संकेत बिंदु – (1) चंद्रमा का उदय और अस्त नियमबद्ध (2) चाँदनी का विस्तार (3) नदियों और झरनों में रात का दृश्य (4) चाँदनी रात में नौका विहार (5) चाँदनी रात प्राणिमात्र के लिए मनभावन।
वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चहुँ ओर चक्कर लगाती है। संसार का जो भाग सूर्य के सम्मुख होगा, वहाँ दिन होगा, जिसकी पीठ सूर्य की ओर होगी, वहाँ रात होगी। यह निरंतर चलने वाला चक्र ही पृथ्वी पर दिन और रात की सृष्टि करता है।
चंद्रमा का उदय और अस्त भी नियमबद्ध है। वह पृथ्वी का चक्कर एक मास में पूर्ण करता है। चंद्रमा उदय और अस्त भी शनैः शनैः होता है। न एकदम अमावस होती है, न एकदम पूर्णिमा।
चाँदनी रात – पूर्णिमा की रात्रि अत्यंत सुहावनी होती है। चारों ओर चंद्र-किरणों की उज्ज्वल और शीतल ज्योत्स्ना का साम्राज्य। जल-स्थल, अवनि- अम्बर सर्वत्र चंद्र- किरणों की क्रीड़ा। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में
“चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बर-तल में॥”
संपूर्ण जगत्-कांति से आलोकित हो रहा है। गगन-मंडल में भी शुभ्रता छाई हुई है। तारों की जगमगाहट उस शुभ्र ज्योत्स्ना में लुप्त-सी हो गई है। चाँदनी का यह विस्तार क्षीरसागर जैसा प्रतीत हो रहा है और उसके मध्य विराजमान चंद्र एक खिले हुए श्वेत कमल के समान दिखाई दे रहा है। श्री जानकीवल्लभ शास्त्री के शब्दों में-
“नयन- मन- उन्मादिनी
आज निकली चाँदनी
आज केवल शून्य नीचे शून्य ऊपर,
स्वर्ग की संपूर्ण सुषमा आज भू पर,
सब कहाँ, है आज दो-चार तारे,
हेर वसुधा के हृदय का हार हारे।
उमड़ता ज्यों क्षीर-सागर फेन-निर्मल।
चाँद उसमें है खिला ज्यों शुभ्र शतदल॥”
संस्कृत के महाकवि कालिदास चाँदनी रात का वर्णन करते हुए लिखते हैं, ‘चंद्रमा ने अपनी किरणों से तिमिर का अंत कर दिया है। रजनी जैसे तिमिर रूपी दैत्य के पंजों से छूट आई है। अब चंद्रमा चुपचाप भली प्रकार अपनी अंगुलियों से रजनी के केश-कलाप को हटाकर उसे सहलाता-सँभालता हुआ चूम रहा है। केशों के नयनों पर से हट जाने पर दिशा का स्वच्छ मुँह उद्भासित हो गया है।’
नद-नदियों, सर-सरोवरों, झरनों और समुद्र के जल में चाँदनी रात का दृश्य अत्यंत विलक्षण और आकर्षक होता है। जल की स्वच्छ नीलिमा से चंद्रमा की परछाई हिलोरें ले रही है। तट पर खड़े वृक्षों पर चंद्रमा की चाँदनी की छटा अत्यंत शोभायमान है। उपवन में विकसित फूल अपनी सुगंधि से वातावरण को अत्यधिक मादक बना रहे हैं।
जरा चाँदनी रात का आनंद ताजमहल के परिसर में भी लीजिए। शुभ्र संगमरमर से निर्मित यह भव्य भवन उज्ज्वल चाँदनी में जगमग जगमग करता हुआ बहुत ही सुंदर लगता है। शरत्-पूर्णिमा की रात्रि में इस भवन की भव्यता को देखने के लिए देश-विदेश से सहस्रों व्यक्ति प्रतिवर्ष आगरा आते हैं।
चाँदनी रात में नौका विहार करना अत्यंत आनंदप्रद होता है। नदी तट का शांत और शीतल वातावरण मन में अपूर्व आह्लाद उत्पन्न करता है। रेतीले तटों के मध्य बहती हुई नदी की धारा तन्वंगी सुंदरी जैसी प्रतीत होती है। जब नौका धारा के मध्य थिरकने लगती है, तब पानी में प्रतिबिंबित तट दुगुने ऊँचे दिखाई देते हैं। जल में प्रतिबिंबित होते हुए तारों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों वे (तारे) पानी के अंदर कुछ ढूँढ़ रहे हैं। हिंदी के लोकप्रिय कवि श्री सुमित्रानंदन पंत ने अपनी ‘नौका विहार’ कविता में इस दृश्य का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है-
शांत, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भूतल !
सैकत-शैय्या पर दुग्ध-धवल,
तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल
लेटी है भान्त क्लान्त, निश्चल!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर
बिंबित हो रजत- पुलिन निर्भर,
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर !
शरत्-पूर्णिमा की रात्रि को चंद्र-किरणों में अमृत प्रवाह मानकर ही खीर पकाकर चंद्र-किरणों के लिए रखी जाती है तथा श्वास के रोगों से मुक्ति के विचार से वह खीर खाई जाती है। इतना ही नहीं, इस दिन चंद्र किरणों के दर्शन मात्र से संजीवनी शक्ति मानव को प्राप्त होती है, ऐसा विश्वास किया जाता है।
चाँदनी रात सर्वत्र सुखद हो, सर्वप्रिय हो और प्राणिमात्र के लिए मनभावन हो, ऐसी बात नहीं। चौर्य-कर्मी चाँदनी रात को अपना शत्रु मानते हैं, जिसके अस्तित्व में वे अपने कर्म की सफलता में संदेह अनुभव करते हैं। इसी प्रकार विरह वेदना से पीड़ित नायिका को चाँदनी रात और भी विह्वल और संतप्त करती है। अतः वह उपालम्भ भरे स्वर में चंद्रमा से कहती है-
“तू तो निसाकर सब ही कि निसा करै,
मेरी जो न निसा करै तो तू निसाकर काहे को?”
ताप हरण करने वाली, सहृदयों के हृदय को प्रफुल्लित करने वाली, शुभ्र ज्योत्स्ना से जगमगाती हुई रात्रि का वर्णन जितना भी किया जाए, कम है। चाँदनी को लक्ष्य करके कविवर पंत ने ठीक ही कहा है-
“वह है, वह अनिर्वच, जग उसमें, वह जग में लय।
साकार चेतना-सी वह, जिसमें अचेत जीवाशय॥”