कवि परिचय दुष्यंत कुमार
जन्मः सन् 1933, राजपुर नवादा गाँव (उ.प्र)
प्रमुख रचनाएँ : सूर्य का स्वागत, आवाज़ों के घेरे, साये में धूप, जलते हुए वन का वसंत (काव्य); एक कंठ विषपायी (गीति-नाट्य); छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष और दोहरी ज़िंदगी (उपन्यास)
मृत्युः सन् 1975
दुष्यंत कुमार का साहित्यिक जीवन इलाहाबाद में आरंभ हुआ। वहाँ की साहित्यिक संस्था परिमल की गोष्ठियों में वे सक्रिय रूप से भाग लेते रहे और नए पत्ते जैसे महत्वपूर्ण पत्र के साथ भी जुड़े रहे। आजीविका के लिए आकाशवाणी और बाद में मध्यप्रदेश के राजभाषा विभाग में काम किया। अल्पायु में ही उनका देहावसान हो गया, किंतु इस छोटे जीवन की साहित्यिक उपलब्धियाँ कुछ छोटी नहीं हैं। गज़ल की विधा को हिंदी में प्रतिष्ठित करने का श्रेय अकेले दुष्यंत को ही जाता है। उनके कई शेर साहित्यिक एवं राजनीतिक जमावड़ों में लोकोक्तियों की तरह दुहराए जाते हैं। साहित्यिक गुणवत्ता से समझौता न करते हुए भी दुष्यंत ने लोकप्रियता के नए प्रतिमान कायम किए हैं। एक कंठ विषपायी-शीर्षक गीतिनाट्य हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण एवं बहुप्रशंसित कृति है।
दुष्यंत कुमार की गज़ल पर एक विचार
यहाँ दुष्यंत की जो गज़ल दी गई है, वह उनके गज़ल संग्रह साये में धूप से ली गई है। गज़लों में शीर्षक देने का कोई चलन नहीं है, इसीलिए यहाँ कोई शीर्षक नहीं दिया जा रहा है।
गज़ल एक ऐसी विधा है, जिसमें सभी शेर अपने-आप में मुकम्मिल और स्वतंत्र होते हैं। उन्हें किसी क्रम-व्यवस्था के तहत पढ़े जाने की दरकार नहीं रहती। इसके बावजूद दो चीज़ें ऐसी हैं, जो इन शेरों को आपस में गूँथकर एक रचना की शक्ल देती हैं – एक, रूप के स्तर पर तुक का निर्वाह और दो, अंतर्वस्तु के स्तर पर मिज़ाज का निर्वाह। जैसा कि आप देखेंगे, यहाँ पहले शेर की दोनों पंक्तियों का तुक मिलता है और उसके बाद सभी शेरों की दूसरी पंक्ति में उस तुक का निर्वाह होता है। आम तौर पर गज़ल के शेरों में केंद्रीय भाव का होना ज़रूरी नहीं है लेकिन यहाँ पूरी गज़ल एक खास मनःस्थिति में लिखी गई जान पड़ती है। राजनीति और समाज में जो कुछ चल रहा है, उसे खारिज करने और विकल्प की तलाश को मान्यता देने का भाव एक तरह से इस गज़ल का केंद्रीय सूत्र बन गया है। इस प्रकार दुष्यंत की यह गज़ल हिंदी गज़ल का सुंदर नमूना प्रस्तुत करती है।
गज़ल
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
शब्दार्थ
1. तय – निश्चित
2. चिरागाँ – दीपक, (सुख, समृद्धि)
3. हरेक – सभी
4. मयस्सर – उपलब्ध
5. दरख़्त – पेड़
6. साये – छाया
7. धूप – सूर्य की किरणें, (कष्ट)
8. कमीज़ – कुर्ता / वस्त्र
9. पाँवों से पेट ढँकना – काम चला लेना
10. मुनासिब – सही, योग्य
11. सफ़र – यात्रा, आंदोलन
12. खुदा – ईश्वर
13. ख्वाब – स्वप्न
14. हसीन नाज़ारा – सुहावना दृश्य
15. नज़र – दृष्टि
16. मुतमइन – निश्चिंत, इतमीनान
17. पत्थर का पिघलना – परिवर्तन आना
18. बेक़रार – बेचैन
19. आवाज़ – बोल
20. असर – प्रभाव
21. निज़ाम – शासक
22. ज़ुबान सिल देना – आवाज़ दबा देना
23. शायर – कवि
24. एहतियात – सावधानी
25. बहर – पंक्ति
26. बगीचे – उपवन
27. तले – नीचे
28. गुलमोहर – एक पेड़
29. गैर – दूसरे, विरोधी
साये में धूप का सार
दुष्यंत कुमार की यह गज़ल जन-जागरण और नवीन क्रांति का संदेश देती है। शायर देश की चरमराती स्थिति को देखकर बहुत निराश हैं। आजाद भारत में उन्हें यह सपना दिखाया गया था कि हर घर में रोशनी होगी, सुख और समृद्धि होगी। परंतु स्थिति पूरी उलटी हुई है यहाँ पूरा का पूरा शहर अँधेरे में डूबा हुआ है। देश के नेता और राजनीतिक व्यवस्थाएँ ऐसी हो गई हैं कि कष्ट का ही प्राबल्य है। कवि कहते हैं कि मेरा दिल करता है कि यहाँ से कहीं और चले जाएँ। यहाँ कवि निराश या हताश नहीं हो रहे हैं बल्कि उन्हें इस बात का आक्रोश है कि यहाँ के लोग इतने आलसी, निकम्मे और शोषित हो चुके हैं कि वे अपने हर अभाव को चुपचाप सहन कर लेते हैं। ये कमीज़ के न होने पर उसके लिए आवाज़ नहीं उठाते, बल्कि अपने पाँवों से पेट को ढँकने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग अपनी स्थिति में सुधार के लिए खुदा से इबादत करते हैं परंतु क्रांति और आंदोलन करने से कतराते हैं। और इसी तरह इनकी ज़िंदगी टुकड़ों में कटती रहती है। शायर इन्हें यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि तुम समवेत आवाज़ उठाओ और अपने हक के लिए लड़ों पर ये वर्ग यह मान बैठा है कि यह व्यवस्था व्यवस्था नहीं पत्थर है जो पिघल नहीं सकता। शायर उन्हें यह कहते हैं कि जीना है तो शान से जियो नहीं तो अपने अधिकारों को पाने के लिए शान से मर जाओ।
अभ्यास
गज़ल के साथ
1. आखिरी शेर में गुलमोहर की चर्चा हुई है। क्या उसका आशय एक खास तरह के फूलदार वृक्ष से है या उसमें कोई सांकेतिक अर्थ निहित है? समझाकर लिखें।
उत्तर – गुलमोहर एक सुंदर फूलदार पेड़ है परंतु कविता में गुलमोहर आत्म-सम्मान व स्वाभिमान के सांकेतिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कवि हमें गुलमोहर के द्वारा घर और बाहर दोनों स्थानों पर आत्म-सम्मान व स्वाभिमान के साथ जीने की प्रेरणा दे रहे हैं।
2. पहले शेर में चिराग शब्द एक बार बहुवचन में आया है और दूसरी बार एकवचन में। अर्थ एवं काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से इसका क्या महत्व है?
उत्तर – पहले शेर में चिराग शब्द का बहुवचन ‘चिरागाँ’ का प्रयोग हुआ है इसका अर्थ है अत्यधिक सुख-सुविधाओं से है। दूसरी बार यह एकवचन के रूप में प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है अति सीमित सुख-सुविधाओं का मिलना। दोनों का अपना आशय है। बहुवचन शब्द सुंदर कल्पना को दर्शाता है जब लोगों से वादे किए गए थे। वहीं एकवचन शब्द ‘चिराग’ उन वादों के खोखलेपन को दर्शाता है जब वादे पूरे हुए ही नहीं। इस प्रकार दोनों बार दो रूपों में आया हुआ एक ही शब्द अपने-अपने संदर्भ में भिन्न-भिन्न प्रभाव रखता है।
3. गज़ल के तीसरे शेर को गौर से पढ़ें। यहाँ दुष्यंत का इशारा किस तरह के लोगों की ओर है?
उत्तर – गज़ल के तीसरे शेर से कवि दुष्यंत का इशारा ऐसे लोगों से हैं जो हर स्थिति में अपने आप को ढाल लेने वाले हैं। कवि कहते हैं कि ये ऐसे लोग हैं जिनकी आवश्यकताएँ बड़ी सीमित होती हैं, ये कभी क्रांति नहीं कर सकते और इसलिए ये अपने जीवन का सफ़र दुख और कष्टों में काट लेते हैं।
4. आशय स्पष्ट करें :
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
उत्तर – इन पंक्तियों के जरिए शासक वर्ग पर करारा व्यंग्य किया गया है। शासक वर्ग अपनी सत्ता के मद में होने के कारण वे किसी भी शायर (समाज सुधारक) की जुबान (अभिव्यक्ति) पर पाबंदी लगा देते हैं। शासक वर्ग को अपनी सत्ता कायम रखने के लिए इस प्रकार की सावधानी रखने की ज़रूरत भी होती है। हालाँकि ये कतई उचित नहीं है। यदि समाज में साकारात्मक बदलाव लाना है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है।
गज़ल के आस—पास
1. दुष्यंत की इस गज़ल का मिज़ाज बदलाव के पक्ष में है। इस कथन पर विचार करें।
उत्तर – दुष्यंत की यह गज़ल सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की माँग करती है। कवि एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जिसमें समानता, समृद्धि, समाजवाद और भ्रातृत्व की भावना हो। तभी तो कवि “मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए”, “यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है” आदि बातें कहते हैं और ये तभी संभव है जब परिस्थितियों में बदलाव आए।
2. हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है दुष्यंत की गज़ल का चौथा शेर पढ़ें और बताएँ कि गालिब के उपर्युक्त शेर से वह किस तरह जुड़ता है?
उत्तर – दुष्यंत की गज़ल का चौथा शेर –
खुदा न, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नज़र के लिए।
ग़ालिब स्वर्ग की वास्तविकता से परिचित हैं परंतु दिल को खुश करने के लिए उसकी सुंदर कल्पना करना बुरा नहीं है।
उसी प्रकार कवि दुष्यंत ने भी ‘ख़ुदा’ की कल्पना की है। ख़ुदा मिले या न मिले आदमियों को ख्वाब देखने से किसने रोका है। खुश रहने के लिए ख़्वाब ही देख लो।
दोनों शेरों के शायर काल्पनिक दुनिया में विचरण को बुरा नहीं समझते। दोनों के लिए खुदा और जन्नत के विचार ठीक हैं क्योंकि दोनों ही अनुभूति के विषय हैं।
3. ‘यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है’ यह वाक्य मुहावरे की तरह अलग-अलग परिस्थितियों में अर्थ दे सकता है मसलन, यह ऐसी अदालतों पर लागू होता है, जहाँ इंसाफ नहीं मिल पाता। कुछ ऐसी परिस्थितियों की कल्पना करते हुए निम्नांकित अधूरे वाक्यों को पूरा करें।
(क) यह ऐसे नाते-रिश्तों पर लागू होता है, जिनमें रिश्ते-नाते शुख देने की बजाय दुख देते हैं।
(ख) यह ऐसे विद्यालयों पर लागू होता है, जहाँ विद्या देने के नाम पर व्यापार होता है।
(ग) यह ऐसे अस्पतालों पर लागू होता है, जहाँ चिकित्सा होने की बजाय रग मिलता है।
(घ) यह ऐसी पुलिस व्यवस्था पर लागू होता है, जहाँ सुरक्षा मिलने के स्थान पर भय लगता है.