बाढ़ : एक प्रकृति-प्रकोप

baadh ke ghatak parinam par ek hindi essay

संकेत बिंदु – (1) जल का विनाशकारी रूप (2) बाढ़ के लिए उत्तरदायी कारण (3) वनों का कटाव (4) भयंकरता का सूचक (5) प्रकृति का अभिशाप।

बाढ़ अर्थात् जल प्रलय। जल का विनाशकारी रूप। अतिवृष्टि के कारण पृथ्वी के जल सोखने की शक्ति जब समाप्त हो जाती है तो उसकी परिणति बाढ़ में होती है। अति वर्षा का जल पर्वतों की करोड़ों टन मिट्टी बहाकर नदियों में ले जाता है, तो जल प्रलय होती है। बाँधों (डैम) में संग्रहीत जल आवश्यकता से अधिक छोड़ दिया जाता है तो नदियों में बाढ़ आ जाती है। नदी-नाले, जलाशय, सरोवरों का जल अपने तटबंधनों को तोड़ बस्तियों की गलियों, कूचों, सड़कों, खेत-खलिहानों में पहुँचने लगता है। पानी की निकासी के अभाव में जल इकट्ठा होने लगता है।

बाढ़ का प्रमुख कारण प्रकृति-प्रकोप है। अति वृष्टि यदि बाढ़ का कारण है तो बादल फटने से भी बाढ़ आती है। बादल फटने से तो कुछ ही मिनटों में तबाही बरप पड़ती है। मानव को बचाव का भी समय नहीं मिल पाता। फिर, बादले फटने की प्राकृतिक घटना की पूर्व संभावना मौसम विभाग भी नहीं लगा पाता।

पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन विकास के लिए सड़कें और भव्य भवनों का निर्माण भी बाढ़ के लिए उत्तरदायी है। सड़क और भवन निर्माण के लिए पर्वत विखंडित किए जाते हैं। उनका मलवा समतल में आकर गिरता है इससे उतनी भूमि की जल-चूषण क्षमता नष्ट हो जाती है इससे पहाड़ों में भूस्खलन की गति तेज हो जाती है। इस निरंतरता के क्रम में प्रतिवर्ष मलवा गिरने की प्रवृत्ति बनी रहती है। यही मलवा पहाड़ी ढलानों की हरियाली नष्ट करते हुए जल निकासी मार्गों को भी अवरुद्ध करता हुआ, अंततोगत्वा बड़ी और विशाल नदियों के तल को ऊँचा उठा कर बाढ़ का मार्ग प्रशस्त करता है। असम की बाढ़ भूस्थल से ब्रह्मपुत्र नदी के तल का ऊँचा उठना ही तो हैं।

विकास के नाम पर बने विशाल बाँध भी बाढ़ का कारण हैं। बाँध बाढ़ के रक्षक हैं, किंतु जब ये भक्षक बनते हैं तो बाढ़ ही खेत को खाने वाला दृश्य उपस्थित कर देती है। सिंचाई और बिजली के लिए बनाए जाने वाले बाँध वर्षा की अनिश्चितता के कारण अपनी आवश्यकतानुसार जल से भरे रहते हैं, किंतु इनकी भी अपनी क्षमता है। अति वर्षा के कारण जब इनकी संग्रह क्षमता समाप्त हो जाती है तो बाँध के पानी की निकासी जरूरी होती है, अन्यथा बाँध के समीपस्थ हजारों ग्राम-नगर जलमग्न हो जाएँ। बाँध को खतरे से मुक्त रखने के लिए जल छोड़ा जाता है, जिसमे नदियों में बाढ़ आ जाती हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश की नदियों की प्राय: बाढ़ भाखड़ा बाँध से जल छोड़े जाने का दुष्परिणाम है।

पृथ्वी के वनस्पति कवच को उतारना भी बाढ़ का कारण है। वन के वृक्ष पानी के व्यर्थ बहने को रोकते हैं। भूमि पर गिरे उनके फूल-पत्ते ऊपर की मिट्टी को पानी के साथ बह जाने से रोकते हैं। जब वे नहीं रहे तो पानी के बहाव और मिट्टी को कौन रोकेगा? बाढ़ का रास्ता साफ़ हुआ। श्री अशोक सिंह लिखते हैं, तिब्बत पर चीन द्वारा जबरदस्ती आधिपत्य कर लिए जाने के बाद ब्रह्मपुत्र के जल ग्रहण क्षेत्र में (जिसका बहुत बड़ा भाग पूर्वी तिब्बत में है), जंगलों की बेरहमी से हजामत हुई। ब्रह्मपुत्र नदी का तल भूकंप के कारण पहले ही ऊँचा हो गया था। जंगलों की कटाई ने उसका और भी बुरा हाल कर दिया। अरुणाचल प्रदेश में भी पेड़ों की कटाई बीते कुछ वर्षों में बहुत अधिक तीव्र हो चली है। नेपाल में भी वन विनाश चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है। यही स्थिति भूटान की भी है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में पहले ही वनों की कटाई के लिए कीर्तिमान स्थापित हो चुके हैं।

बाढ़ का जल भीषण शोर मचाता ऐसे बह उठता है मानो कोई महानदी अपनी सखी से मिलने इधर आ रही हो, और जब दोनों मिलीं, तब पानी का पाट चौड़ा, विराट और विस्तृत हो गया। उस समय जल-शक्ति का विस्तार और विस्तार की शक्ति अपराजेय होती है।

बाढ़ भयंकरता का सूचक है। बाढ़ का दृश्य अति वीभत्स होता है, कारुणिक होता है, भयप्रद होता है। विनाशकारी जल प्रलय मनुष्य की चिरसंचित और अर्जित जीवनोपयोगी सामग्री को नष्ट कर देता है। खेती और खेत को बरबाद कर देता है। मानव और पशुधन को बहा ले जाता है। आवागमन को अवरुद्ध कर देता है। सड़कों को तोड़ देता है। विद्युत्, पेय जल और दूरसंचार व्यवस्था (टेलीफोन आदि) को नष्ट कर देता है। मकान टूटकर गिर जाते हैं। घर-बेघर, बेसहारा प्राणी प्रभु का स्मरण करते हुए ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ चिल्लाते हैं।

8-10 फुट तक घरों में घुसा पानी निकलने का नाम ही नहीं लेता। खाद्य पदार्थों, बिछाने, ओढ़ने और पहनने के कपड़ों, अध्ययन की पुस्तकों, अलंकारों, आभूषणों को नष्ट कर देता है। निरीह मानव पेय जल, भोजन, वस्त्र आदि के अभाव में और अग्नि की असुविधा से पीड़ित हो, सहायता की खोज करता है।

जल प्रलय होने पर दूर-दूर तक जल ही जल दिखाई देता है। मक्खी मच्छरों का साम्राज्य जल-क्रीड़ा कर रहा होता है। बिजली के स्तंभ और सड़क के किनारे खड़े वृक्ष नतमस्तक होकर जल प्रलय के सम्मुख आत्म-समर्पण करते दिखाई देते हैं। यातायात के माध्यम कार, बस, ट्रक बाढ़ के सम्मुख आने में भी कतराते हैं, टक्कर लेना तो दूर की बात है।

बाढ़ तो बाढ़, उसके अवशेष उससे भी बुरे हैं। बाढ़ आने से तो मनुष्य विपदा में फँसता ही है, किंतु बाढ़ उतरने के बाद अनेक मास तक सामान्य से लेकर घातक बीमारियों का ग्रास बनता है। मलेरिया, टाइफाइड, हैजा, दस्त आदि अनेक संक्रामक रोग उसे घेर लेते हैं।

बाढ़ प्रकृति का अभिशाप है। मनुष्य की अकर्मण्यता और अनैतिकता उसकी शिकार हैं। बाढ़ प्रकृति-विजय के दम्भी मानव को चुनौती है। प्रकृति और प्रभु को स्मरण करवाने का बहाना है। पाश्चात्य सभ्यता और नास्तिकता की ओर बढ़ते भारतीयों की भारतीय- संस्कृति और सभ्यता की शरणागति स्वीकार करने का निमंत्रण है।

भारत में आने वाली प्रत्येक बाढ़ राज्य सरकारों की बाढ़ रोकने के प्रति अकर्मण्यता अथवा उदासीनता का प्रमाण हैं। राजनीतिज्ञों द्वारा वनों को बरबाद करने के पापों का कुपरिणाम है। बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ दिए जाने वाले पदार्थों और धन में से अपना हिस्सा काटना अधिकारियों की अनैतिकता का दस्तावेज है। बाढ़ की हालत का जायजा लेने के नाम पर मंत्री – मुख्यमंत्री की वायुयान/हैलीकोप्टर की सैर, सर्किट हाउस में मंत्री- मुख्यमंत्री तथा अनेक स्टॉफ का खान-पान खर्च सब राहत-कोश में खर्च होता है। दूसरी ओर बाढ़ पीड़ितों को खाद्यान्न पर आया खर्च वास्तविक खर्च से कई गुना अधिक दिखाया जाता है।

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