प्रकृति और विज्ञान

Science and nature par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) प्रकृति विविध रूप में परमात्मा की कला (2) व्यवस्थित ज्ञान का नाम विज्ञान और प्रकृति बहुरूपा (3) विज्ञान द्वारा प्रकृति का दोहन मंथन (4) पेड़-पौधे प्रकृति की आत्मा (5) उपसंहार।

प्रकृति सत्य की अधिष्ठात्री देवी है तो विज्ञान सत्य का उपासक। प्रकृति विविध रूप में परमात्मा की कला है तो विज्ञान उस कला के दर्शन की विधि है। प्रकृति परिवर्तनशील है तो विज्ञान भी नदी के प्रवाह के समान परिवर्तनशील और प्रवाहमान है। प्रकृति आत्मा की शक्ति है तो विज्ञान आत्मा का अनुसन्धानात्मक प्रयोग।

विज्ञान और प्रकृति जब तक सखा रहे विज्ञान प्रकृति को सँवारता रहा, सजाता रहा। उसके रूप सौंदर्य में निखार लाता रहा। जब से विज्ञान और प्रकृति में 3-6 का संबंध बना, विज्ञान प्रकृति को नष्ट करने पर तुल गया। हक्सले ने सत्य ही कहा है, ‘विज्ञान की बड़ी त्रासदी हैं, सुंदर परिकल्पना की एक कुरूप तथ्य से हत्या।’ (The greatest tragedy of Science-the slaying of a beautiful hypothesis by an ugly fact.)

प्रकृति बहुरूपा है, विशाल है, विस्तृत है, अनंत ब्रह्मांड में व्याप्त है। द्वीप, महाद्वीप, प्रायद्वीप, समुद्र, नदी, निर्झर, वृक्ष-लता, पशु-पक्षी, आकाश-पाताल, सूर्य-चंद्र, वन-बाग तथा संपूर्ण जल-स्थल प्रकृति की सौंदर्यपूर्ण चित्रकला है। विज्ञान भी अनेक शाखाओं- उपशाखाओं में विभक्त होकर अंशुमाली भगवान का-सा दृप्त तेज प्रकट कर रहा है। रसायन-विज्ञान, भौतिक विज्ञान, जीव-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, कृषि विज्ञान, समुद्र- विज्ञान, अंतरिक्ष-विज्ञान आदि द्वारा महाबली विज्ञान प्रकृति के रहस्यों की खोज में संलग्न हैं।

व्यवस्थित ज्ञान का नाम है विज्ञान। उसने प्रकृति के मनमौजीपन पर अंकुश लगाया। प्रमाद को काबू किया। उच्छृंखलता को रोका। अपरिमित शक्ति प्रदर्शन को प्रतिबंधित किया। प्रकृति के क्रूर रूप जल प्रलय आदि को यथासंभव नियंत्रित किया। रेगिस्तानी विस्तार को रोका। वनों उपवनों को कलात्मक सौंदर्य प्रदान किया। प्रकृति की प्यास बुझाई। नील गगन पर कृत्रिम अंतरिक्ष-ग्रहों के केंद्र स्थापित किए। वन पर्वतों से औषधियाँ निकालीं। जल को पेय बनाया। उससे विद्युत् शक्ति का निर्माण किया। आकाश और समुद्र की छाती पर मूँग दलते हुए व्योमयान और जलयान चलाए। वन-वृक्षों से कागज बनाया जिससे ज्ञान का प्रचार-प्रसार तो बढ़ा ही, उसका संरक्षण संभव हुआ। मनुष्यों को भव्य भवनों में शरण दी। कहाँ तक गिनाएँ प्रकृति पर विज्ञान के वरदान की कथा। यह तो अनंत है।

विज्ञान ने प्रकृति का दोहन मंथन किया। उससे प्राप्त अमृत मानव-कल्याणार्थ वितरित कर दिया। मंथन में अमृत के साथ विष की उत्पत्ति स्वाभाविक है। विज्ञान के अति मंथन ने अमृत को भी विष में परिणत कर दिया। वरदान भी अभिशाप बन गया। ‘दि रोल ऑफ दि साइंटिस्ट’ पर भाषण देते हुए इंदिरा जी ने सच ही कहा था, ‘वास्तव में विज्ञान ने जितनी समस्याएँ हल की हैं, उतनी ही नयी समस्याएँ खड़ी भी कर दी हैं।’ इसलिए जार्ज बर्नाड शॉ का कथन है, ‘विज्ञान सदैव गलत है। यह किसी भी समस्या को बिना अनेक नई समस्याएँ खड़ी किए हल नहीं करता।’ (Science is always wrong. It never solves a problem without creating ten more.)

इस प्रकार विज्ञान प्रकृति का सखा नहीं शत्रु बन गया है। वह प्रकृति को अभिशप्त कर प्रकृति के जीवन को नष्ट करने पर तुला है। कारण, जीवन मूल्यों की समझ उसमें है नहीं। प्रसाद जी ने ‘इरावती’ उपन्यास में ठीक ही कहा है, ‘अनात्म के वातावरण में पला हुआ यह क्षणिक विज्ञान, उस शाश्वत सत्ता में संदेह करता है।’ सेंट आगस्टीन के कथनानुसार, ‘संदेह सच्ची मित्रता का विष है।’ प्रकृति सखा विज्ञान आज अपने विष से प्रकृति के शरीर को शव बनाने पर तुला है।

पेड़-पौधे प्रकृति की आत्मा हैं। प्रकृति मातृरूप में ऑक्सीजन (प्राण वायु) रूपी आहार प्रदान कर पर्यावरण को स्वस्थ रखती है। अपावन गैसों तथा कार्बन डाइऑक्साइड का भक्षण कर पर्यावरण को प्रदूषण से बचाती है। पेड़-पौधों की अंधाधुंध तथा बेरहमी से हो रही कटाई से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। तापमान बढ़ने से हिमखंड पिघलने लगे हैं। दूसरी ओर वृक्षों के अभाव में वर्षा जल रोकने की अक्षमता के कारण जल प्लावन का तांडव नृत्य होने लगा। पृथ्वी की ऊर्जा शक्तिवर्द्धन के चक्कर में उपज की पौष्टिक शक्ति क्षीण कर दी। अब न गेहूँ में ताकत है न फलों में पहले जैसा स्वाद। खनिज पदार्थों की अत्यधिक खुदाई ने उसके कोष को खाली होने की नौबत तक पहुँचा दिया है। इस प्रकार प्रकृति ने जिस पावन पर्यावरण को रक्षाकवच के रूप में प्रदान किया था, वही पर्यावरण विज्ञान के प्रकृति पर बलात्कार से विष वमन करने लगा है।

आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रकृति को ‘माया’ रूप में जाना जाता है। साधारण रूप में माया को सांसारिक भ्रम और अज्ञानता का ही नामान्तर माना जाता है। विज्ञान इस मिथ्यात्व, भ्रम तथा अज्ञानता का विनाशक है। वह ‘माया’ के मायावी प्रपंच का आवरण हटाकर सत्य- पथ दर्शाता है।

वैसे, प्रकृति परमात्मा रूप है। परम तत्त्व कभी नष्ट नहीं होता। वृहदारण्यक उपनिषद् इसकी पुष्टि करता है-

“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते”

अर्थात् परमेष्ठिमंडल परिपूर्ण है। उसके सान्निध्य से सब कुछ पूर्ण हो जाता है। उसकी पूर्णता में इतनी व्यापकता है कि उससे पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण बना रहता है। इसलिए प्रकृति अजर है, अमर है। विज्ञान उसे पराजित नहीं कर सकता। प्रसाद की के शब्दों में वह सदा ‘हँसती-सी पहचानी सी’ दृष्टिगोचर होती रहेगी।

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Avinash Ranjan Gupta

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