Aaroh Class – XI,  Shekhar Joshi – Galata Loha, Best Solutions

जन्मः सन् 1932, अल्मोड़ा (उत्तरांचल)

प्रमुख रचनाएँ :  कोसी का घटवार, साथ के लोग, दाज्यू, हलवाहा, नौरंगी बीमार है (कहानी-संग्रह); एक पेड़ की याद (शब्दचित्र-संग्रह)

सम्मानः पहल सम्मान

पिछली सदी का छठवाँ दशक हिंदी कहानी के लिए युगांतकारी समय था। एक साथ कई युवा कहानीकारों ने अब तक चली आती कहानियों के रंग-ढंग से अलग तरह की कहानियाँ लिखनी शुरू कीं और देखते-देखते कहानी की विधा साहित्य-जगत के केंद्र में आ खड़ी हुई। उस पूरे उठान को नाम दिया गया नई कहानी आंदोलन। इस आंदोलन के बीच उभरी हुई प्रतिभाओं में शेखर जोशी का स्थान अन्यतम है। उनकी कहानियाँ नई कहानी आंदोलन के प्रगतिशील पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। समाज का मेहनतकश और सुविधाहीन तबका उनकी कहानियों में जगह पाता है। निहायत सहज एवं आडंबरहीन भाषा-शैली में वे सामाजिक यथार्थ के बारीक नुक्तों को पकड़ते और प्रस्तुत करते हैं। उनके रचना-संसार से गुज़रते हुए समकालीन जनजीवन की बहुविध विडंबनाओं को महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने में उनकी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और यथार्थ बोध का बड़ा योगदान रहा है। 

शेखर जी की कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, पोलिश और रूसी में भी अनूदित हो चुकी हैं। उनकी प्रसिद्ध कहानी दाज्यू पर चिल्ड्रंस फ़िल्म सोसाइटी द्वारा फ़िल्म का निर्माण भी हुआ है।

गलता लोहा शेखर जोशी की कहानी-कला का एक प्रतिनिधि नमूना है। समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी करने वाली यह कहानी इस बात का उदाहरण है कि शेखर जोशी के लेखन में अर्थ की गहराई का दिखावा और बड़बोलापन जितना ही कम है, वास्तविक अर्थ-गांभीर्य उतना ही अधिक। लेखक की किसी मुखर टिप्पणी के बगैर ही पूरे पाठ से गुज़रते हुए हम यह देख पाते हैं कि एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राह्मण युवक मोहन किन परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों को ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता प्रतीत होता है, मानो लोहा गलकर एक नया आकार ले रहा हो।

मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ गए। उसके मन के किसी कोने में शायद धनराम लोहार के आफर की वह अनुगूँज शेष थी जिसे वह पिछले तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था। निहाई पर रखे लाल गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े की धप्-धप् आवाज़, ठंडे लोहे पर लगती चोट से उठता ठनकता स्वर और निशाना साधने से पहले खाली निहाई पर पड़ती हथौड़ी की खनक जिन्हें वह दूर से ही पहचान सकता था।

                लंबे बेंटवाले हँसुवे को लेकर वह घर से इस उद्देश्य से निकला था कि अपने खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आएगा। बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। यही क्या, जन्म भर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर-संसार चलाया था, वह भी अब वैसे कहाँ कर पाते हैं! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण ही उनपर श्रद्धा रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास नहीं झेल पाता। सुबह-सुबह जैसे उससे सहारा पाने की नीयत से ही उन्होंने गहरा निःश्वास लेकर कहा था – 

                ‘आज गणनाथ जाकर चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ करना था, अब मुश्किल ही लग रहा है। यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं। एकाएक ना भी नहीं कहा जा सकता, कुछ समझ में नहीं आता!’

                 मोहन उनका आशय न समझता हो ऐसी बात नहीं लेकिन पिता की तरह ऐसे अनुष्ठान कर पाने का न उसे अभ्यास ही है और न वैसी गति। पिता की बातें सुनकर भी उसने उनका भार हलका करने का कोई सुझाव नहीं दिया। जैसे हवा में बात कह दी गई थी वैसे ही अनुत्तरित रह गई।

                 पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला था लेकिन हँसुवे की धार पर हाथ फेरते हुए उसे लगा वह पूरी तरह कुंद हो चुकी है। धनराम अपने बाएँ हाथ से धौंकनी फूँकता हुआ दाएँ हाथ से भट्ठी में गरम होते लोहे को उलट-पलट रहा था और मोहन भट्ठी से दूर हटकर एक खाली कनिस्तर के ऊपर बैठा उसकी कारीगरी को पारखी निगाहों से देख रहा था।

                ‘मास्टर त्रिलोक सिंह तो अब गुज़र गए होंगे,’ मोहन ने पूछा।

                वे दोनों अब अपने बचपन की दुनिया में लौट आए थे। धनराम की आँखों में एक चमक-सी आ गई। वह बोला, ‘मास्साब भी क्या आदमी थे लला! अभी पिछले साल ही गुज़रे। सच कहूँ, आखिरी दम तक उनकी छड़ी का डर लगा ही रहता था।’

                 दोनों हो-हो कर हँस दिए। कुछ क्षणों के लिए वे दोनों ही जैसे किसी बीती हुई दुनिया में लौट गए।      …गोपाल सिंह की दुकान से हुक्के का आखिरी कश खींचकर त्रिलोक सिंह स्कूल की चहारदीवारी में उतरते हैं।

                 थोड़ी देर पहले तक धमाचौकड़ी मचाते, उठा-पटक करते और बांज के पेड़ों की टहनियों पर झूलते बच्चों को जैसे साँप सूँघ गया है। कड़े स्वर में वह पूछते हैं, ‘प्रार्थना कर ली तुम लोगों ने?’

                यह जानते हुए भी कि यदि प्रार्थना हो गई होती तो गोपाल सिंह की दुकान तक उनका समवेत स्वर पहुँचता ही, त्रिलोक सिंह घूर-घूरकर एक-एक लड़के को देखते हैं। फिर वही कड़कदार आवाज़, ‘मोहन नहीं आया आज?’

                मोहन उनका चहेता शिष्य था। पुरोहित खानदान का कुशाग्र बुद्धि का बालक पढ़ने में ही नहीं, गायन में भी बेजोड़। त्रिलोक सिंह मास्टर ने उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था। वही सुबह-सुबह, ‘हे प्रभो आनंददाता! ज्ञान हमको दीजिए।’ का पहला स्वर उठाकर प्रार्थना शुरू करता था। 

                 मोहन को लेकर मास्टर त्रिलोक सिंह को बड़ी उम्मीदें थीं। कक्षा में किसी छात्र को कोई सवाल न आने पर वही सवाल वे मोहन से पूछते और उनका अनुमान सही निकलता। मोहन ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट कर देता और तब वे उस फिसड्डी  बालक को दंड देने का भार मोहन पर डाल देते।

                ‘पकड़ इसका कान, और लगवा इससे दस उठक-बैठक,’ वे आदेश दे देते। धनराम भी उन अनेक छात्रों में से एक था जिसने त्रिलोक सिंह मास्टर के आदेश पर अपने हमजोली मोहन के हाथों कई बार बेंत खाए थे या कान खिंचवाए  थे। मोहन के प्रति थोड़ी-बहुत ईर्ष्या रहने पर भी धनराम प्रारंभ से ही उसके प्रति स्नेह और आदर का भाव रखता था। इसका एक कारण शायद यह था कि बचपन से ही मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता के कारण धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा बल्कि वह इसे मोहन का अधिकार ही समझता रहा था। बीच-बीच में त्रिलोक सिंह मास्टर का यह कहना कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का और उनका नाम ऊँचा करेगा, धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने की गुंजाइश ही नहीं रखता था।

                और धनराम! वह गाँव के दूसरे खेतिहर या मज़दूर परिवारों के लड़कों की तरह किसी प्रकार तीसरे दर्जे तक ही स्कूल का मुँह देख पाया था। त्रिलोक सिंह मास्टर कभी-कभार ही उस पर विशेष ध्यान देते थे। एक दिन अचानक ही उन्होंने पूछ लिया था, ‘धनुवाँ! तेरह का पहाड़ा सुना तो!’

                बारह तक का पहाड़ा तो उसने किसी तरह याद कर लिया था लेकिन तेरह का ही पहाड़ा उसके लिए पहाड़ हो गया था।

                ‘तेरै एकम तेरै

                तेरै दूणी चौबीस’

                सटाक्! एक संटी उसकी पिंडलियों पर मास्साब ने लगाई थी कि वह टूट गई। गुस्से में उन्होंने आदेश दिया, ‘जा! नाले से एक अच्छी मज़बूत संटी तोड़कर ला, फिर तुझे तेरह का पहाड़ा याद कराता हूँ।’ त्रिलोक सिंह मास्टर का यह सामान्य नियम था। सजा पाने वाले को ही अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था; और ज़ाहिर है, बलि का बकरा अपने से अधिक मास्टर के संतोष को ध्यान में रखकर टहनी का चुनाव ऐसे करता जैसे वह अपने लिए नहीं बल्कि किसी दूसरे को दंडित करने के लिए हथियार का चुनाव कर रहा हो।

                धनराम की मंदबुद्धि रही हो या मन में बैठा हुआ डर कि पूरे दिन घोटा लगाने पर भी उसे तेरह का पहाड़ा याद नहीं हो पाया था। छुट्टी के समय जब मास्साब ने उससे दुबारा पहाड़ा सुनाने को कहा तो तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते वह फिर लड़खड़ा गया था। लेकिन इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसके लाए हुए बेंत का उपयोग करने की बजाय ज़बान की चाबुक लगा दी थी, ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?’ अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर उन्होंने धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थीं। किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता की नहीं थी। धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ ही था कि बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और फिर धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा। फ़र्क इतना ही था कि जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे वहाँ गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे और ज़रा-सी गलती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली और पास-पड़ोस के गाँव वालों को याद नहीं रहा वे कब गंगाराम के आफर को धनराम का आफर कहने लगे थे।

                प्राइमरी स्कूल की सीमा लाँघते ही मोहन ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी को किसी हद तक सिद्ध कर दिया तो साधारण हैसियत वाले यजमानों की पुरोहिताई करने वाले वंशीधर तिवारी का हौसला बढ़ गया और वे भी अपने पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पीढ़ियों से चले आते पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। दान-दक्षिणा के बूते पर वे किसी  तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे। मोहन पढ़-लिखकर वंश का दारिद्र्य मिटा दे यह उनकी हार्दिक इच्छा थी। लेकिन इच्छा होने भर से ही सब-कुछ नहीं हो जाता। आगे की पढ़ाई के लिए जो स्कूल था वह गाँव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़ने वाली नदी की समस्या अलग थी। तो भी वंशीधर ने हिम्मत नहीं हारी और लड़के का नाम स्कूल में लिखा दिया। बालक मोहन लंबा रास्ता तय कर स्कूल जाता और छुट्टी के बाद थका-माँदा घर लौटता तो पिता पुराणों की कथाओं से विद्याव्यसनी बालकों का उदाहरण देकर उसे उत्साहित करने की कोशिश करते रहते।

                वर्षा के दिनों में नदी पार करने की कठिनाई को देखते हुए वंशीधर ने नदी पार के गाँव में एक यजमान के घर पर मोहन का डेरा तय कर दिया था। घर के अन्य बच्चों की तरह मोहन खा-पीकर स्कूल जाता और छुट्टियों में नदी उतार पर होने पर गाँव लौट आता था। संयोग की बात, एक बार छुट्टी के पहले दिन जब नदी का पानी उतार पर ही था और मोहन कुछ घसियारों के साथ नदी पार कर घर आ रहा था तो पहाड़ी के दूसरी ओर भारी वर्षा होने के कारण अचानक नदी का पानी बढ़ गया। पहले नदी की धारा में झाड़-झंखाड़ और पात-पतेल आने शुरू हुए तो अनुभवी घसियारों ने तेज़ी से पानी को काटकर आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन किनारे पहुँचते-न-पहुँचते मटमैले पानी का रेला उन तक आ ही पहुँचा। वे लोग किसी प्रकार सकुशल इस पार पहुँचने में सफल हो सके। इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे।

                बिरादरी के एक संपन्न परिवार का युवक रमेश उन दिनों लखनऊ से छुट्टियों में गाँव आया हुआ था। बातों-बातों में वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में उससे अपनी चिंता प्रकट की तो उसने न केवल अपनी सहानुभूति जतलाई बल्कि उन्हें सुझाव दिया कि वे मोहन को उसके साथ ही लखनऊ भेज दें। घर में जहाँ चार प्राणी हैं एक और बढ़ जाने में कोई अंतर नहीं पड़ता, बल्कि बड़े शहर में रहकर वह अच्छी तरह पढ़-लिख सकेगा।

                वंशीधर को जैसे रमेश के रूप में साक्षात् भगवान मिल गए हों। उनकी आँखों में पानी छलछलाने लगा। भरे गले से वे केवल इतना ही कह पाए कि बिरादरी का यही सहारा होता है।

                छुट्टियाँ शेष होने पर रमेश वापिस लौटा तो माँ-बाप और अपनी गाँव की दुनिया से बिछुड़कर सहमा-सहमा-सा मोहन भी उसके साथ लखनऊ आ पहुँचा। अब मोहन की ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ। घर की दोनों महिलाओं, जिन्हें वह चाची और भाभी कह कर पुकारता था, का हाथ बँटाने के अलावा धीरे-धीरे वह मुहल्ले की सभी चाचियों और भाभियों के लिए काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया।

                 ‘मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से।’

                ‘मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ।’

                ‘मोहन! एक किलो आलू तो ला दे।’

                औसत दफ़्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए मोहन को अपना भाई-बिरादर बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पड़ता था और उसे घरेलू नौकर से अधिक हैसियत वह नहीं देता था, इस बात को मोहन भी समझने लगा था। थोड़ी-बहुत हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक साधारण से स्कूल में उसका नाम लिखवा दिया। लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बँधी-बँधाई लीक पर चलता रहा। साल में एक बार गरमियों की छुट्टी में गाँव जाने का मौका भी तभी मिलता जब रमेश या उसके घर का कोई प्राणी गाँव जाने वाला होता वरना उन छुट्टियों को भी अगले दरजे की तैयारी के नाम पर उसे शहर में ही गुज़ार देना पड़ता था। अगले दरजे की तैयारी तो बहाना भर थी, सवाल रमेश और उसकी गृहस्थी की सुविधा- असुविधा का था। मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था क्योंकि और कोई चारा भी नहीं था। घरवालों को अपनी वास्तविक स्थिति बतलाकर वह दुखी नहीं करना चाहता था। वंशीधर उसके सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे थे। 

                आठवीं कक्षा की पढ़ाई समाप्त कर छुट्टियों में मोहन गाँव आया हुआ था। जब वह लौटकर लखनऊ पहुँचा तो उसने अनुभव किया कि रमेश के परिवार के सभी लोग जैसे उसकी आगे की पढ़ाई के पक्ष में नहीं हैं। बात घूम-फिरकर जिस ओर से उठती वह इसी मुद्दे पर ज़रूर खत्म हो जाती कि हज़ारों-लाखों बी.ए.,एम.ए. मारे-मारे बेकार फिर रहे हैं। ऐसी पढ़ाई से अच्छा तो आदमी कोई हाथ का काम सीख ले। रमेश ने अपने किसी परिचित के प्रभाव से उसे एक तकनीकी स्कूल में भर्ती करा दिया। मोहन की दिनचर्या में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। वह पहले की तरह स्कूल और घरेलू काम-काज में व्यस्त रहता। धीरे-धीरे डेढ़-दो वर्ष का यह समय भी बीत गया और मोहन अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारखानों और फैक्टरियों के चक्कर लगाने लगा।

                वंशीधर से जब भी कोई मोहन के विषय में पूछता तो वे उत्साह के साथ उसकी पढ़ाई की बाबत बताने लगते और मन-ही-मन उनको विश्वास था कि वह एक दिन बड़ा अफ़सर बनकर लौटेगा। लेकिन जब उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो न सिर्फ़ गहरा दुख हुआ बल्कि वे लोगों को अपने स्वप्नभंग की जानकारी देने का साहस नहीं जुटा पाए।

                धनराम ने भी एक दिन उनसे मोहन के बारे में पूछा था। घास का एक तिनका तोड़कर दाँत खोदते हुए उन्होंने बताया था कि उसकी सेक्रेटेरियट में नियुक्ति हो गई है और शीघ्र ही विभागीय परीक्षाएँ देकर वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा। धनराम को त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी पर पूरा यकीन था –  ऐसा होना ही था उसने सोचा। दाँतों के बीच में तिनका दबाकर असत्य भाषण का दोष न लगने का संतोष लेकर वंशीधर आगे बढ़ गए थे। धनराम के शब्द, ‘मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे’, उन्हें बहुत देर तक कचोटते रहे।

                त्रिलोक सिंह मास्टर की बातों के साथ-साथ बचपन से लेकर अब तक के जीवन के कई प्रसंगों पर मोहन और धनराम बातें करते रहे। धनराम ने मोहन के हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर भट्ठी में तपाया और मन लगाकर उसकी धार गढ़ दी। गरम लोहे को हवा में ठंडा होने में काफ़ी समय लग गया था, धनराम ने उसे वापिस बेंत पहनाकर मोहन को लौटाते हुए जैसे अपनी भूल-चूक के लिए माफ़ी माँगी हो –        ‘बेचारे पंडित जी को तो फ़ुर्सत नहीं रहती लेकिन किसी के हाथ भिजवा देते तो मैं तत्काल बना देता।’

                मोहन ने उत्तर में कुछ नहीं कहा लेकिन हँसुवे को हाथ में लेकर वह फिर वहीं बैठा रहा जैसे उसे वापिस जाने की कोई जल्दी न रही हो।

                सामान्य तौर से ब्राह्मण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना-बैठना नहीं होता था। किसी काम-काज के सिलसिले में यदि शिल्पकार टोले में आना ही पड़ा तो खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी। ब्राह्मण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। पिछले कुछ वर्षों से शहर में जा रहने के बावजूद मोहन गाँव की इन मान्यताओं से अपरिचित हो ऐसा संभव नहीं था। धनराम मन – ही – मन उसके व्यवहार से असमंजस में पड़ा था लेकिन प्रकट में उसने कुछ नहीं कहा और अपना काम करता रहा।

                लोहे की एक मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर धनराम गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था। एक हाथ से सँड़सी पकड़कर जब वह दूसरे हाथ से हथौडे़ की चोट मारता तो निहाई पर ठीक घाट में सिरा न फँसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर तक उसे काम करते हुए देखता रहा फिर जैसे अपना संकोच त्यागकर उसने दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट मारते, अभ्यस्त हाथों से धौंकनी फूँककर लोहे को दुबारा भट्ठी में गरम करते और फिर निहाई पर रखकर उसे ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे डाला।

                मोहन का यह हस्तक्षेप इतनी फुर्ती और आकस्मिक ढंग से हुआ था कि धनराम को चूक का मौका ही नहीं मिला। वह अवाक मोहन की ओर देखता रहा। उसे मोहन   की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्ठी पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था। वह शंकित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा।

                धनराम की संकोच, असमंजस और धर्म-संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी –  जिसमें न स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।   

1. अनायास – बिना प्रयास के

2. शिल्पकार – कारीगर

3. टोला – समूह

4. निहाई – लोहे का टुकड़ा जिस पर लुहार लोहा रखकर पीटता है

5. खनक – आवाज़

6. बूते का – वश का

7. बूते पर  – आधार पर

8. हँसुवा – घास काटने का एक औज़ार

9. निष्ठा – लगन

10. जर्जर – कटा- फटा

11. रुद्री पाठ – भगवान शंकर की पूजा के लिए मंत्र पढ़ना

12. आशय – मतलब

13. अनुत्तरित – बिना उत्तर के

14. कुंद –  नष्ट

15. धौंकनी – लोहार के काम में आने वाली आग की भट्टी

16. कनिस्तर – Tin

17. पारखी – कुशल

18. समवेत – सामूहिक

19. कुशाग्र – तेज़बुद्धि

20. हमजोली – साथी

21. गुंजाइश – जगह

22. दूणी – दुगुना

23. संटी – छड़ी

24. घोटा लगाना – रटना

25. मास्साब – मास्टर साहब

26. दारिद्र्य – गरीबी

27. विद्या व्यसनी – विद्या पाने की ललक रखने वाला

28. उत्साहित – जोश में लाना

29. पात- पतेल – पत्ते आदि

30. रेल – समूह

31. बिरादरी – जाति

32. हैसियत – शक्ति

33. हील- हवाली – न- नुकुर करना

34. मेधावी – प्रतिभाशाली

35. बाबत – के बारे में

36. फाल – लोहे का सिक्का

37. असमंजस – दुविधा

38. सँड़सी – एक औज़ार

39. अभ्यस्त – सधा हुआ

40. सुघड़ – सुंदर

41. आकस्मिक – अचानक

42. अवाक् – मौन

43. उदासीन – Neutral

44. स्पर्धा – होड़

45. मुद्रा – तेवर

46. शंकित -संदेह

47. सर्जक – रचनाकार

इस पाठ में हम यह देख पाते हैं कि एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राह्मण युवक मोहन प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों को ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन का व्यक्तित्व जातिगत आधार को झूठा साबित करता है और कर्म को ही सबकुछ मानता है।

मोहन के पिता वंशीधर तिवारी पुरोहिती का काम करते हैं। लोग उनके ज्ञान, भगवद् भक्ति और  संयम के कारण उन पर विशेष श्रद्धा रखते हैं। लेकिन अब वे वृद्धावस्था में हैं और व्रत-उपवास, यजमानों के यहाँ पूजा पाठ करना उनके लिए कठिन हो चुका है। इसलिए उन्होंने अपने बेटे मोहन को सुनाया कि वे चंद्रदत्त के यहाँ रुद्रीपाठ करने नहीं जा सकते। मोहन ने उनका आशय समझ लिया किंतु कोई उत्तर न दिया। उसने पिता का भार हलका करने के लिए तथा आर्थिक उन्नति के लिए हँसुवा उठाया ताकि खेतों के किनारे उग आई झड़ियों को साफ कर सके लेकिन हँसुए की धार नहीं थी, उसकी धार तेज कराने के लिए वह धनराम लोहार के यहाँ पहुँचा।

धनराम से उसकी बातचीत और अतीत की यादें 

धनराम उसका सहपाठी रहा था और लुहार जाति का था। पहले तो मोहन को अपने यहाँ देखकर वह थोड़ा विस्मित हुआ और कहने लगा किसी से भिजवा देते आपको आने की क्या ज़रूरत थी। मोहन ने उसकी बातें सुनी और एक खाली कनस्तर पर बैठकर उसका काम देखने लगा। अचानक दोनों को अपने स्कूल के मास्टर त्रिलोक सिंह की याद आ गई। वे हँस-हँस उन्हें याद करने लगे। मास्टर त्रिलोक सिंह मोहन को पसंद किया करते थे। उसे कक्षा का मॉनीटर बना दिया था। उसके हाथों से पढ़ाई-लिखाई में कमज़ोर लड़कों को सजा दिलवाते थे और मोहन के सुनहरे भविष्य की बातें किया करते थे। वास्तव में मोहन बड़ा ही मेधावी छात्र हुआ करता था। दूसरी तरफ, धनराम का गणित में कमज़ोर होना, मास्टर जी से पिटाई खाना सब बातें याद आने लगीं।

यहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम के साथ अन्याय किया। धनराम को तेरह का पहाड़ा याद नहीं होता था। वह मार खाने पर भी तेरह का पहाड़ा नहीं सीख सका। तब मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसे व्यंग्य से कहा-‘तेरे दिमाग में लोहा भरा है, इसमें विद्या का ताप कहाँ से लगेगा?’ यह कहकर मास्टरजी ने उसे पाँच-छह दरातियाँ धार लगाने के लिए दे दी।  यह सुनकर धनराम को यकीन हो गया कि मैं छोटी जाति का हूँ तथा पढ़ाई-लिखाई मेरे बस की बात नहीं। और यही कारण था कि वह ब्राह्मण वर्ग के मोहन का समकक्ष होने पर भी कभी भी उसे अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझता था।  इस तरह उसकी पढ़ाई-लिखाई छूट जाती है और तभी से वह पिता गंगाराम के साथ धौंकनी फूँकने, सान लगाने, घन चलाने आदि के काम में लग गया। उसके पिता भी काम ठीक से न करने पर उसे पीटते थे। एक दिन वह भी आया, जब गंगाराम चल बसे और धनराम उनकी जगह लोहार का काम करने लगा।

मोहन को प्राइमरी शिक्षा पूरी करते ही छात्रवृत्ति मिल गई। इससे उत्साहित होकर उसके पिता ने सोचा कि वह उसे पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाएगा। अतः आगे की पढ़ाई के लिए उसे स्कूल भेज दिया। लेकिन वह स्कूल गाँव से चार मील दूर था। रास्ते में दो मील की ऊँची चढ़ाई थी। बीच में एक नदी थी। फिर भी मोहन स्कूल जाता। जब वह थका-माँदा घर वापस आता तो उसके पिता उसे प्रेरक प्रसंगों से उसे उत्साहित करते।

एक दिन वापसी के समय जब वह नदी पार कर रहा था तभी पानी बढ़ गया। जैसे-तैसे वह सुरक्षित तो पहुँच गया। परंतु उस दिन से मोहन के पिता डर गए। उन्हीं दिनों उनके बिरादरी का एक युवक रमेश लखनऊ से गाँव आया हुआ था। मोहन के पिता ने मोहन के  पढ़ाई के बारे में उसके सामने चिंता प्रकट की। रमेश ने उनके साथ सहानुभूति प्रकट की और मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाने की बात कही। उसने कहा कि जहाँ घर में चार प्राणी रहते हैं, वहाँ यह पाँचवाँ भी रह लेगा। बड़े शहर में रहकर इसकी पढ़ाई अच्छे तरीके से हो जाएगी।

वंशीधर को जैसे भगवान मिल गए हों। उन्होंने मोहन को रमेश के साथ लखनऊ भेज दिया। और इस तरह से मोहन के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है। रमेश और उसके परिवार के सदस्यों ने मोहन से नौकरों की तरह काम लेना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह पड़ोसियों के भी काम करने लगा। मोहन के बहुत कहने पर कुछ दिनों बाद उसे एक साधारण-से स्कूल में डाल दिया गया। लेकिन घर के कामों के बोझ के कारण गाँव का मेधावी छात्र शहर में अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बना सका, वह जैसे-तैसे केवल उत्तीर्ण होता रहा।

गर्मी की छुट्टियों में भी रमेश मोहन को अपने यहाँ ही रख लेता था ताकि उसकी घर-गृहस्थी सुविधा से चलती रहे और उसके पिता को यह संदेश भिजवा कर  संतुष्ट किया जाता कि अगली कक्षा की तैयारी के लिए उसे गाँव नहीं भेज रहे हैं। मोहन ने हर परिस्थिति से  समझौता करना सीख लिया था। वह अपने पिता को सच्चाई बताकर दुखी नहीं करना चाहता था।

आठवीं पास करने के बाद रमेश ने उसे आगे नहीं पढ़ाया। कहा कि बी.ए., एम.ए. करके लोग बेकार घूमते हैं। अतः उसे एक तकनीकी स्कूल में भर्ती करा दिया गया। घर की दिनचर्या पहले की तरह चलती रही। डेढ़-दो साल बाद वह पूरी तरह बेकार हो गया और फैक्टरियों के चक्कर लगाने लगा।

इधर वंशीधर गाँव में हर किसी को मोहन के बारे में यही बताते थे कि वह बड़ा अफसर बनकर घर लौटेगा। परंतु जब उन्हें वास्तविकता का पता चला तो वे खून के आँसू रोने लगे। सच्चाई जानने के बाद भी जब धनराम ने उनसे मोहन के बारे में पूछा तो उन्होंने फिर से झूठ बोलते हुए कहा कि उसकी सेक्रेटेरियट में नियुक्ति हो गई है। इस पर धनराम ने उनसे यही कहा-मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे। धनराम का यह कथन उन्हें बहुत देर तक कचोटता रहा।

पुनः धनराम के आफर में

मोहन और धनराम अपने स्कूल की बातें याद करते-करते कहीं खो गए थे। प्रायः ब्राह्मण टोले के लोग शिल्पकार टोले के लोगों के यहाँ बैठतें नहीं। वे खड़े-खड़े बात निपटा लेते हैं। परंतु मोहन धनराम की कार्यशाला में जमकर बैठ गया और उसे काम करते हुए देखने लगा। धनराम अपने काम में लगा रहा। वह लोहे की एक मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर गोल कर रहा था। किंतु वह छड़ निहाई पर ठीक से फँस नहीं पा रही थी। इस कारण लोहा ठीक ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। यह देखकर मोहन अपनी जगह से उठा। उसने कुशलतापूर्वक लोहे को स्थिर किया तथा नपी-तुली चोटों से छड़ को पीटते-पीटते गोला बना दिया।

मोहन ने यह काम इतनी कुशलता और स्फूर्ति से किया कि धनराम उसे देखता रह गया। धनराम को इससे भी बड़ी हैरानी इस बात पर हुई कि ब्राह्मण लड़के ने लोहार का काम करना कैसे स्वीकार कर लिया। इधर मोहन इन सबसे परे लोहे के छल्ले की गोलाई को जाँच रहा था। उसकी आँखों में सृजन की चमक थी तथा प्रशंसा पाने का भाव था।

1. कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का ज़िक्र आया है।

उत्तर – एक दिन जब धनराम तेरह का पहाड़ा नहीं सुना पाया तब मास्टर त्रिलोक सिंह ने अपनी जबान की चाबुक का प्रयोग करते हुए उससे कहा कि तेरे दिमाग में लोहा भरा हुआ है, वहाँ विद्या का ताप कहाँ से पहुँचेगा? यह बात सच भी थी क्योंकि धनराम के पिता गंगाराम में अपने बेटे पर विद्या का ताप लगाने का सामर्थ्य नहीं था इसलिए जैसे ही धनराम हाथ पैर चलाने लायक हुआ कि पिता ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और फिर हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा।

2. धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था?

उत्तर – धनराम के मन में बचपन से ही नीची जाति के होने की बात बैठा दी गई थी उसे समाज द्वारा यह भी बताया गया था कि ऊँची जाति वाले उनके प्रतिदंद्वी नहीं होते हैं। मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी न समझने का दूसरा कारण यह भी था कि मोहन कक्षा में सबसे बुद्धिमान बालक था। पूरे विद्यालय का मॉनीटर भी था  और मास्टर त्रिलोक सिंह का यह बार-बार कहना कि मोहन एक दिन पूरे विद्यालय का नाम रोशन करेगा, जैसी बातें उसके इस विश्वास को और भी पुख्ता करता जाता था।  

3. धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों?

उत्तर – धनराम को मोहन के हथौड़ा चलाने और लोहे की छड़ को सटीक गोलाई देने की बात पर आश्चर्य तो हुआ परंतु धनराम उसकी कार्य कुशलता को देखकर इतना आश्चर्यचकित नहीं होता जितना यह सोचकर कि मोहन पुरोहित खानदान का ब्राह्मण युवक होने के बाद भी शिल्पकार टोले में निम्न जाति के काम कैसे कर रहा है? धनराम यह भी सोचकर भी आश्चर्यचकित था कि मोहन ने अपनी जाति और पुरोहिताई के पवित्र काम  को भुलाकर यह लुहारी का काम स्वीकार कर लिया।

4. मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?

उत्तर – मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को उसके जीवन का एक नया अध्याय कहा गया है क्योंकि गाँव के परिवेश से निकलकर उसे शहरी परिवेश का ज्ञान हुआ। शहर में आकर उसकी आगे की पढ़ाई करने का मौका मिला यदि वह गाँव में रहता तो उसे शिक्षा से वंचित रहना पड़ता। यहाँ आने पर उसे अपने पारिवारिक मज़बूरी का पता चला इसीलिए चाहते हुए भी उसने कभी अपनी पढ़ाई और नौकरों जैसे काम करने वाली बात घरवालों के सामने व्यक्त नहीं की। हालाँकि यह अध्याय सुखद तो नहीं रहा पर नया ज़रूर था।

5. मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है और क्यों?

उत्तर – धनराम द्वारा तेरह का पहाड़ा न याद कर पाने पर मास्टर त्रिलोक सिंह द्वारा कहे गए व्यंग्य वचन कि “तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है, उसमें विद्या का ताप कहाँ से लगेगा।” को लेखक ने जबान की चाबुक कहा है। लेखक के ऐसा कहने के पीछे जीवन की सच्चाई झलकती है। कोई व्यक्ति शारीरिक कष्ट पाकर भी अगर मन से उत्साहित है तो जीवन की सारी चुनौतियों का सामना कर सकता है। परंतु यदि उसे मानसिक रूप से यकीन दिला दिया जाए कि वह निकम्मा है तो शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने पर भी वह जीवन में कुछ हासिल नहीं कर सकता। यही नकारात्मक विचारधारा मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम में डाल दी थी। इसी हीन भावना से ग्रसित होकर धनराम आगे नहीं पढ़ पाया।

6. (1) बिरादरी का यही सहारा होता है।

क. किसने किससे कहा?

उत्तर – उपर्युक्त वाक्य पंडित वंशीधर ने अपने बिरादरी के एक युवक रमेश से कहे।

ख. किस प्रसंग में कहा?

उत्तर – जब वंशीधर अपने बेटे की आगे की पढ़ाई के लिए चिंतित थे। उस समय रमेश ने उनसे सहानुभूति प्रकट की और उनके बेटे को अपने साथ आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ ले जाने की बात की इस प्रसंग में अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए वंशीधर ने उपर्युक्त बात कही थी।

ग. किस आशय से कहा?

उत्तर – वंशीधर ने उपर्युक्त वाक्य रमेश के प्रति कृतज्ञता के भाव के आशय से कहा। वंशीधर के कहने का यह आशय था कि जाति-बिरादरी का यही लाभ होता है कि मौके-बेमौके वे एक-दूसरे की सहायता करें। 

घ. क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है?

उत्तर – इस कहानी में वंशीधर का आशय बिल्कुल भी सिद्ध नहीं हो सका है। वंशीधर ने अपने बेटे को जिस आशा से रमेश के साथ भेजा था वह पूरा न हो सका। रमेश ने उनके बेटे को पढ़ाने के बजाय अपना घरेलू नौकर बनाकर उसका शोषण किया। बेटे के अफसर बनने की आशा चूर-चूर हो गई।  

(2) उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी – कहानी का यह वाक्य—

क. किसके लिए कहा गया है?

उत्तर –  उपर्युक्त वाक्य मोहन के लिए कहा गया है। 

ख. किस प्रसंग में कहा गया है?

उत्तर – जब मोहन ने भट्टी में बैठकर लोहे की मोटी छड़ को हथौड़े से ठोक-पीटकर कुछ ही समय में त्रुटिहीन गोलाई में ढालकर सुडौल बना दिया तब उसकी आँखों में सृजक की चमक थी। 

ग. यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?

उत्तर – यह मोहन की इस चारित्रिक विशेषता को उजागर करता है कि वह जाति को व्यवसाय से नहीं जोड़ता। अपने मित्र की मदद कर वह उदारता का भी परिचय देता है। वह अपनी योग्यता तत्काल सिद्ध कर देता है।

1. गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फ़र्क है? चर्चा करें और लिखें।

उत्तर – गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में ज्यादा कुछ फ़र्क नहीं है। गाँव में उसे गरीबी, साधनहीनता और प्राकृतिक बाधाओं के साथ संघर्ष करना पड़ा तो शहर में उसे दिन-भर नौकरों की भाँति तरह-तरह के घरेलू काम करने पड़े और यहाँ भी उसकी पढ़ाई-लिखाई बाधित ही होती रही।  

2. एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है? अपनी समझ में उनकी खूबियों और खामियों पर विचार करें।

उत्तर – एक अध्यापक के रूप में मास्टर त्रिलोक सिंह एक सामान्य शिक्षक ही हैं। वे एक सामान्य अध्यापक की तरह बच्चों को पढ़ाते हैं। अकेले ही पूरी पाठशाला को चलाते हैं। वे अनुशासन प्रिय शिक्षक है परंतु दंड देने में विश्वास रखते हैं। 

इन सामान्य विशेषताओं के साथ उनमें कुछ बड़ी-बड़ी खामियाँ भी हैं। मास्टरजी के मन में जातिगत भेद-भाव का भाव गहराई से बैठा हुआ था इसलिए वे मोहन जैसे उच्च कुल के बालक को अधिक प्यार और धनराम जैसे नीचे कुल के बालक को धनुवाँ कहकर संबेधित करते हैं और उसके दिमाग में लोहा भरा है जैसे कटु वचन कहने से भी नहीं चूकते जो कि एक शिक्षक की मर्यादा को मटियामेट कर देता है। छात्रों को समान दृष्टि से देखना व सबको प्रोत्साहन देना उनके चरित्र में शायद था ही नहीं।

3. गलता लोहा कहानी का अंत एक खास तरीके से होता है। क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है? चर्चा करें।

उत्तर – गलत लोहा कहानी का अंत हमें सोचने के लिए मज़बूर कर देता है। कहानी के अंत से यह स्पष्ट नहीं होता कि मोहन ने केवल सृजन का सुख लूटा या पुन: अपने खेती के व्यवसाय की ओर मुड़ गया या उसने धनराम का लुहारी पेशा अपना लिया या फिर अपने पिता वंशीधर की तरह पुरोहिताई का काम करने लगा।  

यदि अंत में लेखक उस समय मोहन के पिता को भी वहाँ लाकर खड़ा कर देते तो शायद इस बार मोहन के पिता उसे पुनः शहर भेजकर पढ़ाते-लिखाते और उसे एक मैकेनिकल इंजीनियर बनाते।

1. पाठ में निम्नलिखित शब्द लौहकर्म से संबंधित हैं। किसका क्या प्रयोजन है? शब्द के सामने लिखिए –

1. धौंकनी – धौंकनी से भट्टी में आग तेज़ की जाती है।

2. दराँती – दराँती फसल और घास काटने के काम आती है।

3. सँड़सी – सँड़सी से बड़ी और ठोस वस्तुओं को पकड़ा जाता है। 

4. आफर – आफर लोहे की दुकान को कहा जाता है।

5. हथौड़ा – हथौड़े से ठोस वस्तुओं पर प्रहार किया जाता है।

2. पाठ में काट—छाँटकर जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग हुआ है। कोई पाँच शब्द पाठ में से चुनकर लिखिए और अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।

उत्तर – 1. पहुँचते-पहुँचते – दिल्ली से घर आगरा पहुँचते-पहुँचते रात हो गई। 

2. उलट-पलट – सामान खरीदते समय वस्तु को उलट-पलट कर देखा जाता है। 

3. थका-माँदा – विद्यालय से मोहन बड़ा थका-माँदा लौटा है। 

4. पढ़-लिखकर – हर माता-पिता की यही इच्छा होती कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर उनका नाम रोशन करें। 

5. घूम-फिरकर – इस भूल-भुलैया में हम घूम-फिरकर फिर वहीं लौट आए। 

3. बूते का प्रयोग पाठ में तीन स्थानों पर हुआ है उन्हें छाँटकर लिखिए और जिन संदर्भों में उनका प्रयोग है, उन संदर्भों में उन्हें स्पष्ट कीजिए।

1.   बूढ़े वंशीधर के बूते का अब यह काम नहीं रहा। 

संदर्भ – यहाँ पर ‘बूते‘ शब्द का प्रयोग वंशीधर के ‘सामर्थ्य‘ के संदर्भ में किया गया है कि वृद्ध हो जाने के कारण वंशीधर पुरोहिताई का काम नहीं कर सकते थे।

2.  यही क्या, जन्म-भर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर संसार चलाया, वह भी अब वैसे कहाँ कर पाते हैं! 

संदर्भ – यहाँ पर ‘बूते‘ शब्द का प्रयोग ‘सहारा‘ के संदर्भ में किया गया है कि इसी पुरोहिती के सहारे ही उन्होंने अपने परिवार का भरण-पोषण किया था।

3.  यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं। 

संदर्भ – यहाँ पर ‘बूते‘ शब्द का प्रयोग वंशीधर के ‘शारीरिक क्षमता‘ के संदर्भ में आया है कि बूढ़े हो जाने के कारण इतनी लंबी चढ़ाई चढ़ना उनके वश की बात नहीं रह गई थी। 

4. मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से।

मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ।

मोहन! एक किलो आलू तो ला दे।

ऊपर के वाक्यों में मोहन को आदेश दिए गए हैं। इन वाक्यों में आप सर्वनाम का इस्तेमाल करते हुए उन्हें दुबारा लिखिए।

उत्तर –

1. तुम बाज़ार से थोड़ा दही तो ला दो। 

2. तुम ये कपड़े धोबी को दे आओ। 

3. तुम एक किलो आलू तो ला दो।

विभिन्न व्यापारी अपने उत्पाद की बिक्री के लिए अनेक तरह के विज्ञापन बनाते हैं। आप भी हाथ से बनी किसी वस्तु की बिक्री के लिए एक ऐसा विज्ञापन बनाइए जिससे हस्तकला का कारोबार चले।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

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