Aaroh Class – XI,  Krishna Sobati – Miyan Naseruddin,

जन्मः सन् 1925, गुजरात (पश्चिमी पंजाब-वर्तमान में पाकिस्तान)

प्रमुख रचनाएँ : ज़िंदगीनामा, दिलोदानिश, ऐ लड़की, समय सरगम (उपन्यास); डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अँधेरे के, (कहानी संग्रह); हम-हशमत, शब्दों के आलोक में (शब्दचित्र, संस्मरण) प्रमुख सम्मानः साहित्य अकादमी सम्मान, हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान, साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता सहित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार।

हिंदी कथा साहित्य में कृष्णा सोबती की विशिष्ट पहचान है। वे मानती हैं कि कम लिखना विशिष्ट लिखना है। यही कारण है कि उनके संयमित लेखन और साफ़-सुथरी रचनात्मकता ने अपना एक नित नया पाठक वर्ग बनाया है। उनके कई उपन्यासों, लंबी कहानियों और संस्मरणों ने हिंदी के साहित्यिक संसार में अपनी दीर्घजीवी उपस्थिति सुनिश्चित की है। उन्होंने हिंदी साहित्य को कई ऐसे यादगार चरित्र दिए हैं, जिन्हें अमर कहा जा सकता है जैसे  – मित्रो, शाहनी, हशमत आदि। भारत पाकिस्तान पर जिन लेखकों ने हिंदी में कालजयी रचनाएँ लिखीं, उनमें कृष्णा सोबती का नाम पहली कतार में रखा जाएगा। बल्कि यह कहना उचित होगा कि यशपाल के झूठा-सच, राही मासूम रज़ा के आधा गाँव और भीष्म साहनी के तमस के साथ-साथ कृष्णा सोबती का ज़िंदगीनामा इस प्रंसग में एक विशिष्ट उपलब्धि है।

संस्मरण के क्षेत्र में हम-हशमत शीर्षक से उनकी कृति का विशिष्ट स्थान है, जिसमें अपने ही एक दूसरे व्यक्तित्व के रूप में उन्होंने हशमत नामक चरित्र का सृजन कर एक अद्भुत प्रयोग का उदाहरण प्रस्तुत किया है। कृष्णा जी के भाषिक प्रयोग में भी विविधता है। उन्होंने हिंदी की कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। संस्कृतनिष्ठ तत्समता, उर्दू का बाँकपन, पंजाबी की ज़िंदादिली, ये सब एक साथ उनकी रचनाओं में मौजूद हैं।

मियाँ नसीरुद्दीन शब्दचित्र हम-हशमत नामक संग्रह से लिया गया है। इसमें खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन के व्यक्तित्व, रुचियों और स्वभाव का शब्दचित्र खींचा गया है। मियाँ नसीरुद्दीन अपने मसीहाई अंदाज़ से रोटी पकाने की कला और उसमें अपने खानदानी महारत को बताते हैं। वे ऐसे इनसान का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने पेशे को कला का दर्जा देते हैं और करके सीखने को असली हुनर मानते हैं।

साहबों, उस दिन अपन मटियामहल की तरफ़ से न गुज़र जाते तो राजनीति, साहित्य और कला के हज़ारों-हज़ार मसीहों के धूम-धड़क्के में नानबाइयों के मसीहा मियाँनसीरुद्दीन को कैसे तो पहचानते और कैसे उठाते लुत्फ़ उनके मसीही अंदाज़ का!

          हुआ यह कि हम एक दुपहरी जामा मस्जिद के आड़े पड़े मटियामहल के गढै़या मुहल्ले की ओर निकल गए। एक निहायत मामूली अँधेरी-सी दुकान पर पटापट आटे का ढेर सनते देख ठिठके। सोचा, सेवइयों की तैयारी होगी, पर पूछने पर मालूम हुआ खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन की दुकान पर खड़े हैं। मियाँ मशहूर हैं छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के लिए।

          हमने जो अंदर झाँका तो पाया, मियाँ चारपाई पर बैठे बीड़ी का मज़ा ले रहे हैं। मौसमों की मार से पका चेहरा, आँखों में काइयाँ भोलापन और पेशानी पर मँजे हुए कारीगर के तेवर।

          हमें गाहक समझ मियाँ ने नज़र उठाई –’फ़रमाइए।’

          झिझक से कहा – ‘आपसे कुछ एक सवाल पूछने थे – आपको वक्त हो तो…’

          मियाँ नसीरुद्दीन ने पंचहज़ारी अंदाज़ से सिर हिलाया – ’निकाल लेंगे वक्त थोड़ा, पर यह तो कहिए, आपको पूछना क्या है?

          ‘फिर घूरकर देखा और जोड़ा – ’मियाँ, कहीं अखबारनवीस तो नहीं हो? यह तोखोजियों की खुराफ़ात है। हम तो अखबार बनानेवाले और अखबार पढ़नेवाले – दोनों   को ही निठल्ला समझते हैं।

हाँ – कामकाजी आदमी को इससे क्या काम है। खैर, आपने यहाँ तक आने की तकलीफ़ उठाई ही है तो पूछिए – क्या पूछना चाहते हैं!’’

          पूछना यह था कि किस्म-किस्म की रोटी पकाने का इल्म आपने कहाँ से हासिल किया?’

          मियाँ नसीरुद्दीन ने आँखों के कंचे हम पर फेर दिए। फिर तरेरकर बोले -‘क्या मतलब? पूछिए साहब – नानबाई इल्म लेने कहीं और जाएगा? क्या नगीनासाज़ के पास? क्या आईनासाज़ के पास? क्या मीनासाज़ के पास? या रफ़ूगर, रँगरेज़ या तेली-तंबोली से सीखने जाएगा? क्या फ़रमा दिया साहब – यह तो हमारा खानदानी पेशा ठहरा। हाँ, इल्म की बात पूछिए तो जो कुछ भी सीखा, अपने वालिद उस्ताद से ही। मतलब यह कि हम घर से न निकले कि कोई पेशा अख्तियार करेंगे। जो  बाप-दादा का हुनर था वही उनसे पाया और वालिद मरहूम के उठ जाने पर आबैठे उन्हीं के ठीये पर!

‘आपके वालिद…?’

          मियाँ नसीरुद्दीन की आँखें लमहा-भर को किसी भट्ठी  में गुम हो गईं। लगा गहरीसोच में हैं – फिर सिर हिलाया -’क्या आँखों के आगे चेहरा ज़िंदा हो गया! हाँ हमारे वालिद साहिब मशहूर थे मियाँ बरकत  शाही नानबाई गढ़ैयावाले के नाम से और उनके वालिद यानी कि हमारे दादा साहिब थे आला नानबाई मियाँ कल्लन।’’

          आपको इन दोनों में से किसी – किसी की भी कोई नसीहत याद हो! “नसीहत काहे की मियाँ! काम करने से आता है, नसीहतों से नहीं। हाँ!’’

          बजा फ़रमाया है, पर यह तो बताइए ही बताइए कि जब आप (हमने भट्टी  की ओर इशारा किया) इस काम पर लगे तो वालिद साहिब ने सीख के तौर पर कुछ तो कहा होगा।’

          नसीरुद्दीन साहिब ने जल्दी-जल्दी दो-तीन कश खींचे, फिर गला साफ़ किया और बड़े अंदाज़ से बोले -’अगर आपको कुछ कहलवाना ही है तो बताए दिए देते हैं। आप जानो जब बच्चा उस्ताद के यहाँ पढ़ने बैठता है तो उस्ताद कहता है – कह,

          ‘अलिफ़’ बच्चा कहता है,

          ‘अलिफ़’ कह, ‘बे’बच्चा कहता है,

          ‘बे’कह, ‘जीम’ बच्चा कहता है,

          ‘जीम’ इस बीच उस्ताद ज़ोर का एक हाथ सिर पर धरता है और शागिर्द चुपचाप परवान करता है! समझे साहिब, एक तो पढ़ाई ऐसी और दूसरी…। बात बीच में छोड़ सामने से गुज़रते मीर साहिब को आवाज़ दे डाली -’कहो भाई मीर साहिब! सुबह  न आना हुआ, पर क्यों?’

          मीर साहिब ने सिर हिलाया -’मियाँ, अभी लौट के आते हैं तो बतावेंगे।’’

          आप दूसरी पढ़ाई की बाबत कुछ कह रहे थे न!’

          इस बार मियाँ नसीरुद्दीन ने यूँ सिर हिलाया कि सुकरात हो  -’हाँ, – एक दूसरी पढ़ाई भी होती है। सुनिए, अगर बच्चे को भेजा

          मदरसे तो बच्चा – न कच्ची में बैठा,

          न बैठा वह पक्की में न दूसरी में –

          और जा बैठा तीसरी में – हम यह पूछेंगे कि उन तीन जमातों का क्या हुआ? क्या हुआ उन तीन किलासों का?

          ‘अपना खयाल था कि मियाँ नसीरुद्दीन नानबाई अपनी बात का निचोड़ भी‘निकालेंगे पर वह हमीं पर दागते रहे -’आप ही बताइए – उन दो-तीन जमातों का हुआ क्या?’’

यह बात मेरी समझ के तो बाहर है।

          ’इस बार शाही नानबाई मियाँ कल्लन के पोते अपने बचे-खुचे दाँतों से खिलखिला के हँस दिए! ‘मतलब मेरा क्या साफ़ न था! लो साहिबो, अभी साफ़ हुआ जाता है। ज़रा-सी देर को मान लीजिए –

          हम बर्तन धोना न सीखते

          हम भट्ठी  बनाना न सीखते

          भट्ठी  को आँच देना न सीखते तो क्या हम सीधे-सीधे नानबाई का हुनर सीख जाते!’मियाँ नसीरुद्दीन हमारी ओर कुछ ऐसे देखा किए कि उन्हें हमसे जवाब पाना हो। फिर बड़े ही मँजे अंदाज़ में कहा -’कहने का मतलब साहिब यह कि तालीम की तालीम भी बड़ी चीज़ होती है।’

          सिर हिलाया -’है साहिब, माना!’

           मियाँ नसीरुद्दीन जोश में आ गए -’हमने न लगाया होता खोमचा तो आज  क्या यहाँ बैठे होते!’

          मियाँ को खोमचेवाले दिनों में भटकते देख हमने बात का रुख मोड़ा -’आपने खानदानी नानबाई होने का ज़िक्र किया, क्या यहाँ और भी नानबाई हैं?

          “मियाँ ने घूरा -’बहुतेरे, पर खानदानी नहीं – सुनिए, दिमाग में चक्कर काट गई है एक बात। हमारे बुज़ुर्गों से बादशाह सलामत ने यूँ कहा – मियाँ नानबाई, कोई नई चीज़ खिला सकते हो?’’

          हुक्म कीजिए,

          जहाँपनाह!’बादशाह सलामत ने फ़रमाया -’कोई ऐसी चीज़ बनाओ जो न आग से पके, न पानी से बने।

          “क्या उनसे बनी ऐसी चीज़!’’

         क्यों न बनती साहिब! बनी और बादशाह सलामत ने खूब खाई और खूब सराही।

         ‘लगा, हमारा आना कुछ रंग लाया चाहता है। बेसब्री से पूछा -’वह पकवान क्या था – कोई खास ही चीज़ होगी।

          ‘मियाँ कुछ देर सोच में खोए रहे। सोचा पकवान पर रोशनी डालने को है किन सीरुद्दीन साहिब बड़ी रुखाई से बोले -’यह हम न बतावेंगे। बस, आप इत्ता समझ लीजिए कि एक कहावत है न कि खानदानी नानबाई कुएँ में भी रोटी पका सकता है। कहावत जब भी गढ़ी गई हो, हमारे बुज़ुर्गों के करतब पर ही पूरी उतरती है।

          ‘मज़ा लेने के लिए टोका -’कहावत यह सच्ची भी है कि …।

          ‘मियाँ ने तरेरा -’और क्या झूठी है? आप ही बताइए, रोटी पकाने में झूठ का क्या काम! झूठ से रोटी पकेगी? क्या पकती देखी है कभी! रोटी जनाब पकती है आँच से, समझे!

          ‘सिर हिलाना पड़ा-’ठीक फ़रमाते हैं।’

          ‘इस बीच मियाँ ने किसी और को पुकार लिया -’मियाँ रहमत, इस वक्त किधरको! अरे वह लौंडिया न आई रूमाली लेने। शाम को मँगवा लीजो।

          ‘मियाँ, एक बात और आपको बताने की ज़हमत उठानी पड़ेगी…।

          ‘मियाँ ने एक और बीड़ी सुलगा ली थी। सो कुछ फुर्ती पा गए थे -’पूछिए – अरे बात ही तो पूछिएगा – जान तो न ले लेवेंगे। उसमें भी अब क्या देर! सत्तर के हो चुके’फिर जैसे अपने से ही कहते हों –‘वालिद मरहूम तो कूच किए अस्सी पर क्या मालूम हमें इतनी मोहलत मिले, न मिले।

          ‘इस  मज़मून पर हमसे  कुछ कहते  न बन आया तो कहा -’अभी यही जानना थाकि आपके बुज़ुर्गों ने शाही बावर्चीखाने में तो काम किया ही होगा?     

          ‘मियाँ ने बेरुखी से टोका -’वह बात तो पहले हो चुकी न!

          ‘हो तो चुकी साहिब, पर जानना यह था कि दिल्ली के किस बादशाह के यहाँ आपके बुज़ुर्ग काम किया करते थे?

          ‘अजी साहिब, क्यों बाल की खाल निकालने पर तुले हैं! कह दिया न कि बादशाह के यहाँ काम करते थे – सो क्या काफ़ी नहीं?

          ‘हम खिसियानी हँसी हँसे -’है तो काफ़ी, पर ज़रा नाम लेते तो उसे वक्त से मिला लेते।

          ‘वक्त से मिला लेते – खूब! पर किसे मिलाते जनाब आप वक्त से?’ – मियाँ हँसे जैसे हमारी खिल्ली उड़ाते हों।’वक्त से वक्त को किसी ने मिलाया है आज तक!

          खैर – पूछिए – किसका नाम जानना चाहते हैं?  दिल्ली के बादशाह का ही ना! उनका नाम कौन नहीं जानता – जहाँपनाह बादशाह सलामत ही न!’’

          कौन-से, बहादुरशाह ज़फ़र कि …!

          ‘मियाँ ने खीजकर कहा – फिर अलट-पलट के वही बात। लिख लीजिए बस यही नाम – आपको कौन बादशाह के नाम चिट्ठी-रुक्का भेजना है कि डाकखानेवालों केलिए सही नाम-पता ही ज़रूरी है।’  ‘हमें बिटर-बिटर अपनी तरफ़ देखते पाया तो सिर हिला अपने कारीगर से बोले- ‘अरे ओ बब्बन मियाँ, भट्ठी सुलगा दो तो काम से निबटें। ‘यह बब्बन मियाँ कौन हैं, साहिब?’

          मियाँ ने रुखाई से जैसे फाँक ही काट दी हो – ‘अपने कारीगर, और कौन होंगे!’

          मन में आया पूछ लें आपके बेटे-बेटियाँ हैं, पर मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर किसी दबे हुए अंधड़ के आसार देख यह मज़मून न छेड़ने का फ़ैसला किया। इतनाही कहा -’ये कारीगर लोग आपकी शागिर्दी करते हैं?’’

          खाली शागिर्दी ही नहीं साहिब, गिन के मजूरी देता हूँ। दो रुपये मन आटे की मजूरी।

          चार रुपये मन मैदे की मजूरी! हाँ! ‘ज़्यादातर भट्टी पर कौन-सी रोटियाँ पका करती हैं? ’मियाँ को अब तक इस मज़मून में कोई दिलचस्पी बाकी न रही थी, फिर भीहमसे छुटकारा पाने को बोले – ‘बाकरखानी-शीरमाल-ताफ़्तान-बसेनी-खमीरी-रूमाली-गाव-दीदा-गज़ेबान -तुनकी – ‘फिर तेवर चढ़ा हमें घूरकर कहा -’तुनकी पापड़ से ज़्यादा महीन होती है, महीन। हाँ। किसी दिन खिलाएँगे, आपको।’

          एकाएक मियाँ की आँखों के आगे कुछ कौंध गया। एक लंबी साँस भरी और किसी गुमशुदा याद को ताज़ा करने को कहा -’उतर गए वे ज़माने। और गए वेक़द्रदान जो पकाने-खाने की क़द्र करना जानते थे! मियाँ अब क्या रखा है…निकाली तंदूर से – निगली और हज़म!’

एक दिन की बात है, किसी कारणवश लेखिका दिल्ली के जामा मस्जिद के बगल, मटियामहल के गढ़ैया मुहल्ले की तरफ़ मुड़ गईं। एक अँधेरी-सी साधारण दुकान पर ढेर-सा आटा सनते देखकर उन्हें कुछ जानने का मन हुआ। पता चला कि वह छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के उस्ताद मियाँ नसीरुद्दीन नानबाई की दुकान थी। जब कृष्णा सोबती ने उस अनुभवी मियाँ को देखना चाहा तो वे अंदर ही बैठे थे और बीड़ी के कश खींच रहे थे। उनके पेशानी की लकीरें उनके गहरे अनुभव को बयाँ कर रही थीं  और आँखें उनकी ज़िंदादिली और चुस्ती की।

कृष्णा सोबती जी ने उनसे कुछ पूछने की इच्छा ज़हीर की और मियाँ के मानते ही लेखिका ने पहला प्रश्न किया कि  आपने इतने किस्म की रोटियाँ बनाने का हुनर कहाँ से सीखा? उत्तर में मियाँ नसीरुद्दीन ने अपने खास अंदाज़ में बताया कि नानबाई का काम उनके यहाँ कई पुश्तों से चला आ रहा है। उनके वालिद मियाँ बरकत शाही,  गढ़ैयावाले नानबाई के नाम से मशहूर थे। उनके दादा मियाँ कल्लन साहब भी आला दर्जे के नानबाई थे। उन्होंने यह भी कहा कि मैंने यह हुनर अपने वालिद साहिब की खिदमत में रहकर सीखा है। अपनी बातों को बढ़ाते हुए मियाँ नसीरुद्दीन ने लेखिका से कहा कि  हुनर सच्ची लगन और मेहनत से सीखा जाता है। पहले उन्होंने भट्टी बनाने, भट्टी में आँच देने और बर्तन धोने तक के छोटे-से-छोटे काम अपने हाथ से करके रोटी बनाने का इल्म सीखा है। मियाँ ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए यह भी कहा कि वे दुकान पर आकर नहीं जम बैठे थे। दुकानदारी और ग्राहक का सीधा अनुभव पाने के लिए उन्होंने मुद्दत तक खोमचा भी लगाया है।

जब लेखिका ने उनके पूर्वजों और खानदान के बारे में पूछा तो मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर बड़प्पन की एक चमक आ गई, उसकी छाती गर्व से फूल उठी। मियाँ खानदान की बात किसी भी सूरत में नीचे नहीं रहने देते। उन्होंने गर्व से लेखिका को बताया कि उनके बुजुर्ग बादशाह सलामत के खास नानबाई रहे हैं। बादशाह सलामत के कहने पर उनके बुजुर्गों ने ऐसी चीज बनाकर खलाई थी जो न आग में पकी थी, न उसमें पानी लगा था। लेखिका को उस व्यंजन के बारे में जानने की इच्छा हुई पर मियाँ नसीरुद्दीन ने उस व्यंजन का नाम नहीं बताया। शायद उन्हें खुद भी पता न हो। लेकिन अपनी शान को ऊपर रखने के लिए कहते  हैं-“खानदानी नानबाई कुएँ में भी रोटी पका सकता है।”

लेखिका ने फिर पूछना चाहा कि आपके बुजुर्ग किस बादशाह के यहाँ रसोइए का काम करते थे। इस पर पहले तो वे चिढ़ गए फिर बाद में बहादुर शाह जफर के नाम पर मुहर लगा दी।

लेखिका उनके बाल-बच्चों के बारे में जानना चाहती थे पर यह देखकर कि उनकी रुचि इस साक्षात्कार में कम हो चुकी है उन्होंने यह सवाल नहीं पूछा। पर लेखिका ने भट्टी पर पकने वाली रोटियों की किस्में जानने की इच्छा प्रकट की। इस पर एक अजीब-सी खीझ उनके चेहरे पर उभर आई। कुछ तुनककर उन्होंने चंद रोटियों के नाम फटाफट गिना डाले। तुनकी रोटी की तारीफ में उन्होंने कहा कि वह पापड़ से भी महीन होती है। लेकिन कहते-कहते वे पिछले जमाने की यादों में डूब गए। उन्हें वह दौर याद आने लगा जब लोगों को खाने-पकाने का शौक हुआ करता था चीजों की कद्र हुआ करती थी। पर आज ज़माना बदल चुका है। आज के जमाने में रोटी तंदूर से निकली पेट में गई और हजम।

1. अपन – हम

2. मसीहा  – देवदूत

3. नानबाई – रोटी बनाने और बेचनेवाला

4. लुत्फ़ – मज़ा

5. आड़े – तिरछे

6. निहायत – बिलकुल

7. सनते- मलते

8. काइयाँ – चालाकी

9. पेशानी – माथा

10.  तेवर – मुद्रा

11.  पंचहज़ारी – पाँच हज़ार सैनिकों का अधिकारी

12.  अखबारनवीस – पत्रकार

13.  खुराफ़ात – शरारत

14.  निठल्ला – खाली, बेकार

15.  इल्म – ज्ञान

16.  कंचे – पुतली

17.  तरेरकर – तानकर

18.  नगीनासाज  – नगीना जड़नेवाला

19.  मीनासाज – सोने-चाँदी पर रंग करने का काम

20.  रंगरेज़ -कपड़ा रंग करनेवाला

21.  तंबोली – पान लगानेवाला

22.  वालिद – पिता

23.  अख्तिया रकरना – स्वीकार करना

24.  हुनर – कला

25.  मरहूम – स्वर्गीय

26.  ठीया – गद्दी, जगह

27.  आला – श्रेष्ठ

28.  नसीहत -सीख

29.  बजा फरमाना – सही कहना

30.  कश खींचना – साँस खींचना

31.  अलिफ़-बे-जेएम – फारसी लिपि के अक्षर

32.  शागिर्द – चेला

33.  परवान करना – उन्नति की ओर  जाना

34.  मदरसा – स्कूल

35.  बहुतेरे – बहुत अधिक

36.  बेसब्री -अधीरता

37.  कच्चा – पहले से पहले की कक्षा

38.  जमात – कक्षा

39.  मँजे – कुशल तरीके से

40.  ज़िक्र -वर्णन

41.  करतब – कार्य

42.  जहमत – तकलीफ

43.  मोहलत – समय

44.  मज़मून – विषय

45.  बावर्चीखाना – भोजनालय

46.  खिसियानी हँसी – शर्म से हँसना

47.  रुक्का भेजना – संदेश भेजना

48.  बिटर-बिटर – एकटक

49.  आसार – शंका

50.  महीन – पतली

51.  कौंधना – प्रकट होना

52.  गुमशुदा – गायब

53.  कद्रदान – क़द्र करनेवाले

1. मियाँ नसीरुद्दीन को नानबाइयों का मसीहा क्यों कहा गया है?

उत्तर – मियाँ नसीरुद्दीन को नानबाइयों का मसीहा कहा गया है क्योंकि वे कोई साधारण नानबाई नहीं हैं। वे खानदानी नानबाई हैं। अन्य नानबाई केवल रोटियाँ पकाते हैं, पर मियाँ नसीरुद्दीन अपने पुश्तैनी पेशे को एक कला मानते हैं। उनके पास छप्पन प्रकार की रोटियाँ बनाने का हुनर है। वे अपने को सर्वश्रेष्ठ नानबाई बताते हैं

2. लेखिका मियाँ नसीरुद्दीन के पास क्यों गई थीं?

उत्तर – लेखिका स्वभाव से जिज्ञासु थीं और मियाँ नसीरुद्दीन के पास एक पत्रकार की हैसियत से गईं थीं। वे उनसे उनकी नानबाई कला के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर उसे प्रकाशित करना चाहती थीं।

3. बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही लेखिका की बातों में मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी क्यों खत्म होने लगी?

उत्तर – बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी लेखिका की बातों में खत्म होने लगी क्योंकि उन्हें किसी खास बादशाह का नाम मालूम नहीं था। वे जो बातें बता रहे थे, वे बस सुनी-सुनाई बातें थीं। उनके बताए हुए तथ्य में सच्चाई का अभाव था। लेखिका को अपने पुरखों की समृद्धि की बातें बताने के बाद वे उसे प्रमाणित नहीं कर पा रहे थे।

4. मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर किसी दबे हुए अंधड़ के आसार देख यह मज़मून न छेड़ने का फ़ैसला किया   इस कथन के पहले और बाद के प्रसंग का उल्लेख करते हुए इसे स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – मियाँ नसीरुद्दीन से लेखिका का सवाल-जवाब चल ही रहा था परंतु बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी लेखिका की बातों में खत्म होने लगी। उसके बाद वे अपने कारीगर बब्बन मियाँ को भट्टी सुलगाने के लिए पुकारने लगे। तभी लेखिका के मन में आया कि पूछ लूँ, आपके बेटे-बेटियाँ हैं, पर उनके चहेरे पर बेरुखी देखी तो उन्होंने उस विषय में कुछ न पूछना ही ठीक समझा।

5. पाठ में मियाँ नसीरुद्दीन का शब्दचित्र लेखिका ने कैसे खींचा है?

उत्तर – मियाँ नसीरुद्दीन का शब्दचित्र लेखिका ने कुछ इस प्रकार खींचा है – मियाँ नसीरुद्दीन सत्तर वर्ष के हैं। लेखिका ने जब उनकी दुकान के अंदर झाँका तो पाया मियाँ चारपाई पर बैठे बीड़ी का मजा़ ले रहे हैं। मौसमों की मार से पका चेहरा, आँखों में काइयाँ भोलापन और पेशानी पर मँजे हुए कारीगर के तेवर। उनका यही अंदाज़ और अनुभवी मुखाकृति लेखिका को उनके बारे में जानने के लिए प्रेरित कर रही थी।

1. मियाँ नसीरुद्दीन की कौन-सी बातें आपको अच्छी लगीं?

उत्तर – मियाँ नसीरुद्दीन की निम्नलिखित बातें मुझे अच्छी लगीं –

• उनका आत्मविश्वास से भरा व्यक्तित्व।

• काम के प्रति अत्यधिक रुचि एवं लगाव।

• सटीक उत्तर देने की कला।

• तरह-तरह की रोटियाँ बनाने में महारत।

• शागिर्द को उचित वेतन देना।

2. तालीम की तालीम ही बड़ी चीज़ होती है – यहाँ लेखक ने तालीम शब्द का दो बार प्रयोग क्यों किया है? क्या आप दूसरी बार आए तालीम शब्द की जगह कोई अन्य शब्द रख सकते हैं? लिखिए।

उत्तर – लेखिका ने तालीम शब्द का प्रयोग दो बार किया है। क्रमशः उनका अर्थ ‘काम की ट्रेनिंग’ और ‘शिक्षा’ है। हम दूसरी बार आए तालीम शब्द की जगह शब्द रख सकते हैं – ‘तालीम की शिक्षा’।

3. मियाँ नसीरुद्दीन तीसरी पीढ़ी के हैं जिसने अपने खानदानी व्यवसाय को अपनाया। वर्तमान समय में प्रायः लोग अपने पारंपरिक व्यवसाय को नहीं अपना रहे हैं। ऐसा क्यों?

उत्तर – मियाँ नसीरुद्दीन तीसरी पीढ़ी के हैं। पहले उनके दादा मियाँ कल्लन साहिब आला दर्जे नानबाई थे, दूसरे उनके वालिद मियाँ बरकतशाही भी कुशल नानबाई थे। आज के दौर में लोग अपने पारंपरिक व्यवसाय को नहीं अपना रहे हैं क्योंकि शिक्षा का स्तर और काम करने का तरीका दोनों काफी बदल चुका है। कितने पारंपरिक व्यवसाय तो विज्ञान की प्रगति के कारण लुप्त हो चले हैं और कितने व्यवसाय को नई पीढ़ी करना ही नहीं चाहती है।

4. मियाँ, कहीं अखबारनवीस तो नहीं हो, यह तो खोजियों की खुराफ़ात है। अखबार की को देखते हुए इस पर टिप्पणी करें।

उत्तर – अखबारनवीस पत्रकार को कहते हैं। समाज को जागृत करने में अखबार की अहम भूमिका होती हैं। अखबार जनता को न्याय भी दिला सकता है परंतु आज-कल के अखबार में बातों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लिखते हैं जिससे लोगों में उनका प्रभाव कम होता जा रहा है। दूसरी ओर समाचार पत्रों में विज्ञापन भी भर-भरकर कापने लगे हैं।

पकवानों को जानें

पाठ में आए रोटियों के अलग-अलग नामों की सूची बनाएँ और इनके बारे में जानकारी प्राप्त करें।

उत्तर – छात्र इसे गृहकार्य के रूप में अवश्य करें।

1. तीन चार वाक्यों में अनुकूल प्रसंग तैयार कर नीचे दिए गए वाक्यों का इस्तेमाल करें।

क. पंचहज़ारी अंदाज़ से सिर हिलाया।

उत्तर – हमारे पड़ोस के मिश्रा जी लोगों को नि:शुल्क अंग्रेज़ी सिखाते हैं। एक दिन मैंने उनकी प्रशंसा की तो उन्होंने पंचहजा़री अंदाज़ में सिर हिलाया।

ख. आँखों के कंचे हम पर फेर दिए।

उत्तर – मेरा मित्र जब अपनी नई साइकिल की खूबियाँ बता रहा था तो मैंने अपनी साइकिल की बेहतर खूबियाँ बताई इसपर क्रोध में उसने अपनी आँखों के कंचे मुझ पर फेर दिया।

ग. आ बैठे उन्हीं के ठीये पर।

उत्तर – पिताजी के स्वर्ग सिधारने के बाद उनका इकलौता बेटा आ बैठा उन्हीं कें ठीये पर।

2. बिटर-बिटर देखना – यहाँ देखने के एक खास तरीके को प्रकट किया गया है? देखने संबंधी इस प्रकार के चार क्रिया-विशेषणों का प्रयोग कर वाक्य बनाइए।

• घूर-घूरकर देखना – ट्रेन में एक संदिग्ध युवक खिड़की के पास बैठी युवती को घूर-घूरकर देख रहा था।

• एकटक देखना – चाँदनी रात में आसमान में खिले चाँद-तारों को लोग एकटक देखते हैं।

• चोरी-चोरी देखना – घर में सभी सदस्यों की उपस्थिति के कारण रोहन अपनी मंगेतर को चोरी-चोरी देख रहा था।

• सहमी-सहमी नज़रों से देखना – छात्र अपने गणित के शिक्षक को सहमी-सहमी नज़रों से देख रहे हैं।

3. नीचे दिए वाक्यों में अर्थ पर बल देने के लिए शब्द-क्रम परिवर्तित किया गया है। सामान्यतः इन वाक्यों को किस क्रम में लिखा जाता है? लिखें।

क. मियाँ मशहूर हैं छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के लिए।

उत्तर – मियाँ छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के लिए मशहूर हैं।

ख. निकाल लेंगे वक्त थोड़ा।

उत्तर -थोड़ा वक्त निकाल लेंगे।

ग. दिमाग में चक्कर काट गई है बात।

उत्तर -बात दिमाग में चक्कर काट गई है।

घ. रोटी जनाब पकती है आँच से।

उत्तर – जनाब! रोटी आँच से पकती है।

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