परिवार में नारी की भूमिका

importance of lady in a family par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) पुत्री, पत्नी और माता के रूप में (2) परिवार में नारी के अनेक रूप (3) परिवार की स्वामिनी (4) नारी का मातृत्व रूप (5) उपसंहार।

परिवार में नारी की भूमिका विशेष रूप से पुत्री, पत्नी तथा माता के रूप में है। इन तीनों रूपों में भी परिवार में पत्नी का स्थान सर्वोपरि है। महादेवी वर्मा के शब्दों में ‘आदिम काल से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर, उसकी यात्रा को सरल बनाकर, उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भर कर मानव ने जिस व्यक्तित्व, चेतना और हृदय का विकास किया है, उसी का पर्याय नारी है।’ माता के रूप में वह ममतामयी बनकर संतान के लिए अखंड सुख-ऐश्वर्य की कामना करती है। पुत्री का महत्त्व तो स्वयमेव निर्धारित है, क्योंकि पत्नी और माता इसी के विकसित रूप हैं।

पत्नी परिवार का आधार है, उसका जीवन-प्राण है। पत्नी गृहस्थी का मूल है। गृहस्थी की आत्मा है। ऋग्वेद के अनुसार तो पत्नी ही घर-परिवार है। परिवार में पत्नी की महत्ता सिद्ध करते हुए महाभारत में लिखा है- ‘घर-घर नहीं, अपितु गृहिणी ही घर है। उसके बिना महल भी बीहड़ जंगल है।’ दूसरी ओर, मानव भूतल पर जन्मतः ऋषि ऋण, देव- ऋण एवं पितृ ऋण का ऋणी है। पत्नी यज्ञ में पति के साथ रहकर देव-ऋण से तथा पुत्रोत्पन्न कर पितृ ऋण से मुक्त करवाती है।

भारतीय नारी पारिवारिक रूप में इसलिए महत्त्व पाती है क्योंकि उसके अनेक रिश्ते हैं। डॉ. विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में ‘वह सास होती है, बहू होती है, बेटी होती है, बहन होती है, ननद होती है, भाभी होती है, जेठानी होती है, देवरानी होती है और न जाने क्या- क्या होती है। इन सबके साथ वह पत्नी भी होती है। इन सारे संबंधों का जो शील के साथ निर्वाह कर पाती है, उसी का भारतीय परिवार में महत्त्व है।’

(नदी, नारी और संस्कृति, पृष्ठ 13) वाल्मीकि रामायण में परिवार में नारी की भूमिका पर एक महत्त्वपूर्ण श्लोक है-

कार्येषु मंत्री, करणेषु दासी, भोज्येषु माता, रमणेषु रंभा।

धर्मानुकूला, क्षमया धरित्री, भार्या च षड्गुण्यवतीह दुर्लभा॥

काम-काज में मंत्री के समान सलाह देने वाली, सेवादि में दासी के समान कार्य करने वाली, माता के समान सुंदर भोजन कराने वाली, शयन के समय रंभा (अप्सरा) के समान आनंद देने वाली और धर्म के अनुकूल तथा क्षमादि गुण धारण में पृथ्वी के समान स्थिर रहने वाली, ऐसे छह गुणों से युक्त पत्नी दुर्लभ होती है।

पत्नी परिवार की स्वामिनी है। परिवार की श्री-समृद्धि की धुरी है। वंश-वृद्धि की नींव है। मानव के कामातुर जीवन का पूर्ण विराम है। परिवार की चहुँदिशि देख-भाल उसका दायित्व है। पतिपरायणता उसका कर्तव्य है।

पत्नी स्नेह और सौजन्य की देवी है, वह नर पशु को मनुष्य बनाती है, मधुर वाणी से पारिवारिक जीवन को अमृतमय बनाती है। उसके नेत्रों में पारिवारिक आनंद के दर्शन होते हैं। वह संतप्त पारिवारिक हृदय के लिए शीतल छाया है। उसके हास्य में परिवार में छाई निराशा को मिटाने की अपूर्व शक्ति है।

पृथ्वी की-सी सहिष्णुता, समुद्र की सी गंभीरता, हिम की सी शीतलता, पुष्पों की-सी कोमलता-नम्रता, गंगा की-सी पवित्रता, वीणा की-सी मधुरता, गौ की-सी साधुता, हिमालय की-सी उच्चता तथा आकाश की-सी विशालता आदि सौम्य गुणों द्वारा माता ही पारिवारिकता, अखंडता स्थिर रख, श्री संपत्ति की वृद्धि करती है।

माता बच्चे को जन्म देकर परिवार को पितृ ऋण से उऋण करती है। वह तन-मन- धन से एकाग्रचित्त, आत्मविस्मृत हो शैशव में आत्मज की सेवा-शुश्रुषा करती है। बाल्यकाल में संतान की शिक्षा-दीक्षा की पूर्ति के लिए सतत चिंतित रहती है। पेट को काटकर भी संतान की ज्ञान-वृद्धि करना चाहती है। समय पर भोजन एवं स्वच्छ वस्त्रों का प्रबंध तथा पाठ्य-वातावरण उत्पन्न कर संतान को ज्ञानवान् बनाने में सहायक बनती है। यौवन की दहलीज पर आते ही संतान को गृहस्थ धर्म में प्रवेश करवाती है। विवाह का आयोजन कर स्वयं ‘सास’ की उपाधि से अलंकृत होती है। अब वह पुत्र वधू को परिवार के संस्कार प्रदान करना अपना कर्तव्य समझती है।

पुत्री की परिवार में भूमिका कालांतर में पत्नी और माँ की पृष्ठभूमि है। अतः पुत्री की भूमिका आदर्श पत्नी, कुशल गृहिणी तथा उदात्त मातृत्व के गुणों का शिक्षणकाल है। वह परिवार में रहकर दया, ममता, सेवा, धैर्य, सहानुभूति तथा विनय के सौम्य गुणों को सीखती है। शिक्षा-अर्जन कर ज्ञान का वर्धन करती है। बुद्धि का विकास करती है। जीवन और जगत के लिए व्यावहारिक सिद्धांतों, मान्यताओं तथा भावनाओं का प्रयोग करती है।

पुत्री परिवार में रहकर माँ की भूमिका, पिता के व्यवहार, भाई-बहिनों के आचरण को खुली आँखों से देखती है। बुद्धि के अनुसार उसका विवेचन करती है। सत्-प्रणाली को गाँठ बाधती है, दुष्कर्मों की हानि से सचेत रहने की शिक्षा ग्रहण करती है।

नारी के बिना परिवार की कल्पना मृग मरीचिका है। नारी के सौम्य गुणों के अभाव में परिवार की सुख-शांति असंभव है। नारी के कर्तव्य-उपेक्षा में परिवार की क्षति है, ह्रास है। नारी के अमंगल में परिवार का विनाश है। नारी की पीड़ा में परिवार का ध्वंस है।

परिवार में नारी की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकारते हुए ही मनु जी ने कहा है-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।’ अतः नारी सम्मान में ही परिवार कल्याण है।

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Avinash Ranjan Gupta

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