प्राकृतिक दृश्य का वर्णन

Beauti of indian nature hindi essay

संकेत बिंदु – (1) प्रकृति परमात्मा की अनुपम कृति (2) नदी और महानदी प्रकृति का रूप (3) पश्चिमी क्षितिज पर सूर्य (4) प्रकृति तट पर रेत की सुंदरता (5) उपसंहार।

प्रकृति परमात्मा की अनुपम कृति है। प्रकृति का पल-पल परिवर्तित रूप उल्लासमय और हृदयाकर्षक होता है। वह मुस्कराती रहती है तो सर्वस्व लुटाकर भी हँसती है। नित्य सूर्योदय से पूर्व एवं सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय की प्राकृतिक छटा कितनी अनुपम होती है! इन मनोमुग्धकारी दृश्यों को देखकर कौन आत्मविभोर नहीं होगा?

ऋतु परिवर्तन प्रकृति की विभिन्न दृश्यावलियाँ हैं। एक-एक ऋतु का एक-एक दृश्य आनंदमय होता है। प्रत्येक ऋतु के एक-एक दृश्य का सजीव वर्णन कवियों और साहित्यकारों की आत्म-विस्मृति का परिचायक है।

प्रकृति का एक रूप नद-महानद हैं। जल की विपुल राशि समुद्र है। गंगा-यमुना सरस्वती, कावेरी का वर्णन करते हुए कवि महाकवि बन गए, लेखक महालेखक बन गए। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई, कलम की शक्ति क्षीण हो गई, पर प्रकृति पुनः मुस्कराकर आह्वान कर उठी। प्रकृति से पराजित महाकवि प्रसाद कह उठे, ‘प्रकृति – सौंदर्य ईश्वरीय रचना का एक समूह है अथवा उस बड़े शिल्पकार का एक छोटा-सा नमूना या उसको अद्भुत रस की जन्मदात्री कहना चाहिए। इसका संपूर्ण रूप से वर्णन करना तो मानो ईश्वर के गुण की समालोचना करना है।’

आइए, आपको दिखाएँ प्रकृति का एक चमत्कार, पल-पल रंग बदलती प्रकृति-नटी का रूप। ऐसा प्राकृतिक दृश्य जिसे देखने विश्व के सुदूर देशों से लोग आकर अपने को धन्य समझते हैं। वह है कन्याकुमारी के सूर्यास्त का दृश्य।

भारत-भू के सुदूर दक्षिण छोर पर है कन्याकुमारी। अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी, इन तीनों के संगम स्थल की उस चट्टान पर, जिस पर स्वामी विवेकानंद ने समाधि लगाई थी, आज उनका पवित्र मंदिर अवस्थित है और दूर-दूर तक फैली हैं काली चट्टानें। इन चट्टानों पर खड़ा होकर देखने पर सूर्यास्त के दृश्य का आनंद बहुत ही अद्भुत और रोमांचकारी होता है। सामने अपार सागर लहराता दिखाई देता है और पीछे कन्याकुमारी के मंदिर का भव्य दृश्य। चट्टानों की पंक्ति काफी दूर तक फैली हुई है। आखिरी चट्टान से सूर्यास्त का दृश्य खुले रूप में दिखाई देता है।

पश्चिमी क्षितिज पर धीरे-धीरे नीचे की ओर उतरता हुआ सूर्य स्पष्ट दिखाई देता है। दूर-दूर से आए हुए यात्रियों के झुंड के झुंड इस दृश्य को देखने के लिए चट्टानों पर चढ़ते हैं। आखिरी चट्टान तक कम ही लोग पहुँच पाते हैं। यात्रियों में तरह-तरह के लोग होते हैं। इनकी विविधता भी अपने-आप में कम रोचक नहीं होती।

आखिरी चट्टान तक पहुँचने पर पश्चिमी क्षितिज का खुला विस्तार दिखाई देता है। वहाँ से दूर तक रेत की एक लंबी ढलान दिखाई देती है, जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता हैं मानो समुद्र तक उतरने के लिए मार्ग तैयार किया गया हो। पीछे दाँईं ओर नारियलों के झुरमुट दिखाई देते हैं। उधर पश्चिमी तट के साथ सूखी पहाड़ियों की एक लंबी शृंखला दिखाई देती है।

सूर्य के गोले ने पानी के तल को स्पर्श किया। स्पर्श मात्र से पानी का रंग पीला हो गया। दृश्य देखकर लगा कि जल पर स्वर्ण गिरकर बिखर गया है। गोले के डूबने की क्रिया प्रारंभ होने और डूबने के क्षणों में जल का रंग प्रतिपल प्रतिक्षण इस प्रकार परिवर्तित होता है कि आँखें अपलक देख तो पाती हैं, परंतु मस्तिष्क उतना तेजी से उन रंगों को पकड़ नहीं पाता। सूर्य के गोले की समुद्र में पूर्ण जल समाधि के समय जल रक्तवर्ण हो जाता है, मानों रक्त की धारा बह रही हो। रक्त की धारा भी चिर स्थायी न रहीं। कुछ क्षण बीते होंगे कि वह बैंजनी रंग में बदल गई और अंत में जल काला हो गया।

समुद्र – जल में डूबते समय सूर्य की रंग बदलती छवि दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लेती है। प्रकृति का यह रूप देखा, साथ ही समुद्र तट की रेत को भी देख लीजिए। प्रसिद्ध कथाकार मोहन राकेश इस दृश्यावली का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

‘यूँ पहले भी समुद्र तट पर कई रंगों की रेत देखी थी। सुरमई, खाकी, पीली और लाल। मगर जैसे रंग उस रेत में थे, वैसे मैंने पहले कभी कहीं रेत में नहीं देखे थे। कितने ही अनाम रंग थे वे एक-एक इंच पर एक-दूसरे से अलग और एक-एक रंग कई-कई रंगों की झलक लिए हुए। काली घटा और घनी लाल आँधी को मिलाकर रेत के आकार में ढाल देने में रंगों के जितनी तरह के अलग-अलग सम्मिश्रण पाये जा सकते थे, वे सब वहाँ थे, और उनके अतिरिक्त भी बहुत-से रंग थे। मैंने कई अलग-अलग रंगों की रेत को हाथ में लेकर देखा और मसलकर नीचे गिर जाने दिया। जिन रंगों को हाथों से नहीं छू सका, उन्हें पैरों से मसल दिया। मन था कि किसी तरह हर रंग की थोड़ी-थोड़ी रेत अपने पास रख लूँ। पर उसका कोई उपाय नहीं था।’

कितनी विवशता है मानव की। प्राकृतिक सौंदर्य को देख तो रहा है, किंतु स्पर्श नहीं कर पा रहा। प्राकृतिक दृश्यों का सौंदर्य अनंत है, असीम है। फूलों की कोमलता और उनका सौरभ एक ही प्रकार का रहने से भी तो काम चल जाता है, फिर इतनी शिल्पकला, पंखुड़ियों की विभिन्नता, रंगों की सजावट क्यों? यह प्रकृति-नटी की विविधता और रंगीनी ही तो है। वैदिक ऋषि के शब्दों में-

‘पश्य देवस्य काव्यं न भमार न जीर्यति’।

यह ईश्वर का एक महाकाव्य हैं, जो अमर है, अजर है।

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