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Aaroh Class – XII  Chapter – 12 Jainendra Kumar – Baazar Darshan   जैनेन्द्र कुमार बाज़ार दर्शन (NCERT HINDI Core The Best Solutions)

जन्म  : सन् 1905, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

प्रमुख रचनाएँ  : परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवर्द्धन, मुक्तिबोध (उपन्यास); वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाज़ेब (कहानी-संग्रह); प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच-विचार, समय और हम (विचार-प्रधान निबंध-संग्रह)

प्रमुख पुरस्कार  : साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारत-भारती सम्मान। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित

निधन  : सन् 1990 में

यथार्थ को अंतिम सत्य के रूप में ओढ़कर जो अपने

को विवश मान बैठ सकता है, वही तो असमर्थ है।

पर जिसने स्वप्न के सत्य के दर्शन किए वह

यथार्थ की विकटता से कैसे निरुत्साहित हो सकता है?

हिंदी में प्रेमचंद के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित जैनेंद्र कुमार का अवदान बहुत व्यापक और वैविध्यपूर्ण है। अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से उन्होंने हिंदी में एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा-धारा का प्रवर्तन किया। परख और सुनीता के बाद 1937 में प्रकाशित त्यागपत्र ने इन्हें मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार के रूप में प्रभूत प्रतिष्ठा दिलाई। इसी तरह खेल, पाज़ेब, नीलम देश की राजकन्या, अपना-अपना भाग्य, तत्सत जैसी कहानियों को भी कालजयी रचनाओं के रूप में मान्यता मिली है।

कथाकार होने के साथ-साथ जैनेंद्र की पहचान अत्यंत गंभीर चिंतक के रूप में रही। बहुत सरल एवं अनौपचारिक-सी दिखनेवाली शैली में उन्होंने समाज, राजनीति, अर्थनीति एवं दर्शन से संबंधित गहन प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश की है। अपनी गांधीवादी चिंतन-दृष्टि का जितना सुष्ठु एवं सहज उपयोग वे जीवन-जगत से जुडे़ प्रश्नों के संदर्भ में करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है और वह इस बात का सबूत पेश करता है कि गांधीवाद को उन्होंने कितनी गहराई से हृदयंगम किया है।

बाज़ार दर्शन जैनेंद्र का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है, जिसमें गहरी वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का दुर्लभ संयोग देखा जा सकता है। हिंदी में उपभोक्तावाद एवं बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा पिछले एक-डेढ़ दशक पहले ही शुरू हुई है, पर कई दशक पहले लिखा गया जैनेंद्र का लेख आज भी इनकी मूल अंतर्वस्तु को समझाने के मामले में बेजोड़ है। वे अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाज़ार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। अगर हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाज़ार का उपयोग करें, तो उसका लाभ उठा सकते हैं। लेकिन अगर हम ज़रूरत को तय कर बाज़ार में जाने के बजाय उसकी चमक-दमक में फँस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता है। इस मूलभाव को जैनेंद्र कुमार ने भाँति-भाँति से समझाने की कोशिश की है। कहीं दार्शनिक अंदाज़ में, तो कहीं किस्सागो की तरह। इसी क्रम में केवल बाज़ार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को उन्होंने अनीतिशास्त्र बताया है।

प्रतिपादय- ‘बाजार दर्शन’ निबंध में गहरी वैचारिकता व साहित्य के सुलभ लालित्य का संयोग है। कई दशक पहले लिखा गया यह लेख आज भी उपभोक्तावाद व बाजारवाद को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाजार की जादुई ताकत मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाजार की चमक-दमक में फँसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईष्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। लेखक ने कहीं दार्शनिक अंदाज में तो कहीं किस्सागोई की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश की है। इस क्रम में इन्होंने केवल बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र बताया है।

लेखक अपने मित्र की कहानी बताते हैं कि एक बार वे बाजार में मामूली चीज लेने गए, परंतु वापस बंडलों के साथ लौटे। लेखक के पूछने पर उन्होंने पत्नी को दोषी बताया। लेखक के अनुसार, पुराने समय से पति इस विषय पर पत्नी की ओट लेते हैं। इसमें मनीबैग अर्थात् पैसे की गरमी भी विशेष भूमिका अदा करता है। पैसा पावर है, परंतु उसे प्रदर्शित करने के लिए बैंक बैलेंस, मकान कोठी आदि इकट्ठा किया जाता है। पैसे की पर्चेजिंग पावर के प्रयोग से आदमी को अपने पावर का रस मिलता है। दूसरी तरफ़ लोग संयमी भी होते हैं। वे पैसे को जोड़ते रहते हैं तथा पैसे के जुड़ा होने पर स्वयं को गर्वीला महसूस करते हैं। लेखक के मित्र ने लेखक को बताया कि सारा पैसा खर्च हो गया। मित्र की अधिकतर खरीद पर्चेजिंग पावर के अनुपात से आई थी, न कि जरूरत के हिसाब से। लेखक कहता है कि फालतू चीज की खरीद का प्रमुख कारण बाजार का आकर्षण है। मित्र ने इसे शैतान का जाल बताया है। यह आकर्षण ऐसा होता है कि बेहया ही हो जो इसमें नहीं फँसता। बाजार अपने रूपजाल में सबको उलझाता है। इसके आमंत्रण में आग्रह नहीं है। ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है। यह इच्छा जगाता है। हर आदमी को चीज की कमी महसूस होती है। चाह और अभाव मनुष्य को पागल कर देता है। असंतोष, तृष्णा व ईर्ष्या से मनुष्य सदा के लिए बेकार हो जाता है।

लेखक का दूसरा मित्र दोपहर से पहले बाजार गया तथा शाम को खाली हाथ वापस आ गया। पूछने पर बताया कि बाजार में सब कुछ लेने योग्य था, परंतु कुछ भी न ले पाया। एक वस्तु लेने का मतलब था, दूसरी छोड़ देना। अगर अपनी चाह का पता नहीं तो सब ओर की चाह हमें घेर लेती है। ऐसे में कोई परिणाम नहीं होता। बाजार में रूप का जादू है। यह तभी असर करता है जब जेब भरी हो तथा मन खाली हो । यह मन व जेब के खाली होने पर भी असर करता है। खाली मन को बाजार की चीजें निमंत्रण देती हैं। सब चीजें खरीदने का मन करता है।

जादू उतरते ही फैंसी चीजें आराम नहीं, खलल ही डालती प्रतीत होती हैं। इससे स्वाभिमान व अभिमान बढ़ता है। जादू से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि बाजार जाते समय मन खाली न रखो। मन में लक्ष्य हो तो बाजार आनंद देगा। वह आपसे कृतार्थ होगा । बाजार की असली कृतार्थता है- आवश्यकता के समय काम आना।

हमें मन को नियंत्रित रखना चाहिए। मन खाली रखने का मतलब मन बंद नहीं करना है। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। मनुष्य अपूर्ण है। मनुष्य इच्छाओं का निरोध नहीं कर सकता। यह लोभ को जीतना नहीं है, बल्कि लोभ की जीत है। मन को बलात् बंद करना हठयोग है। वास्तव में मनुष्य को अपनी अपूर्णता स्वीकार कर लेनी चाहिए। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अत: मन की भी सुननी चाहिए क्योंकि वह भी उद्देश्यपूर्ण है। मनमानेपन को छूट नहीं देनी चाहिए।

लेखक के पड़ोस में भगत जी रहते थे। वे लंबे समय से चूरन बेच रहे थे। चूरन उनका सरनाम था। वे प्रतिदिन छह आने पैसे से अधिक नहीं कमाते थे। वे अपना चूरन थोक व्यापारी को नहीं देते थे और न ही पेशगी ऑर्डर लेते थे। छह आने पूरे होने पर वे बचा चूरन बच्चों को मुफ़्त बाँट देते थे। वे सदा स्वस्थ रहते थे। उन पर बाजार का जादू नहीं चल सकता था। वे निरक्षर थे। बड़ी-बड़ी बातें जानते नहीं थे। उनका मन अडिग रहता था। पैसा भीख माँगता है कि मुझे लो। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। पैसे में व्यंग्य शक्ति होती है। पैदल व्यक्ति के पास से धूल उड़ाती मोटर चली जाए तो व्यक्ति परेशान हो उठता है। वह अपने जन्म तक को कोसता है कि काश मैं गरीब घर में पैदा न होकर अमीर घर में पैदा हुआ होता, परंतु यह व्यंग्य चूरन वाले व्यक्ति पर कोई असर नहीं करता। लेखक ऐसे बल के विषय में कहता है कि यह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। कुछ लोग इसे आत्मिक, धार्मिक व नैतिक कहते हैं।

लेखक कहता है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। एक दिन बाजार के चौक में भगत जी व लेखक की राम-राम हुई। उनकी आँखें खुली थीं। वे सबसे मिलकर बात करते हुए जा रहे थे। लेकिन वे भौचक्के नहीं थे और ना ही वे किसी प्रकार से लाचार थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा था किंतु उनको मात्र अपनी जरूरत की चीज से मतलब था। वे रास्ते के फैंसी स्टोरों को छोड़कर पंसारी की दुकान से अपने काम की चीजें लेकर चल पड़ते हैं। अब उन्हें बाजार शून्य लगता है। फिर चाँदनी बिछी रहती हो या बाजार के आकर्षण बुलाते रहें, वे उसका कल्याण ही चाहते हैं।

लेखक का मानना है कि बाजार को सार्थकता वह मनुष्य देता है जो अपनी जरूरत को पहचानता है। जो केवल पर्चेजिंग पॉवर के बल पर बाजार को व्यंग्य दे जाते हैं, वे न तो बाजार से लाभ उठा सकते हैं और न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। ये कपट को बढ़ाते हैं जिससे सद्भाव घटता है। सद्भाव नष्ट होने से ग्राहक और बेचक रह जाते हैं। वे एक-दूसरे को ठगने की घात में रहते हैं। ऐसे बाजारों में व्यापार नहीं, शोषण होता है। कपट सफल हो जाता है तथा बाजार मानवता के लिए विडंबना है और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औधा है, वह मायावी शास्त्र है, वह अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र है।

एक बार की बात कहता हूँ। मित्र बाज़ार गए तो थे कोई एक मामूली चीज़ लेने पर लौटे तो एकदम बहुत-से बंडल पास थे।

मैंने कहा – यह क्या?

बोले – यह जो साथ थीं।

उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ूँ ? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी।

पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेज़िंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।

मैंने कहा – यह कितना सामान ले आए!

मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया, कहा – यह देखिए। सब उड़ गया, अब जो रेल-टिकट के लिए भी बचा हो!

मैंने तब तय माना कि और पैसा होता और सामान आता। वह सामान ज़रूरत की तरफ़ देखकर नहीं आया, अपनी ‘पर्चेज़िंग पावर’ के अनुपात में आया है।

लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक और भी महत्त्व का तत्त्व है, जिसे नहीं भूलना चाहिए। उसका भी इस करतब में बहुत-कुछ हाथ है। वह महत्त्व है, बाज़ार। मैंने कहा – यह इतना कुछ नाहक ले आए!   मित्र बोले – कुछ न पूछो। बाज़ार है कि शैतान का जाल है? ऐसा सजा-सजाकर माल रखते हैं कि बेहया ही हो जो न फँसे।

मैंने मन में कहा, ठीक। बाज़ार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़ है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाज़ार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!

कोई अपने को न जाने तो बाज़ार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।        एक और मित्र की बात है। यह दोपहर के पहले के गए-गए बाज़ार से कहीं शाम को वापिस आए। आए तो खाली हाथ!

मैंने पूछा – कहाँ रहे?

बोले – बाज़ार देखते रहे।

मैंने कहा – बाज़ार को देखते क्या रहे?

बोले – क्यों?

बाज़ार! तब मैंने कहा – लाए तो कुछ नहीं!

बोले – हाँ पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या? सभी कुछ तो लेने को जी होता था। कुछ लेने का मतलब था शेष सब-कुछ को छोड़ देना। पर मैं कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता था। इससे मैं कुछ भी नहीं ले सका।

मैंने कहा – खूब!

पर मित्र की बात ठीक थी। अगर ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हो तो सब ओर की चाह तुम्हें घेर लेगी। और तब परिणाम त्रास ही होगा, गति नहीं होगी, न कर्म।

बाज़ार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुंबक  का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाज़ार की अनेकानेक चीज़ों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान ज़रूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फ़ैंसी चीज़ों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को ज़रूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान की गिल्टी की और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी?

पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाज़ार जाओ तो खाली मन न हो। मन खाली हो, तब बाज़ार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाज़ार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाज़ार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाज़ार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना।

यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत ज़रूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ट्टइच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दीखना बंद हो जाएगा? क्या आँख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठवाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूँदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई वही हो सकता है जो बलात् मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, खुद कुल नहीं है।

पड़ोस में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगत जी कहते हैं। चूरन बेचते हैं। यह काम करते, जाने उन्हें कितने बरस हो गए हैं। लेकिन किसी एक भी दिन चूरन से उन्होंने छः आने पैसे से ज़्यादा नहीं कमाए। चूरन उनका आस-पास सरनाम है। और खुद खूब लोकप्रिय हैं। कहीं व्यवसाय का गुर पकड़ लेते और उस पर चलते तो आज खुशहाल क्या मालामाल होते! क्या कुछ उनके पास न होता! इधर दस वर्षों से मैं देख रहा हूँ, उनका चूरन हाथों-हाथ बिक जाता है। पर वह न उसे थोक देते हैं, न व्यापारियों को बेचते हैं। पेशगी आर्डर कोई नहीं लेते। बँधे वक्त पर अपनी चूरन की पेटी लेकर घर से बाहर हुए नहीं कि देखते-देखते छह आने की कमाई उनकी हो जाती है। लोग उनका चूरन लेने को उत्सुक जो रहते हैं। चूरन से भी अधिक शायद वह भगत जी के प्रति अपनी सद्भावना का देय देने को उत्सुक रहते हैं। पर छह आने पूरे हुए नहीं कि भगतजी बाकी चूरन बालकों को मुफ़्त बाँट देते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी दे सके। कभी चूरन में लापरवाही नहीं हुई है, और कभी रोग होता भी मैंने उन्हें नहीं देखा है।

और तो नहीं, लेकिन इतना मुझे निश्चय मालूम होता है कि इन चूरनवाले भगत जी पर बाज़ार का जादू नहीं चल सकता।

कहीं आप भूल न कर बैठिएगा। इन पंक्तियों को लिखने वाला मैं चूरन नहीं बेचता हूँ। जी नहीं, ऐसी हलकी बात भी न सोचिएगा। यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरन वाले को श्रेष्ठ बताने की मैं हिम्मत कर सकता हूँ। क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर-ज्ञान तक भी है या नहीं । और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम-आप न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीज़ आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाज़ार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग रहता है। पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य-शक्ति कुछ भी चलती होगी? क्या वह शक्ति कुंठित रहकर सलज्ज ही न हो जाती होगी?

पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि ज़रा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है।

लेकिन क्या लोकवैभव की यह व्यंग्य-शक्ति उस चूरन वाले अकिंचित्कर मनुष्य के आगे चूर-चूर होकर ही नहीं रह जाती? चूर-चूर क्यों, कहो पानी-पानी।

तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय ही नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की क्रूरता को ही पिघला देता है?

उस बल को नाम जो दो पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैंआत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।

एक बार चूरन वाले भगत जी बाज़ार चौक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया। मैंने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाज़ार को किसी भाँति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक-बाज़ार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं। लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए-से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख, तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाज़ार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते । रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम की चीज़ लीं, और चले आते हैं। बाज़ार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाज़ार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ-बाएँ भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चाँदनी बिछी रहती है तो बड़ी खुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं।

यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ट्टपर्चेंजिग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति – शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी। इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाज़ार का, बल्कि इतिहास का; सत्य माना जाता है ऐसे बाज़ार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाज़ार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाज़ार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है।

1.  आशय- मतलब

2.  महिमा- महत्ता

3.  माया- आकर्षण

4.  ओट- सहारा

5.  करतब- कला

6.  बेहया- बेशर्म

7.  हरज़- नुकसान

8.  आग्रह- खुशामद

9.  तिरस्कार- अपमान

10.  मूक- मौन

11.  परिमित- सीमित

12.  अतुलित- अपार

13.  विकल- व्याकुल

14.  तृष्णा- प्यास

15.  त्रास- दुख

16.  ईर्ष्या- जलन

17.   अनेकानेक- बहुत अधिक

18.   बहुतायत- अधिक आयात (Import)

19.   सेंक- तपन

20.   खुराक- भोजन

21.   कृतार्थ- अनुगृहीत

22.   सनातन- जो हमेशा रहे

23.   अकारथ- व्यर्थ, बेकार

24.   संकीर्ण- तंग, Narrow

25.   बलात्- बलपूर्वक

26.   अखिल- संपूर्ण

27.   अप्रयोजनीय – बिना मतलब का

28.   सरनाम- प्रसिद्ध

29.   पेशगी- अग्रिम राशि, Advance

30.   नाचीज़- तुच्छ, छोटा

31.    अपदार्थ- महत्त्वहीन

32.    दारुण- भयंकर

33.    लीक- रेखा

34.    कृतघ्न- एहसान न मानने वाला

35.    अपर- दूसरा

36.    प्रतिपादन- वर्णन

37.    सरोकार- मतलब

38.    स्पृहा- इच्छा

39.    अबलता- कमज़ोरी

40.    कोसना- गालीदेना

41.    अभिवादन- नमस्कार

42.  गाहक- ग्राहक, Customer

1. बाज़ार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?

उत्तर – बाजार के जादू के वश में पड़ने पर व्यक्ति को हर चीज आवश्यक एवं आराम में मदद डालने वाली प्रतीत होती है। वह अनावश्यक चीजें भी खरीदने लगता है। वह अपना विवेक खो बैठता है और पर्चेसिंग पावर दिखाने के चक्कर में फिजूलखर्ची करता है। बाद में उसे पछतावा होता है कि ये वस्तुएँ उसे आराम देने की बजाय आराम में खलल ही डाल रही हैं। सुविधा देने वाली चीज़ें दुविधा का कारण बन जाती हैं।

2. बाज़ार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनका आचरण समाज में शांति-स्थापित करने में मददगार हो सकता है?

उत्तर – भगतजी का मन विवेक और लक्ष्य से भरा है। भगतजी को पता है कि उन्हें क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए। बाजार के जादू का कोई प्रभाव उनके ऊपर नहीं होता। अगर भगतजी को जीरा और काला नमक चाहिए तो वह बाजार के पंसारी (राशन) की दुकान पर चले जाते हैं और वही लेकर आते हैं। रास्ते में चौक बाजार की सजावट, चमक-दमक आदि में फँसकर अनावश्यक सामान वे नहीं खरीदते। उनके व्यवहार में कोई असमंजस नहीं है। सब के प्रति उनके मन में आशीर्वाद एवं संतुष्टि ही है।

भगत जी जैसे संयमी व्यक्ति का आचरण निश्चय ही समाज में शांति स्थापित करने के लिए सहायक है। बाजार के जादू में फँसने का अर्थ है बाजारूपन को बढ़ावा देना, समाज में कपट एवं अनाचार का बढ़ना। व्यक्ति यदि आवश्यकता के अनुसार खरीदारी करेंगे, तो बाजार सार्थक प्रतीत होगा। समाज में संतोष एवं शांति की स्थापना होगी।

3. ‘बाज़ारूपन’ से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें है?

उत्तर – बाजारूपन का आशय है – बाजार से जुड़े छल कपट, ऊपरी चमक-दमक एवं दिखावा। बाजार में चीजों को आकर्षक ढंग से सजा कर लोगों के अंदर चाहत जगाना, ग्राहकों को लुभाना एवं ठगना बाजारूपन है। अनावश्यक खरीदारी एवं फिजूलखर्ची इसका परिणाम है। वही व्यक्ति जिसके अंदर संयम और विवेक होता है बाजार को सार्थकता प्रदान करता है, क्योंकि वह जनता है कि  उसे क्या चाहिए। बाजार की सार्थकता आवश्यकता के समय ग्राहकों को उचित मूल्यों पर सही वस्तुएँ उपलब्ध कराने में है।

4. बाज़ार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता; वह देखता है सिर्फ़ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?

उत्तर – बाज़ार को किसी की लिंग, धर्म या जाति से कोई लेना-देना नहीं होता है उसके लिए तो हर कोई केवल और केवल ग्राहक है जो उसे कुछ न कुछ देकर जाएगा। इस प्रकार यदि हम बारीकी से देखें तो बाज़ार एक प्रकार की सामाजिक समता की रचना करता है जिसमें केवल पैसे का ही बोलबाला है। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ क्योंकि आज हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र जैसे- पढ़ाई, नौकरी, चिकित्सा, आवास, राजनीति, धार्मिक स्थल आदि स्थलों में किसी न किसी रूप से भेदभाव देखते हैं पर बाज़ार के क्षेत्र में नहीं।

5. आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें –

(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।

उत्तर – जब बड़ा से बड़ा अपराधी अपने पैसे की शक्ति से निर्दोष साबित हो जाता है और मज़लूम मुँह ताकता रह जाता है तब मुझे पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत होता है।

(ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।

उत्तर – जब मौत आती हैं तब धनी से धनी व्यक्ति भी अपनी मौत को पैसे के बल पर टाल नहीं पाता।

1. बाज़ार दर्शन पाठ में बाज़ार जाने या न जाने के संदर्भ में मन की कई स्थितियों का ज़िक्र आया है। आप इन स्थितियों से जुडे़ अपने अनुभवों का वर्णन कीजिए।

(क) मन खाली हो

उत्तर – ‘मन खाली होने’ से अभिप्राय है – मन में किसी निश्चित इच्छा का न होना अर्थात् निश्चित लक्ष्य न होना। हम जब बाज़ार जाते हैं तो यदि हमारे मन में कोई सामान खरीदने की इच्छा ही नहीं है तो हमारे बाज़ार जाने का कोई औचित्य नहीं है। यदि ऐसी स्थिति में हम बाज़ार जाते हैं तो बाज़ार के आकर्षण में फँसना स्वाभाविक है।

(ख) मन खाली न हो

उत्तर – ‘मन खाली न हो’ से अभिप्राय है – बाज़ार जाते समय मन में पहले से ही सामान खरीदने हेतु इच्छाएँ होना। ऐसी स्थिति में हमारे मन में पहले से ही सामान की सूची होती है तथा हम केवल आवश्यक सामान ही खरीदते हैं और हमारा ध्यान अन्य वस्तुओं पर नहीं जाता।

(ग) मन बंद हो

उत्तर – यदि हमारा मन बंद होगा तो हम शून्य बन जाएँगे जबकि शून्य केवल परमात्मा हैं। वह संपूर्ण है बाकी सब अपूर्ण है। इसीलिए सामान्य मनुष्यों का मन बंद नहीं रह सकता।

(घ) मन में नकार हो

उत्तर – जब हम बाज़ार जाते हैं तो हमें बाज़ार चारों तरफ से सुंदर, सुसज्जित एवं आकर्षक प्रतीत होता है। वह हमें अपने आकर्षण जाल में फँसा लेना चाहता है। लेकिन यदि हमारे मन में ‘नकार’ का भाव हो तो बाज़ार चाह कर भी हमें अपने आकर्षण जाल में फँसा नहीं सकता।

2. बाज़ार दर्शन पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं?

उत्तर – ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में लेखक ने कई प्रकार के ग्राहकों का वर्णन किया है–

-खाली मन व भरी जेब वाले ग्राहक।

-खाली मन व खाली जेब वाले ग्राहक।

-भरे मन वाले ग्राहक।

-मितव्ययी व संयमी  ग्राहक।

-अपव्ययी व असंयमी ग्राहक।

-पेर्चेज़िंग पावर का प्रदर्शन करने वाले ग्राहक।

-ऐसे ग्राहक जिन पर बाज़ार के आकर्षण और सौंदर्य का कोई कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

मैं अपने आपको मितव्ययी व संयमी तरीके का ग्राहक मानता हूँ क्योंकि मैंने कभी भी अपव्यय नहीं किया।

3. आप बाज़ार की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और  सामान्य बाज़ार और हाट की संस्कृति में आप क्या अंतर पाते हैं? पर्चेज़िंग पावर आपको किस तरह के बाज़ार में नज़र आती है?

उत्तर – मॉल की संस्कृति – यह संस्कृति उच्च तथा उच्च मध्य वर्ग से संबंधित है। जहाँ ग्राहकों को प्रत्येक सामान एक ही स्थान पर प्राप्त हो जाता है। यहाँ बाज़ारूपन भी पूरे उफान पर होता है।

सामान्य बाज़ार – यहाँ ग्राहकों को प्रतिदिन के व्यवहार में प्रयोग की जाने वाली सामान्य वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। यहाँ शोषण कम होता है तथा आकर्षण भी कम होता है। यहाँ का ग्राहक मध्यवर्गीय होता है तथा ग्राहक और दुकानदार दोनों में सद्भाव होता है।

हाट की संस्कृति  – इसमें निम्नवर्ग व ग्रामीण परिवेश के ग्राहक होते हैं। जहाँ ग्राहक की इच्छा-पूर्ति का भरपूर ख्याल होता है। प्रत्येक दुकानदार ग्राहक को अपना बनाना चाहता है इसलिए मोल-भाव भी नाम-मात्र का होता है। चूँकि यह किसी विशेष स्थान का साप्ताहिक बाज़ार होता है इसलिए ग्राहक हफ्ते भर का सामान भी खरीद लेते हैं।  

अत: मुझे ‘पर्चेज़िंग पावर’ मॉल संस्कृति में नज़र आती है क्योंकि यहाँ गैरज़रूरत का सामान भी अधिक मूल्य देकर खरीदा जाता है।

4. लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी-कभी बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।

उत्तर – मैं इस विचार से पूर्णत: सहमत हूँ कि कभी-कभी बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। आमतौर पर देखा जाता है कि जब व्यक्ति को किसी वस्तु की अधिक आवश्यकता होती है, तो उस वस्तु को पाने के लिए वह बाज़ार में दुकानदार के पास जाता है। बाज़ार में दुकानदार ग्राहक की मानसिकता को जान  लेता है और उस वस्तु के दाम बढ़ा-चढ़ा कर बोलता है। ग्राहक को भी उस वस्तु की अत्यधिक आवश्यकता होती है इसलिए वह भी दुकानदार के मनचाहे मूल्य पर उस वस्तु को खरीदने पर मज़बूर हो जाता है। प्याज़, टमाटर, लहसुन जैसी खाद्य सामग्री और कोरोना काल के दौरान हैंडवाश, सेनीटाइजर और रेम्डेशिवर टीका इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

5. स्त्री माया न जोड़े यहाँ माया शब्द किस ओर संकेत कर रहा है? स्त्रियों द्वारा माया जोड़ना प्रकृति प्रदत्त नहीं, बल्कि परिस्थितिवश है। वे कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जो स्त्री को माया जोड़ने के लिए विवश कर देती हैं?

उत्तर – यहाँ पर ‘माया’ शब्द धन-संपत्ति की ओर संकेत करता है। आमतौर पर स्त्रियाँ ही माया जोड़ती देखी जाती हैं, परंतु उनका माया जोड़ने के पीछे अनेक कारण होते हैं जैसे – एक स्त्री के सामने घर-परिवार सुचारू रूप से चलाने की, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की, असमय आने वाले संकट की, संतान के विवाह की, रिश्ते नातों को निभाने की ज़िम्मेदारियाँ आदि अनेक परिस्थितियाँ आती हैं जिनके कारण वे माया जोड़ती हैं।

1. विभिन्न परिस्थितियों में भाषा का प्रयोग भी अपना रूप बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ में से दोनों प्रकार के तीन-तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।

उत्तर – औपचारिक रूप

1. पैसा पावर है।

2. बाज़ार में एक जादू है।

3. एक बार की बात कहता हूँ।

अनौपचारिक रूप

1. बाज़ार है कि शैतान का जाल।

2. उस महिमा का मैं कायल हूँ।

3. पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है।

2. पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक अपनी बात कहता है कुछ वाक्य ऐसे है जहाँ वह पाठक-वर्ग को संबोधित करता है। सीधे तौर पर पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक से रचना पढ़वा लेने में मददगार होते हैं?

उत्तर – 1. पानी भीतर हो तो लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है।

2. लू में जाना तो पानी पीकर जाना।

3. बाज़ार आमंत्रित करता है कि आओ, मुझे लूटो और लूटो।

4. परंतु पैसे की व्यंग शक्ति की सुनिए।

5. कहीं आप भूल न कर बैठिएगा।

3. नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए।

(क) पैसा पावर है।

(ख) पैसे की उस पर्चेज़िंग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।

(ग) मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया।

(घ) पेशगी ऑर्डर कोई नहीं लेते।

ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा की है लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेज़ी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को कोड मिक्सिंग कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल! अब तक आपने जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए। यह भी बताइए कि आगत शब्दों की जगह उनके हिंदी पर्यायों का ही प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर क्या प्रभाव पड़ता है।

उत्तर – 1. लोग स्पिरिचुअल कहते हैं।

2. ‘पर्चेज़िंग पावर’ के अनुपात में आया है।

3. राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं।

4.  बचपन के कुछ फ्रॉक तो मुझे अब तक याद है।

5. वहाँ के लोग उम्दा खाने के शौक़ीन है।

4. नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए उन्हें पढ़िए –

(क) निर्बल ही धन की ओर झुकता है।

(ख) लोग संयमी भी होते हैं।

(ग) सभी कुछ तो लेने को जी होता था।

ऊपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश ‘ही’, ‘भी’,’तो’ निपात हैं जो अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने-न-होने और स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता है, जैसे –

मुझे भी किताब चाहिए। (मुझे महत्त्वपूर्ण है।)

मुझे किताब भी चाहिए। (किताब महत्त्वपूर्ण है।)

आप निपात (ही, भी, तो) का प्रयोग करते हुए तीन-तीन वाक्य बनाइए। साथ ही ऐसे दो वाक्यों का भी निर्माण कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आते हों।

उत्तर – ‘ही’ निपात का प्रयोग –

1. मैं मेला जाकर ही रहूँगा।

2. मुझे फ़िल्म देखनी ही है।

3. मैं जल्दी ही आ जाऊँगा।

‘भी’ निपात का प्रयोग –

1. मैं भी जाऊँगा।

2. मुझे भी तुम्हारे साथ जाना चाहिए।

3. पिछले सप्ताह मैं भी भुवनेश्वर गया था।

‘तो’ निपात का प्रयोग –

1. मुझे तो पता होना चाहिए।

2. अभी तो बहुत काम पड़ा है।

3. मेरी तो कोई नहीं सुनता।

तीनों निपातों का प्रयोग –

1. आप मॉल गए ही क्यों, सुधीर भी तो जा चुका है।

2. मैं तो घर से निकला ही था कि रमा भी मिल गई।

3. सुनीता भी तो हमारे साथ ही जाएगी।

1. नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा-प्रयोगों 1. ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है –  भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ति से तुलना कीजिए – 

चाह गई चिंता गई मनुआँ बेपरवाह

जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह।

 – कबीर

उत्तर – कबीर जी का यह दोहा भगत जी की संतुष्टि और निस्पृहता पर पूर्णतया लागू होता है। कबीर का कहना था कि इच्छा समाप्त होने पर चिंता खत्म हो जाती है। वास्तव में शहंशाह वही होता है, जिसे कुछ नहीं चाहिए। भगत जी भी ऐसे ही व्यक्ति हैं। इनकी ज़रूरतें भी सीमित हैं, वे बाज़ार के आकर्षण से भी दूर हैं और अपनी ज़रूरत पूरी होने पर वे संतुष्ट हो जाते हैं।

2. विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (जिस पर ‘पहेली’ फ़िल्म बनी है) के अंश को पढ़ कर आप देखेंगे/देखेंगी कि भगत जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही गड़रिए की जीवन-दृष्टि है, इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं?

गड़रिया बगैर कहे ही उस के दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नहीं की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला –  ‘मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकालदिया। और यह अँगूठी मेरे किस काम की! न यह अँगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूँघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।’

 – विजयदान देथा

उत्तर – यह अंश मुझे यह बताता है कि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ बहुत ही कम होती हैं। मनुष्य अपने मन के वश में आकर चीजों को अधिकाधिक बटोरने की चाह में लिप्त हो जाता है।

3. बाज़ार पर आधारित लेख नकली सामान पर नकेल ज़रूरी का अंश पढ़िए और नीचे दिए गए बिंदुओं पर कक्षा में चर्चा कीजिए।

(क) नकली सामान के खिलाफ़ जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं?

(ख) उपभोक्ताओं के हित को मद्देनज़र रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का क्या नैतिक दायित्व हैं?

(ग) ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए?

नकली सामान पर नकेल ज़रूरी

अपना क्रेता वर्ग बढ़ाने की होड़ में एफएमसीजी यानी तेज़ी से बिकने वाले उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियाँ गाँव के बाज़ारों में नकली सामान भी उतार रही हैं। कई उत्पाद ऐसे होते हैं जिन पर न तो निर्माण तिथि होती है और न ही उस तारीख का ज़िक्र होता है जिससे पता चले कि अमुक सामान के इस्तेमाल की अवधि समाप्त हो चुकी है। आउटडेटेड या पुराना पड़ चुका सामान भी गाँव-देहात के बाज़ारों में खप रहा है। ऐसा उपभोक्ता मामलों के जानकारों का मानना है। नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिडे्रेसल कमीशन के सदस्य की मानें तो जागरूकता अभियान में तेज़ी लाए बगैर इस गोरखधंधे पर लगाम कसना नामुमकिन है। उपभोक्ता मामलों की जानकार पुष्पा गिरि माँ जी का कहना है, ‘इसमें दो राय नहीं कि गाँव-देहात के बाज़ारों में नकली सामान बिक रहा है। महानगरीय उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में कसकर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, खासकर ज़्यादा उत्पाद बेचने वाली कंपनियाँ, गाँव का रुख कर चुकी हैं। वे गाँववालों के अज्ञान और उनके बीच जागरूकता के अभाव का पूरा फ़ायदा उठा रही है। उपभोक्ताओं की रक्षा के लिए कानून ज़रूर हैं लेकिन  कितने लोग इनका सहारा लेते हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं। गुणवत्ता के मामले में जब शहरी उपभोक्ता ही उतने सचेत नहीं हो पाए हैं तो गाँव वालों से कितनी उम्मीद की जा सकती है। इस बारे में नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिडे्रेसल कमीशन के सदस्य जस्टिस एस. एन. कपूर का कहना है, ‘टीवी ने दूर-दराज़ के गाँवों तक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पहुँचा दिया है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ विज्ञापन पर तो बेतहाशा पैसा खर्च करती हैं लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता को लेकर वे चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं। नकली सामान के खिलाफ़ जागरूकता पैदा करने में स्कूल और कॉलेज के विघार्थी मिलकर ठोस काम कर सकते हैं। ऐसा कि कोई प्रशासक भी न कर पाए।’ बेशक, इस कड़वे सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि गुणवत्ता के प्रति जागरूकता के लिहाज़ से शहरी समाज भी कोई ज़्यादा सचेत नहीं है। यह खुली हुई बात है कि किसी बड़े ब्रांड का लोकल संस्करण शहर या महानगर का मध्य या निम्नमध्य वर्गीय उपभोक्ता भी खुशी-खुशी खरीदता है। यहाँ जागरूकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह ऐसा सोच-समझकर और अपनी जेब की हैसियत को जानकर ही कर रहा है। फिर गाँववाला उपभोक्ता ऐसा क्योंकर न करे। पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यदि समाज में कोई गलत काम हो रहा है तो उसे रोकने के जतन न किए जाएँ। यानी नकली सामान के इस गोरखधंधे पर विराम लगाने के लिए जो कदम या अभियान शुरू करने की ज़रूरत है वह तत्काल हो।

 – हिंदुस्तान 6 अगस्त 2006, साभार

4. प्रेमचंद की कहानी ईदगाह के हामिद और उसके दोस्तों का बाज़ार से क्या संबंध बनता है? विचार करें।

उत्तर – हामिद और उसके मित्र ईदगाह के मेले में गए थे, जहाँ वे तरह-तरह की सुंदर वस्तुओं, उपयोगी वस्तुओं और खाने-पीने की वस्तुओं को देखते रहे। उनके पास पैसे थे – किसी के पास अधिक तो किसी के पास कम। उन्होंने पैसों के आधार पर वस्तुओं की उपयोगिता को परखा था। हामिद ने उपयोगी सामान चिमटा खरीदा तो उसके मित्रों ने अपने मन की इच्छा के अनुसार खिलौने खरीदे, मिठाइयाँ खाई और झूले झूले।

1. आपने समाचारपत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता है। नीचे लिखे बिंदुओं के संदर्भ में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह भी लिखिए कि आपको विज्ञापन की किस बात ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया।

1. विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय-वस्तु

उत्तर – ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए के लिए विज्ञापन में वस्त्रों के सुंदर- सुंदर चित्र दिए गए हैं और फैशन के नाम पर लोग कुछ भी करने को तैयार हैं।   

2. विज्ञापन में आए पात्र व उनका औचित्य

उत्तर – विज्ञापन में कोई पात्र तो नहीं परंतु दर्शाए गए आधुनिक कपड़ों के चित्र और कीमतों पर आकर्षक छूट ही ग्राहकों का ध्यान खींचने में समर्थ हैं।

3. विज्ञापन की भाषा

उत्तर – विज्ञापन की भाषा सरल, सरस और सुबोध है। आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग होने के कारण जन सामान्य के लिए यह ग्राह्य बन पड़ी है।  

2. अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए आज किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए। आप स्वयं किस तकनीक या तौर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह भी न हो।

उत्तर – आजकल अपने सामान की बिक्री बढ़ाने के लिए यूट्यूब विज्ञापन, फेसबुक विज्ञापन का भरपूर सहारा लिया जा रहा है साथ ही था बड़े-बड़े शहरों में कुछ कंपनियाँ अपने उत्पाद के प्रचारार्थ पब्लिक ट्रांसपोर्ट के पीछे बैनर और एलईडी स्क्रीन पर भी विज्ञापन चलवाती है। रिहायशी इलाकों के घरों के प्रथम प्रवेश द्वार में कंपनियों द्वारा कुछ बैनर लटका दिए जाते हैं जिसमें उनके उत्पाद के नाम सहित घर संख्या लिखिए रहती है जिससे कंपनी और घर मालिक दोनों का लाभ होता है।

मैं अपने उत्पाद के प्रचारार्थ हेतु यूट्यूब विज्ञापन, फेसबुक विज्ञापन और कुछ बड़े-बड़े शख्शियतों का सहारा लूँगा जो इंटरनेट पर काफी प्रसिद्ध हो चुके हैं।

1. पर्चेज़िंग पावर से क्या अभिप्राय है?

बाज़ार की चकाचौंध से दूर पर्चेज़िंग पावर का सकारात्मक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है?  आपकी मदद के लिए संकेत दिया जा रहा है –

(क) सामाजिक विकास के कार्यों में।

उत्तर – यदि हम कुछ कूड़ेदान खरीद लें और उसे गली के नुक्कड़ पर रख दें तो सफ़ाई के क्षेत्र में ये अच्छा आगाज़ हो सकता है।

(ख) ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में…।

उत्तर – यदि हम कुछ स्लेट, पैंसिल, कॉपी किताबें खरीद लें और उसे गाँव के बच्चों में वितरित कर दें तो उनके पढ़-लिख जाने से गाँव की आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है।

बहुविकल्पी प्रश्न

प्रश्न-1 बाजार के जादू का प्रभाव कब अधिक पड़ता है?

(क) जब ग्राहक का मन भरा होता है

(ख) जब ग्राहक का मन खाली होता है

(ग) जब ग्राहक खुश होता है

(घ) जब ग्राहक दुखी होता है

उत्तर- (ख) जब ग्राहक का मन खाली होता है

प्रश्न-2 बाजार के जादू के प्रभाव से बचने का सबसे सरल उपाय क्या है?

(क) जब मन खाली हो तब बाजार जाओ

(ख) जब मन लक्ष्य से भरा हो तब बाजार जाओ

(ग) जब मन खाली हो तब बाजार न जाओ

(घ) जब मन दुखी हो तब बाजार मत जाओ

उत्तर- (ख) जब मन लक्ष्य से भरा हो तब बाजार जाओ

प्रश्न – 3 बाजार का आमंत्रण कैसा होता है?

(क) मूक (मौन) और चाह जगाने वाला

(ख) मन को शांत कर देने वाला

(ग) मन में विराग पैदा करने वाला

(घ) दुकानदार को लाभ पहुँचाने वाला

उत्तर- (क) मूक (मौन) और चाह जगाने वाला

प्रश्न – 4 बाजार को सार्थकता कौन देता है?

(क) जो लोग बाजार से कुछ नहीं खरीदते हैं

(ख) जो यह जानते हैं कि उन्हें बाजार से क्या खरीदना है

(ग) जो यह नहीं जानते हैं कि उन्हें क्या खरीदना चाहिए

(घ) जो बाजार जाकर सब कुछ खरीदना चाहते हैं

उत्तर- (ख) जो यह जानते हैं कि उन्हें बाजार से क्या खरीदना है

प्रश्न-5 लेखक ने बाजार के जादू की तुलना किससे की है?

(क) चुंबक के जादू से

(ख) लोहे के जादू

(ग) हाथ के जादू से

(घ) दूकान के जादू से

उत्तर- (क) चुंबक के जादू से

प्रश्न – 6 लेखक के दूसरे मित्र ने बाजार से क्या खरीदा?

(क) ढेर सारा सामान

(ख) केवल एक सामान

(ग) केवल दो सामान

(घ) कुछ भी नहीं

उत्तर- (घ) कुछ भी नहीं

प्रश्न- 7 लोग बाजार से सामान किस हिसाब से खरीदते हैं?

(क) अपनी कमजोरी छिपाने के हिसाब से

(ख) पर्चेजिंग पावर के हिसाब से

(ग) दूसरों को दिखाने के हिसाब से

(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर- (ख) पर्चेजिंग पावर के हिसाब से

प्रश्न-8 मन को किस बात की छूट नहीं मिलनी चाहिए?

(क) मनन करने की

(ख) हिसाब लगाने की

(ग) चक्कर खाने की

(घ) मनमानी करने की

उत्तर- (घ) मनमानी करने की

प्रश्न-9 छह आने की कमाई होने के बाद भगत जी चूरन का क्या करते थे?

(क) अगले दिन के लिए रख लेते थे

(ख) बच्चों में मुफ़्त बाँट देते थे

(ग) दुकान पर दे देते थे

(घ) कूड़ेदान में फेंक देते थे

उत्तर- (ख) बच्चों में मुफ़्त बाँट देते थे

प्रश्न – 10 बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को लेखक ने क्या नाम दिया है?

(क) दर्शनशास्त्र

(ख) राजनीति शास्त्र

(ग) अनीतिशास्त्र

(घ) ज्योतिष शास्त्र

उत्तर- (ग) अनीतिशास्त्र

प्रश्न 1. पाठ में कितने ग्राहकों का उल्लेख है और उनके विषय में क्या बताया गया है ?

उत्तर- पाठ में तीन प्रकार के ग्राहकों का उल्लेख है-

लेखक का पहला मित्र – जो मामूली चीज लेने गए थे पर लौटे तो एकदम बहुत से बंडल पास थे।

लेखक के दूसरे मित्र – दोपहर के पहले बाज़ार गए थे किंतु शाम को खाली हाथ घर लौटे। उन्होंने सब कुछ खरीदने के लालच में बाज़ार से कुछ नहीं खरीदा।

लेखक के पड़ोसी भगत जी -वे बाजार जाते हैं। आँख खोल कर बाज़ार को देखते हैं किंतु रुकते हैं केवल पंसारी की दुकान पर, जहाँ से उनको जीरा व नमक खरीदना है। वे वांछित सामान खरीद कर घर लौट आते हैं।

प्रश्न 2. “लेखक के एक मित्र बाज़ार गए तो ढेर-सा सामान खरीद लाए, दूसरे मित्र पूरे दिन बाज़ार में रहकर भी खाली हाथ लौट आए।” दोनों के व्यवहार और सोचने के अंतर को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – दोनों मित्रों में अधिक अंतर नहीं है। पहला मित्र थोड़ा-सा सामान लेने गया, किंतु ढेर सारा सामान खरीद लाया। इसका अर्थ है कि उसका मन लोभ में फँस गया। उसका मन खाली था और जेब में पैसे भी थे। अतः जब तक पर्चेज़िंग पावर रही, जेब में पैसे रहे, बाज़ार के लुभावने जाल में फँसता चला गया और ढेर सारा सामान व्यर्थ ही बिना आवश्यकता के लाद ले आया। उसके सोचने और व्यवहार करने में अधिक अंतर नहीं था। वह जो सोचता था, जल्दी ही कर डालता था।

दूसरा मित्र दुविधाग्रस्त था। लोभ उसमें भी था। वह भी जाल में फँसा। उसे बाज़ार की हर वस्तु ने लुभाया, किंतु उसकी निर्णय-शक्ति कमज़ोर थी। वह इतना लोभी था कि हरेक वस्तु पर हाथ मारने के चक्कर में कुछ भी न ले पाया। किंतु मन उसका भी खाली था। वह बाज़ार से लाभ उठा न सका।

प्रश्न 3. ” मन खाली नहीं रहना चाहिए।” खाली मन होने से लेखक का क्या अभिप्राय है? क्रय-विक्रय पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ?

उत्तर- मन खाली नहीं रहना चाहिए का अभिप्राय है- बाज़ार में जाते समय मन में कोई निश्चित वस्तु खरीदने का लक्ष्य होना चाहिए। यूँ ही निरुद्देश्य नहीं होना चाहिए। यदि मन में कोई विशेष चाह नहीं होती तो ग्राहक व्यर्थ में ही वस्तुओं को बटोर ले जाता है। वह उनके रूप-जाल में फँसकर जो वस्तुएँ खरीदता है, उससे बाज़ार में एक व्यंग शक्ति का जन्म होता है। न उससे बाज़ार को लाभ होता है, न उसे बाज़ार से। ऐसी स्थिति में प्रदर्शन-वृत्ति बढ़ती है तथा बाज़ार में शोषण की शुरुआत होती है।

प्रश्न 4. सभी पर बाज़ार का जादू क्यों नहीं चल सकता है। भगत जी का उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।

उत्तर- बाज़ार में ज़बरदस्त जादू होता है, जो प्रायः सभी पर चल जाता है, परंतु कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका मन तृष्णा और संचय के लोभ से ऊपर उठ चुका होता है। ऐसे लोगों पर बाज़ार का आकर्षण कोई असर नहीं दिखा पाता।

लेखक के पड़ोस में एक भगत जी रहते थे। उनका नियम था कि वे छह आने से अधिक नहीं कमाते थे। वे चूरन बेचने का काम करते थे। उनका चूरन धड़ाधड़ बिक जाता था। ज्यों ही छह आने पूरे होते, वे शेष चूरन को बच्चों में मुफ्त बाँट देते थे। उन्हें पैसे जोड़ने की कोई इच्छा नहीं थी। वे चाहते, तो मालामाल हो सकते थे, किंतु मन में तृष्णा न थी। यही कारण है कि वे फैंसी बाज़ार में यों मस्ती से चले जाते थे मानो उनका कोई अस्तित्व ही न हो। वे बाज़ार में अपनी ज़रूरत का सौदा लेने जाते थे। अन्य वस्तुओं को देखते भी थे, किंतु उनकी ओर ललचाते न थे। बाज़ार का जादू उन्हें न जीत पाता था।

प्रश्न 5. पैसे की व्यंग्य-शक्ति एक साधारण जन को किस प्रकार चूर-चूर करती है और किनके सामने वह चूर-चूर हो जाती है?

उत्तर- पैसे में ज़बरदस्त व्यंग्य-शक्ति होती है। पैसे वाला व्यक्ति जब अपनी मोटर पर से धूल उड़ाता हुआ निकल जाता है, तो साधारण जन का हृदय लालसा, ईर्ष्या और तृष्णा से जल जाता है। उसे अपने अभाव सताने लगते हैं। उसे लगता है कि शेष सबके पास धन और अन्य साधन हैं, जबकि वह बेचारा गरीब है। इस तरह वह चूर-चूर हो जाता है।

दूसरी तरफ भगत जैसे लोग हैं जिन्हें न ही पैसों की तृष्णा है और न ही चीजों को बटोरने की स्पृहा उनके सामने  पैसे की व्यंग्य-शक्ति चूर-चूर हो जाती है।

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