोकप्रिय गीत है – ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।’ इसके अंतरे की एक पंक्ति – ‘रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ’ पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति की। उनका खयाल था कि दर्शक ‘चार दिशाएँ’ तो समझ सकते हैं – ‘दस दिशाएँ’ नहीं। लेकिन शैलेंद्र परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए। उनका दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। और उनका यकीन गलत नहीं था। यही नहीं, वे बहुत अच्छे गीत भी जो उन्होंने लिखे बेहद लोकप्रिय हुए। शैलेंद्र ने झूठे अभिजात्य को कभी नहीं अपनाया। उनके गीत भाव-प्रवण थे – दुरूह नहीं। ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ – यह गीत शैलेंद्र ही लिख सकते थे। शांत नदी का प्रवाह और समुद्र की गहराई लिए हुए। यही विशेषता उनकी ज़िंदगी की थी और यही उन्होंने अपनी फ़िल्म के द्वारा भी साबित किया था।

‘तीसरी कसम’ यदि एकमात्र नहीं तो चंद उन फ़िल्मों में से है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया हो। शैलेंद्र ने राजकपूर जैसे स्टार को ‘हीरामन’ बना दिया था। हीरामन पर राजकपूर हावी नहीं हो सका। और छींट की सस्ती साड़ी में लिपटी ‘हीराबाई’ ने वहीदा रहमान की प्रसिद्ध ऊँचाइयों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। कजरी नदी के किनारे उकड़ू बैठा हीरामन जब गीत गाते हुए हीराबाई से पूछता है ‘मन समझती हैं न आप?’ तब हीराबाई ज़ुबान से नहीं, आँखों से बोलती है। दुनिया-भर के शब्द उस भाषा को अभिव्यक्ति नहीं दे सकते। ऐसी ही सूक्ष्मताओं से स्पंदित थी – ‘तीसरी कसम’। अपनी मस्ती में डूबकर झूमते गाते गाड़ीवान – ‘चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया।’ टप्पर-गाड़ी में हीराबाई को जाते हुए देखकर उनके पीछे दौड़ते-गाते बच्चों का हुजूम – ‘लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहनिया’, एक नौटंकी की बाई में अपनापन खोज लेने वाला सरल हृदय गाड़ीवान! अभावों की ज़िंदगी जीते लोगों के सपनीले कहकहे।

हमारी फ़िल्मों की सबसे बड़ी कमज़ोरी होती है, लोक-तत्त्व का अभाव। वे ज़िंदगी से दूर होती है। यदि त्रासद स्थितियों का चित्रांकन होता है तो उन्हें ग्लोरीफ़ाई किया जाता है। दुख का ऐसा वीभत्स रूप प्रस्तुत होता है जो दर्शकों का भावनात्मक शोषण कर सके। और ‘तीसरी कसम’ की यह खास बात थी कि वह दुख को भी सहज स्थिति में, जीवन-सापेक्ष प्रस्तुत करती है।

मैंने शैलेंद्र को गीतकार नहीं, कवि कहा है। वे सिनेमा की चकाचौंध के बीच रहते हुए यश और धन-लिप्सा से कोसों दूर थे। जो बात उनकी ज़िंदगी में थी वही उनके गीतों में भी। उनके गीतों में सिर्फ़ करुणा नहीं, जूझने का संकेत भी था और वह प्रक्रिया भी मौजूद थी जिसके तहत अपनी मंज़िल तक पहुँचा जाता है। व्यथा आदमी को पराजित नहीं करती, उसे आगे बढ़ने का संदेश देती है। 

शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ को अपनी भावप्रवणता का सर्वश्रेष्ठ तथ्य प्रदान किया। मुकेश की आवाज़ में शैलेंद्र का यह गीत तो अद्वितीय बन गया है –

सजनवा बैरी हो गए हमार चिठिया हो तो हर कोई बाँचै भाग न बाँचै कोय – – –

अभिनय के दृष्टिकोण से ‘तीसरी कसम’ राजकपूर की ज़िंदगी की सबसे हसीन फ़िल्म है। राजकपूर जिन्हें समीक्षक और कला-मर्मज्ञ आँखों से बात करने वाला कलाकार मानते हैं, ‘तीसरी कसम’ में मासूमियत के चर्मोत्कर्ष को छूते हैं। अभिनेता राजकपूर जितनी ताकत के साथ ‘तीसरी कसम’ में मौजूद हैं, उतना ‘जागते रहो’ में भी नहीं। ‘जागते रहो’ में राजकपूर के अभिनय को बहुत सराहा गया था, लेकिन ‘तीसरी कसम’ वह फ़िल्म है जिसमें राजकपूर अभिनय नहीं करता। वह हीरामन के साथ एकाकार हो गया है। खालिस देहाती भुच्च गाड़ीवान जो सिर्फ़ दिल की ज़ुबान समझता है, दिमाग की नहीं। जिसके लिए मोहब्बत के सिवा किसी दूसरी चीज़ का कोई अर्थ नहीं। बहुत बड़ी बात यह है कि ‘तीसरी कसम’ राजकपूर के अभिनय-जीवन का वह मुकाम है, जब वह एशिया के सबसे बड़े शोमैन के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनका अपना व्यक्तित्व एक किंवदंती बन चुका था। लेकिन ‘तीसरी कसम’ में वह महिमामय व्यक्तित्व पूरी तरह हीरामन की आत्मा में उतर गया है। वह कहीं हीरामन का अभिनय नहीं करता, अपितु खुद हीरामन में ढल गया है। हीराबाई की फेनू-गिलासी बोली पर रीझता हुआ, उसकी ‘मनुआ-नटुआ’ जैसी भोली सूरत पर न्योछावर होता हुआ और हीराबाई की तनिक-सी उपेक्षा पर अपने अस्तित्व से जूझता हुआ सच्चा हीरामन बन गया है।

‘तीसरी कसम’ की पटकथा मूल कहानी के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने स्वयं तैयार की थी। कहानी का रेशा-रेशा, उसकी छोटी-से-छोटी बारीकियाँ फ़िल्म में पूरी तरह उतर आईं।

शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र

राजकपूर (हीरामन),

वहीदा रहमान (हीराबाई),

फणीश्वरनाथ रेणु, पटकथा लेखक

संगीतकार जयकिशन आदि।

गीतकार के रूप में प्रसिद्ध कवि और गीतकार शैलेंद्र ने फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ को सिनेमा के पर्दे पर उतारा तब वह मील का पत्थर साबित हुई। आज भी इसकी गणना हिंदी की कुछ अमर फिल्मों में की जाती है।

इस फ़िल्म ने न केवल अपने गीत-संगीत की बदौलत शोहरत पाई बल्कि शोमैन राजकपूर ने अपने फिल्मी जीवन की सबसे बेहतरीन एक्टिंग करके सबको चमत्कृत कर दिया।

‘संगम’ की अद्भुत सफलता ने राजकपूर को आत्मविश्वास से भर दिया था। छह वर्ष के अंतराल में राजकपूर द्वारा फिल्में प्रदर्शित हुईं । इनमें 1966 में शैलेंद्र की फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ भी शामिल है। इस फ़िल्म में राजकपूर ने अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका अदा की। ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म नहीं, सैल्यूलाइड पर लिखी कविता थी। यह फ़िल्म शैलेंद्र की पहली और अंतिम फ़िल्म है। ऐसी फ़िल्म को एक सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था। शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए हैं। इस फ़िल्म के लिए राजकपूर ने केवल एक रुपया ही पारिश्रमिक लिया था। राजकपूर ने शैलेंद्र को फ़िल्म निर्माण और इसकी असफलता के खतरों से आगाह भी किया था। ‘तीसरी कसम’ में राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे नामजद सितारे थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था, फिर भी इस फ़िल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। इसे बड़ी मुश्किल से वितरक मिल सके।

शैलेंद्र ने राजकपूर जैसे स्टार को गाड़ीवाला ‘हीरामन’ बना दिया था। छींट की सस्ती साड़ी में लिपटी ‘हीराबाई’ ने वहीदा रहमान की प्रसिद्ध ऊँचाइयों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। हमारी फिल्मों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है-लोक तत्त्व का अभाव और इसमें त्रासद स्थितियों को भी ग्लोरीफाई करके पेश किया जाता हैं जबकि ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म में ऐसी कोई भी बात नहीं है। इस फ़िल्म की खास बात यह थी कि वह दुख को भी सहज स्थिति में प्रस्तुत करती है।

इस फ़िल्म में मुकेश की आवाज में गाया शैलेंद्र का यह गीत अमर बन गया

‘सजनवा बैरी हो गए हमार,

चिठिया हो तो हर कोई बाँचै, भाग न बाँचै कोय’

अभिनय की दृष्टि से यह फ़िल्म राजकपूर की जिंदगी की सबसे हसीन फ़िल्म है। राजकपूर कहीं भी हीरामन का अभिनय नहीं करता, अपितु खुद हीरामन में ढल गया है। ‘तीसरी कसम’ की पटकथा मूल कहानी के लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने स्वयं तैयार की थी।

1.हासिल – प्राप्त

2.वय – उम्र

3.शौक – चाह

4.तानाशाह – Dictator

5.हकीकत – सच्चाई

6.फ़साना – कहानी

7.अर्से – लंबे समय तक

8.बेहतर – Better

9.कामयाब – सफल

10.बदौलत – की वजह से

11.जोखिम – Risk

12.अंतराल – के बाद

13.अभिनीत – अभिनय किया गया

14.सर्वोत्कृष्ट – सबसे अच्छा

15.सैल्यूलाइड – कैमरे की रील में उतार चित्र पर प्रस्तुत करना

16.सार्थकता – सफलता के साथ

17.कलात्मकता – कला से परिपूर्ण

18.संवेदनशीलता – भावुकता

19.शिद्दत – तीव्रता

20.अनन्य – परम / अत्यधिक

21.तन्मयता – तल्लीनता

22.पारिश्रमिक – मेहनताना

23.याराना मस्ती – दोस्ताना अंदाज़

24.आगाह – सचेत

25.आत्म-संतुष्टि – अपनी तुष्टि

26.बमुश्किल – बहुत कठिनाई से

27.वितरक – प्रसारित करने वाले लोग

28.नामज़द – विख्यात

29.नावाकिफ़ – अनजान

30.इकरार – सहमति

31.मंतव्य – इच्छा

32.उथलापन – सतही / नीचा

33.अभिजात्य – परिष्कृत

34.भाव-प्रवण – भावनाओं के भरा हुआ

35.दुरूह – कठिन

36.उकड़ू – घुटने मोड़कर पैर के तलवों के सहारे बैठना

37.सूक्ष्मता – बारीकी

38.स्पंदित – संचालित करना / गतिमान

39.लालायित – इच्छुक

40.टप्पर-गाड़ी – अर्धगोलाकार छप्पर युक्त बैलगाड़ी

41.हुज़ूम – भीड़

42.प्रतिरूप – छाया

43.रूपांतरण – किसी एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित करना

44.लोक-तत्त्व – लोक संबंधी

45.त्रासद – दुखद

46.ग्लोरीफ़ाई – गुणगान / महिमामंडित करना

47.वीभत्स – भयावह

48.जीवन-सापेक्ष – जीवन के प्रति

49.धन-लिप्सा – धन की अत्यधिक चाह

50.प्रक्रिया – प्रणाली

51.बाँचै – पढ़ना

52.भाग – भाग्य

53.भरमाये – भ्रम होना / झूठा आश्वासन

54.समीक्षक – समीक्षा करने वाला

55.कला-मर्मज्ञ – कला की परख करने वाला

56.चर्मोत्कर्ष – ऊँचाई के शिखर पर

57.खालिस – शुद्ध

58.भुच्च – निरा / बिलकुल

59.किंवदंती – कहावत

1-‘तीसरी कसम’ फ़िल्म को कौन-कौन से पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है?

उत्तर – ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म को राष्ट्रपति स्वर्णपदक, बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट एसोसिएसन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुना गया और मास्को फ़िल्म फेस्टिवल में भी इस फ़िल्म को पुरस्कार मिला। 

2 – शैलेंद्र ने कितनी फ़िल्में बनाईं?

उत्तर – शैलेंद्र ने मात्र एक फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई।

3 – राजकपूर द्वारा निर्देशित कुछ फ़िल्मों के नाम बताइए।

उत्तर – राजकपूर ने संगम, मर नाम जोकर, अजंता, मैं और मेरा दोस्त, सत्यम् शिवम् सुंदरम् इत्यादि फ़िल्में बनाईं। 

4 -‘तीसरी कसम’ फ़िल्म के नायक व नायिकाओं के नाम बताइए और फ़िल्म में इन्होंने किन पात्रों का अभिनय किया है?

उत्तर – इस फ़िल्म में राजकपूर ने हीरामन और वहीदा रहमान ने हीराबाई की भूमिका निभाई।   

5 – फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ का निर्माण किसने किया था?

उत्तर – फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ का निर्माण शैलेंद्र ने किया था। 

6 – राजकपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ के निर्माण के समय किस बात की कल्पना भी नहीं की थी?

उत्तर – राजकपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ के निर्माण के समय यह सोचा भी नहीं था कि फ़िल्म का एक ही भाग बनाने में छह वर्षों का समय लग जाएगा।   

7 – राजकपूर की किस बात पर शैलेंद्र का चेहरा मुरझा गया?

उत्तर -‘तीसरी कसम’ की कहानी सुनने के बाद जब राजकपूर ने गंभीरतापूर्वक अपने मेहनताने की अग्रिम राशि माँगी तो शैलेंद्र का चेहरा मुरझा गया। उन्हें अपने मित्र राजकपूर से ऐसी उम्मीद नहीं थी।

8 – फ़िल्म समीक्षक राजकपूर को किस तरह का कलाकार मानते थे?

उत्तर – फ़िल्म समीक्षक राजकपूर को उत्कृष्ट कलाकार मानते थे। वे मानते थे कि राजकपूर आँखों से बात करने वाले कलाकार हैं।

1 – ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म को ‘सैल्यूलाइड पर लिखी कविता’ क्यों कहा गया है?

उत्तर – तीसरी कसम’ फ़िल्म की कथा फणीशवरनाथ रेणु की अत्यंत मार्मिक साहित्यिक रचना पर बनी थी। फ़िल्म की कथा में भावनाओं का उचित व सटीक वर्णन हुआ है इसलिए इसे फ़िल्म न मानकर सैल्यूलाइड पर लिखी कविता कहा गया है।

2 – ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म को खरीददार क्यों नहीं मिल रहे थे?

उत्तर – तीसरी कसम’ फ़िल्म को खरीददार नहीं मिल रहे थे क्योंकि फ़िल्म खरीददार अपने आर्थिक लाभ का हिसाब लगाकर ही फ़िल्म खरीदते हैं तथा व्यापारिक प्रवृत्ति वाले इस फ़िल्म की संवेदना व कलात्मकता को समझ नहीं पाए। दूसरी बात इस फ़िल्म का प्रचार भी नहीं हुआ था।

3 – शैलेंद्र के अनुसार कलाकार का कर्तव्य क्या है?

उत्तर – शैलेंद्र उत्कृष्ट कोटि के कवि थे। उनका मानना था कि कलाकार का कर्तव्य है कि वह दर्शकों पर उनकी रुचि की आड़ में उथलापन न थोंपे बल्कि दर्शकों की रुचियों का परिष्कार करें।

4 – फ़िल्मों में त्रासद स्थितियों का चित्रांकन ग्लोरिफ़ाई क्यों कर दिया जाता है?

उत्तर – फ़िल्मों में त्रासद स्थितियों का चित्रांकन ग्लोरिफ़ाई कर दिया जाता है ताकि दर्शकों का भावनात्मक शोषण हो सके। इस प्रकार दर्शकों की संख्या व फ़िल्म की प्रसिद्धि दोनों को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। हर भावना को बढ़ा-चढ़ा कर प्रदर्शित कर फ़िल्म को अधिक व्यावसायिक बनाया जाता है।

5 – ‘शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए हैं’ – इस कथन से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – शैलेंद्र और राजकपूर में मित्रता थी। जब शैलेंद्र ‘तीसरी कसम’ की कहानी सुनाने गए तो कहानी सुनने के बाद उत्साहपूर्वक काम करना स्वीकार कर लिया। शैलेंद्र की कहानी ने राजकपूर की अभिनय कला को नए मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया। इयसलिए कहा गया है, “शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए हैं।”

6 – लेखक ने राजकपूर को एशिया का सबसे बड़ा शोमैन कहा है। शोमैन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर – .शोमैन से अभिप्राय उस कलाकार से है जो अपनी कलकारी और अभिनय की भिन्नता से विशाल फ़लक पर अपनी पहचान बनाकर दर्शकों के हृदय पर राज कर सके। राजकपूर इसी प्रकार के कलाकार थे। वे अभिनय कला की उन ऊँचाइयों तक पहुँच गए थे कि जिस भी किरदार को निभाते उसी में पूरी तरह समा जाते और अपनी अमिट छाप छोड़ देते।  

7 – फ़िल्म ‘श्री 420’ के गीत ‘रातों दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ’ पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति क्यों की?

उत्तर – संगीतकार जयकिशन का मानना था कि दर्शक दस दिशाएँ नहीं समझ सकते। वे तो मात्र चार दिशाएँ ही समझ सकते हैं। इसलिए शैलेंद्र को अपने गीत की उस पंक्ति में ‘दस दिशा’ को बदलकर ‘चार दिशा’ करना चाहिए।

1 – राजकपूर द्वारा फ़िल्म की असफलता के खतरों से आगाह करने पर भी शैलेंद्र ने यह फ़िल्म क्यों बनाई?

उत्तर – राजकपूर ने शैलेंद्र को पहले ही फ़िल्म की असफलता के खतरों से आगाह कर दिया था। यह फ़िल्म भावनाप्रधान थी तथा शैलेन्द्र आदर्शवादी भावुक कवि। लेकिन शैलेंद्र को अपार धन-संपत्ति की कामना नहीं थी। वे तो एक अच्छी फ़िल्म बनाकर आत्मसंतुष्टि करना चाहते थे। या ऐसा कहा जा सकता है कि वे एक महान रचना का निर्माण करना चाहते थे।   

2 – ‘तीसरी कसम’ में राजकपूर का महिमामय व्यक्तित्व किस तरह हीरामन की आत्मा में उतर गया है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – राजकपूर एक उत्कृष्ट कोटि के कलाकार थे तथा उनका अभिनय चरमोत्कर्ष पर था। उनका व्यक्तित्व महिमामय था। फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ में उन्होंने देहाती भावुक गाड़ीवान की भूमिका को इस प्रकार निभाया कि फ़िल्म के पर्दे पर वे पूरी तरह से प्रेम की भाषा समझने वाले भोले-भाले गाड़ीवान ही लगते हैं। उस समय दर्शक उन्हें राजकपूर की तरह नहीं अपितु हीरामन की तरह मानते हैं। वे पूरी तरह से हीरामन से एकाकार हो गए। 

3 – लेखक ने ऐसा क्यों लिखा है कि ‘तीसरी कसम’ ने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है?

उत्तर – ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म फणीश्वरनाथ रेणु की रचना पर रची गई है। फणीश्वरनाथ रेणु एक महान साहित्यकार थे और साहित्य का अर्थ ही होता है जिससे सभका भला हो सबका हित हो। इस फ़िल्म में कथा की सभी बारीकियों का ध्यान रखा गया है। कथा में हीरामन और हीरबाई के दुख का मानवीय व सहज रूप चित्रित किया गया है। कहीं भी दर्शकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं किया गया है। इसलिए लेखक ने ऐसा लिखा है कि ‘तीसरी कसम’ ने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है।

4 – शैलेंद्र के गीतों की क्या विशेषताएँ हैं? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – शैलेंद्र ने अपने गीतों में सरल व सहज ढंग से भावनाओं को अभिव्यक्त किया है। उनके गीतों में कहीं भी क्लिष्टता नहीं है। उनके गीतों मेन जीवन की गहराई, साहित्य का सार और जीवन की उदात्तता झलकती है। इन्हीं कारणों की वजह से उनके गीत बहुत लोकप्रिय हुए।  

5 – फ़िल्म निर्माता के रूप में शैलेंद्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर – शैलेंद्र उस समय और आज के व्यावसायिक प्रवृत्ति वाले निर्माताओं से काफी अलग थे। ‘तीसरी कसम’ उनकी पहली और अंतिम फ़िल्म थी। वे एक साहित्यप्रेमी भावुक कवि थे। उन्होंने धन कमाने की इच्छा से यह फ़िल्म नहीं बनाई थी बल्कि वे तो एक महान रचना करना चाहते थे। उन्होंने हीरामन और हीरबाई नामक पात्रों के माध्यम से प्रेम की महानता का बखान किया है। इसी वजह से उनकी फ़िल्म को कई पुरस्कार भी मिले।

6 – शैलेंद्र के निजी जीवन की छाप उनकी फ़िल्म में झलकती है – कैसे? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – शैलेंद्र गीतकार थे और भावुक कवि भी। व्यक्तिगत जीवन में उनके भावों और विचारों में सागर-सी गहराई थी। उनके आदर्श और भावनाएँ उनकी रचनाओं में झलकते हैं। उन्होंने कभी भी धन-संपत्ति को महत्त्व नहीं दिया। यही सादगी और प्रेम-भावना उनकी फ़िल्म में भी दिखाई पड़ती है। इस फ़िल्म में कहीं भी दर्शकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं किया गया है।

7 – लेखक के इस कथन से कि ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म कोई सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता  था, आप कहाँ तक सहमत हैं? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – लेखक का यह कथन उपयुक्त है कि ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म कोई सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था। इसका कारण यह है कि यह भाव प्रधान कथा है। इस फ़िल्म में मूल से लेकर अंत तक केवल सादगी को ही उकेरा गया है जो केवल एक कवि हृदय के पास ही हो सकता है। और सबसे बड़ी बात इस फ़िल्म को धन कमाने की इच्छा से नहीं बनाया गया था जिसकी वजह से कहीं भी किसी भी प्रकार की अश्लीलता का प्रदर्शन नहीं किया गया है। इस वजह से यह फ़िल्म एक विशिष्ट स्थान ग्रहण करने में सक्षम होती है।   

1 .वह तो एक आदर्शवादी भावुक कवि था, जिसे अपार संपत्ति और यश तक की इतनी कामना नहीं थी जितनी आत्म-संतुष्टि के सुख की अभिलाषा थी।

उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि राजकपूर ने शैलेंद्र को पहले ही फ़िल्म की असफलता से होने वाले खतरों के बारे में आगाह किया था फिर भी शैलेंद्र फ़िल्म बनाने के अपने फैसले पर कायम रहे। शैलेंद्र तो एक महान रचना का निर्माण कर आत्मसंतुष्टि चाहते थे। धन की लालशा तो उन्हें रत्ती भर भी नहीं थी।

2 – उनका यह दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे।

उत्तर – शैलेंद्र का मानना था कि लेखक का कर्तव्य होता है कि वह सामाजिक स्तर को ध्यान में रखते हुए समाजोपयोगी रचना करें। दर्शकों की रुचि की आड़ लेकर सस्ती और अल्पायु लोकप्रियता तथा धन अर्जित न करें। ऐसा होने पर समाज की अस्मिता और सांस्कृतिक मूल्यों का पतन होता है।    

3 – व्यथा आदमी को पराजित नहीं करती, उसे आगे बढ़ने का संदेश देती है।

उत्तर – इस विचार का आशय यह है कि किसी भी प्रकार की व्यथा मनुष्य को आगे बढ़ने और अनुभव ज्ञान में मदद करती है। शैलेन्द्र स्वयं गीतकार थे। फ़िल्मी जगत से उनका अटूट नाता था। बावजूद इसके वे इस दुनिया के चकाचौंध में बिलकुल अंधे नहीं हुए। फ़िल्म निर्माण के खतरों को जानने के बाद भी वे अपने फैसले पर अटल रहे।

4 – दरअसल इस फ़िल्म की संवेदना किसी दो से चार बनाने वाले की समझ से परे है।

उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि इस फ़िल्म के खरीददार नहीं मिल रहे थे क्योंकि सभी खरीददार अपने लाभ का अनुमान लगाकर ही फ़िल्म खरीदते थे। व्यावसायिक प्रवृत्ति वाले खरीददार भावनाओं को नहीं समझ सकते। इस फ़िल्म की करुणा को समझने के लिए व्यवसायी हृदय नहीं एक संवेदनशील हृदय की आवश्यकता पड़ती थी।

5 – उनके गीत भाव-प्रवण थे – दुरूह नहीं।

उत्तर – शैलेंद्र के गीत सरल और भावमय थे। ये गीत कठिन नहीं बल्कि इनमें भावों और विचारों की गहराई समाई हुई थी।

1 – पाठ में आए ‘से’ के विभिन्न प्रयोगों से वाक्य की संरचना को समझिए।

(क) राजकपूर ने एक अच्छे और सच्चे मित्र की हैसियत से शैलेंद्र को फ़िल्म की असफलता के खतरों से आगाह भी किया।

(ख) रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ।

(ग) फ़िल्म इंडस्ट्री में रहते हुए भी वहाँ के तौर-तरीकों से नावाकिफ़ थे।

(घ) दरअसल इस फ़िल्म की संवेदना किसी दो से चार बनाने के गणित जानने वाले की समझ से परे थी।

(ङ) शैलेंद्र राजकपूर की इस याराना दोस्ती से परिचित तो थे।

2 – इस पाठ में आए निम्नलिखित वाक्यों की संरचना पर ध्यान दीजिए –

(क) ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म नहीं, सैल्यूलाइड पर लिखी कविता थी।

(ख) उन्होंने ऐसी फ़िल्म बनाई थी जिसे सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था।

(ग) फ़िल्म कब आई, कब चली गई, मालूम ही नहीं पड़ा।

(घ) खालिस देहाती भुच्च गाड़ीवान जो सिर्फ़ दिल की ज़ुबान समझता है, दिमाग की नहीं।

3 – पाठ में आए निम्नलिखित मुहावरों से वाक्य बनाइए

चेहरा मुरझाना – राजकपूर द्वारा-पूरा पारिश्रमिक माँगने पर शैलेंद्र का चेहरा मुरझा गया।

चक्कर खा जाना – परीक्षा के परिणाम देखकर सुनील का दिमाग चक्कर खाने लगा।

दो से चार बनाना – आज-कल के व्यापारी दो का चार बनाने में ही लगे रहते हैं।

आँखों से बोलना – राजकपूर का अभिनय इतना उम्दा था कि वे आँखों से बोलते थे और दर्शक सब समझ जाते थे।

4 – निम्नलिखित शब्दों के हिंदी पर्याय दीजिए –

(क) शिद्दत – मेहनत, संजीदगी  

(ख) याराना – दोस्ताना

(ग) बमुश्किल – कठिनाई से

(घ) खालिस – शुद्ध

(ङ) नावाकिफ़ – अपरिचित

(च) यकीन – भरोसा

(छ) हावी – दबाव

(ज) रेशा – तन्तु

5 – निम्नलिखित का संधिविच्छेद कीजिए –

(क) चित्रांकन – चित्र + अंकन

(ख) सर्वोत्कृष्ट – सर्व + उत्कृष्ट

(ग) चर्मोत्कर्ष – चरम + उत्कर्ष

(घ) रूपांतरण – रूप + अंतरण

(ङ) घनानंद – घन + आनंद

6 – निम्नलिखित का समास विग्रह कीजिए और समास का नाम भी लिखिए –

(क) कला-मर्मज्ञ – काला के मर्मज्ञ (तत्पुरुष समास)

(ख) लोकप्रिय – लोक में प्रिय (तत्पुरुष समास)

(ग) राष्ट्रपति – राष्ट्र का पति (तत्पुरुष समास)

1.     चेहरा मुरझाना – निराश होना

2.     चक्कर खाना – समझ में न आना

3.     सातवें आसमान पर होना – बहुत खुश होना

4.     दो से चार बनाना – खूब रुपया कमाना

5.     आँखों से बोलना – भाव द्वारा मन की बात समझना

1 – फणीश्वरनाथ रेणु की किस कहानी पर ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म आधारित है, जानकारी प्राप्त कीजिए और मूल रचना पढ़िए।

उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।

2 – समाचार पत्रों में फ़िल्मों की समीक्षा दी जाती है। किन्हीं तीन फ़िल्मों की समीक्षा पढ़िए और ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म को देखकर इस फ़िल्म की समीक्षा स्वयं लिखने का प्रयास कीजिए।

उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।

1 – फ़िल्मों के संदर्भ में आपने अकसर यह सुना होगा – ‘जो बात पहले की फ़िल्मों में थी, वह अब कहाँ’। वर्तमान दौर की फ़िल्मों और पहले की फ़िल्मों में क्या समानता और अंतर है? कक्षा में चर्चा कीजिए।

उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।

2 – ‘तीसरी कसम’ जैसी और भी फ़िल्में हैं जो किसी न किसी भाषा की साहित्यिक रचना पर बनी हैं। ऐसी फ़िल्मों की सूची निम्नांकित प्रपत्र के आधार पर तैयार करें।

क्र – सं – फ़िल्म का नाम        साहित्यिक रचना        भाषा          रचनाकार

1 –      देवदास             देवदास               बंगला         शरत्चंद्र

2.       हाफ़ गर्लफ्रेंड         हाफ़ गर्लफ्रेंड            अंग्रेज़ी         चेतन भगत

3.       उसने कहा था उसने कहा था       हिन्दी    चंद्रधर शर्मा गुलेरी

4.       गोदान              गोदान                हिन्दी        मुंशी प्रेमचंद

3 – लोकगीत हमें अपनी संस्कृति से जोड़ते हैं। ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म में लोकगीतों का प्रयोग किया गया है। आप भी अपने क्षेत्र के प्रचलित दो—तीन लोकगीतों को एकत्र कर परियोजना कॉपी पर लिखिए।

उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।

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